आंबेडकरवादी चेतना और समकालीन कहानी


आंबेडकरवादी चेतना 

आंबेडकरवादी चेतना के बिंदु हैं - (i) बुद्ध और उनके धम्म को डॉ० आंबेडकर के दृष्टिकोण से स्वीकार करना । (ii) ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारना । (iii) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना । (iv) हिंदू देवी-देवताओं को काल्पनिक मानना तथा उनकी चर्चा भी नहीं करना । (v) जातिवाद, लिंगवाद और वर्चस्ववाद का विरोध करना । (vi) अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करना । (vii) अंधविश्वास, ढोंग और पाखंड की आलोचना करना । (viii) समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और प्रेम की भावना को धारण करना । (ix) शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो की प्रेरणा देना । (x) मैत्री, करुणा और शील का संदेश देना । [1] 


समकालीन आंबेडकरवादी कहानीकार एवं उनका कथा-साहित्य 
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बुद्ध शरण 'हंस' (8 अप्रैल 1942) 

बुद्ध शरण 'हंस' (8 अप्रैल 1942) जी की कहानियाँ आंबेडकरवादी दृष्टि से परिपूर्ण और सोद्देश्य हैं । उन्होंने बहुजन समाज के लोगों को अंधविश्वास और विषमता की भावना से मुक्त करके उन्हें सम्यक दृष्टि प्रदान करने तथा उनके मन में बौद्ध-आंबेडकरवादी चेतना का संचार करने हेतु योजनाबद्ध तरीके से व्यवस्थित लेखन किया है । उनके कहानी-संग्रह 'तीन महाप्राणी' (1996) में कुल तेरह कहानियाँ हैं, जिनमें छः कहानियों 'बुध सरना कहानी लिखता है', 'देव दर्शन', अरे अधम! मुझे मत बेच', 'अखंड कीर्तन', 'शिवजी का अंडा' और 'ब्रह्मज्ञान' में तथाकथित ब्राह्मणों के दुश्चरित्र, ढोंग, पाखंड और धूर्तता का यथार्थ चित्रण किया गया है । जबकि शेष सात कहानियों 'धिक्-धिक् रे ब्राह्मण', 'माता का भार', 'धम्म जीवन', 'बुद्धम शरणम गच्छामि', 'भोज के कुत्ते', 'कामरेड' और 'तीन महाप्राणी' में सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति हेतु प्रेरणा का समावेश है । इसी प्रकार 'हंस' जी के कहानी-संग्रह 'को रक्षति वेदः' (2003) में कुल अठारह कहानियाँ हैं, जिनमें पाँच कहानियाँ 'सर्वजीत', 'लक्खा मंदिर', 'जाती जाति नहीं जाती', 'कहिए दलित कवि जी' और 'दो भगवती' सामाजिक यथार्थ का चित्र प्रस्तुत करती हैं । जबकि शेष तेरह कहानियाँ 'फरिश्ते', 'अहिंसा परमो धम्म', 'फादर चकलाकल', 'गीदड़म्', 'हलबंदी', 'जानवर जी', 'गौ ब्राह्मण नमो-नमो', 'दो पैसे का भाईचारा', 'प्राण-प्रतिष्ठा', 'मिशनरी हूँ', 'जय अर्जक', 'जहर पोथी' और 'को रक्षति वेदः' बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के समतामूलक समाज की स्थापना करने हेतु सम्यक उपाय की ओर संकेत करती हैं ।

'धिक्-धिक् रे ब्राह्मण' कहानी में 'हंस' जी ने स्वतंत्रता के पश्चात सामान्य वर्ग और वंचित वर्ग के लोगों की स्थिति में हुये सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन को रेखांकित किया है । इस कहानी का नायक सुमन रवि बी.डी.ओ. के पद पर सेवारत था । उसका ड्राइवर टिकू तिवारी तथा चपरासी बुद्धन पंडित था । सुमन रवि को राजगृह जाना जरूरी था, लेकिन ड्राइवर नहीं आया था । इसलिए उसने स्वयं जीप स्टार्ट की और बुद्धन पंडित को साथ ले लिया । रास्ते में उसे जोर की टट्टी (शौच) लगी । वह अपनी गाड़ी की चाल बढ़ाते हुए कई किलोमीटर तक आसपास देखा, लेकिन उसे कहीं पानी नजर नहीं आया । जब उस अनैच्छिक क्रिया पर सुमन रवि का नियंत्रण नहीं रहा, तो उसने अंत में जीप रोक दी और बुद्धन पंडित को पानी लाने के लिए भेजा । बुद्धन को धीरे-धीरे जाते हुए देखकर उसने कहा, " पांडे ! दौड़कर जाओ । तू तो ऐसे चल रहा है, जैसे पाँव में मेहंदी लगाकर ससुराल जा रहा है । और सुन ! यदि दूर में पानी मिले, तो किसी हाड़ी, चुक्का में पानी लेते आना । यदि कोई बर्तन नहीं मिले, तो अपनी धोती को पूरा भिंगोकर पानी लेते आना । उतना से भी मेरा काम बन जाएगा । अब दौड़, पीछे मत ताकना । " [2] बुद्धन पंडित पानी खोजने के लिए तो चल दिया, लेकिन उसे अपनी दुर्दशा पर दुःख हो रहा था । वह सोच रहा था कि क्या दुर्दशा है ? अछूत शौच करता है और ब्राह्मण उसके लिए पानी खोजता है । यह भ्रष्टयुग नहीं, तो और क्या है ? बुद्धन पंडित को गुजरा जमाना याद आ रहा था, जब अछूत ब्राह्मण के पाँव पर पानी गिराने के भी योग्य नहीं था और वर्तमान में ब्राह्मण चमार के चूतड़ (नितंब) पर पानी गिराने के लिए विवश था । बुद्धन पानी की खोज में बहुत दूर निकल गया था । वह पसीना-पसीना हो गया था और हाँफ भी रहा था । अचानक उसे पानी दिखाई दिया, लेकिन उसके सामने पानी ले जाने की समस्या थी । 'हंस' जी के शब्दों में, " साहब का आदेश बुद्धन को स्मरण हो आया । उसने अपनी धोती खोली, पानी में भिंगोया और दौड़ता हुआ जीप को खोजता-निहारता भागा । भींगी हुई धोती से पानी और बुद्धन के शरीर से पसीना टप-टप चू रहा था । " [3] यह कहानी तथाकथित ब्राह्मणों को परिवर्तित समय के साथ अपने विचारों में परिवर्तन करने का संदेश देती है तथा उन्हें सचेत करती है कि वे वंचित वर्ग को निर्बल समझकर अब उन पर अत्याचार करने का प्रयास न करें । साथ ही, यह कहानी वंचित वर्ग के लोगों को अपने पद का भरपूर लाभ उठाने और अपने शत्रु-वर्ग को सबक सिखाने का भी संदेश देती है ।

'माता का भार' कहानी की कथावस्तु कमालपुर गाँव के ब्राह्मणों और उससे सटे हुये सुखदेव टोला के चमारों के बीच परंपरा संबंधी विवाद पर आधारित है । इस कहानी का नायक कमल नामक युवक है । वह बुद्धिजीवी और शालीन था । जब सुखदेव टोला के लोग कलकत्ता, बनारस, दिल्ली आना-जाना शुरू कर दिये, तो उस टोले में परिवर्तन की लहरें दौड़ने लगीं । सबसे पहले लोगों ने दूसरों की मजदूरी करना छोड़कर स्वतंत्र रोजगार करना शुरू कर दिया । स्वतंत्र रोजगार से लोगों में स्वतंत्र विचार पैदा होने लगे । फटे-पुराने चिथड़ों में लिपटी अर्धनग्न महिलाओं के शरीर पर सिंथेटिक की हरी-पीली साड़ियाँ लहराने लगी । जहाँ पहले उस टोले के बच्चे गाय, सूअर के पीछे घूमते नजर आते, अब वे लंबे-चौड़े झोले लेकर स्कूल आने-जाने लगे । परिवर्तन की लहर में लहराते लोगों ने मरी-मुवारी नहीं उठाने-फेंकने का संकल्प ले लिया । इसलिए जब कमालपुर गाँव के लुच्चा मिसिर की गाय मर गयी, तो वह अन्य ब्राह्मणों को साथ लेकर सुखदेव टोला में पहुँच गया । लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी । उस भीड़ में कमल भी उपस्थित था । एक प्रौढ़ ब्राह्मण ने निर्णयात्मक फैसला सुनाया, " लुच्चा मिसिर की गाय मर गयी है । इसे अपने लोगों से कहकर फेंकवा दो । जैसे पहले से होता आ रहा है, वह रिवाज कायम रहना चाहिए । " यह सुनकर कमल ने कहा, " सैकड़ों रिवाज, रीति, परंपरा को आप लोग तोड़ गये, उस पर विवाद नहीं है । आज भी अपने रीति-रिवाज को आप लोग धड़ल्ले से तोड़ रहे हैं । यह बात समझ में नहीं आती कि मरी गाय उठाने, फेंकने की परंपरा पर आप लोग क्यों अड़े हुये हैं ? " उस ब्राह्मण प्रौढ़ ने पूछा, " कौन सी परंपरा ब्राह्मणों ने तोड़ी है, जरा हम भी तो सुनें । " तो कमल ने कहा, " बूटन मिसिर अंडा बेचता है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? गेंदा पांडे चाय बेचता है । सबकी जूती प्याली ढोता है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? लुच्चा मिसिर खुद शराब बेचता है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? रीझन उपाध्याय चोरी के केस में चार साल से जेल की हवा खा रहा है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? जिस तरह नवलपुर बाजार में सीवन मिसिर की पिटाई हुई, कारण सबको मालूम है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? आप लोगों ने सैकड़ों परंपराएँ तोड़ दी, तब हम लोगों ने एक परंपरा तोड़ दी है । हम लोगों ने जानवर, जूते का कारोबार बंद कर दिया है । " [4] इन संवादों से स्पष्ट है कि इस कहानी का नायक कमल तर्कशील और क्रांतिकारी युवक है । वह बेगारी और गुलामी की प्रथा का विरोधी है । कमल घुमा-फिराकर कोई बात नहीं करता है, क्योंकि वह स्पष्टवादी है । उसने स्पष्ट शब्दों में कहा, " यह गाय तो लुच्चा मिसिर की है । माँ भी उसी की हुई । इस गाय का दूध उसने पीया । इसका बछड़ा उसने लिया । इसके गोबर का भी उपयोग लुच्चा मिसिर ने ही किया । आज जब गाय मर गयी, तब लुच्चा मिसिर के लिए उसकी माता भार बन गयी । माता के शव को अछूतों से उठवाना, फेंकवाना, चिरवाना, उसकी खाल उधेड़वाना, क्या यह गौ माता का अपमान नहीं है ? " [5] बुद्ध शरण हंस जी ने इस कहानी के माध्यम से तथाकथित ब्राह्मणों की निम्न मानसिकता पर कटाक्ष किया है । क्योंकि एक तो वे गाय (पशु) को माता कहते हैं, दूसरे उसी माँ की मृत्यु होने पर उसे कंधा देने से इनकार करते हैं । तथाकथित ब्राह्मण स्वच्छता और पवित्रता का ढोंग करते हैं । वे कामचोर हैं, इसलिए अपनी गौ-माता का भार स्वयं उठाने की बजाय श्रमिक लोगों के कंधों पर लादना चाहते हैं । यह कहानी वंचित वर्ग के लोगों को इस प्रकार के ढोंग से सावधान करती है ।

'धम्म जीवन' कहानी में हंस जी ने बौद्ध धम्म के अनुसार जीवन जीने की विशेषता का वर्णन किया । इस कहानी का नायक मंगल नामक युवक है, जो समझदार और जिज्ञासु है । धरमपुर गाँव में बीस परिवार भूमिहार, दस परिवार ब्राह्मण, तीस परिवार कुर्मी, दस परिवार अहीर, तेरह परिवार मुसलमान, चौबीस परिवार कोइरी, आठ-आठ परिवार कहार और बढ़ई रहते थे तथा उसके बगल में स्थित करमपुर टोला में बारह परिवार चमार, दस परिवार दुसाध, पाँच परिवार मेहतर और अठारह परिवार रजवार रहते थे । एक दिन करमपुर टोला में एक बौद्ध भिक्षु पधारे । उन्होंने 'नमो बुद्धाय - जय भीम' कहकर करमपुर के लोगों का अभिवादन किया । लोगों ने ऐसी वेशभूषा और ऐसा अभिवादन करने वाला व्यक्ति पहली बार देखा था । इसलिए वे अपनी समझ के अनुसार उन्हें योगी, सन्यासी, साधु, औघड़ इत्यादि समझ रहे थे । बौद्ध भिक्षु ने अपना परिचय देते हुए कहा, " पहले आप यह जान लें कि मैं बाबा नहीं हूँ । न मैं योगी हूँ, न सन्यासी, न औघड़, न साधू, न साधक, न साईं । मैं बौद्ध धम्म का प्रचारक हूँ । मुझे 'भन्ते' कहें, तो अच्छा हो । भन्ते का मतलब होता है बौद्ध धम्म का प्रचारक भिक्षु । भिक्षु का मतलब हिंदू धर्म में भीख माँगने वाला होता है, किंतु बौद्ध धम्म में भिक्षु का मतलब शिक्षा देने वाला होता है । " [6] मंगल ने बौद्ध भिक्षु के समक्ष गौतम बुद्ध, ज्योतिराव फुले तथा बाबा साहेब आंबेडकर के बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की, तो बौद्ध भिक्षु ने कहा, " गौतम बुद्ध, ज्योतिराव फुले तथा बाबा साहेब आंबेडकर इन तीनों महापुरुषों ने भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा स्वर्ग, नरक को बिल्कुल झूठ और गरीबों को ठगने वाली बात बताया है । ये सब अंधविश्वास हैं । इन सब अंधविश्वासों से आप बचें, दूर रहें । " यह सुनकर दूसरे युवक ने पूछा, " किंतु ब्राह्मण लोगों को तो दिन-रात भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक की ही बात बतलायी जाती है । दिन-रात मंदिर, पूजा, यज्ञ की रट लगाये रहते हैं । " इस पर बौद्ध भिक्षु ने कहा, " जिसका जो व्यवसाय है, वह रात-दिन वही काम करता है । इस व्यवसाय से उस व्यक्ति की जीविका चलती है । बनिया रात-दिन दुकान में बैठकर नमक, तेल, चावल बेचता है । न बेचे, तब वह भूखों मरेगा । किसान रात-दिन खेत-खलिहान में लगा रहता है । यदि किसान खेत-खलिहान में न लगे, तो वह भूखों मरेगा । मिल मालिक रात दिन मिल चलाने में व्यस्त रहता है । यदि वह न चलाए, तब वह भूखों मरेगा । इसी तरह भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक ब्राह्मणों का रोजगार है । इन सबके प्रचार से उनकी जीविका चलती है । यदि इन सबको वह छोड़ देगा, तब वह भी भूखों मरेगा या तुम्हारी तरह कड़ी मेहनत करके पेट पालना पड़ेगा । " [7] बुद्ध शरण हंस जी की यह कहानी तथाकथित ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित आत्मा, परमात्मा और भाग्य संबंधी अंधविश्वास का पर्दाफाश करती है तथा धम्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है ।

'बुद्धं शरणं गच्छामि' कहानी के माध्यम से 'हंस' जी ने हिंदू देवी-देवताओं के प्रति आस्था न रखने और मंदिर में प्रवेश करके पूजा-पाठ, कीर्तन-भजन न करने का संदेश दिया है । साथ ही, उन्होंने मंदिर की बजाय शिक्षालय खोलने के लिए प्रेरित किया है । इस कहानी में अमर और कुंदन दोनों मित्रों ने मिलकर जगजीवन नगर के वंचित-वर्ग के लोगों को जागरूक किया तथा परिणामस्वरूप गाँव के नवयुवकों ने दुर्गा-मंदिर पर कब्जा करके 'रविदास शिक्षा सदन' की स्थापना कर दी । बुद्ध शरण 'हंस' जी के शब्दों में, " महीने के अंत-अंत दुर्गा मंदिर पर जगजीवन नगर के नवयुवकों ने कब्जा कर लिया । 'रविदास शिक्षा सदन' का बोर्ड मंदिर में लटक गया । दुर्गा की जगह संत रविदास, बाबा साहेब आंबेडकर का चित्र लगा दिया गया । अंधविश्वास की जगह आत्मविश्वास, पाखंड की जगह ज्ञान ने ले लिया । पुरुषों को कुंदन, महिलाओं को कमली ने रात-दिन समझाया । जय भीम, जय रविदास कंठ-कंठ से निकलने लगा । रविदास शिक्षा सदन में बुद्ध, ईशा, रविदास, कबीर दास, ज्योतिराव फुले, नारायण गुरु, आंबेडकर, जगदेव प्रसाद, ललई सिंह यादव के चित्र लग गये । " [8] कहानी के अंत में विधुर कुंदन ने विधवा कमली से विवाह करने का प्रस्ताव समाज के बीच रखा, तो कुछ लोगों ने आपत्ति जताते हुए कहा, " बड़ी अजीब बात है कुंदन बाबू ! कमली विधवा है, दुसाध जाति की है । आप विधुर हैं, चमार हैं । यह असंभव है । " यह सुनकर अमर ने कहा, " हम न दुसाध हैं, न चमार, न पासी, न डोम, न धोबी, न मुसहर । हम सभी संत रविदास के वंशज हैं, बाबा साहेब आंबेडकर के सेनानी भीमबंधु हैं । हम हिंदू नहीं हैं, बौद्ध हैं । जब तक हम हिंदू रहेंगे, दुसाध, चमार, कोइरी, गोवार बने बिखरे रहेंगे । हम बौद्ध बनकर एक होंगे, नेक होंगे । " [9] अंततः कथित चमार उपजाति के युवक कुंदन का विवाह कथित दुसाध उपजाति की युवती कमला के साथ हो गया । इस प्रकार यह कहानी अंतर्जातीय/ अंतर्-उपजातीय विवाह के लिए प्रोत्साहित करती है ।

'भोज के कुत्ते' कहानी में 'हंस' जी ने कथित ब्राह्मणों द्वारा भोज खाने और चुराने की प्रवृत्ति का यथार्थ चित्रण किया है । तीनकौड़ी साव के यहाँ भोज था । साव के पिता का देहांत हो गया था । तेरही (ब्राह्मणभोज) का आरंभ करते हुए कथित ब्राह्मण पत्तलों पर पड़े लड्डू-पूरी पर टूट पड़े । वे सब खा भी रहे थे और अपने झोले में खाना चुरा भी रहे थे । भोज खिलाने वाले युवकों ने उनका यह बर्ताव देखकर वहाँ काँव-काँव कर रहे कौवों की ओर संकेत करते हुए कथित ब्राह्मणों को चूतिया और हरामजादा कहकर उनका उपहास किया । वे नाम के ब्राह्मण समझ गये कि चूतिया और हरामजादा जैसे शब्द उन्हीं के लिए प्रयोग किये जा रहे हैं । साथ ही, डंडा से मारने की भी बात की जा रही है, तो उन्होंने वहीं पर खड़े साव से इस संबंध में शिकायत की । साव कुछ जवाब देने वाला था कि बीच में एक बूढ़े ब्राह्मण ने दाँत किटकिटाकर कहा, " साव ! जवाब दो । तुमने हमें खाने के लिए बुलाया था या बेइज्जत करने के लिए ? " सावजी का तेवर बदल गया । उसने चिल्लाकर ब्राह्मणों से पूछा, " यदि यही बात मैं तुम लोगों से पूछूँ, तो क्या जवाब दोगे ? " बूढ़े ब्राह्मण ने तैश में कहा, " पूछो, क्या पूछना है ? तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है । " साव जी ने पूछा, " मैंने तुम लोगों को खाने के लिए बुलाया था या चुराने के लिए ? " कई ब्राह्मण एक साथ पूछ बैठे, " क्या हम लोग चोर हैं ? [10] यह सुनकर साव का तेवर बदल गया । उसने भी अधिक विनती करना उचित नहीं समझा और कहा, " यदि यही बात मैं तुम लोगों से पूछूँ, तो क्या जवाब दोगे ? " जब उनके झोले की तलाशी लेने की बात की गयी, तो सब के सब भाग खड़े हुये । भागते समय उनके झूले में भरे हुये लड्डू-पूरी सब बिखर गये । चूँकि उन्होंने आधा-अधूरा खाया था, इसलिए उनके पत्तल पर लड्डू-पूरी पड़े थे, जिसे कुत्ते खाने लगे थे । एक गृहस्थ ने चिल्लाया, " मारो-मारो, देखो साले कुत्तों ने यज्ञ भ्रष्ट कर दिया । " लेकिन साव ने बहुत ही गंभीरता और शालीनता के साथ कहा, " खाने दो भाई, खाने दो । जो कुत्ते थे, वे भाग गये । असली संत ये ही हैं । ये सिर्फ खाएँगे । एक दाना भी ये चुराकर नहीं ले जाएँगे । जिसका चरित्र उत्तम है, वही ब्राह्मण है । जो ठग है, पाखंडी है, बातुनी है, लम्पट है, लुच्चा है, वह ब्राह्मण तो क्या, इन कुत्तों से भी गया गुजरा है । " [11] 'हंस' जी की यह कहानी प्रत्यक्ष रूप से कथित ब्राह्मणों के भ्रष्ट आचरण को चित्रित करती है तथा परोक्ष रूप से तेरही (ब्राह्मणभोज) का विरोध करती है । कहानी के अंत में साव को भी यह अनुभव हो गया कि कथित ब्राह्मणों के नाम पर भोज खिलाने की परंपरा बिल्कुल गलत है ।

'काॅमरेड' कहानी में बुद्ध शरण हंस जी ने भारतीय मार्क्सवाद को वंचित वर्ग हेतु एक षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत किया है । दलजीत पासवान का ऊँचा बनता हुआ मकान देखकर लुच्चा मिसिर ने रणछोड़ सिंह से मिलकर कूटनीति की । रणछोड़ सिंह ने दलजीत के पास जाकर 'नमस्ते काॅमरेड' का संबोधन करते हुए लाल-सलाम ठोका । उसी समय जंगबहादुर रविदास पहुँचा । उसने दलजीत पासवान और रणछोड़ सिंह दोनों को संबोधित करते हुए 'जय भीम भाई लोग' कहा । दलजीत ने तो प्रत्युत्तर में 'जय भीम भाई जय भीम' कहा, लेकिन रणछोड़ सिंह के मन में आग लग गयी । दलजीत पासवान और जंगबहादुर रविदास दोनों सच्चे आंबेडकरवादी मशीनरी थे । उन दोनों ने लुच्चा मिसिर और रणछोड़ सिंह की चाल को भलीभाँति समझ लिया था । आपस में वार्तालाप करते समय दलजीत ने भारतीय मार्क्सवादियों के बारे में बताया कि कम्युनिस्ट नेता कम्युनिज्म की ट्रेनिंग लेने रूस और चीन जाते हैं, लेकिन अभी तक किसी अछूत परिवार के काॅमरेड को इन्होंने ट्रेनिंग के लिए रूस और चीन जाने नहीं दिया । यह सुनकर जंगबहादुर रविदास ने कहा, " जिन झोपड़ियों पर लाल झंडे लगे हुये हैं, जरा उनके भीतर झाँककर देखो, खाने को अन्न नहीं, पहनने को वस्त्र नहीं, जीने को रोजगार नहीं । शिक्षा नहीं, सफाई नहीं । प्रगति के प्रति न जानकार, न प्रयत्नशील । जिन झोपड़ियों पर लाल झंडे लगे हुये हैं, उन झोपड़ियों से अशिक्षा, अभाव, कुसंस्कार की बदबू आती है । इस देश में गरीबों के लिए कम्युनिज्म एक षड्यंत्र है भाई । गरीबों को गरीब बनाये रखने का षड्यंत्र, अशिक्षित को अशिक्षित बनाये रखने का षड्यंत्र । अपनी प्रगति के प्रति लापरवाह बनाकर किसी बनावटी समस्या में उलझाये रखने का षड्यंत्र । " दलजीत पासवान ने भी उसके समर्थन में मार्क्सवादियों का चरित्र-विश्लेषण करते हुए कहा, " ये काॅमरेड धर्म को विष कहते हैं, मगर सभी दकियानूस हिंदू हैं । ऊपरी तौर पर ये छुआछूत की निंदा करते हैं, किंतु किसी सवर्ण काॅमरेड ने न मनुस्मृति की होली जलाई जैसा कि बाबा साहेब आंबेडकर ने जलाई थी । वेद, पुराण, स्मृति, रामचरितमानस जैसे छुआछूत, जातिवाद फैलाने वाली पुस्तकों की निंदा कोई सवर्ण कम्युनिस्ट नहीं करता, फाड़ना और जलाना तो दूर की बात है । ये सवर्ण कम्युनिस्ट जाति में ही जीते हैं और जाति में ही मरते हैं । भारतीय कम्युनिस्ट के लोग 'बगुला काॅमरेड' हैं । मछलियों को सुरक्षा का उपदेश देकर उन्हीं का भक्षण करने वाले । " [12] अगली सुबह लुच्चा मिसिर जंगबहादुर रविदास के घर आया और अभिवादन में 'जय श्रीराम रविदास भाई !' कहा, तो जंगबहादुर ने मुस्कुराकर कहा, " जय भीम मिसिर जी ! " [13] यह सुनकर लुच्चा मिसिर का मुँह कड़वा हो गया । वह मन ही मन उसे गाली देने लगा । इस प्रकार दोनों आंबेडकरवादी मिशनरियों ने उन दोनों पाखंडियों को उनकी चाल में सफल नहीं होने दिया । रणछोड़ सिंह चाहता था कि दोनों मिशनरी मार्क्सवादी आंदोलन से जुड़कर अपने मुख्य आंदोलन से भटक जाएँ । लुच्चा मिसिर चाहता था कि वे दोनों भक्ति-भजन में लीन होकर मंदिर-निर्माण करने का प्रयोजन करें, जिससे कि लुच्चा मिसिर का धंधा चल सके । 'हंस' जी की यह कहानी वंचित-वर्ग के लोगों को छद्म मार्क्सवाद और हिंदूवाद से सावधान रहने तथा बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के मिशन को पूरा करने हेतु समर्पित रहने की शिक्षा देती है ।

'तीन महाप्राणी' कहानी एक ऐसी कहानी है, जिसमें तीन नायक हैं और तीनों जानवर हैं । एक है सुअर, दूसरा है कुत्ता, तीसरा है गदहा । वैसे तो, हिंदी में प्रेमचंद-युग से ही कहानी का स्वरूप मनुष्य-पात्रों को आधार बनाकर सृजित किया जाने लगा । पहले की कहानियों की तरह पशु-पक्षियों को मनुष्यों से संवाद करते हुए चित्रित करना कहानीकारों को स्वीकार नहीं था । लेकिन जब कहानी में मनुष्य-पात्रों की जगह पशु हों तथा वे मनुष्य के प्रतीक हों, तो बात कुछ और हो जाती है । 'तीन महाप्राणी' कहानी में सुअर ब्राह्मण का रूपक है, कुत्ता क्षत्रिय का रूपक है और गदहा वैश्य का रूपक है । कहानीकार बुद्ध शरण 'हंस' जी ने उक्त तीनों पशुओं को जिन रूपकों से संबोधित किया है, उसका धार्मिक आधार है । हिंदू धर्म वर्ण-व्यवस्था पर आधारित धर्म है । ब्राह्मण-वर्ण के लोग सुअर की भाँति व्यवहार करते हैं । वे लोग स्वयं तो निकृष्ट कर्म में लीन रहते हैं, लेकिन वंचित-वर्ग के लोगों से छुआछूत और भेदभाव का बर्ताव करते हैं । क्षत्रिय-वर्ण के लोग कुत्ते की भाँति व्यवहार करते हैं । वे लोग  ब्राह्मणों के संकेत पर अन्य वर्णों के साथ कुत्तों की भाँति लड़ने के लिए तत्पर हो जाते हैं । वैश्य-वर्ण के लोग गदहे जैसा व्यवहार करते हैं । वे ब्राह्मण-वर्ण और छत्रिय-वर्ण की सेवा में लगे रहते हैं । वे हिंदू धर्म का बोझ गदहे की भाँति चुपचाप ढोते रहते हैं । तीनों पशुओं के परस्पर वार्तालाप से हिंदू धर्म, समाज और संस्कृति के अनेक भेद खुलते हैं । सुअर ने शूद्रों की ब्राह्मण-भक्ति का लंबा उदाहरण देते हुए कहा, " आज बाल ठाकरे शूद्र हमारे सनातन धर्म की रक्षा के लिए आकाश-पाताल एक कर रहा है । आडवाणी शूद्र सनातन धर्म का विजय-पताका लेकर हमारा विजय-रथ हाँक रहा है । विवेकानंद शूद्र ने देश से विदेश तक सनातन धर्म का डंका बजाया । कल्याण सिंह शूद्र ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए बजरंग-दल सेना ही बना लिया है । इस बजरंग-दल सेना के आगे रामविलास पासवान की दलित-सेना और कांशीराम का बहुजन समाज पिद्दी है पिद्दी । बाल ठाकरे शूद्र की शिव-सेना विनय कटियार का बजरंग-दल ने बाबरी मस्जिद को चुटकी से मसल दिया । सभी शूद्र ही तो थे, जिन्होंने हमारे सनातन धर्म की रक्षा के लिए अरबों-खरबों रुपए 'राम-ईंट' के रूप में दान भी दिये और बाबरी मस्जिद को धूल में मिला दिये । हम ब्राह्मण तो सिर्फ तमाशा देख रहे थे । शूद्र जगजीवन राम ने हमारे सनातन धर्म की रक्षा के लिए क्या नहीं किया ? हमारे कहने पर ही तो वह डॉ० आंबेडकर का विरोध करता रहा । " [14] यह सुनकर कुत्ते ने अत्यंत रोष और दुःख में अपनी जाति का पक्ष सुअर के समक्ष रखते हुए कहा, " ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र के बहकावे में आकर क्षत्रिय राजाओं ने बौद्ध सम्राट बृहद्रथ का सर कलम कर बौद्धों का राज बर्बाद कर दिया । ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए क्षत्रियों ने ब्राह्मणों का इशारा पाकर महाप्रतापी सम्राट हर्षवर्धन को पराजित करने में कुछ भी बाकी नहीं रखा । ब्राह्मण शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और मंडन मिश्र के कहने पर क्षत्रियों ने लाखों बौद्धों की गर्दनें उतार दीं । ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए ब्राह्मणों के कहने पर क्षत्रियों ने बौद्ध साम्राज्य (मानवतावाद) समाप्त कर दिया और हैवानियत पर आधारित ब्राह्मण धर्म (सनातन धर्म) की पुनर्स्थापना कर दी । यह सब अन्याय, अनर्थ क्या क्षत्रियों ने अपने लिए किया है ? ब्राह्मण पुष्यमित्र द्वारा संकलित मनुस्मृति को क्षत्रियों ने क्या अपने लाभ के लिए काल में लागू किया ? ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए ही तो शत्रुओं ने यह सब कुकर्म किया है । " [15] गधे ने बड़ी गंभीरता से अपनी बात कहा, " बबूल के काँटों को तोड़ने से तो बेहतर है कि बबूल को जड़ से काट दें । आर०एस०एस०, विश्व हिंदू परिषद तथा बजरंग दल ने तो घोषणा कर दिया कि भारतवर्ष का बँटवारा होने के बाद अब इस देश में कोई मुसलमान है ही नहीं । इन लोगों ने मुसलमानों को महमदिया हिंदू कहना शुरू कर दिया है । जैसे हम लोग वर्षों से इस देश के मूलनिवासियों को शूद्र और अछूत हिंदू कहते-कहते उन्हें सचमुच का थर्ड क्लासी हिंदू बनाकर अपने आप में पचा गये, उसी तरह से मुसलमानों को महमदिया हिंदू, ईसाइयों को मसीही हिंदू कहकर अपने आप में पचा जाने की जरूरत है । " [16] 'हंस' जी की यह कहानी तथाकथित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोगों द्वारा इस देश के मूलनिवासियों के प्रति किये जाने वाले षड्यंत्र का खुलासा करती है । इस कहानी का सूक्ष्म अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कहानीकार बुद्ध शरण 'हंस' जी को हिंदू धर्म और हिंदू धर्म से संबंधित धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक संगठनों के षड्यंत्रों की विशेष जानकारी है । 'हंस' जी इस कहानी के माध्यम से इस देश के मूलनिवासियों को शत्रुओं के षड्यंत्र से अवगत कराये हैं, ताकि वे सतर्क होकर स्वयं को सुरक्षित रख सकें ।

'फरिश्ते' कहानी का कथानक यह है कि रहीमपुर गाँव में नये-नये मास्टर तारा किरण बौद्ध नियुक्त हुये थे । वहाँ स्कूल में आया के रूप में चाँद-हसीना नाम की मुसलमान महिला थी, जिसे गाँव के लोग बुआ कहते थे । दोनों ने मिलकर उस गाँव में शैक्षिक क्रांति ला दी । दिन में लड़के-लड़कियों की पढ़ाई होती थी और रात में पुरुषों-महिलाओं की पढ़ाई । सामाजिक कार्य करते-करते मास्टर जी और बुआ दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे थे । इस बात की भनक गाँव वालों को भी हो गयी थी । एक दिन रमजान अली के दालान में पाँच-दस लोग बैठकर आपस में बातचीत कर रहे थे । रमजान अली ने कहा, " मास्टर जी अविवाहित हैं । बुआ बेवा है । दोनों हमउम्र हैं । नेक काम में दोनों चाँद-सूरज बने हुये हैं । दोनों अपनी जिंदगी में भी चाँद-सूरज बन जाएँ, तो क्या हर्ज है ? " यह सुनकर दयानंद बौद्ध ने आशंका प्रकट की, " दोनों की राय पहले जान ली जाए । दोनों हो सकता है राजी न हों । " मौलवी जी ने कहा, " मगर मास्टर जी बौद्ध हैं, बुआ मुसलमान है । " इस पर रमजान अली ने कहा, " अरे इंसान तो हैं न दोनों । बौद्ध और मुसलमान वे दोनों अपने लिए होंगे । हम लोगों के लिए तो दोनों फरिश्ते हैं, फरिश्ते । फरिश्तों की न जात होती है, न घेराबंदी हो सकती है । " [17] बुद्ध शरण 'हंस' जी की ने इस कहानी में लड़के-लड़कियों के साथ अनपढ़ पुरुषों और महिलाओं के लिए भी शिक्षा को महत्वपूर्ण और अनिवार्य दिखाया है । यह कहानी दो धर्मों के लोगों के बीच वैवाहिक-संबंध बनाने का प्रबल समर्थन करती है । इस कहानी में विधवा-पुनर्विवाह को स्वीकृति दी गयी है तथा अविवाहित मास्टर जी ने विधवा बुआ से विवाह करके वैवाहिक स्तर (अविवाहित और विधवा के बीच संबंध) की योग्यता-अयोग्यता को निरर्थक सिद्ध कर दिया है ।

'अहिंसा परमो धम्म' कहानी में रत्ना नाम की लड़की के माता-पिता का देहांत हो चुका था । वह अपनी नानी के साथ एक बौद्ध विहार के पास रहती थी, जिसमें भिक्षु शीलपुत्र उपासकों को धम्मोपदेश दिया करते थे । रत्ना जब स्कूल जाती, तो कुछ मनचले उसके साथ छेड़खानी करते थे । एक दिन तो उन्होंने हद कर दी । रात्रि का सुनसान प्रहर था । अचानक भिक्षु शीलपुत्र के कानों में चीख सुनाई पड़ी - 'माँ बचाओ । भंते जी बचाओ ।' वे समझ गये कि चीख रत्ना की है और उस पर विपत्ति आ पड़ी है । उन्होंने अपने पास अंधेरे में लाठी-डंडा टटोलना चाहा, जो नहीं मिला । उन्हें सब्जी काटने वाला चाकू हाथ लग गया । वे उसी को लेकर आहिस्ते से रत्ना के घर के दरवाजे पर पहुँचे । दरवाजा खुला था । दुष्कर्मियों ने कमजोर दरवाजे को धक्का देकर तोड़ डाला था । दो बदमाश रत्ना को घसीट रहे थे । भिक्षु ने पीछे से एक बदमाश के पंजर में चाकू घोंप दिया । चाकू पेट के अंदर धँसते ही एक बदमाश जमीन पर गिरकर छटपटाने लगा, दूसरा बदमाश रत्ना को छोड़कर बाहर भाग निकला । जब वहाँ ग्रामीण इकट्ठे हुये, तो ग्रामीण ने पूछा, " भंते ! इस बदमाश की हत्या किसने की है, रत्ना ने या आपने ? " भिक्षु ने पूरे विश्वास से निर्भयपूर्वक कहा, " मैंने । " ग्रामीण ने फिर पूछा, " किंतु आप तो 'पाणातिपाता वेरमणि मनीषिका सिक्खापदं समादियामि' (प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।), अहिंसा परमो धम्म (अहिंसा पवित्र धम्म है ।) का पाठ पढ़ाते रहे हैं । फिर यह हिंसा ? " यह सुनकर भिक्षु शीलपुत्र ने हिंसा के संबंध में बुद्ध वचन की व्याख्या की और कहा, " अपनी जान देकर या आततायी की जान लेकर किसी की या अपनी जान की रक्षा करना हिंसा है । किसी आततायी को अपनी या दूसरे की जान या इज्जत लूटने देना अहिंसा नहीं है । " दूसरे ग्रामीण ने टिप्पणी की, " भंते जी ! खून करना भी अहिंसा है, यह पहला अनुभव सुन, देख रहा हूँ । " तब भिक्षु शीलपुत्र ने लोगों को समझाया, " यह खून और हत्या तो परिणाम हुआ उपासक । कारण हुआ आततायी का अत्याचार । अकारण हिंसा, हिंसा है । जहाँ अपनी या दूसरे की जान, इज्जत बचाने के लिए हिंसा ही एक विकल्प है, वहाँ हिंसा अनिवार्य है और यह भी अहिंसा ही है । " [18] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी अहिंसा के सिद्धांत की सम्यक विवेचना प्रस्तुत करती है । अहिंसा का तात्पर्य यह नहीं है कि किसी शत्रु के द्वारा अपने जान-माल की हानि होने पर भी व्यक्ति चुपचाप तमाशा देखता रहे । अहिंसा का तात्पर्य है - अकारण हिंसा न करना । यदि अपने प्राण और सम्मान की रक्षा के लिए किसी की हिंसा (हत्या) करनी पड़े, तो वह हिंसा नहीं है । बल्कि इस प्रकार की हिंसा भी अहिंसा की श्रेणी में ही आती है ।

'फादर चकलाकल' कहानी 'मैं' शैली (आत्मकथात्मक शैली) में लिखी गई है, लेकिन इस कहानी का नायक 'मैं' नहीं है । बल्कि 'मैं' (लेखक) कहानी का एक गौण पात्र है, जिसे उप-नायक भी नहीं कहा जा सकता है । कहानी का नायक फाॅदर चकलाकल के०आर० मिशन बेतिया का एक कार्यकर्ता था, जिसका सर्विस एरिया रतनपुरवा था । पचास वर्ष का फाॅदर चकलाकल साइकिल से 95 किलोमीटर की दूरी तय करके अपना मिशनरी कार्य किया करता था । लेखक बुद्ध शरण 'हंस' जी ने फाॅदर चकलाकल के कार्यों को निकट से देखना उचित समझा, इसलिए एक दिन वे रतनपुरवा मिशन फार्म पर गये । वहाँ फाॅदर चकलाकल का आश्रम था, जिसमें क्षेत्र के स्त्री-पुरुषों को शिक्षित किया जाता था । 'हंस' जी के शब्दों में, " आश्रम के पास बाँस, खर की सुंदर झोपड़ी बनी थी, जिसमें पचास-साठ स्त्री-पुरुष बैठे पढ़-लिख रहे थे । यह था - 'जागृति स्कूल' । फादर चकलाकल ने सभी लोगों से मेरा परिचय कराया । ये रतनपुरवा गाँव के लोग थे । मैंने उपस्थित स्त्री-पुरुष से कुछ पूछा । जो कुछ जानकारी मिली, वह मेरी कल्पना से बाहर की बात थी । रतनपुरवा गाँव में सभी टोलों को मिलाकर सौ परिवार रहते हैं । पास में स्कूल नहीं है । एक भी स्त्री-पुरुष बच्चे-बच्चियाँ यहाँ शिक्षित नहीं थे । फादर चकलाकल ने इसी झोपड़ी में स्त्री-पुरुष सबको शिक्षित किया है । आज गाँव की साठ वर्ष की बूढ़ी भी अपना दस्तखत करती हैं । ... लोगों ने यह भी बताया कि गाँव में प्रत्येक काम के लिए सेना बनी हुई है । जैसे - शिक्षा सेना, सफाई सेना, रोजगार सेना, उत्पादन सेना, सुरक्षा सेना, स्वास्थ्य सेना आदि । सभी सेना के अलग-अलग कमांडर हैं । पुरुष भिन्न-भिन्न सेना के सिपाही हैं । " [19] एक दिन फाॅदर चकलाकल लेखक के पास आया और बताया कि बगहा में करीब एक हजार बंधुआ मजदूर हैं । उन बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के लिए फाॅदर चकलाकल ने प्रशासन से लेकर सरकार तक बहुत दौड़-धूप की थी, जिसका मुकद्दमा उच्चतम न्यायालय में चल रहा था । उसने कहा, " ये ब्राह्मण, लोगों को अछूत बनाए हुये हैं, पिछडे़ बनाये हुये हैं, अशिक्षित-गँवार बनाये हुये हैं, अंधविश्वासी-अंधभक्त बनाये हुए हैं । ये जनता को दबाकर रखे हुये हैं । इनकी दादागिरी आम जनता के सीधेपन पर चलती है । हम लोग आम जनता को शिक्षित करते हैं, उन्हें समानता, भाईचारा की शिक्षा देते हैं । उन्हें जागरुक करते हैं, उन्हें रोजगार सिखाते हैं । यही इनकी चिढ़ है । ये कहते हैं, हम सबको ईसाई बनाते हैं । आपने तो आश्रम के पास रतनपुरवा गाँव में बहुत से लोगों को देखा, किसी को ईसाई पाया । वे कल भी हिंदू नहीं थे, आज भी हिंदू नहीं हैं । वे कल भी थारू आदिवासी थे, आज भी थारू आदिवासी हैं । कल वे सोए थे, आज जागे हुये हैं । " यह सुनकर 'हंस' जी को फाॅदर चकलाकल में सच्चे आंबेडकरवादी मिशनरी के गुणों का अनुभव हुआ । 'हंस' जी के शब्दों में, " मुझे फादर चकलाकल की बातें सुनकर अनुभव हुआ कि ये व्यक्ति भले क्रिश्चियन मिशनरी हैं, किंतु यह बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर की विचारधारा के कार्यपालक एजेंट हैं । बाबा साहेब ने यही तो कहा था - शिक्षित करो, संघर्ष करो, संगठित करो । पूरे बगहा की अशिक्षित जनता को शिक्षित करने में ये लगे हुये हैं । सबको जीने के लिए संघर्ष करना सिखा रहे हैं । अपनी प्रगति, सुरक्षा, सम्मान के लिए सबको संगठित कर रहे हैं । बाबा साहेब आंबेडकर के अनुयायी इन सब कार्यों का तोता-पाठ करते हैं, मगर करते नहीं है । वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं । " [20] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी आंबेडकरवादियों को आंदोलन के सही दिशा का ज्ञान कराती है । यह कहानी इस झूठ से भी पर्दा उठाती है कि ईसाई मिशनरी वंचित-वर्ग के लोगों और आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए ही उनके बीच में जाते हैं ।

'गीदड़म्' कहानी में यमुना और जगदीप दो जागरूक नवयुवक अपने गाँव में संघर्ष-मोर्चा चलाते थे । दोनों नवयुवकों ने 'समता सैनिक दल' के कैडर में एक-दो बार भाग लिया था । 'बामसेफ' की एक-दो बैठकों में भी उन दोनों ने भाग लिया था । वर्तमान में वे महामना ज्योतिराव फुले और डॉ० आंबेडकर की विचारधारा में तल्लीन थे । एक दिन उन दोनों ने बाजार की ओर जाते हुए अपने गाँव के जुगल यादव, उसकी पत्नी और उसकी पुत्री को बदहवास हालत में देखा । पूछने पर मालूम हुआ कि जुगल यादव की पुत्री मुनिया घर में अकेली थी, बिल्टू सिंह और फेंकू सिंह दो मनचलों ने एकांत पाकर दिन में ही घर में घुसकर मुनिया के साथ बलात्कार कर दिया था । जगदीप और यमुना जानते थे कि केस-मुकद्दमा करने से कोई लाभ होने वाला नहीं था । दोनों को पता था कि महिला कैदियों के साथ थाने में आये-दिन बलात्कार होता रहता है । उन्हें संदेह था कि बिलटू और फेंकू ने थाने में पहुँचकर दरोगा को रुपये थमा दिये होंगे, इसलिए न्याय की उम्मीद नहीं है । जगदीप और यमुना ने अपने संघर्ष-मोर्चा के सदस्यों की बैठक बुलायी । एक नवयुवक ने पूछा, " मामला क्या है, यह तो बताइए ? " तो यमुना ने कहा, " युगल यादव की बच्ची मुनिया को बिलटू और फेंकू ने दिन-दृष्टि बलात्कार किया है और दोनों कुत्ते थाना-पुलिस से मिलकर हीरो बनकर गाँव में घूम रहे हैं । " यह सुनकर एक नवयुवक ने कहा, " क्यों नहीं बिलटुआ और फेंकुआ दोनों की बहन का बलात्कार कर दो ? बोलो, तो कल ही घर में घुसकर बलात्कार कर देते हैं । जैसे को तैसा जवाब दे दो । " जगदीप ने नवयुवकों को समझाया कि किसी की भी माँ-बहन को अपनी माँ-बहन की प्रतिष्ठा देना हमारा आदर्श है । अंततः विचार-विमर्श करने के बाद एक नवयुवक ने कहा, " तब कर दोगे गीदड़म्।  " जमुना ने आश्चर्य के साथ पूछा, " मतलब ? " तो उस नवयुवक ने कहा, " दौड़ा कर मार दो उन सालों को, गीदड़ की तरह । " [21] इस प्रकार उसने गीदड़म् का अर्थ स्पष्ट किया । इस नये शब्द की खोज पर उसे भी प्रसन्नता हुई । सबने उस प्रतीक शब्द को स्वीकार किया । गीदड़ का जवाब 'गीदड़म्' । जब यमुना ने पूछा, " कौन करेगा गीदड़म् ? " तो सब सोचने लगे । अंत में यमुना ने ही योजना बनाया । उसने कहा, " जिसको जहाँ मौका मिले, वहीं कर दो । किंतु सावधान ! होशियारी से । आवेश में नहीं, शांति से । किसी को न पता चले और न कोई पहचान में आवे । " [22] दूसरे ही दिन गाँव में शोर मच गया कि बिलटू सिंह और फेंकू सिंह मारे गये । इस प्रकार 'गीदड़म्' कहानी में भी बुद्ध शरण 'हंस' जी ने 'अहिंसा परमो धम्म' कहानी की भाँति ही आवश्यक-हिंसा को उचित ठहराया है । इस कहानी का सार यही है कि अपराधी को दंड अवश्य मिलना चाहिए । यदि न्यायालय से न्याय न मिले, तो वंचितों को न्याय के लिए स्वयं नीति बनानी चाहिए ।

'हलबंदी' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने एक नये शब्द 'भूराबाल' का प्रयोग किया है, जिससे भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला आदि का सामूहिक-बोध होता है । 'हंस' जी के शब्दों में, " बिहार में 'भूराबाल' प्रतिक्रिया में निकला हुआ शब्द है । चमार, दुकान, मुशहर के लिए जैसे 'अछूत' या 'दलित' शब्द है । कोइरी, यादव, कहार, कुर्मी के लिए जैसे 'बैकवर्ड' शब्द है । उसी तरह दलितों और पिछड़ों ने भूमिहार, राजदूत, ब्राह्मण, लाला यानी कायस्थों के लिए 'भूराबाल' शब्द की ईजाद की है । " [23] इस कहानी में मजदूरी (पारिश्रमिक) के सवाल को उठाया गया है । वंचित-वर्ग के लोगों को तथाकथित ऊँची जाति के हिंदुओं द्वारा उचित मजदूरी नहीं दी जाती है । कहानी में रहमतपुर गाँव है और रविदास नगर टोला है । गाँव में किसान रहते थे और टोले में मजदूर । एक तरफ किसानों की बैठक में भिखारी पांडे मजदूर वंचितों के विरुद्ध 'फूट डालो-राज करो' की नीति बता रहा था, तो दूसरी तरफ मजदूरों की बैठक में मजदूरी बढ़ाने की माँग पर विचार-विमर्श किया जा रहा था । इधर रहमतपुर में यज्ञ किया जा रहा था, जिसमें चमारों को छोड़कर अन्य अछूतों को बुलाया गया था, ताकि उनको आपस में लड़ाया जा सके । उधर रविदास नगर में लोगों को जागरूक और शिक्षित बनाने का कार्यक्रम हो रहा था । 'हंस' जी के शब्दों में, " उधर रविदास नगर में 'जय भीम' स्कूल में पढ़ाई हो रही थी । दो-चार बेरोजगार नवयुवक शिक्षक बने पढ़ा रहे थे । दरअसल, ये शिक्षक कम, दलित सेना, भीम सेना, समता सैनिक दल, बी०एस०पी० के कार्यकर्ता ज्यादा थे । ये राजनीतिक स्तर पर विभक्त थे, किंतु समाज-निर्माण में सब के सब एक थे । बड़ी सुखद बात थी कि समाज-निर्माण के स्तर पर ये राजनीति को घुसने नहीं देते थे । " [24] इधर रहमतपुर के कथित सवर्णों ने प्रस्ताव पास किया कि रविदास नगर के लोगों के पशु उनके खेतों में घास नहीं चरें । यदि ऐसा हुआ, तो उन्हें पचास रुपये प्रति जानवर जुर्माना देना होगा । रविदास नगर के लोगों ने प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहा कि रहमतपुर का कोई व्यक्ति यदि अपने मरे हुये पशुओं को उठा फेंकने के लिए रविदास नगर में किसी को बुलाने आया, तो उसे एक हजार रुपये जुर्माना लगेगा । इस प्रस्ताव से रहमतपुर के बाबू बेचैन हो गये । उन्होंने प्रस्ताव पास किया कि रविदास नगर के लोगों को अपने खेतों में घास काटने नहीं देंगे । रविदास नगर के लोगों को इसी अवसर की तलाश थी । उन लोगों ने प्रस्ताव पास किया कि वे लोग उनके खेतों में इस वर्ष हल नहीं जोतेंगे और घोषणा कर दी - 'हलबंदी' । हलबंदी होने के बाद रहमतपुर के पिछड़े-वर्ग के लोगों को कथित सवर्णों की स्वार्थनीति का अनुभव हो गया । अंत में, रहमतपुर के पिछड़े-वर्ग के लोगों ने रविदास नगर के वंचितों के साथ समझौता कर लिया और वे रविदास नगर के मजदूरों को पचास रुपये प्रतिदिन मजदूरी स्वीकार कर लिये ।

'जानवर जी' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने मनुष्य की पशु-प्रवृत्ति की ओर संकेत किया है । इस कहानी में भैंस, साँड, हाथी, घोड़ा, गाय, बैल, हिरण, गीदड़ आदि जानवर-पात्र हैं, जो आपस में वार्तालाप करते हैं । सभी जानवरों ने अपने तर्क से मनुष्य को जानवर सिद्ध कर दिया है । गर्मी का दिन था । धूप तेज थी । पति-पत्नी छाता लगाये कहीं जा रहे थे । अचानक पत्नी की साड़ी में कुछ व्यवधान हुआ और वह लुढककर गिर गयी । छाता पत्नी के हाथ में था । झटके में छाता की कमानी से पति का कान नुच गया । पति ने कहा, " अंधी हो क्या ? जानवर जैसा क्यों चलती हो ? उठो । देखो, कमानी से मेरा कान नुच गया । " पास में बरगद की छाया में कुछ जानवर मित्रवत बैठे थे । पति की बात सुनकर सभी जानवरों को बुरा लगा । सभी ने अपने आप को मनुष्यों से बेहतर प्रमाणित किया । कुछ जानवरों के महत्वपूर्ण संवाद प्रस्तुत हैं । भैंस ने साँड से पूछा, " सुना मोटू ! यह आदमी क्या कह दिया ? तुम्हारा शरीर तो भारी-भरकम है, क्या तुम इस औरत की तरह कभी लुढककर गिरे हो ? " तो साँड ने कहा, " हम न कभी इस तरह से लुढके हैं, न गिरे हैं । हो सकता है लपेटा कभी गिरा हो, क्योंकि हम पशुओं में सबसे अधिक मोटा तो यही है । " लपेटा हाथी पत्ते चबा रहा था । उसने रूखेपन से कहा, " यह गिरना, लुढ़कना मनुष्यों की कमजोरी है । हम पशु न गिरते हैं, ना लुढकते हैं । आदमी बदजात होता है, बात-बात में अपना दोष जानवरों पर मढ़ देता है । " [25] 'हंस' जी एक आंबेडकरवादी मिशनरी लेखक हैं । उन्होंने कोई भी कहानी निरुद्देश्य नहीं लिखी है । इस कहानी में भी उन्होंने जानवरों के माध्यम से मिशन की बातों का उल्लेख कर दिया है । जब गाय और बकरी दोनों ने एक साथ कहा, " हम लोग तो मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगड़ते हैं । फिर भी ये कसाई हमारे पूरे खानदान को मजे से पीढ़ियों से खाते-चबाते आ रहे हैं । " तो घोड़े ने लंबा भाषण दिया, " सुधुआ का मुँह कुत्ता चाटे । यह कहावत सुनी हो न ! अपनी सींग, खुर को आक्रामक बनाओ । झटके से अपनी सींग से मनुष्य की आँख में, पेट में मारना सीखो । तब यह बेईमान मनुष्य तुम्हें मारने से डरेगा, हिचकेगा । शेर को मनुष्य क्यों नहीं खाता है ? क्योंकि उसे डर है कि कहीं शेर ही उल्टे उसे न खा जाए । मनुष्यों में पैदा हुआ डॉ० बाबा साहेब आंबेडकर ने तो साफ कहा है, बलि बकरे की दी जाती है, शेरों की नहीं । बाबा साहेब की बात को जानने और मानने का प्रयास तो करो । देख नहीं रही हो, बाबा साहेब आंबेडकर के बताये रास्ते पर नहीं चलकर शूद्र, अछूत किस तरह ब्राह्मणवाद की चक्की में पीसे जा रहे हैं । यदि आज शूद्र, अछूत ब्राह्मणों का जाल-फंदा तोड़कर बाबा साहेब के रास्ते पर चलने लगें, तो वे कल से सुखपूर्वक, सम्मानपूर्वक जीवन जी सकते हैं । " [26] इस प्रकार इस कहानी में 'हंस' जी ने भारतीय समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के कारण मनुष्यों को जानवर की श्रेणी में रखा है । जो छुआछूत और ऊँच-नीच का व्यवहार करते हैं, वे भी जानवर है और जो ऐसे व्यवहार को चुपचाप सहते हैं, वे भी जानवर हैं ।

'गौ ब्राह्मण नमो-नमो' कहानी में ब्राह्मण नशेबाज हैं और चमार, दुसाध व्यवसायी हैं । इस परिवर्तन का श्रेय बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के भाषण को दिया गया है । जगत रविदास और सुमन पासवान के बीच चमारों द्वारा मरे पशु को उठाने, फेंकने, चीरने का गंदा काम छोड़ने की बातें हो रही थी । दोनों बहुत पहले कोलकाता गये थे । कोलकाता में उन्होंने बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर का भाषण सुना था । जगत रविदास ने कहा, " सुमन भाई ! याद है, कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में योगेंद्र दा ने बाबा साहेब आंबेडकर को मुंबई से भाषण देने के लिए बुलाया था । ... बाबा साहेब आंबेडकर ने कितना समझाकर हम अछूतों से कहा था - आप लोग अपने बच्चों को पढ़ने क्यों नहीं भेजते हो ? देखो आपके गाँव का ब्राह्मण चाहे कितना भी गरीब हो, अपने लड़के को पढ़ाता है । पहले स्कूल में पढ़ाता है, फिर कॉलेज में, इसके बाद युनिवर्सिटी में । कुछ दिन के बाद ब्राह्मण का लड़का डिप्टी-कलेक्टर बन जाता है । तुम भी ऐसा क्यों नहीं करते ? " सुमन पासवान ने कहा, " सच कहा जगत भाई ! बाबा साहेब आंबेडकर की बात से ही पासवान समाज में ऐसा परिवर्तन हुआ, जो आज तक वरदान साबित हुआ है । उस भाषण में उन्होंने यह भी कहा था कि - 'मृत पशु खाना छोड़ दो ।' लोग पूछते हैं कि फिर अछूत क्या खाएँगे ? उत्तर में मैं एक सदाचारी महिला का उदाहरण देता हूँ । यदि उस पर दुर्दिन भी आ जाए, तो भी वह वेश्या का जीवन गुजारने को तैयार नहीं होगी । वह मर्यादा के लिए दुःख झेलती है । इस संसार में सम्मान से रहना सीखो । आपके मन में इस संसार में कुछ कर दिखाने की अभिलाषा होनी चाहिए । वही लोग उन्नति करते हैं, जो संघर्ष करते हैं । " [27] चमार और दुसाध समुदाय के दोनों जागरूक युवकों जगत और सुमन की अपने परिवार, समाज और जीवन के बारे में इतनी उत्कृष्ट सोच थी, जबकि दो कथित ब्राह्मणों शराबी बंडू और बंडा की सोच बहुत ही निकृष्ट थी । वे दोनों शराब पीने के लिए एक मरी गाय का चमड़ा उतारने के लिए तैयार हो गये । बंडा को मरी गाय निकट से देखकर मिचली आ रही थी । बंडू ने कहा, " महीने भर में चिखने (मसालेदार नाश्ता) के साथ दारु पियोगे, तो इसका लाभ समझ में आएगा । यह मरी हुई गाय नहीं है बंडा, हजार रुपए का नोट है नोट । " बंडा ने पूछा, " मतलब । " तो बंडू ने कहा, " हम लोग इसका चमड़ा उतारकर बेच लें । हजार रुपये के लिए हमें अपनी जोरुओं को कितनों के हाथों, कितनी रात बेचना पड़ेगा । अंधेरी रात है, कोई देखेगा भी नहीं, जानेगा भी नहीं । झट से चमड़ा उतारेंगे, पट से बेचेंगे । जाकर गंगा-स्नान कर लेंगे, गाय का गोबर खा लेंगे, सूर्य को प्रणाम करेंगे । पुराना कुआँ पाँच बार और ब्रह्म बाबा (पीपल का वृक्ष) की दस बार परिक्रमा कर लेंगे ।नया जनेऊ बदल लेंगे । चमड़ा बाजार में, रुपये पाॅकिट में । सब तरह का पाप हवा में । " [28] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी वर्तमान समाज का छायाचित्र है । वर्तमान में वंचित-वर्ग के लोग आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से अपने आपको विकसित कर रहे हैं तथा सदाचार की विशेषताओं को भी हृदयंगम कर रहे हैं । जबकि तथाकथित पवित्र सवर्ण लोग पतन की ओर जा रहे हैं और चारित्रिक रूप से अधम हो रहे हैं । इस कहानी में जगत और सुमन गंदे पेशे को छोड़कर व्यवसायी बन गये थे, जबकि कथित ब्राह्मण बंडू और बंडा दोनों शराब के आदी थे तथा शराब के लिए वे अपनी पत्नियों को भी गैर-मर्दों के साथ बेच देते थे । शराब की आदत ने ही बंडू और बंडा से गाय का चमड़ा उतारने जैसा गंदा काम भी कराया ।

'दो पैसे का भाईचारा' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने हिंदू मानसिकता वाले लोगों द्वारा चुनाव के समय किये जाने वाले समता और बंधुत्व के ढोंग को उजागर किया है । चमरू चतुर्वेदी, भिखारी मिसिर और गुप्ता ने मिलकर वंचित-वर्ग के लोगों का वोट (मत) प्राप्त करने के लिए उनकी बस्ती में सहभोज कराने की योजना बनाया । जीप में दाल, चावल, आलू, टमाटर, बैंगन, घी, अचार, पापड़ सब कुछ लादकर वे बस्ती में पहुँच गये । जब वे सारा सामान बौद्ध-विहार के मैदान में उतरवाने लगे, तो उस बस्ती के नेता पेंटर ने उन्हें रोका और बस्ती के लोगों की आपस में सलाह करने के लिए समय माँगा । बस्ती के बुद्धिजीवी लोग बौद्ध-विहार में जाकर आपस में विचार-विमर्श किये । लौटते समय मास्टर जी ने गुप्ता से सहभोज का उद्देश्य पूछा । गुप्ता ने कहा, " भाई, राय तो हम सबने मिलकर की है । जहाँ तक इस सहभोज के उद्देश्य का सवाल है, वह हम सब का आपसी भाईचारा है । हम लोग सहभोज के द्वारा अपनी एकता व भाईचारा का परिचय देना चाहते हैं । हम लोग छुआछूत, ऊँच-नीच का भेद मिटाना चाहते हैं । हम बाबा साहेब आंबेडकर के सपनों के समाज का निर्माण करना चाहते हैं । " यह सुनकर पेंटर ने कहा, " बात तो आपने ठीक कही है गुप्ता जी । छुआछूत और भेदभाव की समस्या न हमारे घर में है, न समाज में । यह समस्या तो आप सवर्णों, ब्राह्मणों के घर-आँगन में है । इसीलिए हम लोगों की राय हुई है कि यह सहभोज आपके घर में हो । " [29] गुप्ता ने कहा, " बात तो एक ही है । खाना यहाँ बने या वहाँ । लेकिन हम लोग तो गरीबों के साथ बैठकर खाने और खिलाने में ही सहभोज समझते हैं । गरीब भाइयों के बीच बैठकर खाना क्या सहभोज नहीं हुआ ? " तो मास्टर जी ने कहा, " खाना आपके रसोईघर में बने । हमारी माँ-बहनें आपके रसोईघर में खाना बनाएँगी । हमारे घर की स्त्रियाँ आपके घर-आँगन में बैठकर खाना खाएँगी । फिर हम लोग भी आपके साथ आपके आँगन में बैठकर जी भरकर खा लेंगे । इससे बढ़कर प्रेम, भाईचारा और क्या हो सकता है ? " जब भिखारी मिसिर ने कहा, " हम लोग तो बराबर गरीबों के मुहल्ले में सहभोज करते आये हैं । लोगों ने प्रेम से बनाया और सबने प्रेम से खाया । इस वर्ष सहभोज यहाँ हो जाए । अगले वर्ष जैसा सोचा जाएगा, वैसा ही होगा । " यह सुनकर मास्टर जी ने कहा, " आप लोग सहभोज नहीं, सहभोज का प्रदर्शन करते हैं । छुआछूत मिटाने का आप लोग ढोंग करते हैं । साल भर में एक-दो दिन खिचड़ी खिलाकर आप लोग अपना वोट बैंक मजबूत करते हैं।  अगर ये बातें सच नहीं हैं, तो हम लोगों ने जैसा निर्णय लिया है, उसी तरीके से सहभोज हो । हम लोग तो सहभोज खाने के लिए भी तैयार हैं और खिलाने के लिए भी । अंतर सिर्फ आँगन का है । बराबर यह ड्रामा हमारे आँगन में हुआ है । हम लोग इस वर्ष आपके आँगन में यह ड्रामा करना चाहते हैं । " [30] यह कहानी उस राजनैतिक यथार्थ की ओर इंगित करती है कि कथित सवर्ण, वंचितों की बस्ती में यदि सहभोज कराते हैं, तो उनमें समता की भावना नहीं होती है, बल्कि समरसता की भावना होती है । इसलिए वंचितों को उनके सहभोज के प्रदर्शन पर मुग्ध नहीं होना चाहिए और न ही उन्हें अपना हितैषी समझकर अपना बहुमूल्य मत (वोट) देना चाहिए ।

'प्राण-प्रतिष्ठा' कहानी में 'हंस' जी ने पत्थर की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा करने के पाखंड की सत्यता को प्रकाशित किया है तथा इस मिथ्या कर्मकांड के प्रति लोगों का जो अंधविश्वास है, उससे उन्हें मुक्त होने के लिए प्रेरित किया है । इस कहानी में चमरू चतुर्वेदी ने अपनी धूर्त-विद्या से रणधीर यादव को बहलाकर, उसे शिव-भक्ति में लगा दिया । रणधीर गाँव के मनचले लड़कों को इकट्ठा करके 'शिव मंदिर निर्माण समिति' बनवाया, रसीदें छपवाया और चंदा माँगना शुरू कर दिया । महीने भर में पर्याप्त रुपया इकट्ठा हो गया । सारा रूपया चमरू चतुर्वेदी के पास रखा गया था । प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन किया गया । खीर-पूरी, मिठाई, फल आदि की व्यवस्था हो गयी थी । गाँव भर की स्त्रियाँ मंदिर की परिक्रमा कर रही थीं । अखंड-कीर्तन हो रहा था । मंदिर पवित्र हो चुका था । देव-मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी थी । तभी चमरू चतुर्वेदी का नौकर आकर उसे बताया कि उसके लड़के बबलू को साँप ने काट लिया है, वह बेहोश है । बबलू, चमरू चतुर्वेदी का इकलौता बेटा था, जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था । चमरू रोता-चिल्लाता अपने घर की ओर भागा । बबलू मर चुका था । चमरू का नौकर सिद्धू अनपढ़-गँवार था । वह बबलू का बहुत प्यारा था और बबलू उसे प्यारा था । इसलिए सिद्धू ने चमरू से कहा, " मालिक ! बबुआ में प्राण-प्रतिष्ठा कर दीजिए । मत गाड़िए, मत जलाइए । " [31] लोगों को आश्चर्य तो हुआ, लेकिन उन्हें लगा कि सिद्धू सच बोलता है । निर्जीव कंकड़-पत्थर की मूर्ति में चमरू ने रात में प्राण भरा था, मंदिर पवित्र किया था । अब उस मंदिर में अछूत नहीं जा सकता था, क्योंकि वहाँ जीवित भगवान विराजमान था और मंदिर पवित्र था । लोग इसी भ्रम में थे । लेकिन चमरू चतुर्वेदी भलीभाँति जानता था कि सत्य क्या है ? चमरू ने कातर दृष्टि से भोले-भाले सिद्धू को देखा । उसकी आँखों से आँसू बहने लगे । उसने मन ही मन में सोचा, " किसी चीज को पवित्र करना मेरे वश की बात नहीं । किसी चीज में प्राण-प्रतिष्ठा करना मेरे वश की बात नहीं । ... अपने स्वार्थ के लिए मैं सब को ठग सकता हूँ, किंतु अपने आपको, बिलखते-चीखते अपने कुल-परिवार को, अपने मृत इकलौते पुत्र को कैसे ठगूँ । मैं रोज-रोज किसी न किसी को ठगता था । आज मैं खुद ठगा गया । मैं हिंदुओं को ठगता था, लूटता था । समय ने, काल ने मुझे ठग लिया, लूट लिया । " [32] 'हंस' जी की यह कहानी तथागत बुद्ध के इस कथन का समर्थन करती है कि 'जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे ।' कहा भी जाता है - जैसी करनी, वैसी भरनी । जो व्यक्ति दूसरे को धोखा देता है, वह भी कभी न कभी अवश्य धोखा खाता है ।

'मिशनरी हूँ' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने स्वयं के द्वारा स्थापित 'आंबेडकर मिशन प्रकाशन' पटना के मिशनरी वितरक (डिस्ट्रीब्यूटर) के अनुभव को अभिव्यक्त किया है । मिशनरी एक सज्जन के घर गया । अभिवादन में वह उन्हें 'जय भीम सर' कहा, लेकिन उस सज्जन ने अभिवादन के प्रत्युत्तर में प्रश्न किया - 'क्या बात है ?' जबकि वे सज्जन स्वयं बहुजन समाज से थे, जिस समाज के उद्धार के लिए बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने अपना जीवन समर्पित कर दिया था । मिशनरी ने उन्हें डॉ० डी०आर० जाटव के द्वारा लिखी गयी पुस्तक 'डॉ० आंबेडकर का सामाजिक दर्शन, राजनीतिक दर्शन', मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा 'अपने-अपने पिंजरे' और डॉ० कुसुम वियोगी की कहानी 'चार इंच की कलम' दिखाया । उस सज्जन ने मिशनरी से उसका परिचय पूछा, तो उसने अपना नाम 'सलीम' और शिक्षा बी०ए० आनर्स बताया । यह जानकर सज्जन ने कहा, " पासवान के फेरा में पड़कर अपना जीवन क्यों बर्बाद कर रहे हो ? " मिशनरी युवक ने बुद्ध शरण 'हंस' जी के सत्कर्म की प्रशंसा करते हुए उनके द्वारा दिये गये सम्मान और सहारा हेतु उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त किया । जब मिशनरी युवक ने बाबा साहेब की चार पुस्तकों का सेट खरीदने के लिए उस सज्जन से आग्रह किया, तो सज्जन ने कहा, " मुझे अब ये सब पढ़ने की फुर्सत नहीं है । और फिर, जो कुछ इन पुस्तकों में है, वह सब कुछ तो मैं जानता हूँ । " [33] मिशनरी युवक ने कहा, " सर ! मैं इन्हीं पुस्तकों को बेचकर अपना अध्ययन कायम किये हुये हूँ । आप कुछ किताबें ले लेंगे, मुझे सहारा मिल जाएगा । और फिर, सर ! आपको क्या कमी है । मैं तो बहुत उम्मीद लेकर आपके पास आया हूँ । " सज्जन ने एक सस्ती वाली पुस्तक 'चार इंच की कलम' ली, जिसका मूल्य था - पंद्रह रुपये । उसमें भी पाँच रुपये कम कराया और मात्र दस रुपये दिया । जबकि वे सज्जन अपने कुत्ते को एक मास्टर से ट्रेनिंग दिलवा रहे थे और पूरे कोर्स का खर्च दो हजार रुपये था । कुत्ते के लिए हड्डी, दूध और बिस्कुट का कुल खर्च सात-आठ सौ रुपये महीना पड़ जाता था । जो मास्टर कुत्ते को ट्रेनिंग देता था, वह एक पुरोहित था । बाबा साहेब डाॅ० आंबेडकर के प्रति उसकी श्रद्धा थी । उसने डॉ० आंबेडकर की चारों पुस्तकें खरीद ली । मिशनरी युवक ने चारों पुस्तकों का मूल्य एक सौ पचासी रुपये बताया और पुरोहित ने पूरे रुपये दिये । मिशनरी युवक ने उन पुस्तकों के साथ पुरोहित को 'जाति का विनाश' नामक पुस्तक मुफ्त में भेंट किया । लौटते समय जब उस सज्जन ने मिशनरी युवक से कहा कि, " चाय पीकर जाओ । " तो उस युवक ने कहा, " सर ! बुरा नहीं मानेंगे । मैं आपके यहाँ चाय नहीं पी सकता । मैं मिशनरी हूँ । जहाँ बाबा साहेब के विचारों का सम्मान नहीं, वह जगह मेरे लिए सम्मान की जगह नहीं । आपको अपने बड़प्पन का ख्याल है और मुझे बाबा साहब के सम्मान का । " [34] 'हंस' जी की यह कहानी उस सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करती है कि वंचित-वर्ग का व्यक्ति जब पढ़-लिखकर नौकरी पा जाता है, तो वह सुख-सुविधाओं का भोग करने में ही मस्त रहता है । उसे अपने समाज और मिशन के प्रति लगाव नहीं होता है । जबकि कथित सवर्ण व्यक्ति भले ही पूरी तरह से सुख-सुविधा का आनंद न ले, लेकिन वह अपने समाज और मिशन के लिए समर्पित होता है । यह कहानी आंबेडकरवादी मिशनरी व्यक्ति को यह शिक्षा देती है कि जो व्यक्ति बाबा साहेब के विचारों का सम्मान न करे, उसके घर का चाय-पानी पीना भी व्यर्थ है ।

'जय अर्जक' कहानी अंतर्जातीय विवाह की पक्षधर कहानी है । शक्ति सिंह यादव और कामता प्रसाद कुशवाहा दोनों घनिष्ठ मित्र तथा 'अर्जक संघ' के सक्रिय कार्यकर्ता थे । एक दिन कामता प्रसाद, शक्ति सिंह के घर गया और अपने पुत्र का विवाह उसकी पुत्री से करने का प्रस्ताव रखा । यह सुनकर शक्ति सिंह के वृद्ध पिता ने कहा, " बबुआ ! हम आइसन न कभी सुनली, न देखली । आपस में संघ, सभा चाहे जे करीं, लेकिन शादी-ब्याह तो जात में ही होवे के चाही । " शक्ति सिंह के भाई ने कहा, " यादव-कोइरी में कभी कहीं विवाह हुआ है, जो आज आप बोल रहे हैं ? आप अपनी लड़की की शादी गैर-जाति में करिएगा ? कामता प्रसाद ने उत्तर दिया, " भाई साहब ! मेरी बच्ची भी शादी योग्य है । इस वर्ष बी०ए० ऑनर्स से पास की है । यदि इसी घर में सुयोग्य लड़का हो, तो यहीं बात पक्की कीजिए । इसमें तो मुझे ज्यादा प्रसन्नता होगी । " [35] शक्ति सिंह, उसके भाई भक्ति सिंह और उसके पिता अंतर्जातीय विवाह करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे । वे सब पारंपरिक सोच से मुक्त होने में असमर्थ थे । लेकिन तभी शक्ति सिंह की माँ आयीं । वे भले ही वृद्ध और पुराने जमाने की थीं, लेकिन उनके मन में परिवर्तन की लालसा थी । शक्ति सिंह की माँ ने कहा, " आज दस साल से ई गाँव अर्जक संघ के अड्डा बनल है । तीसरा साल रामस्वरूप वर्मा जी और महाराज सिंह भारती जी अइलन हला । उनकर साथ रघुनीराम शास्त्री जी, बलदेव चौधरी जी, दूधनाथ सिंह जी अइलन हल । वर्मा जी और भारती जी के भाषण पर खूब ताली बजल हल । कौन बात पर ताली बजल हल ? बतावा तोहनीन ? वर्मा जी हमरा खड़ा करके सैकड़ों लोगन के बीच पूछला हल - 'माई, हमार सपना पूरा होई ? सब लोगन के बीच हम अभिमान से कहलीं - बेटा, जरूर पूरा होई । कौन सा सपना पूरा करे खातिर वर्मा जी और भारती जी हम सबके कौल करार करइलन हल ? ... क्या अर्जक संघ खाली मीटिंग करे खातिर बनल हई ? खाली ताली बजावे खातिर बनल हई ? खाली कौल करार करे खातिर बनल हई ? तू मरद लोग जिंदगी भर कौन बात के मीटिंग सभा करते रहता है ? दू घर में एक बार रामस्वरूप वर्मा जी, महाराज सिंह भारती जी और रघुनीराम शास्त्री जी के भाषण हम मेहरारू लोग सुनलीं । दुबारे ललई सिंह यादव जी अइलन हल, कानपुर वाले । सब एक बात के रट लगवलन - भाई, जाति तोड़ो, जाति तोड़ो । तब जाति तोड़ले से टूटी ? कि खाली बोले से ? " [36] अंततः यादव और कुशवाहा परिवार के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुआ तथा अर्जक संघ के उद्देश्य की भी पूर्ति हुई । बुद्ध शरण 'हंस' जी ने इस कहानी के द्वारा अर्जक संघ के कार्यकर्ताओं को कथनी और करनी में अंतर न रखने की सीख दी है ।

'जहर पोथी' कहानी हिंदू धर्म के सभी धर्म-ग्रंथों को जहर-पोथी सिद्ध करती है । इस कहानी में रसूलपुर गाँव में मानस-कथा का आयोजन किया गया था । अमर बौद्ध नामक युवक भी मानस-कथा के आयोजन-स्थल पर उपस्थित था । लेकिन वह कथा सुनने नहीं गया था, बल्कि कथा सुनाने वाले आचार्य से मानस संबंधी कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछकर ग्रामीणों के मन का भ्रम दूर करने के लिए गया था । कथा प्रारंभ हुई । आचार्य मानस की चौपाइयों का सस्वर पाठ करते और बीच-बीच में कथा कहते । कथा सुनाते-सुनाते आचार्य दीनबंधु ने श्रोताओं से पूछा, " किन्हीं भक्तों को किसी विषय पर शंका समाधान करना हो, तो करें । " किशोर नामक युवक की प्रेरणा पाकर अमर ने पूछा, " अभी आपने रामचरितमानस का अच्छा पाठ किया और कई कथाएँ भी सुनायी । रामचरितमानस में कितने काण्ड हैं ? " आचार्य ने उपहास के लहजे में कहा, " मानस में सात काण्ड हैं । इतना भी नहीं जानते ? " अमर ने कहा, " मगर मेरे पास गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरितमानस है, जिसमें छः काण्ड ही हैं । " आचार्य ने कहा, " गलत, ऐसा हो नहीं सकता । " अमर ने अपने झोले से निकालकर रामचरितमानस आचार्य की ओर बढ़ा दिया । आचार्य ने कहा, " यह किताब तो 1956 ई० की छपी हुई है । नया रामचरितमानस में सात काण्ड हैं । यह देखो मेरे पास है । " यह कहते हुए आचार्य ने अपनी किताब दिखायी । तब अमर ने आपत्ति के लहजे में कहा, " इसका मतलब हिंदू धर्म की किताबों में मनमानी परिवर्तन किया गया है और किया जा भी रहा है । तब तो यह नकली किताब हो गयी ? " [37] आचार्य उत्तर देने में असमर्थ थे । उन्होंने सामान्य ज्ञान का प्रश्न पूछने की बजाय भक्तिभाव का प्रश्न पूछने के लिए अमर से कहा । अमर ने फिर पूछा, " रामचरितमानस में लिखा है - 'जे वरनाधम तेली, कुम्हारा, स्वपच, किरात, कोल, कलवारा ।' इसका अर्थ समझा दें ? " इस चौपाई का अर्थ बताने में आचार्य दीनबंधु झिझकने लगे । जब एक अधेड़ ग्रामीण ने जवाब देने के लिए आचार्य पर दबाव डाला, तब आचार्य ने कहा, " वर्णों में यानी हिंदू समाज में तेली, कुम्हार, डोम, कोइरी, कलाल, आदिवासी सबसे नीच हैं, अधम हैं । इस बात को कहने का मतलब बाबा तुलसी ...। " उसके बाद तो वहाँ पर इकट्ठे श्रोता आक्रोशित हो गये । कथा आयोजक शंकर तेली का भी मिजाज बिगड़ गया । वहाँ पर एक कुम्हार युवक भी उपस्थित था, उसने भी अप्रसन्नता प्रकट की । एक कलवार युवक भी था, वह भी क्रोधित हो गया । आचार्य हक्का-बक्का रह गये । कथा आयोजक किशोर ने कहा, " बंद करो यह सब ढोंग, प्रवचन । यह रामायण नहीं, जहर-पोथी है । " अंत में, आचार्य दीनबंधु भाग खड़े हुये । दूसरे दिन सुबह वही वृद्ध ग्रामीण अपने पोते को लेकर स्कूल जा रहा था । पोते ने गाँव के पोखर पर गंदागलीज में बहुत सी किताबों को फटा, फेंका हुआ देखा । उसने उत्सुकता से पूछा, " दादा ! दादा ! वह देखो, बहुत सी किताबे किसी ने फेंक दी है, जाकर उठा लें । " उस वृद्ध ग्रामीण ने कहा, " मत छूओ । वे सब गंदी किताबें होंगी - जहर पोथी । " [38] यह कहते हुए वह वृद्ध व्यक्ति अपने पोते को लेकर स्कूल की ओर चल दिया । इस प्रकार बुद्ध शरण 'हंस' जी ने इस कहानी के माध्यम से यह संदेश दिया है कि जिस धर्म-ग्रंथ में ऊँच-नीच, जाति-पाँति की बातें लिखी गयी हैं, उन्हें पढ़ना और उनका श्रवण करना सर्वथा अनुचित है ।

'को रक्षति वेदः' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने कथित ब्राह्मणों के मुख से यह स्पष्ट किया है कि अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग (शूद्र) ही वेदों की रक्षा करते हैं । उन्हीं के बल पर ब्राह्मणवाद और हिंदूवाद टिका हुआ है । कहानी में दुर्जन उपाध्याय संस्कृत का शिक्षक था । उसकी बदली ग्वालपुर गाँव में हुई, जहाँ वह पहली बार गया था । उसमें कई गुण थे, यथा - वह ड्यूटी का पक्का था, संस्कृत का अच्छा जानकार था, पक्का कर्मकांडी था और हिंदू धर्म का वफादार सेवक था । साथ ही वह आर०एस०एस० की शाखा का सक्रिय सदस्य भी था । उपाध्याय ने बच्चों का परिचय लेते समय उनका नाम, वर्ग और जाति सब पूछ लिया । स्कूल में सौ से ऊपर बच्चे थे, लेकिन एक भी ब्राह्मण नहीं था । इसलिए दुर्जन उपाध्याय बहुत चिंता में पड़ गया । एक दिन वह एक कथित ब्राह्मण गृहस्थ के घर गया, जिसका नाम जोखन पांडे था । बातचीत के दौरान दुर्जन ने जोखन के सामने हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद की सुरक्षा के प्रति चिंता व्यक्त की और कथित ब्राह्मणों की एक बैठक कराने के लिए कहा । अगले दिन जोखन पांडे ने अपने समधी दुखी मिसिर सहित भिखारी त्रिवेदी और बटोरन पांडे की बैठक करायी । बैठक में धर्म और समाज पर चर्चा होने लगी । बटोरन पांडे ने स्पष्ट किया कि अन्य पिछड़ा वर्ग यानी शूद्र ही वेदों की रक्षा करते आये हैं । यदि वे जागरूक हो गये, तो हिंदूवाद और ब्राह्मणवाद का बहुत नुकसान होगा । बटोरन पांडे ने आगे कहा, " अछूतों से हम निश्चिंत हैं । ये न पहले हिंदू थे, न आज हैं । इन बेहूदों के पास है ही क्या ? दो-चार प्रतिशत लोग पढ़े-लिखे हैं । जमीन-जायदाद के पहले भी कंगाल थे, आज भी हैं । जो लोग नौकरी-पेशा में हैं, उन्हें शराबी बना दीजिए, किसी बदसूरत औरत को उसके पीछे लटका दीजिए और कथा-पूजा के नाम पर इन्हें मनमाना लूटते रहिए । ये अछूत मार्क्स को पढ़ें या आंबेडकर को, ये अक्ल के अंधे, अंधे ही रहेंगे । इसके बावजूद यदि कोई अछूत गर्दन ताने, सर ऊँचा करे, तब किसी कोइरी, कुर्मी, अहीर, कहार, बनवार से इन्हें लड़ा दीजिए, पिटवा दीजिए या फिनिश ... । " [39] बैठक समाप्त होने की घोषणा करते हुए जोखन पांडे ज्यों ही बोलना चाहा, " आज की बैठक ... । " तभी किसी ने पुकारा, " जोखन पांडे ! ओ जोखन पांडे ! " जोखन पांडे बाहर निकला । बोला, " अरे कौन हो ? " लड़कों की भीड़ में से एक ने कहा, " हम लोग जयंती वाले हैं । ज्योतिराव फुले की जयंती का चंदा सिर्फ पाँच रुपये । " यह कहते हुए उसने पाँच रुपये की रसीद थमा दी । जोखन पांडे कहा, " कल आकर ले जाना । " पांडे ने रसीद ली और मुँह लटकाकर अंदर चला गया । दुर्जन उपाध्याय ने अत्यंत दुखी स्वर में पूछा, " ये लौंडे-छौंडे जोखन पांडे कहता है ? पंडित जी नहीं कहता ? " तो जोखन पांडे ने कहा, " पहले कहता था । अब नहीं कहता । अब किस-किसको लाठी से समझाएँ ? पेशवा ब्राह्मण का राज तो है नहीं । " [40] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी तथाकथित ब्राह्मणों द्वारा वंचितों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के प्रति किये जाने वाले छल को उजागर करती है । यह कहानी स्पष्ट संकेत करती है कि वर्तमान में कथित सवर्ण, वंचितों को जागरूक होते देखकर अत्यंत चिंतित हैं ।

अतः स्पष्ट है कि बुद्ध शरण 'हंस' जी का संपूर्ण कथा-साहित्य आंबेडकरवादी चेतना और आंदोलन के उद्देश्य से परिपूर्ण है । उन्होंने अपनी कहानियों में वंचित-वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग के पात्रों का नाम सुंदर और सार्थक रखा है । यथा - ताराकिरण बौद्ध, अमर बौद्ध, जंगबहादुर रविदास, दलजीत पासवान, यमुना, जगदीप, कमल, कामता प्रसाद कुशवाहा, शक्ति सिंह यादव आदि । जबकि उन्होंने कथित सवर्ण पात्रों का नाम विकृत रखा है । यथा - लुच्चा मिसिर, चोकट उपाध्याय, चमरू चतुर्वेदी, शूकर झा, दुर्जन उपाध्याय, बटोरन पांडे, भिखारी त्रिवेदी, रणछोड़ सिंह, बिलटू सिंह, फेकू सिंह आदि । उन्होंने ऐसा इसलिए किया है, क्योंकि हिंदी साहित्य में प्रेमचंद और उनके समकालीन कथित सवर्ण कहानीकारों ने अपनी कहानियों में वंचित-वर्ग के पात्रों का बहुत ही विकृत नाम रखा है । 'हंस' जी यह भली-भाँति जानते हैं कि कहानी के पात्रों के नामों का पाठकों के मन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । 'हंस' जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है । उन्होंने शिक्षित पात्रों के लिए शिक्षितों जैसी विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग किया है तथा निरक्षर पात्रों के लिए आवश्यकतानुसार क्षेत्रीय बोली का प्रयोग किया है । उनकी कहानियों के शिक्षित पात्र बौद्ध-आंबेडकरवादी हैं, जिन्हें सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्रों की अच्छी जानकारी है । 'हंस' जी की कहानियों में विश्लेषणात्मक शैली की प्रधानता है । कथानक, संवाद और भाषा-शैली की दृष्टि से बुद्ध शरण 'हंस' जी इकलौते आंबेडकरवादी कहानीकार हैं, जिनकी कहानियाँ आंबेडकरवादी साहित्य के प्रयोजन को पूर्ण करने में पूरी तरह सफल हैं ।


मोहनदास नैमिशराय (5 सितंबर 1949) 

मोहनदास नैमिशराय जी के दो कहानी-संग्रह प्रकाशित हुये हैं - 'आवाजें' (2020) और 'हमारा जवाब' (2020) । 'आवाजें' कहानी-संग्रह में कुल तेरह कहानियाँ संग्रहीत हैं, जिनमें 'आवाजें', 'हारे हुए लोग' और 'रीत' तीन कहानियाँ आंबेडकरवादी चेतना की कहानियाँ हैं । जबकि शेष दस कहानियाँ 'घायल शहर की एक बस्ती', 'अपना गाँव', 'नया पड़ोसी', 'अधिकार चेतना', 'गंजा पेड़', 'बरसात', 'उसके जख्म', 'मैं शहर और वे', 'भीड़ में वह' और 'महाशूद्र' सामाजिक-यथार्थ, शोषण, प्रताड़ना, पीड़ा, विवशता, निर्धनता आदि का चित्रण मात्र हैं । इसी प्रकार 'हमारा जवाब' कहानी-संग्रह में कुल उन्नीस कहानियाँ हैं, जिनमें पाँच कहानियाँ 'कर्ज', 'जगीरा', 'हमारा जवाब', 'परंपरा' और 'तुलसा' आंबेडकरवादी चेतना की कहानियाँ हैं । जबकि शेष चौदह कहानियाँ 'गाँव', 'आधा सेर घी' 'सुना बरखुरदार', 'सपने', 'सिकंदर', 'सफर', 'खबर', 'सिमटा हुआ आदमी', 'मजूरी', 'मुक्ति का संघर्ष', 'दर्द', 'एक गुमनाम मौत', 'गवर्नर के कोट का बटन' और 'एक अखबार की मौत' यथार्थ, भावुकता, समसामयिकता आदि पर आधारित हैं ।

'आवाजें' कहानी में मोहनदास नैमिशराय जी ने मेहतर-समुदाय द्वारा मैला न उठाने का संकल्प लिये जाने के परिणामस्वरूप उत्पन्न संघर्ष की स्थिति का यथार्थ-चित्रण किया है । मेहतरों ने पारंपरिक पेशे का विरोध किया था । नैमिशराय जी के शब्दों में, " ठाकुर की बहू को बच्चा हुआ, पर मेहतरों के टोले से इस बार कोई न आया । सभी मेहतरों की पंचायत हुई थी, जिसमें अधिकांश ने कसम उठाई - मैला उठाने कोई नहीं जाएगा; जो जाता है, उसका हुक्का-पानी बंद । " [41] इस कहानी की नायिका इतवारी नामक महिला जान पड़ती है और नायक उसी का लड़का है, जो शहर से आया था । उसी ने बस्ती वालों को मैला उठाने का पेशा छोड़ने के लिए प्रेरित किया था । कहानीकार नैमिशराय जी ने उस लड़के के नाम का कहीं उल्लेख नहीं किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि नैमिशराय जी ने मेहतरों के संघर्ष को एक सामूहिक संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया है, इसलिए उन्होंने किसी एक व्यक्ति को नायक बनाना आवश्यक नहीं समझा है । मेहतर-समुदाय द्वारा मैला न उठाने और गंदे पेशे की परंपरा न निभाने का परिणाम यह हुआ कि ठाकुरों ने डकैती के झूठे केस में कई मेहतर पुरुषों को कारागार में बंद करवा दिया । शहर के एक बड़े वकील की जमानत पर सभी मेहतर छूट गये । सबने मिलकर सामूहिक खुशी मनायी, नाच-गाना किया । लेकिन उसी रात उनकी बस्ती में ठाकुरों द्वारा आग लगा दी गयी, जिससे उनकी बहुत अधिक जान-माल की हानि हुई । यदि यह कहानी यहीं पर समाप्त हो गयी होती तो, यह आंबेडकरवादी कहानी नहीं कहलाती । लेकिन नैमिशराय जी ने इस कहानी में आगे जो पंक्तियाँ जोड़ दी हैं, उन्हीं पंक्तियों के कारण यह कहानी आंबेडकरवादी चेतना की कहानी बन गयी है । नैमिशराय जी ने लिखा है, " फिर सन्नाटे को चीरती हुई कुछ आवाजें सुनाई दीं । सब लोग चौंककर उन आवाजों को सुनने लगे । रात के दूसरे पर में जहाँ लोग गीली आँखें लिये आकाश की ओर निहार रहे थे, वहीं नई पौध की आँखों में परिवर्तन के लिए अटूट विश्वास था । कल तक जो बच्चे जूठन पर लड़ते-झगड़ते थे, उनके मन में कुछ कर-गुजरने की चेतना जन्म ले चुकी थी । " [42] नवयुवकों के मन में परंपरा-परिवर्तन और क्रांति की चेतना उत्पन्न होने की भावाभिव्यक्ति के कारण 'आवाजें' कहानी आंबेडकरवादी चेतना की कहानी है ।

'हारे हुये लोग' कहानी में नैमिशराय जी ने जातिवाद की समस्या का चित्रांकन किया है । नये शहर में पहुँचकर किराये के मकान की खोज में चेतराम कुरील एक तथाकथित ब्राह्मण के घर गया । अपना परिचय देने के बाद उसने कहा, " जी, बात यह है कि मुझे किराये पर मकान चाहिए । " मकान मालिक 'कुरील' उपनाम से जाति का अनुमान लगाते हुए कहा, " देखो जी, आप हमारी जात-बिरादरी के हो, तो कमरा दिखाऊँ, वरना ... । " चेतराम कुरील ने बताया कि वह सेक्शन ऑफिसर है । लेकिन फिर भी मकान मालिक के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । उसने मुँह बनाते हुए कहा, " अजी हमें क्या मतलब, आप कलेक्टर भी हैं । नौकरी करने से आदमी की जात तो नहीं बदल जाती, रहता तो वही है । " [43] यह संवाद जातिवादियों की मानसिकता का यथार्थ बिंब प्रस्तुत करता है । जातिवादी व्यक्ति के लिए किसी व्यक्ति के पद और योग्यता का कोई महत्व नहीं होता है, वह केवल जाति के आधार पर उसका मूल्यांकन करता है । इस कहानी में नैमिशराय जी ने इतिहास की ओर संकेत किया है कि अछूत कहे जाने वाले लोग अनार्य थे, जो युद्ध में आर्यों से हार गये थे । उनके हारने का ही यह परिणाम है, जो दंडस्वरूप उनकी प्रत्येक पीढ़ी को अपमानित किया जाता है । कहानी का शीर्षक 'हारे हुये लोग' इसी तथ्य पर आधारित है । आर०के० और कुरील दोनों मित्रों के बीच हुये एक संवाद से इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है । आर०के० ने कहा, " कुरील साहब ! हारे हुए लोगों की दास्तान भी कोई होती है ? " यह सुनकर कुरील ने कहा, " पर आर्यों ने द्रविड़ों को हराया तो छल-कपट से था ? पर मैं हारा नहीं हूँ । फिर प्रयास करूँगा । " [44] चेतराम कुरील हारने वाला व्यक्ति नहीं था । वह किराये का मकान प्राप्त करने के लिए प्रयासरत था । कुछ दिनों बाद बाबा साहेब डाॅ० भीमराव आंबेडकर जी की जयंती के अवसर पर सभा का आयोजन किया गया, जिसमें कथित ब्राह्मण भट्टाचार्य मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित था । सभा में आर०के० और कुरील भी उपस्थित थे । भट्टाचार्य का भाषण आरंभ हो गया था, " यह बहुत खुशी की बात है कि जिस शहर में आज पहली बार बाबा साहेब आंबेडकर का जन्मदिवस समारोह इतने बड़े पैमाने पर मनाया जा रहा है, उस शहर की अपनी संस्कृति है यानी भाई-चारे की, एक-दूसरे को अपना समझने की, एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होने की । यहाँ कोई जातिभेद नहीं, छुआछूत नहीं । हमें सारे देश को ऐसा ही बनाना है । " भट्टाचार्य के भाषण को सुनकर आर०के० ने कुरील से कहा, " इस बामन भट्टाचार्य से उसके घर जाकर पूछेंगे कि उसके यहाँ किराए का कमरा है ? " कुरील को लगा सच में आर०के० ने एक महत्वपूर्ण बात कह दी थी । नैमिशराय जी के शब्दों में,  " भट्टाचार्य पार्टी का जिला अध्यक्ष है । वह उसके पास कल ही जाएगा और तब तक जाता रहेगा, जब तक किराए का मकान नहीं मिल जाएगा । वरना भट्टाचार्य को आज दिये गये भाषण को वापस लेना पड़ेगा । वह हारेगा नहीं । इसी शहर में रहेगा । शहर की धड़कती हुई नब्ज को और करीब से पढ़ेगा । कुरील में नया साहस आ गया था । " [45] नैमिशराय जी की यह कहानी इसलिए आंबेडकरवादी चेतना की कहानी है, क्योंकि इस कहानी का नायक चेतराम कुरील अंत तक हार नहीं माना । वह अपने सामने उपस्थित समस्या के आगे घुटने नहीं टेका, बल्कि उस समस्या से टकराने का साहस बनाये रखा ।

'रीत' कहानी का नायक बुलाकी और नायिका फूलो है । इस कहानी का कथानक किसनपुरा गाँव में प्रचलित एक अमानवीय रीत पर आधारित है, जिसके अनुसार उस गाँव के मेहतर-समुदाय की नई-नवेली दुल्हन के साथ उस गाँव का जमींदार सुहागरात मनाता था । जब फूलो की शादी बुलाकी से हुई और वह विदा होकर ससुराल आई, तो उसे एक ही दुःख था कि उसका घरवाला घोड़ी पर चढ़कर उसे ब्याहने नहीं गया था । बुलाकी जिस समय फूलो को विदा कराकर घर लाया था, उसी समय से वह घर से गायब था । रात में जमींदार के द्वारा भेजे गये दो बदमाश फूलो को उठाकर जमींदार की हवेली में ले गये । नैमिशराय जी के शब्दों में, " जमींदार ने रात भर उसे नोचा था, उसके शरीर को जी भरकर मसला था । आखिर किसी को डर तो था ही नहीं । सुबह हुई, तो वह जूठन की तरह उठाकर बाहर फेंक दी गयी, उसके घरवाले के लिए । " [46] सुबह होने के बाद भी बुलाकी घर वापस नहीं आया । लोग तरह-तरह की बातें करते । कोई कहता कि बुलाकी को जमींदार ने मरवा दिया है, तो कोई कहता कि बुलाकी गाँव छोड़कर चला गया है । लेकिन फूलो का मन कहता कि उसका घरवाला एक दिन जरूर आएगा, अपनी फूलो को लेने । फूलो ने इसी उम्मीद पर ससुराल में रहते हुए अपने पति के इंतजार में पाँच साल बिता दिया । पाँच साल बाद उसका पति बुलाकी गाँव आया और वह भी गाँव की रीत के विपरीत घोड़े पर चढ़कर आया । फूलो घोड़े पर बैठ गयी। बुलाकी ने कहा, " चल फूलो, अब यहाँ नहीं रहेंगे ।" बुलाकी घोड़े पर फुलो को बैठाकर बस्ती से बाहर पहुँचा और घोड़ा रोक दिया । कथित सवर्णों की बस्ती की ओर शोर सुनाई पड़ रहा था । फूलों ने उस बस्ती की ओर गर्दन घुमाकर देखा । नैमिशराय जी के शब्दों में, " उस तरफ का सारा आकाश सुर्ख अंगारे के समान लाल हो गया था । जमींदार की हवेली उसी ओर थी । खूब बड़े-बड़े कमरे, आदमकद शीशे, लकड़ी की बड़ी-बड़ी मेज, कुर्सियाँ और पलंग, जिस पर जाने से पहले वह कितना रोयी और छटपटायी थी । फूलो, बुलाकी की आँखों में देखती है । जैसे पूछना चाहती हो, आखिर यह सब क्या हो गया ? घोड़े पर इस तरह आना, जमींदार की हवेली में आग । बुलाकी ने फिर से घोड़ा दौड़ाने से पहले बताया था - फूलो ! अब कोई जमींदार, गाँव की किसी औरत की इज्जत खराब नहीं करेगा । मैंने उनका वंश सदा-सदा के लिए खतम कर दिया है । " [47] इसे कहते हैं - 'विद्रोह' । बुलाकी सच्चे अर्थों में विद्रोही था । वह विद्रोही ही नहीं, बल्कि क्रांतिकारी भी था । उसने एक अमानवीय रीत को समाप्त करने के लिए हिंसा का रास्ता अपनाया था, जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता । नैमिशराय जी की यह कहानी बुद्ध शरण 'हंस' जी की कहानी 'अहिंसा परमो धम्म' की भाँति आवश्यक-हिंसा का समर्थन करती है । यदि बहुत से लोगों के हित, सम्मान और प्राण-रक्षा के लिए कुछ लोगों की हत्या भी करनी पड़े, तो वह धम्म-सम्मत है ।

'कर्ज' कहानी में नैमिशराय जी ने कर्ज लेने की जरूरत पर प्रश्नचिन्ह लगाया है ? इस कहानी का नायक अशोक अपने पिता की मृत्यु के उपरांत तेरही (ब्राह्मण-भोज) करने के लिए कर्ज लेना उचित नहीं समझता था । जब महाजन ने कर्ज लेकर उसके पिता रामदीन की तेरही करने के लिए अशोक से कहा, तो अशोक ने यह कहकर नकार दिया कि वह इस तरह की विचारधारा में विश्वास नहीं करता है । महाजन ने पूछा, " कौन से विचारधारा में ? " तो अशोक ने जवाब दिया, " यही कि कर्ज लेकर सड़ी-गली मान्यताओं और रीति-रिवाजों को पूरा किया जाए । " [48] अशोक आधुनिक सोच और वैज्ञानिक चेतना से पूर्ण युवक था । उसकी दृष्टि में कुपरंपराओं का पालन करने हेतु धन का व्यय करना अपव्यय था । इसमें कोई संदेह नहीं कि नैमिशराय जी द्वारा उल्लिखित महाजन और अशोक के इस संवाद का उद्देश्य तेरही जैसी परंपरा को कुपरंपरा के रूप में घोषित करना है । ध्यातव्य है कि आंबेडकरवादी लेखक रणजीत कबीरपंथी जी ने अपनी पुस्तक 'मृत्युभोज क्यों ?' में मृत्युभोज की परंपरा को बंद करने का आह्वान किया है । यह परंपरा केवल इसलिए गलत नहीं है कि इसका नाम कथित ब्राह्मणों के नाम पर पड़ा है । बल्कि इसलिए भी गलत है कि एक तो, लोग अपने परिजन की चिकित्सा कराने में अत्यधिक धन खर्च करने के बाद भी उनकी प्राणरक्षा नहीं कर पाने से दुखी होते हैं; दूसरे, परिजन की मृत्यु के उपरांत उन्हें शोक मनाने की बजाय खुशी से गाँव अथवा क्षेत्र के लोगों को भोजन खिलाना पड़ता है, जिससे उनकी परेशानी दोगुनी हो जाती है । इस कहानी में अशोक जब शहर में कमाने चला गया, तो उसके पिता द्वारा लिये गये कर्ज की वसूली करने के लिए महाजन ने अपने करिंदे उज्जड सिंह के साथ उसकी माँ और बहन की इज्जत लूटकर उनकी हत्या करवा दिया । अशोक जब गाँव लौटा, तो उसे अपनी माँ-बहन के हत्यारों का पता चल चुका था । एक रात, वह महाजन के घर गया और उसी की बंदूक उसके ऊपर तानकर उसका दोष स्वीकार करने के लिए उसे विवश कर दिया । महाजन ने कहा, " अशोक ! चलो मान लिया मैं दोषी हूँ, तो उसकी सजा तो मुझे कानून देगा, अदालत देगी । तुम क्यूँ नाहक ही कानून अपने हाथ में ले रहे हो ? " जवाब में अशोक बोला, " महाजन ! कानून किन लोगों का है, तुम अच्छी तरह से जानते हो । कानून ने आज तक कभी गरीबों की मदद की है, जो आज करेगा ? आज तक तुम जैसे वासना के भूखे भेड़ियों ने अनगिनत दलित महिलाओं की इज्जत लूटी, लेकिन कहीं किसी अदालत में उन पापियों को दंड मिला ? दलित गाँवों में तो पिटता ही है, साथ ही साथ कानून का ढिंढोरा पीटने वाली अदालतों में भी पिटता है । मुझे कानून का वास्ता मत दो । थाने में थानेदार होता है, वह तुम्हारी जाति का । दलितों की रिपोर्ट तक वह न लिखता है । उसे दुत्कार कर भगा दिया जाता है । अदालतों में न्यायाधीश तथा सरकारी वकील भी सवर्ण होते हैं । वे भला फिर कैसे दलितों के पक्ष में अपने निर्णय दें ? महाजन, इस गाँव की दलित अबलाओं का मुझ पर बहुत दिनों से कर्ज था । जिनकी इज्जत तुमने लूटी, समय आ गया है कि मैं कर्ज चुकाऊँ । " [49] अंततः अशोक ने महाजन और उसके कारिंदे उज्जड सिंह की हत्या कर दिया । नैमिशराय जी की इस कहानी का निहितार्थ उनकी कहानी 'रीत' के समान ही है । तात्पर्य यह है कि वंचित-वर्ग के किसी व्यक्ति को यदि प्रशासन और न्यायालय द्वारा न्याय प्राप्त न हो, तो वह स्वयं अपराधी को दंडित करे अन्यथा शोषण करने वालों का साहस बढ़ता ही चला जाएगा ।

'जगीरा' कहानी का नायक जगीरा नामक व्यक्ति है । वह लोगों के आग्रह पर चुनाव लड़ा और जीतकर सभासद बन गया । जब सभासदों की पहली बैठक हुई, तो उसमें शहर भर से वंचित-वर्ग के पाँच सभासद चुनकर गये थे, जिसमें सबसे कम उम्र का सभासद जगीरा था । नैमिशराय जी के शब्दों में, " जगीरा ने अपने भाषण की शुरुआत बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर से की थी । साथ ही, हाल में उनका चित्र लगाने का सुझाव भी दिया था । यह सुनकर कुछ आँखों में चमक उभरी थी, तो कुछ आँखों से उनकी अपनी चमक फीकी हो गयी थी । वहाँ जाति-द्वेष की आग बहने लगी थी । सभासद के रूप में जगीरा की यह पहली दस्तक थी । उसी दस्तक ने कुछ लोगों को उद्वेलित कर दिया था । " [50] यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि वंचित-वर्ग का कोई व्यक्ति बड़े पद पर होने के बाद भी समाज और मिशन के लिए कुछ करने से कतराता है । उसे अपने पद और प्रतिष्ठा से वंचित होने का डर होता है । जबकि जगीरा में साहस और आत्मविश्वास था । अपने समाज और आंबेडकर-मिशन के प्रति उसका समर्पण प्रेरणादायक है । एक दिन जब कार्पोरेशन के ऑफिस में जगीरा ने पानी के घड़े को छू दिया, तो मनुवादियों ने अखबार में छपवा दिया कि एक वंचित-वर्ग के सभासद जगीरा ने पानी का घड़ा ही फोड़ दिया । इस प्रकार जगीरा के साथ जातिगत भेदभाव और छुआछूत को आधार बनाकर अपमानजनक व्यवहार किया गया । जगीरा अपने अपमान को सहन नहीं कर सका और शराब पीने की आदत पकड़ लिया । शराब पीने का आदी होना आंबेडकरवादी व्यक्ति की पहचान नहीं है । लेकिन कोई व्यक्ति मजबूरी में मदिरापान करे और बाद में उस आदत से निजात पा ले, तो उसका प्रयास प्रशंसनीय होता है । जगीरा भी अपनी इस बुरी लत से बाद में मुक्त हो जाता है । जगीरा जिस वृद्ध व्यक्ति के आश्रय में था, उस वृद्ध व्यक्ति यानी बाबा ने एक दिन उसे शराब पीते हुए देखकर कहा, " उठ जगीरा ! शराब की दलदल में मत फँस, संघर्ष कर । अभी तेरा मकसद खतम नहीं हुआ है । यह तो शुरुआत है । " बाबा के एक-एक शब्द से जगीरा को बल मिला और उसने आत्मविश्वास के साथ कहा, " हाँ बाबा, मैं संघर्ष करूँगा । जब तक हमें सामाजिक न्याय नहीं मिल जाता, तब तक संघर्ष करता रहूँगा । " [51] यह कहते हुए उसने काँच के गिलास को जमीन पर दे मारा था । 'जगीरा' कहानी का यही संवाद इस कहानी में आंबेडकरवादी चेतना को समाविष्ट कर देता है और मोहनदास नैमिशराय जी की यह कहानी 'आंबेडकरवादी कहानी' कहलाने का अधिकार पा जाती है ।

'हमारा जवाब' कहानी का नायक हिम्मत सिंह है । वह वंचित-वर्ग का एक युवक था और खौमचे पर मिठाई बेचता था । वह ताज नगरी में स्थित जीवनी-मंडी में जाकर मिठाई का खौमचा लगाना शुरू कर दिया था । वहाँ के कुछ कथित ऊँची जाति के युवकों ने उससे इस बात पर विवाद किया कि वह छोटी जाति का है और उसकी मिठाई ऊँची जाति के लोग खाते हैं, जिससे कि उनका धर्म भ्रष्ट हो जाता है । इसलिए उन सबने हिम्मत सिंह को वहाँ पर मिठाई का खौमचा लगाने से मना कर दिया । जब हिम्मत सिंह नहीं माना, तो उन सबने उसके साथ मारपीट की । हिम्मत सिंह बुरी तरह से घायल हो गया था, लेकिन फिर भी वह हिम्मत नहीं हारा । कहानी के अंत में हिम्मत सिंह के द्वारा कही गयी एक बात से यह कहानी वैचारिक रूप से समर्थ और सशक्त बन जाती है । मरने से पहले हिम्मत सिंह ने अपने पास एकत्रित लोगों से कहा, " मैं तो जा रहा हूँ, पर मेरे बाद इस आंदोलन को रोकना मत । हर बस्ती से एक आदमी खौमचा लगाए और समता तथा सम्मान के आंदोलन को आगे बढ़ाए, जातिवाद को खत्म करे । " [52] इस प्रकार नैमिशराय जी की यह कहानी सामाजिक न्याय के लिए निरंतर संघर्ष करने की प्रेरणा देती है । यह कहानी जातिवादी समाज में व्याप्त भेदभाव और छुआछूत के विरुद्ध संगठित होकर समता के उद्देश्य को पूरा करने का आह्वान करती है ।

'परंपरा' कहानी का नायक आदर्श है । वह दो-तीन अखबारों में स्वतंत्र रूप से लेख आदि लिखता था । चूँकि वह सामाजिक न्याय और समता के पक्ष में हमेशा लिखता था, इसलिए विषमतावादी लोगों से उसकी कहासुनी हो जाया करती थी । एक रात जब वह घर लौटा, तो उसकी पत्नी सुनंदा, जो कभी उसकी क्लासमेट थी, एक पत्रिका में छपी उसकी ताजी कहानी पढ़ रही थी । बातचीत के दौरान जब सुनंदा ने आदर्श से कहा, " आदर्श तुम समझते क्यों नहीं ? ये संघर्ष, क्रांति, आंदोलन एक सीमा तक ही अच्छे लगते हैं । " तो आदर्श ने कहा, " संघर्ष, क्रांति और आंदोलन की कोई सीमा नहीं होती । वे तब तक होते हैं, जब तक समाज में जुल्म तथा अन्याय की परंपरा होती है । सुनंदा ने नाराज होते हुए कहा, " पर उस परंपरा को तुम अकेले कैसे मिटा सकते हो ? " आदर्श ने जवाब दिया, " मैं अकेला कहा हूँ ? मैंने तो सुनंदा तुम्हारा हाथ थामा था । इसलिए कि तुम मेरा साथ दो । पर मुझे क्या मालूम था कि तुम भी मेरा साथ छोड़ दोगी । " [53] सुनंदा ने अनुभव किया कि आदर्श के मन में अकेलेपन की पीड़ा है । साथ ही, उसे आदर्श बातों में सच्चाई का अनुभव हुआ । नैमिशराय जी के शब्दों में, " सुनंदा ने महसूस किया कि आदर्श के भीतर कहीं गहरे तक पीड़ा भरी है । आदर्श ठीक ही तो कहता है । समाज में कैसे लोगों की इज्जत होती है, वह बखूबी जानती है । आदर्श के साथ रहते-रहते इतना तो सीख ही लिया था उसने । अचानक उसने देखा आदर्श की आँखों में हजारों सवाल उभर आये थे । उसने महसूस किया सचमुच ही तो आदर्श अकेला पड़ गया है । जैसे आदर्श के साथ मिलकर उन सबका जवाब देने का मन बना लिया था उसने । " [54] मोहनदास नैमिशराय जी की यह कहानी यह अनुभव कराती है कि सामाजिक कार्य में तल्लीन एवं किसी आंदोलन के प्रति समर्पित व्यक्ति कभी-कभी बहुत ही अकेलेपन का अनुभव करने लगता है । ऐसी स्थिति में उसके परिवार के लोगों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उसके साथ प्रेमपूर्वक मधुर व्यवहार करें । यदि आंदोलनरत व्यक्ति विवाहित हो, तो उसकी पत्नी को उसकी मानसिक स्थिति का अनुमान लगाते हुए उसके विचारों को समर्थन एवं उसके कार्यों में सहयोग देना चाहिए । अन्यथा पति-पत्नी के बीच मतभेद होने पर झगड़ा-लड़ाई होना स्वभाविक है । नैमिशराय जी की यह कहानी पति-पत्नी को आपस में सामंजस्य स्थापित करके एक-दूसरे का सहयोग करने के लिए प्रेरित करती है, क्योंकि सच्चे जीवनसाथी का यही कर्तव्य है । ऊर्जावान और संघर्षशील व्यक्ति अपनों का साथ पाकर स्वयं के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए और देश के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है ।

'तुलसा' कहानी नैमिशराय जी की नायिका-प्रधान कहानी है । इस कहानी की नायिका तुलसा अनपढ़ थी । वह मूलतः गाँव की थी, लेकिन शहर में अपनी दादी के साथ रहती थी । उसकी ताई का लड़का सुमित बारहवीं कक्षा में था । एक दिन देर रात तक वह गाँव की यादों में खोयी सोच रही थी कि उसने देखा सुमित पढ़ रहा था । तुलसा ने उससे पूछा, " तू अभी तक पढ़ रहा है ? " सुमित बोला,  " हाँ । " और फिर कहा, " देखो दीदी, तुम बहुत सोचती हो न । इसलिए पढ़ना शुरू कर दो । पढ़ोगी-लिखोगी, तो इतना सोचोगी तो नहीं । " [55] तुलसा ने सुमित की बात को उस समय गंभीरता से नहीं लिया । एक दिन सुमित, तुलसा को अपने साथ अपने कॉलेज में हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम में ले गया । कार्यक्रम में शिक्षा पर आधारित नाटक को देखकर तुलसा भावुक हो गयी । नाटक खत्म होते ही वह सुबकने लगी और बोली, " हाँ, मैं पढूँगी । मैं अवश्य ही पढूँगी । " [56] इस प्रकार 'तुलसा' कहानी में नैमिशराय जी ने शिक्षा के महत्व को दर्शाते हुए लड़के और लड़की के लिए समान शिक्षा की आवश्यकता को चिन्हित किया है । साथ ही, इस कहानी में यह भी संकेत किया गया है कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती है ।

स्पष्ट है कि मोहनदास नैमिशराय जी की कुल प्रकाशित कहानियों में से केवल एक चौथाई कहानियाँ ही आंबेडकरवादी चेतना से युक्त हैं । लेकिन इन कहानियों में भी नैमिशराय जी आंबेडकरवादी आंदोलन से संबंधित भावों और विचारों को पूरी तरह से समाविष्ट करने में सफल नहीं हो पाये हैं । संभवतः इसका कारण यही है कि वे मूलतः पत्रकार और साहित्यकार रहे हैं । संगठन और आंदोलन से उनका विशेष जुड़ाव नहीं रहा है । नैमिशराय जी ने कहानी-लेखन का आरंभ ओमप्रकाश वाल्मीकि से पहले कर दिया था । इतने लंबे समय तक कहानी लिखने के उपरांत भी नैमिशराय जी की कथा-शैली सशक्त और प्रभावशाली नहीं बन पायी है । उनकी कहानियों में कहीं-कहीं अपशब्दों के भी प्रयोग हैं, जो अस्वाभाविक और अनावश्यक प्रतीत होते हैं । नैमिशराय जी की भाषा में भी वह प्रवाह नहीं है, जिसकी अपेक्षा एक वरिष्ठ कहानीकार की कहानियों में की जाती है ।


श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' (9 जनवरी 1950) 

श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी का केवल एक कहानी-संग्रह 'जनेऊ और मोची ठाकुर' (2014) प्रकाशित हुआ है । इस संग्रह में कुल सत्रह कहानियाँ हैं - 'जनेऊ', 'चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी', 'मछली', 'मेरी जाति', 'फैसला', विशेसर पंडित', 'महतैन', 'मोची ठाकुर', 'एकादशी', 'बँटवारा', 'कलुआ', 'प्रधान', 'दाई', 'लठैत', 'परिवर्तन', 'फ्रीडम फाइटर', 'सुशीला' आदि । राही जी की कहानियों में केवल पाँच कहानियाँ ही आंबेडकरवादी चेतना के अनुकूल हैं - 'फैसला', 'मोची ठाकुर', 'कलुआ', 'दाई' और 'परिवर्तन' । लेकिन इसका तात्पर्य नहीं है कि 'प्रियदर्शी' जी की अन्य कहानियों का कोई महत्व नहीं है । उनकी अन्य कहानियों में सामाजिक यथार्थ है, जिनमें नयी कहानी की विशेषता समाविष्ट है । चूँकि आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य केवल सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करना ही नहीं है, बल्कि समाज को सम्यक दिशा प्रदान करना भी है । इसलिए आंबेडकरवादी कहानियों में बुद्ध-दर्शन और आंबेडकरवादी दृष्टि से संपन्न भावों एवं विचारों का समावेशन अनिवार्य है ।

'फैसला' कहानी का नायक रामवीर है । वह कुशाग्र-बुद्धि तथा मेधावी था । श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी के शब्दों में, " उसकी बिरादरी के लोग मृत पशुओं का माँस खाना तो एक अरसे पहले छोड़ चुके थे । पर सामंती वर्ग द्वारा ली जाने वाली बेगार तथा जोर-जबरदस्ती से मृत पशुओं को खींचना तथा उनका चमड़ा उतारना जैसी घृणित प्रथाएँ अब भी समाज में थीं । " [57] कठिन परिश्रम और पढ़़ाई करके रामवीर राजस्व सेवा में अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गया था । फाल्गुन का महीना था । होली का त्यौहार आने वाला था । उसने होली से पहले कुछ अवकाश ले लिया था । चूँकि सामाजिक नेतृत्व करने के कारण उसके क्षेत्र के अनेक लोग उसके प्राण के शत्रु थे और अवसर पाकर कुछ भी कर सकते थे, इसलिए उसके पिता ने उससे कहा था कि " अब तुम्हें यहाँ आने की आवश्यकता नहीं है । " यही कारण था कि रामवीर ने होली अपनी ससुराल में मनाने का निश्चय किया था । वह ससुराल पहुँच गया । अगले दिन मौसम अचानक बदल गया और ठंड बढ़ गयी । शाम से कुछ समय पहले उसने देखा कि उसके बड़े साले कुएँ पर स्नान कर रहे थे । उसके साले लगभग बूढ़े हो चुके थे तथा सर्दी, बुखार से परेशान थे । फिर भी जाड़े में असमय स्नान कर रहे थे । रामवीर ने एक ग्रामीण से इसका कारण पूछा । 'प्रियदर्शी' जी के शब्दों में, " उसने बताया कि पड़ोसी पंडित की गाय मर गई थी । उसी को खींचकर गाँव से बाहर ले गये थे । मुहल्ले के लोगों ने आपके डर से उसकी खाल तो नहीं उतारी, उसे गड्ढा खोदकर गाड़ दिया । इसी से नहा रहे हैं । " [58] चूँकि स्वतंत्रता के पश्चात अधिकांश गाँव वालों ने इस शोषण से मुक्ति पा ली थी । फिर भी अभी तक वह गाँव उसका शिकार था । रामवीर ने इस शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने का निश्चय किया । शाम को जब उसके बड़े साले भोजन के लिए बुलाने आयेे, तो वह भोजन करने से मना कर दिया । जब उसकी सलहज हँसी-ठिठोली करनेे लगी, तो अपने रूठने का कारण बताते हुए उसने अंत में अपने साले जी से कहा, " मैं रूठा इसलिए हूँ कि आप उस गंदगी तथा शोषण को अब तक स्वीकार किये हुये हैं । " उनकी बात पूरी समाप्त नहीं हुई थी कि मुहल्ले के चार नौजवान वहाँ उससे मिलने आ गयेे । उन्होंने रामवीर की अंतिम बात सुन ली । उन नौजवानों में से जंजाली नाम के एक नौजवान और रामवीर के बीच संवाद होने लगा । जंजाली ने कहा -
" यह तो हमारे गाँव में सालों से चला आ रहा है । अब कोई न तो माँस खाता है, न चमड़ा उतारता है । हाँ, गाँव से खींचकर बाहर ले जाकर गाड़ अवश्य देते हैं । "
" यह सब भी क्यों करते हैं ? क्या वे लोग यह काम स्वयं नहीं कर सकते ? "
" कर तो सकते हैं, पर लोगों के पास ज्यादा जमीन-जायदाद तो है नहीं । जीवन-निर्वाह के लिए उन पर आश्रित रहना पड़ता है । इसलिए यह मजबूरी है । "
" कोई मजबूरी नहीं, यह बुजदिली है । जब तक हम दबते रहेंगे, हमें दबाया जाता रहेगा । " [59] 
उसके बाद उस नौजवान ने गाँव के अन्य लोगों को भी इकट्ठा किया और सबके साथ उस घृणित काम को न करने का संकल्प लिया । श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी ने इस कहानी में नायक रामवीर के क्रांतिकारी, दृढ़-संकल्पी, साहसी और संघर्षशील चरित्र का मार्मिक चित्रण किया है । उनकी यह कहानी वंचित वर्ग के लोगों को स्वाभिमान से जीने के लिए सामाजिक परिवर्तन करने की प्रेरणा देती है । 

'मोची ठाकुर' कहानी का मुख्य पात्र हरपाल सिंह है, जिसे पूरा कस्बा 'मोची ठाकुर' के नाम से जानता था । वह बरगदवा का रहने वाला था । जब उसका परिवार आर्थिक तंगी से जूझने लगा और खाने के लाले पड़ने लगे, तो वह मुंबई में सीखा हुआ मोची का काम शुरू करने के लिए अपने पिता करन सिंह के सामने अपना विचार रखा । उसके पिता ने कहा, " हम ठाकुर हैं । हम चमारों-मोचियों का काम नहीं करेंगें, चाहे मर जावें । " [60] प्रत्युत्तर में हरपाल सिंह ने कहा, " पिताजी अब जमाना बदल गया है । जब ठाकुर, ब्राह्मण, बनिए जूतों की दुकान कर रहे हैं, तो फिर इस काम में क्या बुराई है ? मैंने यह काम मुंबई में सीखा है, मैं इसे कर अच्छा पैसा कमा सकता हूँ । " [61] 'प्रियदर्शी' जी की इस कहानी का निहितार्थ यही है कि कोई भी पेशा छोटा अथवा बड़ा नहीं होता है । पेशा जीविकोपार्जन का एक माध्यम है । यह अलग बात है कि इस देश में पेशे के आधार पर जातियों का नामकरण हो गया है । जबकि सच्चाई यही है कि वर्तमान में कथित निम्न जाति के लोग उच्च कर्म कर रहे हैं और कथित उच्च जाति के लोग निम्न कर्म करने में लिप्त हैं । युग-परिवर्तन के साथ-साथ लोगों में विचार-परिवर्तन भी हो चुका है । अब तो ब्राह्मण भी सफाईकर्मी का काम करने में संकोच नहीं करते हैं । इस कहानी का नायक हरपाल सिंह मोची का काम करने में तनिक भी लाज नहीं करता है, बल्कि वह जूता गाँठने को एक कला समझता है । हरपाल सिंह का केवल चरित्र ही क्रांतिकारी नहीं है, बल्कि उसका प्रसिद्ध नाम 'मोची ठाकुर' भी क्रांति का बोध कराता है ।

'कलुआ' कहानी इस्माइलपुर गााँव के परिवेश की है । पंडित दुर्गादत्त महापात्र के चार लड़के थे - सबके सब आवारा और शिक्षा से दूर भागने वाले । दुर्गादत्त की मृत्यु के बाद उनके तीन लड़के गाँव छोड़कर चले गये । केवल मझला लड़का श्यामसुंदर रह गया । पंडित श्यामसुंदर महापात्र के कुल आठ संताने थीं - सात लड़कियाँ और एकमात्र पुत्र कालीचरण महापात्र । पंडिताइन ने जब एक-एक करके छः लड़कियों को जन्म दिया था, तो उस विश्वास हो गया था कि श्यामसुंदर महापात्र में वह शक्ति नहीं है, जो उसकी कोख में एक पुत्र दे सके । इसलिए उसने पड़ोस के सुक्खा चमार से संबंध बनाया था । उसी का परिणाम था कि उसकी गोद में एक पुत्र । वही पुत्र जो अपने वास्तविक पिता सुखा चमार की तरह काला और स्वस्थ था । गाँव के लोगों में वैचारिक रूप से बहुत अधिक परिवर्तन हो चुका था । श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी ने लिखा है, " जबसे चमारों में आंबेडकरवाद का प्रभाव पड़ा था, सब आधे-अधूरे भगवान बुद्ध के अनुयायी होने का दिखावा कर रहे थे । वे चाहे बौद्ध पूरे नहीं भी बने थे, पर मंदिर को दान आदि देने में उनकी कोई रुचि नहीं थी, न वे अब हिंदू धार्मिक कर्मकांडों पर विश्वास कर रहे थे । " [62] चौधरी हरस्वरूप चमारों में खाते-पीते परिवार के थे । वे पंडित श्यामसुंदर के पड़ोसी थे । उन्होंने ठेकेदारी के बल पर पड़ोसी गाँव पूरनपुर की जमींदारी खरीद ली थी । श्यामसुंदर महापात्र के पुत्र कालीचरण को लोग रंग के कारण 'कलुआ' कहकर पुकारते थे । हरस्वरूप चौधरी के पूरनपुर वाले खेत में एक कुआँ खोदा जा रहा था । कलुआ भी वहीं पर काम कर रहा था । कलुआ की छोटी बहन प्रतिदिन घर से खाना बनाकर उसे खेत पर पहुँचाती थी । एक दिन उसकी छोटी बहन को बुखार हुआ था । पंडिताइन ने बड़ी लड़कियों को उतनी दूर जाने नहीं दिया । इसलिए कलुआ के लिए रोटी नहीं आ सकी । जब दोपहर हुई, तो चौधरी हरस्वरूप ने भूखे कलुआ को अपनी रोटी देते हुए खाने के लिए कहा । कलुआ चुपचाप बैठा कुछ देर तक सोचता रहा, फिर भविष्य में होने वाले परिणाम की चिंता न करते हुए बोला, " कोई देख ले तो क्या बात ? कोई पूरी तो डाल नहीं देगा । फिर जिस बामन के मुझे लड़की ब्याहनी हो, न ब्याहे । मैं तो अब आपकी रोटी खाऊँगा । मेरे तो पालनहार आप ही हो । " [63] उस दिन के बाद कलुवा निरंतर चौधरी हरस्वरूप के घर की रोटी खाने लगा । उड़ते-उड़ते यह खबर गाँव पहुँची, तो ब्राह्मणों ने शोर मचाना शुरू किया कि " एक ब्राह्मण द्वारा चमार की चाकरी, फिर उसी के घर खाना-पीना । "  जब एक ब्राह्मण है श्यामसुंदर से कहा तो कि पंडित जी आपका लड़का एक चमार के घर रोटी खा रहा है तब पंडित जी ने भी खरा जवाब दिया, " मेरा मुँह न खुलवाओ । तुम सब लोग जब कोई चमार, धोबी, हकीम-हुक्काम आ जाता है, तो क्या उसे अपने बर्तन में नहीं खिलाते ? उसके जूठे बर्तन नहीं उठाते ? पिछली बार जब थाने गये थे, तो उस चमार इंचार्ज दरोगा के दफ्तर में कैसे चबड़-चबड़ उसके घर से बन आई पकौड़ियाँ खा रहे थे तथा चाय सुड़क रहे थे । तब तुम्हारा ब्राह्मणपन कहाँ चला गया ? देश के कानून में छुआछूत अपराध है । अगर तुम लोगों ने फिर कोई बखेड़ा खड़ा किया, तो मैं तुम्हारे खिलाफ जाति-पांति छुआछूत की रपट लिखा दूँगा । " [64] उस दिन के बाद गाँव में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया । ब्राह्मणों ने चमारों के साथ खाना-पीना आरंभ कर दिया था । गाँव के इस सांस्कृतिक परिवर्तन का श्रेय गाँव के लोग कलुआ को ही देते ।

'दाई' कहानी की नायिका फूलमती है । वह खेमपुरवा गाँव में रहती थी । उसके तीन लड़के थे - तेजपाल, प्रेमप्रकाश और बाबूलाल । जब उसका बड़ा लड़का तेजपाल एम.ए. कर रहा था, तभी उसके पति की मृत्यु हो गयी । उसके बाद फूलमती ने दाई का कार्य करना आरंभ कर दिया था । 'प्रियदर्शी' जी के शब्दों में, " आस-पड़ोस के गाँव के सवर्णों के अधिकतर युवा वे थे, जिन्हें फूलमती ने पैदा कराया था । " [65] फूलमती का बड़ा लड़का तेजपाल जब प्रशासनिक सेवा में हो गया, तो वह अपने दोनों छोटे भाइयों को भी अपने साथ ले गया । वह अपनी माँ को बार-बार दाई का काम छोड़ने को कहता । इस पर फूलमती कहती, " जिस दिन प्रेम और बाबू काम करने लगेंगे, मैं यह काम छोड़ दूँगी । " [66] प्रेम और बाबू दोनों इंजीनियर हो गये । प्रेम दिल्ली में ही नौकरी पा गया और बाबू दुबई चला गया । चूँकि फूलमती अपने लड़कों के साथ दिल्ली में रहने के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए बाबू ने गाँव में ही एक हवेली बनवा दी थी । फूलमती की हवेली कभी-कभी उसके बेटे-बहुओं और उनके बच्चों के आ जाने से भर जाती । वे जब तक रहते, घर में शोर-शराबा होता रहता । 'प्रियदर्शी' जी के शब्दों में, " वह अपने नाती-पोतों को गाँव की वह चीजें स्वयं बनाकर खिलाती, जो सब कुछ होने के बाद भी शहर में पैसे से नहीं खरीदी जा सकती । " [67] 'प्रियदर्शी' जी ने अपनी कहानी 'दाई' के माध्यम से निम्न जाति की निर्धन और निर्बल महिलाओं को निरंतर संघर्ष करते रहने की प्रेरणा दी है । फूलमती को उन्होंने एक आदर्श महिला के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसने जीवन से संघर्ष करते हुए अपने तीनों लड़कों को उच्च शिक्षा दिलाया । उसके संघर्ष का ही परिणाम था कि उसने वृद्धावस्था में हवेली का सुख प्राप्त किया । फूलमती संघर्षशील होने के साथ-साथ विनम्र, उदार, व्यवहार-कुशल और सच्चरित्र भी थी  ।

'परिवर्तन' कहानी का प्रमुख पात्र निहालचंद्र है । वह आयकर आयुक्त के पद से सेवानिवृत्त हो चुका था । वह अट्ठारह साल बाद अपने गाँव वैैैैवाहिक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए आया था । उसके गाँव का नाम मूसेपुर है । निहालचंद्र और खुशहालचंद्र दो भाई थे । बड़े भाई हरदोई में पटवारी थे । गाँव आने के बाद शाम को उसने गाँव का भ्रमण किया, तो देखा कि गाँव अब पहले वाला गाँव नहीं रह गया था । पूरे गाँव में पक्का खड़ंजा था । गाँव में पहले मुश्किल से चार-पाँच पक्के मकान थे, लेकिन अब लगभग आधे मकान पक्के थे । गाँव के स्कूल को उसने पास जाकर देखा । उस पर लिखा हुआ था - " प्राथमिक पाठशाला मूसेपुर, ब्लाक - भरखनी, जिला - हरदोई । " विद्यालय के बरामदे में जगह-जगह नीति वाक्य लिखे थे, जिनके नीचे स्थान-स्थान पर कोयले से गाँव वालों ने अश्लील वाक्य लिख रखे थे, अश्लील चित्र बना रखे थे । स्कूल की अध्यापिका के चरित्र को लेकर आपत्तिजनक बातें लिखीं थीं । स्कूल के अहाते में ही उसे प्रेम सिंह मिल गया । प्रेम सिंह उसका कक्षा आठ तक का सहपाठी था, जो आठवी में फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ दिया था । उसके पास पर्याप्त जमीन थी । उसका पिता जमींदार था । प्रेम सिंह को देखकर वह पहचानने का जब प्रयास करने लगा, तो प्रेम सिंह ने स्वयं ही बताया, " निहाल ! मैं प्रेम सिंह, तेरा सहपाठी । " प्रेम सिंह का इस तरह उसे 'निहाल' कहना बहुत ही अनुचित लगा । वर्षों से उसे 'साहब' या फिर 'भास्कर साहब' सुनने की आदत थी । वह नाराज होकर रूखेपन से कहा, " तो तुम प्रेम हो, जो आठवी में फेल हो गये थे । " [68] यह बात कहकर एक प्रकार से निहालचंद्र ने अपने अपमान का बदला लिया था । अगली सुबह जब निहालचंद्र टहलकर नदी की ओर से वापस आ रहा था, तो उसकी मुलाकात प्रेम सिंह से फिर हो गयी । इस बार प्रेम सिंह ने उसे नमस्ते कहा । निहालचंद्र उसके कल के बर्ताव से प्रसन्न नहीं था, लेकिन आज उसके नमस्ते करने पर प्रसन्न हुआ और पूछा, " कहो प्रेम सिंह ! हाल-चाल कैसे हैं ? बच्चे तो ठीक-ठाक हैं ? " [69] प्रेम सिंह ने बताया कि उसके चार बच्चे हैं - दो लड़के तथा दो लड़कियाँ । उसने अपनी जवानी के दिनों में असंतुलित व्यय के कारण उत्पन्न निर्धनता की स्थिति का रोना रोया और अपने लड़कों की नालायकी और आवारागर्दी का भी दुखद वर्णन किया । उसने बताया कि उसकी एक लड़की की शादी हो चुकी है और दूसरी बी.ए. कर ली है तथा उसकी नौकरी का इंटरव्यू चार-पाँच दिन बाद लखनऊ में है । विवाह का कार्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद निहालचंद्र पूनम सिंह को साथ लेकर लखनऊ पहुँचा । लखनऊ में उसकी भव्य कोठी थी । उसने पूनम को एक कमरा दे दिया । पूनम साक्षात्कार में उत्तीर्ण हो गयी और उसे सचिवालय में नौकरी मिल गयी । निहालचंद्र का भांजा हेमंत सिंह भी उसी के साथ उसकी कोठी में रह रहा था । वह स्थानीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रवक्ता था । पूनम और हेमंत के बीच प्रेम हो गया और दोनों एक-दूसरे के साथ विवाह करना चाहते थे । जब निहालचंद्र को यह बात पता चली, तो उसने पूनम को समझाने का प्रयास किया । चूँकि वह सुलझी हुई लड़की थी, इसलिए उसने कहा, " ताऊ ! आप किस जमाने में जी रहे हैं ? मैं तो आज अपने गाँव में देख रही हूँ । मैंने तय कर लिया कि किसी भी गाँव में ठाकुरों के लड़कों से शादी नहीं करूँगी । सब के सब नकारा, सामंती सोच, हकीकत को नकारने वाले हैं । हेमंत जी को मैं पसंद करती हूँ । यह परिवर्तन का युग है । हम यदि जाति-पांति के संकीर्ण दायरों में ही रहेंगे, तो बदलती दुनिया, विकसित होते समाज के साथ तालमेल कैसे बिठा पाएँगे ? हमारी एक ही जाति है, वह है 'मानव' । मानव-मानव के बीच भेद कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता । आप हमें बस आशीर्वाद दीजिए । " [70] अंततः पूनम और हेमंत का विवाह हो गया । उन्होंने समाजिक रुढ़ि के विरुद्ध जो कार्य किया, वही इस कहानी 'परिवर्तन' के शीर्षक की सार्थकता है । श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी ने अपनी कहानी 'परिवर्तन' के माध्यम से अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन प्रदान दिया है । 

श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी मिजाजी साहित्यकार हैं । उनका किसी एक वाद अथवा दर्शन से संबंध नहीं है । वे हर प्रकार के भावों और विचारों का साहित्य-सृजन करते हैं । अपनी अन्य कहानियों में उन्होंने समकालीन कहानी की प्रमुख विशेषता 'सामाजिक-यथार्थ' का समावेश किया है । उनकी कहानियाँ समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की बुराइयों, कुपरंपराओं, भ्रांतियों आदि का अनावरण करती हैं । किंतु उन कहानियों के प्रमुख पात्र आंबेडकरवादी विचारधारा के पोषक नहीं हैं, बल्कि उन कहानियों के पात्र किसी न किसी रूप में सामाजिक विद्रूपता के शिकार हैं ।  


ओमप्रकाश वाल्मीकि (30 जून 1950 - 17 नवंबर 2013) 

ओमप्रकाश वाल्मीकि के तीन कहानी संग्रह - 'सलाम' (2000), 'घुसपैठिए' (2003), 'छतरी' (2013) प्रकाशित हैं । वाल्मीकि जी ने अपनी कहानियों के बारे में लिखा है, " कहानी मेरी सामाजिक संबद्धता है, जो मुझे विवश भी करती है कहानी लिखने के लिए । मैं जीवन की बेहतरी के लिए लिखता हूँ । इसलिए कि सामाजिक जीवन में जो विषमताएँ मौजूद हैं, उन्हें सबसे निचली सीढ़ी पर खड़े कमजोर मनुष्य पर जबरन थोपा गया है । यह काम धर्म के नाम पर हुआ, ईश्वर और संस्कृति, विरासत के नाम पर हुआ है । उन सबने मिलकर मनुष्य की नैसर्गिक मनुष्यता को खत्म किया है, जो हर पल असहनीय होता जा रहा है । यह असहनीयता ही है, जो मेरे आत्म-संघर्ष के रूप में कहानी बनकर पाठकों के सामने आती है । " [71] ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में वंचित-वर्ग की पीड़ा, शोषण, उत्पीड़न, जातिभेद, छुआछूत, अत्याचार, बलात्कार आदि का ही अधिकांश चित्रण है । वाल्मीकि जी की कहानियों में शोषण का वर्णन बहुत अधिक है, जबकि शोषण से मुक्त होने के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा बहुत ही कम है । उन्होंने अपनी कहानियों में सामाजिक समस्याओं को तो रेखांकित किया है, लेकिन समस्याओं के समाधान पर ध्यान देना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा है । वाल्मीकि जी ने अपनी कहानियों में जाति छुपाकर रहने वाले वंचित-वर्ग के पात्रों के अंतर्द्वंद्व का मनोवैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया है । 'भय' और 'दिनेशपाल जाटव उर्फ दिग्दर्शन' आदि इसी प्रकार की कहानियाँ हैं । वाल्मीकि जी की दो कहानियाँ 'सलाम' और 'शवयात्रा' विघटन-भाव की कहानियाँ हैं, जो आंबेडकरवादी चेतना के विरुद्ध हैं । 

'सलाम' कहानी में हरीश और कमल दोनों दोस्त थे । हरीश की शादी थी, जिसमें बराती के रूप में कमल भी शरीक हुआ था ।  हरीश चूहड़ा था और कमल ब्राह्मण था । कमल को सुबह-सुबह चाय पीने की आदत थी । उसे सुबह छः बजे चाय नहीं मिलती, तो उसका सिर भारी होने लगता था । एक बुजुर्ग ने उसे गाँव के बाहर एक  दुकान के बारे में बताया । जब दुकानदार ने जाना कि वह देहरादून से आयी हुई बारात का बाराती है, तो उसने समझा कि वह भी चूहड़ा है और उसने जवाब दिया, " यहाँ चूहड़े-चमारों को मेरी दुकान में तो चाय नहीं मिलती, कहीं और जाकर पियो । " [72] कमल ने बताया कि उसका नाम कमल उपाध्याय है, फिर भी चायवाला 'चूहड़ों की बारात में बाभन ?' कहकर उसे ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया । उनका वार्तालाप सुनकर लोग इकट्ठा हो गये । बल्लू रांघड़ के सिकिया पहलवान रामपाल ने पूरे मामले की जानकारी ली और सब कुछ जानने के बाद उसने वाद-विवाद करते हुए कमल को धक्का देकर दुकान से बाहर कर दिया । उस समय कमल ने पहली बार अखबारों में छपी उन खबरों का गंभीरता से अनुभव किया, जिस पर वह विश्वास नहीं करता था कि फलाँ जगह वंचित-वर्ग के युवक को पीट-पीट कर मार डाला, फलाँ जगह आग में भून दिया, घरों में आग लगा दी । वाल्मीकि जी के शब्दों में, " जब-जब भी हरीश इस तरह का समाचार कमल को सुनाता, वह एक अलग ही तर्क दोहरा देता था । 'हरीश अपने मन से हीन-भावना निकालो । दुनिया कहाँ से कहाँ निकल गयी और तुम लोग वहीं-के-वहीं हो । " [73] लेकिन उस समय कमल के सामने हरीश का एक-एक शब्द सच लग रहा था । चूँकि उस गाँव की परंपरा थी कि विदाई से पहले दूल्हा और दुल्हन को रांघड़ों के दरवाजे पर सलाम के लिए जाना होता था, इसलिए हरीश को भी वह रस्म निभाने के लिए कहा गया । हरीश के पिताजी ने साफ इनकार कर दिया, " हम सलाम पर अपने लड़के को नहीं भेजेंगे । " बड़े-बूढ़ों ने तर्क दिया, " बाप-दादों की रीत है । एक दिन में तो ना छोड़ी जावे है । वे बड़े लोग हैं । 'सलाम' पे तो जाणा ही पड़ेगा । और फिर जल में रहकर मगरमच्छ से बैर रखना तो ठीक नहीं है । और इसी बहाने कपड़ा-लत्ता, बर्तन-भाँडे भी नेग-दस्तूर में आ जाते हैं । " यह सुनकर हरीश ने स्पष्ट रूप से कह दिया, " मुझे न ऐसे कपड़े चाहिए, न बर्तन । मैं अपरिचितों के दरवाजे 'सलाम' पर नहीं जाऊँगा । [74] 'सलाम' में देर होने पर बल्लू रांघड़ जुम्मन के घर आया । उसने जुम्मन और उसकी घरवाली को मेहमानों के सामने ही फटकार सुनायी और 'सलाम' पर जल्दी आने का फैसला सुनाते हुए गुस्से में चला गया । शादी की सारी चहल-पहल पल भर में सन्नाटे में सिमटकर बदल गयी थी । वाल्मीकि जी के शब्दों में, " इस सन्नाटे का शोर कमल उपाध्याय को बेचैन कर रहा था । उसका दम घुट रहा था । उसने हरीश की ओर देखा । हरीश की आँखों में आत्मविश्वास और सम्मान के उगते सूरज की चमक दिखाई पड़ रही थी । " [75] इस कहानी में वाल्मीकि जी ने एक अनावश्यक प्रसंग जोड़ दिया है । जल्दी-जल्दी सारे बारातियों को खाना खिला दिया गया । कमल और हरीश खाना खाकर नीम की छाँव में पड़ी चारपाई पर बैठे थे । उसी समय सामने दीवार की ओर मुँह करके एक दस-बारह साल का लड़का खड़ा था । उसके चेहरे पर गुस्से का भाव था । उसे ढूँढते-ढूँढते एक बूढ़ा आँगन में घुसा । उसके हाथ में नान और मीट था । " दीपू...ओ...दीपू कहाँ है... ये लौंडा भी बहुत दिक करे है । चूहड़ों के घर पैदा होके बामनों-सी बोली बोले है । " उसे दीवार के पास खड़ा देखकर उसने डाँटते हुए 'नान' और 'मीट' खाने के लिए कहा, लेकिन लड़के ने खाने से इनकार कर दिया । जब बूढ़े ने पूछा कि क्या हुआ है इसमें ? तो उसने उत्तर दिया, " मुसलमान के हाथ की बणी रोट्टी मैं नी खाता । " बूढ़े ने बताया कि रोटी बनाने वाला कारीगर हिंदू है, लेकिन लड़का नहीं माना और अपनी बात पर बल देते हुए दो बार और कहा, " मैं मुसलमान के हाथ की बणी रोट्टी नहीं खाऊँगा...नहीं खाऊँगा । " [76] इस कहानी का गंभीरतापूर्वक पाठ करने से स्पष्ट हो जाता है कि 'सलाम' शीर्षक के अनुसार कहानी का अंत वहीं हो जाना चाहिए था, जब हरीश ने सलाम पर जाने से इनकार कर दिया । उसके बाद के इस प्रसंग का कोई औचित्य ही नहीं है । इस कहानी में वाल्मीकि जी द्वारा एक मुसलमान के प्रति घृणा-भाव दिखाने का पार्श्व-प्रयोजन संदेहास्पद है । इस प्रसंग की आलोचना करते हुए डाॅ० एन० सिंह जी ने लिखा है, " संभवतः इस प्रसंग का संयोजन वाल्मीकि जी ने बहुत ही सोच समझकर समय की नजाकत को देखते हुए अपने रचनाकार के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया है । इसमें उन्होंने दो बातें कही हैं । एक - ' चूहड़ों के घर में पैदा होके बामनों सी बोली बोले हैं ।' इसका तात्पर्य यह है कि चूहड़े (वाल्मीकि) हिंदू समाज में ब्राह्मणों के ज्यादा नजदीक हैं, जो हिंदुत्व की रीढ़ हैं और भाजपा के कर्ता-धर्ता भी । इस प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने सामाजिक सरोकारों को भाजपा की राजनीति से जोड़ दिया है । दूसरी बात उन्होंने कही है - 'मुसलमान के हाथ की बणी रोट्टी मैं नी खाता ।' इस बात को उन्होंने इस प्रसंग में तीन बार बहुत जोर देकर कहा है । इससे मुसलमानों के प्रति उनके मन की घृणा बाहर आ गयी है, जो भारत की संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध है और जिसने उन्हें फासीवादी हिंदुत्व के साथ खड़ा कर दिया है और इन हिंदुत्ववादियों के निशाने पर मुसलमानों के साथ आंबेडकरवादी चमार सबसे पहले हैं । " [77] डॉ० एन० सिंह जी का यह कथन अत्यंत विचारणीय है । समसामयिक परिस्थितियों के अनुरूप उन्होंने जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं, उनमें सत्यता का अनुभव किया जा सकता है । इस कहानी के माध्यम से ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का दोहरा-चरित्र अभिव्यक्त हुआ है ।

'शवयात्रा' कहानी 'इंडिया टुडे' (22 जुलाई 1998) में छपी थी । इस कहानी के प्रकाशित होते ही कई आलोचकों ने इसकी कड़ी आलोचना की । रत्नकुमार सांभरिया ने लिखा है, " 'शवयात्रा' के बहाने वाल्मीकि ने चमार जाति को बड़ा ही निष्ठुर, संवेदनहीन और घोर जातिवादी दिखाया है । वाल्मीकि 'कफन' जैसी कहानी के विरोधी रहे हैं, लेकिन 'शवयात्रा' खुद 'कफन' से होड़ है । 'शवयात्रा' की शुरुआत होती है - 'चमारों के गाँव में बल्हारों का एक कुनबा था, जो जोहड़ के पार रहता था । कफन की शुरुआत है - 'गाँव में चमारों का एक कुनबा था, बहुत ही बदनाम' । " [78] डाॅ० श्योराज सिंह 'बेचैन' 'हिंदी दलित साहित्य का इतिहास : शोध और सृजन' विषय लेकर अध्येता के तौर पर सितंबर 2006 ई० को 'भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान' शिमला, हिमाचल प्रदेश में दाखिल हुए थे । उन्होंने लिखा है, " मैं यहाँ एडवांस स्टडी में जब बतौर अध्येता आया था, तब मेरी मुलाकात अध्येता डॉ० दूधनाथ सिंह जी से हुई थी । उन्होंने मुझे बताया कि मैंने 'समरहिल' (अनियतकालिक अंग्रेजी पत्रिका) में ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक कहानी 'शवयात्रा' अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर छपवाई है । शवयात्रा ही क्यों ? सलाम क्यों नहीं ? पी०आर०ओ अशोक वर्मा जी से और ज्यादा जानकारी मिली कि वाल्मीकि जी ने इस कहानी के अनुवाद के लिए कितनी मिन्नतें की । वे खुद अंग्रेजी के अनुवादक के लिए उनके घर दिल्ली तक गये । तब मैं कहानी के अंदर की कहानी समझने लगा । वाल्मीकि जी की यह गढ़ी हुई झूठी कहानी 'सवर्ण प्रिय कहानी' क्यों बनी ? वे चमारों की क्या हानि चाहते थे और व्यक्तिगत क्या पाना चाहते थे ? 'शवयात्रा' के साथ ही ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यह क्यों नहीं जाहिर किया कि यह कहानी काल्पनिक है ? जयप्रकाश वाल्मीकि द्वारा भेजी गई खबर, जिसका चमारों से कोई संबंध नहीं था, के आधार पर मनोगत चमार-द्वेष की भावना से गढ़ी गई है ? " [79] 'बेचैन' जी ने अपने एक आलेख में इस बात को और स्पष्ट लिखा है, " 'शवयात्रा' कहानी की प्रमाणिकता पर उन्होंने (ओमप्रकाश वाल्मीकि) खुद ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया था । जब लिखा था कि जयप्रकाश वाल्मीकि द्वारा भेजी गयी अखबारी खबर में लिखा था कि एक व्यक्ति साइकिल के कैरियर पर रखकर अपनी बेटी की लाश ले जा रहा था । कोई उसके साथ नहीं था । इस घटना के इर्द-गिर्द कहानी की काल्पनिक और मनोगत बुनावट की गयी । मैंने इसे 'सवर्ण प्रिय कहानी' कहा, तो मार्क्सवादी और एक ब्राह्मण आलोचक ने मुझे अपना कोपभाजक बना लिया था । " [80] इस कहानी के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने लिखा है, " इस कहानी को लेकर कई दलित आलोचकों, लेखकों के अंतर्विरोध जिस तरह खुलकर सामने आये, वह सब पीड़ादायक है । " [81] उपर्युक्त आलोचनात्मक टिप्पणियों को पढ़कर 'शवयात्रा' कहानी पर विस्तार से विचार करना आवश्यक समझ में आया । इसलिए इस कहानी की विस्तृत समालोचना यहाँ प्रस्तुत है । 'शवयात्रा' कहानी के आरंभ में ही ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने लिखा है, " चमारों के गाँव में बल्हारों का एक परिवार था, जो जोहड़ के पार रहता था । " [82] यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि वाल्मीकि जी ने 'चमारों के गाँव' शब्द का प्रयोग किया है । जबकि चमारों का गाँव नहीं होता है, चमारों की तो बस्ती होती है और वह भी समान्यतः गाँव के दक्षिण ओर । इसीलिए 'चमटोल' (चमारों का टोला) शब्द प्रचलित है । सामान्य बोलचाल में भी लोग इसी शब्द का प्रयोग करते हैं । आज तक 'चमारों का गाँव' शब्द कहीं सुनने को नहीं मिला है । जबकि वाल्मीकि जी ने 'चमारों का गाँव' शब्द का प्रयोग किया है, जो पूरी तरह से मनगढ़ंत और काल्पनिक है । दूसरी बात यह है कि जब भी गाँव की बात की जाती है, तो गाँव में अनेक जाति, अनेक वर्ग, अनेक धर्म के लोगों की बात की जाती है, लेकिन इस कहानी में वाल्मीकि जी ने केवल चमारों की बात की है । भारतीय गाँवों की यह सच्चाई है कि किसी गाँव में एक ही जाति के लोग नहीं होते हैं । यदि कहीं पर केवल एक जाति के लोग होते हैं, तो उसे 'गाँव' नहीं बल्कि 'टोला' (मुहल्ला) कहा जाता है ।

बल्हार परिवार का मुखिया था - 'सुरजा' । सुरजा का एक बेटा था, जिसका नाम 'कल्लू' था । वह दस-बारह साल की उम्र में ही घर छोड़कर भाग गया था । कुछ साल इधर-उधर भटकने के बाद उसे रेलवे में नौकरी मिल गयी थी, जिससे वह पढ़ने-लिखने की ओर आकर्षित हुआ था । उसने हाई स्कूल करके तकनीकी प्रशिक्षण लिया और रेलवे में ही फिटर हो गया था । उसका नाम कल्लू से कल्लन हो गया था । सुरजा की एक लड़की थी - 'संतो' । जब संतो की शादी हुई, तो सारा खर्च कल्लन ने ही उठाया था । संतो शादी के तीसरे साल में ही विधवा होकर मायके लौट आयी थी । सुरजा की घरवाली को मरे भी तीन साल हो गये थे । कल्लन की शादी रेलवे कॉलोनी में ही हो गयी थी । उसके ससुर भी रेलवे में ही थे । उसे पढ़ी-लिखी पत्नी मिली थी, जिसके कारण उसके रहन-सहन में अंतर आ गया था । वह गाँव में कभी-कभी ही आता था । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " जब भी वह गाँव आता, चमार उसे अजीब सी नजरों से देखते थे । कल्लू से कल्लन हो जाने को वे स्वीकार नहीं कर पा रहे थे । उनकी दृष्टि में वह अभी भी बल्हार ही था । समाज-व्यवस्था में सबसे नीचे यानी अछूतों में भी अछूत । " [83] किसी व्यक्ति की तरक्की से किसी परिवार, मुहल्ले अथवा गाँव के कुछ लोग ईर्ष्या कर सकते हैं, सभी नहीं । लेकिन वाल्मीकि जी ने वहाँ के सभी चमारों को ईर्ष्यालु के रूप में चित्रित किया है । 'उनकी दृष्टि में वह अभी भी बल्हार था' कथन भी औचित्यहीन है, क्योंकि जब भारतीय समाज की यह सच्चाई है कि व्यक्ति चाहे जितना भी धनवान अथवा विद्वान हो जाए, लेकिन उसे उसकी जाति के नाम से ही जाना और पहचाना जाता है; तो फिर यदि एक बल्हार को बल्हार के रूप में नहीं जाना जाएगा, तो भला किस रूप में जाना जाएगा ? कल्लन की केवल आर्थिक स्थिति बदली थी, उसने धर्म नहीं बदला था अथवा वह कोई नास्तिक नहीं था । तो फिर उसे 'बल्हार' शब्द से क्यों आपत्ति हो सकती है ? यदि उसे 'बल्हार' शब्द से आपत्ति थी अथवा स्वयं लेखक वाल्मीकि जी को आपत्ति थी, तो उन्हें कल्लन को बौद्ध अथवा नास्तिक युवक के रूप में चित्रित करना चाहिए था । वाल्मीकि जी ने 'बल्हार' के लिए एक शब्द का प्रयोग किया है - 'अछूतों में अछूत' । इस प्रकार के किसी शब्द का प्रयोग तो बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने भी नहीं किया है । शायद वाल्मीकि जी अपने आपको डॉ० आंबेडकर से भी बड़ा विद्वान समझते रहे होंगे । जबकि सच्चाई यह है कि अछूत तो अछूत होता है । 'अछूतों में अछूत' शब्द बिल्कुल निरर्थक है । यह केवल अछूतों में वर्गीकरण करने की भावना से गढ़ा गया शब्द है । इसी प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का यह कथन भी अस्पष्ट और अर्थहीन है कि " गाँव वाले उसे 'कल्लू बल्हार' ही कहकर बुलाते थे । उसे यह संबोधन अच्छा नहीं लगता था । नश्तर की तरह उसे बींधकर हीन भावना से भर देता था । " [84] इस कथन में एक बात ध्यान देने योग्य है कि वाल्मीकि जी ने 'गाँव वाले' शब्द का प्रयोग किया है । गाँव वाला कोई भी हो सकता है - बाभन, ठाकुर, बनिया, अहीर, कोईरी कोई भी; केवल चमार ही नहीं ।

इस बार जब कल्लन गाँव आया, तो उसने सुरजा से अपने साथ दिल्ली चलने के लिए कहा । लेकिन सुरजा अपने जीवन के अंतिम समय में अपने गाँव को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ । कल्लन ने संतों की ओर देखा । वह तो जाना चाहती थी, लेकिन अपने बापू की बात काटने का उसमें साहस नहीं था । सुबह होते ही कल्लन दिल्ली चला गया । पैसों की व्यवस्था करके वह हफ्ते भर में लौट आया । साथ में पत्नी सरोज और दस साल की बेटी सलोनी भी आयी थी । बेटे को वे उसकी ननिहाल में छोड़कर आये थे । कल्लन ने आते ही बापू से कहा, " किसी मिस्तरी से बात करो । कल ईंटों का ट्रक आ जाएगा । " यह सुनते ही सुरजा की आँखों में चमक आ गयी थी । गाँव में अधिकतर मकान सूरतराम ठेकेदार ने बनाये थे । सुरजा उसके पास पहुँचा और मकान बनाने की बात कही । सूरतराम को कहीं जाना था । वह लौटने के बाद बात करने के लिए कहकर चला गया । वहाँ से सुरजा साबिर मिस्त्री के यहाँ गया । साबिर मान गया, लेकिन अपना मेहनताना पेशगी लेने के लिए कहा । सुरजा ने स्वीकार कर लिया । वह बहुत खुश था । जब तक वह लौटकर घर पहुँचा, तब तक ईंटें आ चुकी थीं । जोहड़ पार ईंटें उतरती देखकर गाँव के कई लोग जोहड़ के किनारे खड़े हो गये थे । रामजीलाल कीर्तन-सभा का प्रधान था । रविदास-जयंती पर रात भर कीर्तन चलता था । भीड़ में वह भी खड़ा था । उसने मकान बनवाने से पहले ग्रामप्रधान से पूछने की सलाह दी । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " रामजीलाल सीधा प्रधान के पास पहुँचा । जोहड़ पार के हालात नमक-मिर्च लगाकर उसने प्रधान बलराम सिंह के सामने रखे । " [85] वाल्मीकि जी ने रामजीलाल को एक चुगलखोर के रूप में चित्रित किया है । उन्होंने रामजीलाल के बहाने रविदास-कीर्तन-समिति के सदस्यों पर मानसिक-मलीनता का आक्षेपण किया है । हो सकता है कि कभी रविदास जयंती के अवसर पर चमारों द्वारा उन्हें मंचासीन करके सम्मानित न किया गया हो अथवा रविदास-कीर्तन में गाने का अवसर न दिया गया हो, इसीलिए उन्होंने इस कहानी के माध्यम से अपने मन की भड़ास निकाल दी है ।

अगले दिन सुबह प्रधान का आदमी सुरजा के घर आया और उसे बुलाकर प्रधान जी के पास ले गया । सुरजा को देखते ही बलराम सिंह बोला, " अंटी में चार पैसे आ गये, तो अपनी औकात भूल गया । बल्हारों को यहाँ इसलिए नहीं बसाया था कि हमारी छाती पर हवेली खड़ी करेंगे । वह जमीन, जिस पर तुम रहते हो, हमारे बाप-दादों की है । जिस हाल में हो, रहते रहो; किसी को एतराज नहीं होगा । सिर उठाकर खड़ा होने की कोशिश करोगे, तो गाँव से बाहर कर देंगे । " [86] बलराम सिंह की भाषा से ऐसा लगता है कि वह 'चमार' नहीं, बल्कि कोई ठाकुर जमींदार था । इस बात की अधिक संभावना उसके इस कथन से भी हो जाती है कि बल्हार-परिवार जिस जमीन पर बसा था, वह उसके बाप-दादों की जमीन थी । अपने बाप-दादों की जमीन पर किसी को बसाने और उजाड़ने का काम तो हमेशा से जमीदारों का ही रहा है । यदि बलराम सिंह जमींदार नहीं होता, तो ओमप्रकाश वाल्मीकि उसका परिचय देते समय उसके नाम के आगे 'सिंह' नहीं लगाते, जिस तरह रामजीलाल के नाम के आगे 'सिंह' नहीं लगाये हैं । यदि वाल्मीकि जी के समर्थक यह तर्क देंगे कि जिस क्षेत्र की यह कहानी है, उस क्षेत्र के चमार अपने नाम के आगे 'सिंह' लगाते हैं, तो भी यह प्रश्न अपनी जगह ज्यों का त्यों रहेगा कि यदि ऐसी बात है, तो फिर रामजीलाल के नाम के आगे 'सिंह' क्यों नहीं है ।

कल्लन की लड़की सलोनी को बुखार हो गया था । सरोज ने बुखार की दो चार गोलियाँ खिलायी थी, लेकिन फिर भी बुखार कम नहीं हुआ था । सरोज ने किसी डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा । गाँव भर में केवल एक ही डॉक्टर था । कल्लन उसे बुलाने के लिए गया, लेकिन डॉक्टर आने से मना कर दिया । जब कल्लन ने मरीज को क्लीनिक में लेकर आने की बात कही, तो डॉक्टर ने उसके लिए भी मना कर दिया । कल्लन निराश लौट आया । डॉक्टर ने कुछ गोलियाँ दी थीं, वे भी प्रभावहीन थीं । सलोनी की तबीयत बहुत अधिक बिगड़ गयी थी । सुबह होते ही कल्लन ने सलोनी को पीठ पर लादा । सरोज भी साथ थी । शहर गाँव से लगभग आठ-दस किलोमीटर दूर था । आने-जाने का कोई साधन नहीं था । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " कल्लन ने गाँव के संपन्न चमारों से बैलगाड़ी माँगी थी, लेकिन बल्हारों को वे गाड़ी देने को तैयार नहीं थे । " [87] भारत का इतिहास साक्षी है कि बैलगाड़ी रखने का शौक ठाकुर जमींदारों को था । कोई संपन्न चमार भला बैलगाड़ी क्यों रखेगा ? 'शवयात्रा' कहानी का प्रकाशन वर्ष इक्कीसवीं सदी के आरंभ से दो वर्ष पहले का है । उस समय तक तो जो संपन्न चमार रहे होंगे, उनके पास मोटरकारें रही होंगी । यदि किसी चमार के पास बैलगाड़ी रही भी होगी, तो उसे किसी बल्हार को देने से आपत्ति क्यों हुई होगी ? ऐसा काम तो वे लोग करते हैं, जो छुआछूत का बर्ताव करते हैं । वाल्मीकि जी ने इस कथन के माध्यम से इसी ओर संकेत किया है कि चमार बल्हारों से छुआछूत का बर्ताव करते थे । जबकि यह कथन बिल्कुल मिथ्या है, क्योंकि इस देश में चमारों के साथ सदैव छुआछूत का बर्ताव होता रहा है । जो स्वयं अछूत थे, वे किसी अछूत के साथ छुआछूत का बर्ताव कैसे कर सकते थे ? वाल्मीकि जी के इस कथन में तनिक भी सच्चाई नहीं है ।

पीठ पर लादकर सलोनी को ले चलना कठिन हो रहा था । शहर लगभग आधा किलोमीटर दूर रह गया था । अचानक कल्लन को लगा, जैसे सलोनी का भार कुछ बढ़ गया है । उसने सरोज से कहा - देखो तो, सलोनी ठीक तो है ? सलोनी के शरीर में कोई स्पंदन ही नहीं था । सरोज दहाड़ मारकर चीख पड़ी - मेरी बेटी को क्या हो गया ? देखो तो, यह हिल क्यों नहीं रही ? कल्लन ने सलोनी को पीठ से उतारकर सड़क के किनारे लिटा दिया । दस वर्ष की जीती-जागती सलोनी उसके हाथों में ही मुर्दा जिस्म में बदल गयी थी । वे शहर से लौट आये । दाह-संस्कार के लिए लकड़ियाँ उनके पास नहीं थीं । उन्होंने लकड़ियों की जगह उपले से ही मुर्दा जलाया । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " चमारों का श्मशान गाँव के निकट ही था, लेकिन उसमें बल्हारों को अपने मुर्दे फूँकने की इजाजत नहीं थी । " [88] 'चमारों का श्मशान गाँव के निकट था' इस वाक्य पर विचार करने की आवश्यकता है । क्योंकि श्मशान उस भूमि को कहते हैं, जहाँ हिंदुओं का मुर्दा फूँका जाता है और हिंदुओं की मान्यता के अनुसार श्मशान सामान्यतः नदियों के किनारे ही होते हैं । वाल्मीकि जी ने इस कहानी में 'नदी' का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है । यदि उन्होंने किसी 'कब्रिस्तान' को 'श्मशान' के रूप में नाम बदलकर वर्णित किया हो, तो वह बात अलग है । क्योंकि 'कब्रिस्तान' मुसलमानों के हर मुहल्ले में होता हैं । 'चमारों के शमशान' की बात तो बिना सिर-पैर की बात है । बाभनों का श्मशान हो सकता है, ठाकुरों का श्मशान हो सकता है, लेकिन चमारों का निजी श्मशान हो, यह तो कोरी कल्पना है । वाल्मीकि जी ने आगे लिखा है, " बल्हारों के मुर्दे को हाथ लगाने या शवयात्रा में शामिल होने गाँव का कोई भी व्यक्ति नहीं आया था । 'जात' उनका रास्ता रोक रही थी । " [89] इस कथन से उन्होंने चमारों को छुआछूत और जातिगत भेदभाव का पोष अनुपालक सिद्ध करने का प्रयास किया है, जो बिल्कुल निराधार है । अतः स्पष्ट है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कहानी 'शवयात्रा' एक मनगढ़ंत कहानी है, जिसका सामाजिक यथार्थ से कोई संबंध नहीं है । इस कहानी में चमारों के प्रति वाल्मीकि जी की कुंठा, ईर्ष्या और द्वेष-भावना अभिव्यक्त हुई है तथा वंचित-वर्ग की दो उप-जातियों में टकराव उत्पन्न करना ही इस कहानी का उद्देश्य प्रतीत होता है ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की तीन कहानियाँ 'पच्चीस चौका डेढ़ सौ', 'मुंबई कांड' और 'मैं ब्राह्मण नहीं हूँ' आदि सही मायने में आंबेडकरवादी चेतना की कहानियाँ हैं तथा वंचित-समाज को सम्यक दिशा एवं दृष्टि प्रदान करने में सफल हैं । 'पच्चीस चौका डेढ़ सौ' कहानी का मुख्य नायक सुदीप है । बचपन में जब वह चौथी कक्षा में पढ़ रहा था, तो मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने उसकी कक्षा के सभी बच्चों को पंद्रह तक पहाड़े याद करने के लिए कहा था । लेकिन सुदीप को चौबीस तक पहाड़े पहले से ही अच्छी तरह याद थे । इसलिए मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने शाबाशी देते हुए उसे पच्चीस का पहाड़ा याद करने के लिए कहा था । स्कूल से घर लौटते ही सुदीप ने पच्चीस का पहाड़ा याद करना शुरू कर दिया था । वह जोर-जोर से ऊँची आवाज में पहाड़ा कंठस्थ करने लगा था । सुदीप ने जब पच्चीस चौका सौ कहा, तो उसके पिताजी ने उसे टोका, " नहीं बेट्टे पच्चीस चौका सौ नहीं, पच्चीस चौका डेढ़ सौ । " सुदीप ने पिताजी की ओर देखते हुए समझाने के लहजे में कहा, " नहीं पिता जी, पच्चीस चौका सौ । यह देखो, गणित की किताब में लिखा है । " यह सुनकर उसके पिताजी ने उखड़ते हुए कहा, " तेरी किताब में गलत भी तो हो सके, नहीं तो क्या चौधरी झूठ बोल्लेंगे ? तेरी किताब से कहीं ठाड्डे (बड़े) आदमी हैं चौधरी जी । उनके धोरे (पास) तो ये मोट्टी-मोट्टी किताबें हैं । वह जो तेरा हेडमास्टर है, वो बी पाँव छुए है चौधरी जी के । फेर भला वो गलत बतावेंगे ? मास्टर से कहणा सही-सही पढ़ाया करे । " [90] सुदीप के पिता जी ऐसा इसलिए कह रहे थे, क्योंकि दस साल पहले, जब सुदीप की माँ बीमार पड़ गयी थी, तो उन्होंने शहर के बड़े डॉक्टर से इलाज करवाया था । सारा खर्चा चौधरी ने ही दिया था । पूरा सौ का पत्ता यानी सौ रूपये का नोट दिया था । जब सुदीप की माँ ठीक होकर चलने-फिरने लगी, तो चार महीने बाद उसके पिता चौधरी की हवेली में गये । उन्होंने चौधरी का पैसा चुकाने की बात कही । चौधरी ने सौ रूपये पर हर महीने पच्चीस रुपये ब्याज के हिसाब से चार महीने का ब्याज डेढ़ सौ रूपये बताया । चौधरी ने कहा, " तू अपणा आदमी है । तेरे से ज्यादा क्या लेणा । डेढ़ सौ में से बीस रूपये कम कर दे । " इस तरह चौधरी ने सुदीप के पिता से एक सौ तीस रूपये नगद ले लिये और हर महीने का ब्याज पच्चीस रूपये लेता रहा । उस समय सुदीप ने अपने पिता की बात को सही मान लिया था और 'पच्चीस चौका डेढ़ सौ' याद कर लिया था । अगले दिन कक्षा में मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने पच्चीस का पहाड़ा सुनाने के लिए सुदीप को खड़ा कर दिया । सुदीप खड़ा होकर उत्साहपूर्वक पहाड़ा सुनाने लगा, " पच्चीस ही कम पच्चीस, पच्चीस दूनी पचास, पच्चीस तिया पचहत्तर, पच्चीस चौका का डेढ़ सौ...। " [91] मास्टर शिव नारायण मिश्रा ने उसे टोका, " पच्चीस चौका सौ...। " तो सुदीप चुप हो गया और चुपचाप मास्टर का मुँह देखने लगा । जब मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने उसे आगे बोलने के लिए कहा, तो सुदीप ने फिर पहाड़ा शुरू किया और फिर 'पच्चीस चौका डेढ़ सौ' कहा । मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने डाँटकर कहा, " अबे कालिए, डेढ़ सौ नहीं सौ...सौ । " सुदीप ने डरते-डरते कहा, " मास्साब ! पिताजी कहते हैं पच्चीस चौका डेढ़ सौ होवे है । " मास्टर शिवनारायण मिश्रा ने गुस्से में जब सुदीप को एक थप्पड़ लगाया, तो उसने सुबकते हुए 'पच्चीस चौका सौ' कहा और एक साँस में पूरा पहाड़ा सुना दिया । उस दिन की घटना ने उसके दिमाग में उलझन पैदा कर दी । यदि मास्साब सही कहते हैं, तो पिताजी गलत क्यों बता रहे हैं ? यदि पिताजी सही हैं, तो मास्साब क्यों गलत बता रहे हैं ?  जब सुदीप जवान हो गया और शहर में नौकरी करने लगा, तो वह पहली तनख्वाह पाते ही अपने गाँव आया । उसने पिताजी को पास बैठाकर उनके सामने पच्चीस-पच्चीस रूपये की चार ढेरियाँ लगायीं और कहा, " अब आप इन्हें गिनिए । " पिताजी ने रूपये गिनने में अपनी असमर्थता प्रकट की । सुदीप ने धीमे स्वर में कहा, " पिता जी ये चार जगह पच्चीस-पच्चीस रूपये हैं । अब इन्हें मिलाकर गिनते हैं, चार जगह का मतलब है पच्चीस चौका...। " कुछ क्षण रुककर सुदीप ने पिताजी की ओर देखा और फिर बोला, " अब देखते हैं पच्चीस चौका सौ होते हैं या डेढ़ सौ । " सुदीप बोल-बोलकर रूपये गिनने लगा और सौ पर जाकर रुक गया । बोला, " देखो, पच्चीस चौका सौ हुये, डेढ़ सौ नहीं । " [92]

'मुंबई कांड' कहानी पहली बार 'भारत-अश्वघोष' पत्रिका (जनवरी-फरवरी 1998) में प्रकाशित हुई थी । इस कहानी का नायक सुमेर किसी भी राजनीतिक दल का समर्थक नहीं था, न ही किसी का विरोधी था । उसकी राजनैतिक जागरूकता सिर्फ वोट डालने तक ही सीमित थी । लेकिन पिछले कुछ वर्षों की हलचलों ने उसे बेचैन कर रखा था । उसने टीवी पर मुंबई कांड का समाचार सुना । वह अपने अंदर एक तूफान का अनुभव कर रहा था, जिसे उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था । मुंबई में डॉ० आंबेडकर की मूर्ति को अपमानित किया जाना और फिर आंबेडकर-समर्थकों पर गोली चलाना, उसे बार-बार याद आ रहा था । वह उस रात को ठीक से सो नहीं पाया था । उसके मन में मुंबई कांड का विरोध करने का विचार आया । लेकिन समस्या थी कि विरोध किस प्रकार किया जाए ? उसके मन में कई विचार आ रहे थे । कलेक्टर के कार्यालय में जाकर विरोध दर्ज करे, लेकिन वहाँ पहुँचना ही मुश्किल काम था । एक विचार यह भी आया कि बड़े-बड़े अखबारों में अपना वक्तव्य दे, लेकिन अखबारों का रवैया उसने पिछले कई मौकों पर अच्छी तरह देखा था । उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध थी । एक विचार यह भी आया कि सांसद और विधायक से मिलकर अपना विरोध दर्ज करे, सांसद मंत्री बनने के बाद अक्सर दौरों और उद्घाटनों में व्यस्त था । विधायक उसी सत्तापक्ष से था, जिसकी मुंबई में सरकार थी । एक विचार आत्मदाह का भी आया था, लेकिन उसे उसने अंतिम रास्ता माना था । अंत में उसने विचार किया कि नगर में लगी किसी मूर्ति को अपमानित करके बदला चुकाए, ताकि विरोध की अनुगूँज दूर तक सुनाई पड़े । अब समस्या यह थी कि मूर्ति को अपमानित किस तरह किया जाए ? मुँह काला करे या अंग-भंग करे ? या फिर जूतों की माला पहनाए ? मुँह काला करने का विचार उसे कुछ जँचा नहीं था । अंग-भंग करने के लिए किसी हथौड़े या सरिये की जरूरत थी, जिसे लेकर मूर्ति के पास पहुँचने में ज्यादा जोखिम था । काफी सोच-विचार के बाद वह इस निर्णय पर पहुँचा कि जूतों की माला ही पहनाई जाए । उसने जगह-जगह जूतों की तलाश की । किसी मोची से जूते लेने से भेद खुल जाने की आशंका थी । शहर की सड़कें, गलियाँ, कूड़ेदान छान लेने के बाद उसने सात जूते इकट्ठे कर लिये । उसे लगा कि इतने जूते काफी हैं । वह रात के अंधेरे में गाँधी पार्क में स्थित गाँधी की मूर्ति के पास पहुँचा । उस मूर्ति पर जूतों की माला पहनाने के लिए उसने ज्यों ही आगे कदम बढ़ाया कि उसके मस्तिष्क में एक विचार आया और वह रुक गया, " अरे ! मैं यह क्या कर रहा हूँ ? मुंबई में किसी ने मेरे विश्वास पर चोट की और मैं यहाँ किसी की आस्था पर चोट करने जा रहा हूँ । कुछ गाँधी को 'बापू' कहते हैं और कुछ आंबेडकर को 'बाबा' । वहाँ 'बाबा' कहने वाले मारे गये, यहाँ 'बापू' वाले मारे जा सकते हैं । 'बाबा' कहने वालों पर भी गाज गिर सकती है । जो भी हो, मारे तो निर्दोष ही जाएँगे । " [93] सुमेर के मन में आया विचार 'बहुजन हिताय - बहुजन सुखाय' और 'भवतु सब्ब मंगलम्' पर आधारित है । इस प्रकार की चेतना 'आंबेडकरवादी चेतना' की सीमा में समाहित हो जाती है । वाल्मीकि जी की यह कहानी उन आंबेडकरवादी आंदोलनकारियों को सतर्क करती है, जो आवेश में आकर ऐसी गलती कर बैठते हैं, जिसका दुष्परिणाम दूसरे लोगों को भुगतना पड़ता है ।

'मैं ब्राह्मण नहीं हूँ' कहानी में मोहनलाल शर्मा और गुलजारीलाल शर्मा दोनों अपनी-अपनी जाति छुपाकर रहते थे । मोहनलाल के लड़के अमित की शादी गुलजारीलाल की लड़की सुनीता के साथ हो रही थी । शादी के अवसर पर अमित की बुआ के मिरासी जाति की मूल वेशभूषा में आने पर मोहनलाल की नकली जाति का आवरण हट गया । गुलजारीलाल स्वयं ब्राह्मण नहीं था, लेकिन उसने मोहनलाल के लड़के से अपनी लड़की की शादी करने से इनकार कर दिया । इस बीच सुनीता का आधुनिक व्यक्तित्व सामने आया । उसने अपने पिता गुलजारीलाल शर्मा से स्पष्ट शब्दों में कहा, " पापा आप बने रहिए श्रेष्ठ ब्राह्मण, मिरासी से ऊँचे । लेकिन मैंने कभी भी अपने आपको ब्राह्मण नहीं माना, यह सच्चाई है । न मैंने 'शर्मा' होने की आड़ में कभी ब्राह्मण बनने की कोशिश की । मेरे लिए ब्राह्मण होना ही इंसान की श्रेष्ठता का प्रतीक नहीं है । यह एक भ्रम है, जिसमें सभी ऊँच-नीच का खेल खेल रहे हैं । आप जितना मातम मनाएँ, मैं शादी अमित से ही करूँगी । उसके पुरखों का मिरासी होना मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता । " [94] इस प्रकार इस कहानी के माध्यम से वाल्मीकि जी ने जातिगत भेदभाव का प्रतिरोध किया है । इस कहानी की नायिका सुनीता एक निर्भीक और ईमानदार लड़की है, जो जातिगत भेदभाव के भय से प्रेम और मानवता की हानि करना उचित नहीं समझती है । सुनीता के व्यक्तित्व में आंबेडकरवादी चेतना का स्पष्ट दर्शन होता है । 

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के कथा-साहित्य का सूक्ष्म अध्ययन, विवेचन और मूल्यांकन करने से स्पष्ट हो जाता है कि उनकी केवल तीन कहानियाँ आंबेडकरवादी चेतना से युक्त हैं, जो उनके संपूर्ण कथा-साहित्य का दस प्रतिशत भी नहीं है । वाल्मीकि जी को आंबेडकरवादी आंदोलन से विशेष लगाव नहीं था, बल्कि उन्होंने साहित्य-जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के लिए डॉ० आंबेडकर और आंबेडकरवाद का केवल प्रयोग किया था । उनकी आकांक्षा हिंदी साहित्य में अपने आपको स्थापित करने और अपने नाम को महत्वपूर्ण बनाने की थी । वाल्मीकि जी समय-समय पर अपने विचारों और सिद्धांतों से समझौता करते हुए परिलक्षित होते हैं । एक समझौतावादी कहानीकार, आंबेडकरवादी चेतना का कहानीकार नहीं कहा जा सकता है । यदि वाल्मीकि जी में आंबेडकरवादी चेतना होती, तो सबसे पहले वे अपने हिंदू-उपनाम 'वाल्मीकि' का त्याग करते, जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया ।


डाॅ० सुशीला टाॅकभौरे (4 मार्च 1954) की कहानियों में कहानीपन का सर्वथा अभाव दिखाई देता है । उनकी कहानियों में 'जरा समझो', 'सिलिया', 'बदला', 'साक्षात्कार' आदि को ही कहानी की श्रेणी में रखा जा सकता है । अन्यथा, शेष कहानियों में तो अन्य विधाओं का  मिश्रण है । 'आतंक के साये में', 'कड़वा सच', 'वह नजर', 'सूरज के आसपास' आदि कहानियाँ आत्मकथा-शैली में हैं, इसलिए  इन्हें कहानियाँ न कहकर  'आत्मकथा का अंश' अथवा 'आपबीती' कहना उचित होगा । इसी प्रकार 'सलीम की अनारो'  और 'रामकली' आदि कहानियाँ रेखाचित्र-शैली में हैं, जिन्हें 'रेखाचित्र' कहना उचित होगा । 

'जरा समझो' कहानी में सुशीला जी ने जातिगत भेदभाव, छुआछूत और जाति आधारित सामाजिक अन्याय का मार्मिक चित्रण किया है । इस कहानी के नायक खेमचंद को गुजरात के गोधरा-कांड (2002) और हरियाणा के गोहाना-कांड (2005) के बारे में अच्छी तरह जानकारी है । इस कहानी का सहनायक विजय यादव भी एक जागरूक युवक है । वह अपने दफ्तर के तथाकथित सवर्ण अधिकारियों पर कटाक्ष करते हुए खेमचंद से कहता है, " पिला सबको पानी । इन्होंने अपने बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर को पानी नहीं पीने दिया था । अब तुम इनको पानी पिलाओ । " [95] खेमचंद को बाबा साहेब द्वारा महाड के चावदार तालाब पर किये गये जल-आंदोलन की भी जानकारी है । वह दिन-रात एक सपना देखता है कि शिक्षा और संघर्ष के साथ प्रगति करते हुए वह अपने ऑफिस का मैनेजर बन गया है । उसने चारपहिया गाड़ी खरीद ली है और अपनी गाड़ी में रिवर्स का हार्न लगाया है - जय भीम, जय भीम, जय भीम । [96] 

'सिलिया' कहानी की नायिका का नाम भी सिलिया है । उसके बड़े भैया ने उसका नाम 'शैलजा' रखा था । लेकिन उसके माता-पिता उसे 'सिल्लो' कहकर पुकारते थे । सन् 1970 में, जिस समय वह ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी, उस समय हिंदी अखबार 'नई दुनिया' में एक विज्ञापन छपा था - 'शूद्रवर्ण की वधू चाहिए ।' मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जाने-माने युवा नेता सेठी जी अछूत कन्या के साथ विवाह करके समाज के सामने एक आदर्श रखना चाहते थे । उनकी केवल एक ही शर्त थी कि लड़की कम से कम मैट्रिक हो । [97] गाँव के पढ़े-लिखे ब्राह्मण, बनियों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों सभी ने ने सिलिया की माँ को सिलिया की फोटो और नाम-पता लिखकर भेजने की सलाह दिया । लेकिन सिलिया पाँचवी कक्षा में हुये जातिगत भेदभाव की घटना को याद करके डर जाती है । उसे तथाकथित सवर्ण जाति के लोगों पर भरोसा नहीं था । इसलिए उसने अपनी माँ और नानी के सामने दृढ़-निश्चय के साथ कहा, " मैं शादी नहीं करूँगी, मुझे बहुत आगे तक पढ़ना है । " [98] उसके घर वाले मान जाते हैं । पढ़ाई करते हुए सिलिया एक विदुषी, समाजसेवी, कवयित्री बन जाती है । लगभग बीस वर्ष बाद यानी सन् 1990 में उसे शाल, सम्मान-पत्र, स्मृति-चिन्ह आदि भेंट करके सम्मानित किया जाता है । इस कहानी के माध्यम से सुशीला जी ने शिक्षित होने और जीवन में निरंतर संघर्ष करने की प्रेरणा दी है । वास्तव में, इस कहानी में एक आत्मकथा अंतर्निहित है, जो स्वयं लेखिका की आपबीती है । इस कहानी की नायिका 'सिलिया' कोई और नहीं, बल्कि स्वयं सुशीला जी हैं । इस कहानी में सुशीला जी ने पुरुष पात्रों के सहयोग की उपेक्षा की है । वे 1970 की घटनाओं का वर्णन करने के बाद सीधे बीस साल बाद चली जाती हैं । सिलिया के जीवन के उन बीस सालों में किन-किन लोगों का सहयोग प्राप्त हुआ ? उसका कहीं भी उल्लेख इस कहानी में नहीं किया गया है । सुशीला जी ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि सिलिया अपने दम पर तरक्की करती है, बिना किसी पुरुष के सहयोग के ।

'बदला' कहानी का नायक कल्लू पहलवान है, जो लड़ाई-झगड़े से दूर रहता था । क्योंकि गाँव के तथाकथित सवर्णों का जुल्म देखकर उसकी नानी ने उसे समझाया था, " बेटा, ऐसे दुष्टों के सामने कभी आड़े नहीं आना । वे कभी सामने से आते दिखें, तो बाजू से दूर निकल जाना या पलट जाना, उनके सामने नहीं आना । न जाने वे कब क्या कर बैठें ? " [99] राजन, सुनील और गुड्डू नामक तथाकथित सवर्ण हमेशा कल्लू से टकराने की कोशिश करते थे । एक दिन बात ही बात में गुड्डू ने कल्लू को धक्का दे दिया । कल्लू जमीन पर गिर गया और वे सब हँसने लगे । कल्लू झगड़ा नहीं करना चाहता था, इसलिए वह चुपचाप अपने घर की ओर चलने लगा । गुड्डू ने दौड़कर उसका रास्ता रोक लिया, " क्यों कालूराम, भूख लगी है क्या ? जूठन खाने से ज्यादा ताकत आती है क्या ? " [100] 'जूठन' शब्द सुनते ही कल्लू के बदन में आग लग गयी । उसने दौड़कर गुड्डू को पीछे कमर से पकड़ लिया और जोर से जमीन पर फेंक दिया । जब राजन ने उस पर हमला किया तो, उसने उस पर भी लात-घूसों की बरसात कर दी । दोनों को पिटते देखकर सुनील भाग गया । उसके पीछे राजन और गुड्डू भी भाग गये । उस घटना के हुये महीने भर का समय बीत गया । एक दिन कल्लू नर्मदा प्रसाद कोटवार के साथ गिल्ली-डंडा खेलकर शाम को अड्डा बाजार से लौट रहा था । रास्ते में उसे चार लोगों ने घेर लिया । उन सबने कल्लू पर लाठियाँ बरसाना शुरू कर दिया । कल्लू चीखता रहा । उधर नर्मदा दौड़कर कल्लू के घर गया । उसने सबको बता दिया । उसके बाद अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के कई लोग कल्लू को बचाने के लिए इकट्ठा हो गये । राधे कोटवार ने कहा, " छौवा माँ, हमारी माँ है । छौवा माँ की बेटी हमारी बहन है । हमारे रहते इनको कोई हाथ भी नहीं लगा सकता । हम सब मिलकर रहेंगे, तो हमारी ताकत बहुत बड़ी ताकत बनेगी । एकता की ताकत से ही हम दुश्मनों से बदला ले सकते हैं । " [101]

'साक्षात्कार' कहानी की नायिका प्रतिभा है । एक दिन 'लोकवाणी समाचार' के पत्रकार उमाकांत जी उसका साक्षात्कार लेने के लिए उसके घर आये । लेखिका के शब्दों में, " प्रतिभा नागपुर शहर के दलित-पिछड़े वर्ग की एक बड़ी बस्ती बारा सिगनल में रहती थी । वह शिक्षित थी, कुछ वर्षों से प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर रही थी । साथ ही, वह अपना अधिक समय अपने दलित-पिछड़े समाज की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति हेतु जागृति कार्यक्रमों में लगा रही थी । " [102] जब उमाकांत जी ने प्रतिभा से प्रश्न किया कि आपका विवाह कब हुआ ? तो उसने उत्तर दिया, " मेरा विवाह मेरे छः बच्चों के जन्म से पहले हुआ था । " [103] रमाकांत जी ने पूछा, " आपकी व्यस्तताओं को देखते हुए क्या ऐसा नहीं लगता कि आपके बच्चों की संख्या ज्यादा हो गयी है ? " [104] तो उसने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया । जब उमाकांत जी ने पूछा, " प्रतिभा जी, क्या आपके पति आपको बहुत प्यार करते हैं ? " तो प्रतिभा ने उत्तर दिया, " जी हाँ, मुझे मेरे पति का पूरा-पूरा सहयोग मिलता है । " [105] उमाकांत जी ने प्रतिभा की बहुत ही प्रशंसा की । उन्होंने उसे 'पुरस्कार की अधिकारी' कहा । जब उमाकांत जी ने पूछा, " मैडम, क्या आप पहले भी इस तरह के कार्यक्रमों में भाग लेती थीं ? " [106] तो प्रतिभा ने 'नहीं' में उत्तर दिया । तभी घर के भीतर से 'मम्मी-मम्मी' की बार-बार पुकार सुनकर प्रतिभा को साक्षात्कार स्थगित करना पड़ा । उमाकांत जी अगले दिन पुनः साक्षात्कार हेतु आने का निवेदन करके चले गये । उमाकांत जी ने कहा, " प्रतिभा जी किसी भी व्यक्ति को अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए किसी मित्र की जरूरत अवश्य होती है । यदि आपको कोई ऐसा मित्र मिला होता, तो आप सचमुच बहुत ऊँचाइयों पर पहुँच गयी होतीं । क्या आपको ऐसा नहीं लगता ? " [107] यह बात सुनकर प्रतिभा को याद आया, जब वह मध्य प्रदेश के एक बड़े शहर जबलपुर में आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम में अकेली गयी थी । वह कार्यक्रम महिला-मुक्ति से संबंधित था । वहाँ के व्यवस्थापकों ने उसे एक बड़े होटल के कमरे में ठहराया था । दूसरे दिन, दोपहर के भोजन के समय एक अनजान विद्वान ने उसकी बहुत प्रशंसा की तथा उसे प्रेमपूर्ण नजरों से देखते हुए उसके साथ परिवारिक और व्यक्तिगत बातें करने लगा । उस विद्वान ने प्रतिभा से बार-बार यही कहा था, " प्रतिभा जी, आपको मित्र की जरूरत है । अच्छे मित्र के साथ मिलकर आप अपने जीवन के प्रगतिपथ पर बहुत आगे तक बढ़ सकेंगी । " तब उसने सोचा था, " ऐसा मित्र मुझे नहीं चाहिए । " [108] उमाकांत ने कहा, " ठीक है, प्रतिभा जी ! अब आप मुझे केवल अपने घर का पता बता दीजिए ।" प्रतिभा तुरंत उठकर अपने घर के पते पर आये पत्रों को ढूँढने लगी । हाथ में कलम लिये, पता लिखने के लिए तैयार उमाकांत ने घड़ी देखते हुए पूछा, " आप क्या ढूँढने लगीं प्रतिभा जी ? मुझे जाना है । " प्रतिभा परेशानी के साथ बोली, " मैं अपने घर का पता ढूँढ रही हूँ । " [109]


डॉ० कुसुम वियोगी (9 अक्टूबर 1955)

डाॅ० कुसुम वियोगी जी के दो कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं । दूसरे कहानी-संग्रह 'प्रेरक दलित कहानियाँ' (2021) में कुल तेरह कहानियाँ संग्रहीत हैं, जिनमें से मात्र दो कहानियाँ 'कमला की कमाई' और 'संस्कारों का सफर' ही आंबेडकरवादी चेतना से युक्त हैं । शेष ग्यारह कहानियों में सामाजिक यथार्थ का चित्रण अथवा भावुकता का समावेश है । 'दंगल की कसक' कहानी का कथानक रोचक और यथार्थ है । डाॅ० वियोगी जी ने इस कहानी को सामाजिक उद्देश्य से जोड़कर नहीं लिखा है, जिससे यह कहानी मनोरंजन करने में तो सफल होती है, लेकिन आंदोलन की चेतना से इसका कोई संबंध नहीं बन पाता है । 'और वह पढ़ गई' आत्मकथा का अंश है, जिसे कहानी के नाम से प्रकाशित किया गया है । 'होमगार्ड' कहानी में डॉ० वियोगी जी ने देश की सुरक्षा और विकास में मूलनिवासियों के सहयोग और समर्पण को व्यक्त करने का प्रयास किया है । किंतु वे संवादों को मूल विषय से जोड़ने में भटक गये हैं । कहानी के अंत का संवाद द्रष्टव्य है । कप्तान नामक होमगार्ड के शहीद हो जाने पर मरणोपरांत उसे सम्मानित किया गया । जब उसके बूढ़े पिता ने राजकीय सम्मान अपने हाथों में लिया, तो भावुकतावश पुलिस कमिश्नर और भर्ती आॅफिसर को संबोधित करके कहा, " साहब ! असल में हम ही इस देश के मूलनिवासी हैं और मुल्क के होमगार्ड भी, जो देश के लिए दिन-रात कटते, लुटते, मरते हैं । " [110] ध्यानपूर्वक कहानी का पाठ करने से स्पष्ट हो जाता है कि इस संवाद का कहानी की वर्तमान परिस्थिति से कोई संबंध ही नहीं है । कहानीकार डॉ० वियोगी जी ने इस संवाद को पात्र और परिस्थिति के प्रतिकूल सायास प्रयोग किया है ।

'आटे सने हाथ' कहानी में सूरजमुखी नाम की लड़की सातवीं कक्षा में पढ़ती थी । वह रोज पढ़ने जाती थी, लेकिन घर के कामकाज के कारण रोज देरी से स्कूल पहुँचती थी । रोज तो मंजुला दीदी के द्वारा उसे केवल डाँट ही पड़ती थी, लेकिन एक दिन प्रिंसिपल मैडम द्वारा उसे डंडे भी खाने पड़े । कुसुम वियोगी जी के शब्दों में, " प्रिंसिपल ने कमर में तीन-चार बेंत जड़ दिये । जैसे ही, दुबारा मुँह पर थप्पड़ मारने को हाथ उठाया, तो सूरजमुखी ने दोनों हाथों से मुँह ढँकना चाहा, तो उन दोनों की नजर एक साथ उसके आटे सने हाथ पर पड़ी । मंजुला दीदी का हृदय द्रवित हो उठा । " [111] वास्तव में यह कहानी भावपूर्ण कहानी है । इस कहानी को आंबेडकरवादी चेतना की कहानी इसलिए नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सूरजमुखी का परिवार संस्कार-रहित था । उसका पिता शराबी था, जो रोज शराब पीकर लड़खड़ाता हुआ घर आता था । एक दिन जब वह उसी स्थिति में घर वापस आया और खटोले पर लेटते हुए सूरजमुखी की माँ रामकली से रोटी माँगा, तो उसने कहा, " मूत पी ले । रोटी खाकर क्या करेगा ? तुझे क्या खबर कि तेरी औलाद ने रोटी खाई भी है या नहीं ? " [112] जिसके माता-पिता संस्कार-विहीन हों, वह भला क्या संस्कार सीख सकता है ? बिना संस्कार और शील के शिक्षा का कोई महत्व नहीं है । वैसे भी, सातवीं कक्षा की लड़की का आटे सने हाथ के साथ स्कूल जाने वाली बात अस्वाभाविक और काल्पनिक जान पड़ती है ।

'रिश्ते का अंत' कहानी डिम्पी नाम की एक नर्स लड़की की कहानी है, जो एक मुस्लिम युवक के प्रेमजाल (धोखे) में पड़कर उससे निकाह कर ली और डिम्पी से जीनत बन गयी । जीनत ने दो बच्चों को जन्म दिया । बरसों बीत गये । जीनत का एक लड़का बी०काम० कर रहा था और दूसरा ग्यारहवीं में पढ़ रहा था । जब उसे अपने प्रेमी की सच्चाई का पता चला कि पहले से ही उसकी बीवी और तीन बच्चे हैं, तो उसने अपने और उसके बीच के रिश्ते का अंत करने का निर्णय ले लिया । कहानीकार कुसुम वियोगी जी ने इस कहानी में कई जगह अपनी ओर से अपशब्दों का प्रयोग किया है, जो कहानी-लेखन के समय उनके असंयम का परिचायक है । यदि संवादों में अपशब्दों का प्रयोग हो, तो उन्हें पात्रों के देशकाल, वातावरण और परिस्थिति के आधार पर उचित माना जा सकता है, लेकिन जब लेखक स्वयं अपशब्द का प्रयोग करे, तो यह सर्वथा अनुचित है । उदाहरणस्वरूप दो उद्धरण प्रस्तुत हैं । पहला उद्धरण, " जीनत अपने बच्चों को उस कमीने के साये से दूर रख, लायक बनाना चाहती थी । अपनी सभी इच्छाएँ दबाकर उनके भविष्य को आशान्वित थी । वह नहीं चाहती थी कि वे भी अनपढ़ रहें, हाथ में औजार लेकर अपनी होने वाली लुगाइयों से कुतिया सरीखे पिल्लों को पैदा करते रहें । " दूसरा उद्धरण, " भविष्य के सपनों की नींव रखे, अभी कुछ दिन गुजरे ही थे कि अचानक उस कमीने का फोन आया और गाली-गलौच सेलफोन पर करने लगा और वह काँप उठी । " [113] डॉ० वियोगी जी की यह कहानी सामाजिक यथार्थ का विडंबनापूर्ण चित्र प्रस्तुत करती है । यदि इस कहानी को शालीनतापूर्वक लिखा गया होता और इस कहानी की नायिका द्वारा बुद्धिमानी से उस मुस्लिम युवक की जाँच-पड़ताल करने के बाद उससे निकाह करने का निश्चय किया गया होता, तो संभवतः यह कहानी आंबेडकरवादी चेतना की कहानी बन सकती थी । लेकिन इस कहानी की नायिका डिम्पी स्वतंत्रभाव से उस मुस्लिम युवक से प्रेम नहीं की थी, बल्कि जब उस मुस्लिम युवक ने प्रेम के नाम पर आत्मदाह किया, तब डिम्पी ने विवश होकर उससे निकाह किया था । इसलिए यह कहानी आंबेडकरवादी चेतना की कहानी नहीं है ।

'चार इंच की कलम' कहानी एक शीर्षक कहानी है, जिसके नाम से डॉ० कुसुम वियोगी जी का एक कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है । डॉ० वियोगी जी के शब्दों में, " मेरा पहला कथा-संग्रह 'चार इंच की कलम' दलित साहित्य जगत में खूब सराहा गया व संग्रह की कहानियों का अनेक भाषा में अनुवाद भी हुआ और देश-विदेश सहित कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी चयनित हुआ । " [114] इस कहानी का नायक विजय नाम का लड़का है, जो रूपा नामक स्त्री की चाय की दुकान पर काम करता था । उस दुकान पर पास के प्राइमरी स्कूल के अधिकतर अध्यापक चाय पीने आते थे । मास्टर नवीन ने विजय को पहचान लिया । विजय पहले उसी स्कूल में पढ़ने जाता था, लेकिन अब पढ़ाई छोड़ दिया था । जब मास्टर नवीन ने पढ़ाई छोड़ने के कारण पूछा, तो उसने बताया कि स्कूल में लड़के उसे नीच जाति (चूहड़ा) होने के कारण अपमानित करते थे । अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए विजय ने मुस्कुराकर कहा, " मास्टर जी ! मरने के बाद जब ऊपर जाऊँगा, तो ऊपर वाला (भगवान) कहता - अबे साले, सात फुट की झाड़ू छोड़कर चार इंच की कलम पकड़ कर आया है । चल नीचे, और धक्का दे देता । फिर दूसरे जन्म में जाकर, हाथ में झाड़ू पकड़ता । इससे तो अभी क्यों न पकड़ लूँ ? जो दुबारा तो जन्म न लेना पड़ेगा झाड़ू पकड़ने को । " [115] ध्यातव्य है कि इस कहानी का नायक विजय परलोक, ईश्वर और पुनर्जन्म में विश्वास रखता है । इस प्रकार की चेतना रखने वाला आंबेडकरवादी नहीं होता है । जिस कहानी के नायक में ही आंबेडकरवादी चेतना नहीं है, वह कहानी आंबेडकरवादी चेतना की कहानी कैसे हो सकती है ? विजय संघर्षशील भी नहीं था । उसने जातिगत भेदभाव से तंग आकर अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी, जो आंबेडकरवादी चेतना के विरुद्ध है ।

'अंतिम बयान' कहानी की नायिका अतरो नामक लड़की है । उसके गाँव के प्रधान का लड़का राजेंद्र जब उसके साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया, तो उसने उसका जननांग काटकर उसकी हत्या कर दी । जाँच-पड़ताल के बाद पुलिस को अतरो पर संदेह हो गया । जब दरोगा ने अतरो से उसका बयान माँगा, तो उसने भीड़ के बीच आकर कहा, " गाँव वालों सुनो ! दरोगा को बयान चाहिए, तो सुनो ! मेरा बयान । " डॉ० कुसुम वियोगी के शब्दों में, " अतरो ने कागज के बंडल में से निकालकर राजेंद्र का कटा हुआ पुरुषत्व हवा में लहरा दिया । " [116] यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि अतरो ने बयान देने की बात कही, लेकिन उसने सबूत पेश किया, बयान दिया ही नहीं । बयान देना और सबूत पेश करना, ये दो अलग-अलग बातें हैं । कहानीकार डॉ० वियोगी जी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए था । जबकि उन्होंने यह बहुत बड़ी गलती कर दी है, जिसके कारण इस कहानी के कथानक का यथार्थ और कहानी की नायिका अतरो का चरित्र, दोनों ही संदिग्ध हो गये हैं । अतरो के चरित्र पर इसलिए संदेह होता है, क्योंकि डॉ० वियोगी जी ने लिखा है, " जैसे ही अतरो ने गठरी सिर से उतारनी चाही, राजेंद्र ने लपककर गठरी उतारने को हाथ बढ़ाया, तो वह अतरो को ले खेत में जा गिरा । ... राजेंद्र अतरो को बातों-बातों में बहलाने-फुसलाने लगा । जैसे ही राजेंद्र ने कपड़े उतारे, तो उसका पुरुष तन चला था । थोड़ी देर बाद अतरो सिर पर न्यार (घास) की गठरी उठाये घर की ओर चल पड़ी । " [117] प्रश्न यह है कि राजेंद्र ने किसके कपड़े उतारे ? स्वभावतः ऐसी स्थिति में पुरुष पहले अपने कपड़े नहीं उतारता है, बल्कि पहले वह लड़की/स्त्री के कपड़े उतारता है अथवा उतरवाता है । यदि अतरो ने राजेंद्र के सामने अपने कपड़े उतारे, तो क्यों उतारे ? या फिर, राजेंद्र ने अतरो के कपड़े उतारे, तो अतरो ने उसे अपने कपड़े उतारने क्यों दिये ? यदि किसी स्त्री को दुष्कर्मी पुरुष का जननांग काटना ही हो, तो क्या वह स्वयं को उसके सामने नंगा होने की प्रतीक्षा करेगी ? यह कैसी अस्मत-रक्षा की भावना है ? अतरो ने राजेंद्र का जननांग काटा तो, कैसे काटा ? सामान्यतः घास करने वाली लड़कियाँ/स्त्रियाँ घास करने के बाद दराँती को टोकरी में ही डाल देती हैं, हाथ में नहीं लिये रहती हैं । डॉ० वियोगी जी ने इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि अतरो के हाथ में उस समय दराँती थी । दूसरी बात यह है कि अतरो की शारीरिक बनावट और क्षमता क्या राजेंद्र की शारीरिक बनावट और क्षमता से अधिक थी ? एक अकेली लड़की उस पुरुष की हत्या कैसे कर सकती है, जिसके हाथ में गोलियों से भरा तमंचा हो ? क्या वह पहलवान थी, क्या वह कर्राटे जानती थी ? डॉ० वियोगी जी ने इसका भी उल्लेख नहीं किया है । अतः स्पष्ट है कि डाॅ० वियोगी जी की कहानी 'अंतिम बयान' में यथार्थ कम और कल्पना अधिक है । 

'कमला की कमाई' कहानी कमला नामक एक महिला की संघर्षकथा है । कमला ने कोयले का पत्थर तोड़कर, कठिन परिश्रम करके अपनी दो बेटियों शरद और करुणा तथा बेटे राजकुमार को पढ़ा-लिखाकर शिक्षित और योग्य बनाया । शरद दिल्ली के सरकारी अस्पताल में नर्स की नौकरी पा गयी और राजकुमार इलेक्ट्रीशियन का डिप्लोमा करके अपनी दुकान चलाने लगा । जब कमला का देहांत हो गया, तो शरद और करुणा ने अपने-अपने तरीके से अंतर्जातीय विवाह कर लिया । राजकुमार की भी शादी हो गयी थी । उसके तीन बच्चे थे । डॉ० कुसुम वियोगी जी के शब्दों में, " दस साल बाद राजकुमार की पत्नी भी तीनों बच्चों को छोड़कर संसार से विदा हो गयी । दो साल बाद राजकुमार एक रेल दुर्घटना का शिकार बना । एक-एक करके इस दुनिया को छोड़कर चले गये और अब तीनो भाई-बहन एक-दूसरे के सहारे जीने को मजबूर हो चले और दुर्दिनों की चट्टान से फिर सामना करने को खड़े हुये । आज दोनों बहनों के सामने बीते हुये दिन आने लगे, ढेरों सवाल कंकरीट के जंगल से खड़े हो गये । मगर अम्मा (कमला) का संस्कार दोनों बहनों के अंदर समाया हुआ था । तीनों बिन माँ-बाप के बच्चों को दोनों बुआ करुणा और शरद ने अपने-अपने दामन में थाम लिये, जिन्हें पढ़ा-लिखाकर कामयाब ही नहीं किया, बल्कि गुदड़ी के लालों ने पढ़ाई में डिस्ट्रिक्ट हर बार टाॅप किया और सरकार से राजकीय स्तर पर पुरस्कृत भी हुये, अपनी-अपनी पढ़ाई में । " [118] चूँकि कमला ने अत्यंत संघर्ष करके अपने बेटे और बेटियों को समान रूप से शिक्षित किया तथा उन्हें शील और संस्कार भी दिया । इसलिए डाॅ० वियोगी जी की यह कहानी आंबेडकरवादी चेतना की कहानी है ।

'संस्कारों का सफर' कहानी का नायक कबीर है । वह बौद्ध-आंबेडकरवादी था । बुद्ध-पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित विचार-गोष्ठी में उसने कहा, " कहाँ हैं हम आंबेडकरवादी ? कहाँ मानते हैं हम सब बुद्ध के कल्याणकारी मानव धम्म को ? तुम सब आज भी उन्हीं परंपरागत संस्कारों में जकड़े हुये हो । वही होली-दीवाली के तीज-त्यौहार, वही शादी-ब्याह में सात फेरे लेने का चलन, रविवार को पीर पर चादर चढ़ाने जाती तुम्हारी औरतें । वही मावस, पूनो, करवाचौथ के व्रत । हारी-बीमारी में नजर-टोने उतरवाने के लिए भगत-ओझाओं के देर-सवेर दरवाजे खटखटाना, दुधमुँहे बच्चों के गले में ताबीज-गंडे बाँधना, सब कुछ वैसा का वैसा ही है । फिर क्यों ढकोसले में पड़े हो ? पढ़-लिखकर कहाँ फर्क पड़ा है तुम्हारे चिंतन और संस्कारों में ? " [119] उसी दिन एक कार्यकर्ता प्रकाश के पिता का देहांत हो गया गोष्ठी में एकत्रित सभी लोग प्रकाश के घर गए शव यात्रा के समय जब एक व्यक्ति ने कहा, " बोलो राम नाम सत् है, सत् बोलो गत् है । " तो कबीर ने तीव्र स्वर में कहा, " अरे क्या बकवास है ? सभी जोर से बोलो - बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि । " इस प्रकार कबीर ने अपनी सिद्धार्थ-बस्ती में बौद्ध संस्कारों का सफर शुरु कर दिया । उसके बाद बस्ती में जिसकी भी मृत्यु होती, उसका अंतिम संस्कार बौद्ध रीति से ही होता । बौद्ध संस्कारों का पालन करने की प्रेरणा देने के कारण डॉ० कुसुम वियोगी जी की यह कहानी आंबेडकरवादी चेतना की कहानी है ।

स्पष्ट है कि डॉ० कुसुम वियोगी जी ने अपनी समझ से तेरह प्रेरक कहानियाँ लिखी हैं । किंतु सूक्ष्म अध्ययन और सम्यक विवेचन के पश्चात उनकी केवल दो कहानियाँ आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण लक्षित होती हैं, जो कि उनकी संपूर्ण कहानियों की बीस प्रतिशत भी नहीं हैं ।


रत्नकुमार सांभरिया (6 जनवरी 1956)

रत्नकुमार सांभरिया जी एक ऐसे ख्यातिलब्ध कहानीकार हैं, जो हर वर्ग के पाठक और समीक्षक को प्रिय हैं । उनकी पहली कहानी 'फुलवा' है, जो 'हंस' पत्रिका के मई-1997 के अंक में प्रकाशित हुई थी और दूसरी कहानी 'बकरी के दो बच्चे' है, जो 'कथादेश' पत्रिका के अक्टूबर-1997 में प्रकाशित हुई थी । 'आखेट' कहानी पर उन्हें नवज्योति कथा सम्मान-1998 मिला । 'खेत' कहानी पर उन्हें राजस्थान पत्रिका का श्रेष्ठतम रचना चयन पुरस्कार मिला । सांभरिया जी की कहानी 'चपड़ासन' सहारा-समय द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता-2005 में सांत्वना पुरस्कार पायी तथा तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत के हाथों से उन्हें सम्मानित किया गया । 'विपर सूदर एक कीने' कहानी को कथादेश अखिल भारतीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता-2007 का प्रथम पुरस्कार मिला । लेकिन पुरस्कार प्राप्ति के आधार पर किसी साहित्यकार के साहित्य को श्रेष्ठ सिद्ध नहीं किया जा सकता है । क्योंकि पुरस्कार प्रदान करने वालों के अपने-अपने निजी मानदंड होते हैं, जिनका साहित्यिक प्रतिमानों से विशेष संबंध नहीं होता है । यदि किसी संस्थान के निदेशक को धार्मिक साहित्य पसंद हो, तो वह वैज्ञानिक चेतना के साहित्य को श्रेष्ठ साहित्य का पुरस्कार नहीं दे सकता है और यदि किसी संस्थान के निदेशक को वैज्ञानिक चेतना का साहित्य पसंद हो, तो वह किसी धार्मिक साहित्य को श्रेष्ठ साहित्य का पुरस्कार नहीं दे सकता है । इसी प्रकार आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत किसी साहित्य को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए आंबेडकरवादी विचारधारा को मानदंड बनाया गया है । जो साहित्य, आंबेडकरवादी विचारधारा के जितना ही अनुकूल और आंबेडकरवादी आंदोलन को प्रगति प्रदान करने में जितना ही समर्थ होगा, वह साहित्य उतना ही श्रेष्ठ आंबेडकरवादी साहित्य कहा जाएगा ।

सांभरिया जी की प्रतिनिधि कहानियों को संकलित करके डॉ० लोकेश कुमार गुप्ता ने एक पुस्तक संपादित की है, जिसका नाम है - 'रत्नकुमार सांभरिया की प्रतिनिधि कहानियाँ' । अपने संपादकीय में डॉ० गुप्ता ने लिखा है, " सांभरिया की कहानियों को जातीय प्रतिशोध की कहानियाँ नहीं कहा जा सकता है । वे व्यक्तिगत विद्वेष की जगह सामाजिक जातीय अहमन्यता को छोड़कर समाज में समरसता रचने की कोशिश में हैं । " इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए डॉ० माता प्रसाद जी ने संपादकीय टिप्पणी की प्रतिक्रिया में लिखा है, " डॉ० गुप्ता के सांभरिया के समरसता रचने की कोशिश से मैं व्यक्तिशः सहमत नहीं हूँ । मेरा विचार है कि सांभरिया समता के समर्थक हैं, समरसता के नहीं । मेरा मानना है कि समरसता, समता का विरोधी शब्द है । 'समता' जहाँ सबको बराबरी का स्थान देती है, वहीं 'समरसता' विषमताओं और विसंगतियों के होते हुए भी सभी को दूध, पानी की तरह मिलाकर समान रखना चाहती है । सांभरिया के सृजन को यह स्वीकार्य नहीं है । " [120] डॉ० माता प्रसाद जी ने डॉ० गुप्ता की टिप्पणी को तथ्यपूर्ण और तर्कपूर्ण ढंग से नकार दिया है, जो स्वीकार्य है । वास्तव में, अभिजात वर्ग के पाठक और समीक्षक प्रायः इस प्रकार के भ्रामक शब्दों का प्रयोग करके अपनी विचारधारा को जबरन थोपने का प्रयास करते रहते हैं । इसलिए बहुजनों को अभिजात वर्ग के पाठकों और समीक्षकों से निरंतर सावधान रहने की आवश्यकता है । इसी प्रकार 'समाजद्रष्टा साहित्यकार रत्नकुमार सांभरिया - भाग 2' पुस्तक के संपादक-द्वय का कथन है, " सांभरिया जी की साहित्य-साधना दीन-हीन, निर्बल व हाशिए पर धकेल दिये गये लोगों को समर्पित है । जिसमें विवशता, गरीबी, अत्याचार व शोषण के शिकार की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है । निःसंदेह उनके साहित्य में ग्रामीण परिवेश की समस्याएँ, अभाव, विवशता भले ही समाहित हो, किंतु पात्र जीवंत व संघर्ष करने वाले हैं । ये पात्र उस 'खोल' या आवरण के भीतर रहकर दया या सहानुभूति की याचना नहीं करते, अपितु उसे वेधकर नवीन चेतना के साथ उपस्थित होते हैं । पात्र उर्जा से भरपूर, संघर्षशील व सजग हैं । वे शिक्षा को वैशाखी नहीं, हथियार के रूप में इस्तेमाल कर ज्ञान की लौ अपने भीतर प्रज्वलित करना चाहते हैं, जिससे वे आने वाले झंझावातों, अन्याय व शोषण का मुकाबला कर सकें । " [121] इस कथन की आरंभिक बातें तो ठीक जान पड़ती हैं, लेकिन अंतिम बात में अतिशयोक्ति है, जो सत्य से परे है और बिल्कुल निरर्थक है । हथियार से कैसे लौ जलाई जा सकती है और लौ कैसे झंझावातों का सामना कर सकती है ? वास्तव में, यह केवल शब्दों का जाल है । जब समीक्षक समीक्षा करते समय कवि के मिजाज में हो जाए, तो यही हाल होता है । वर्तमान में, अधिकांश समीक्षक इस रोग से ग्रसित हैं ।

रत्नकुमार सांभरिया जी की कुल बावन कहानियाँ प्रकाशित हैं । उनकी कहानी 'फुलवा' की नायिका फुलवा परिश्रमी, सुशील और सांस्कारिक महिला थी । उसने पापड़ बेलकर अपने लड़के को पढ़ाया था, जो एक बड़ा अफसर बन गया था । बूढ़ी फुलवा शहर में आलीशान कोठी में रहती थी । जब उसके गाँव का जमींदार रामेश्वर उसके घर आया, तो उसने उसका सहर्ष आदर-सत्कार किया । फुलवा के बुलाने पर एक पच्चीस-छब्बीस साल की युवती पानी लेकर आयी । उसे देखकर रामेश्वर ने पूछा, " बहू है तेरी ? " तो फुलवा ने बताया, " नहीं रामेश्वर जी ! बहू नहीं है, नौकरानी है अपनी । कुँवर नाम है उसका । हमने तो आज तक बेचारी से पूछा नहीं, किस जाति का है ? खुद ही कहती है, राजपूत हूँ । गाँव में छत्तीस फाँक हैं । शहर में दो ही जाति होती है, अमीर और गरीब । एक दिन कुँवर आँखों में आँसू भरे गेट के सामने खड़ी सुबक रही थी । जब मैं वहाँ गयी, तो मेरे पाँव पर गिर पड़ी । सिसकियाँ और सुबकियाँ रुक नहीं पा रही थीं उसकी । बोली, अम्मा जी ! दुखिया हूँ, भीख नहीं माँगूँगी । नौकरानी रख लो मुझे । " [122] निःसंदेह 'फुलवा' कहानी की नायिका का चरित्र उत्कृष्ट है और वंचित-वर्ग की स्त्रियों के लिए अनुकरणीय है । सांभरिया जी की कहानी 'बात' की नायिका सुरती ने अपने लड़के को पढ़ाने के लिए धींग नामक धनवान व्यक्ति से कर्ज लिया था । सुरती ने एक बात गिरवी रखी थी कि एक महीने के भीतर यदि वह धींग के रुपये सूद सहित नहीं लौटाती, तो उसे धींग के साथ हमबिस्तर होना पड़ता । लेकिन सुरती ने एक महीने के भीतर सूद सहित पूरे रुपये की व्यवस्था कर ली थी । महीने के अंतिम दिन जब सुरती रुपये की गाँठ खोजने लगी, तो उसे रुपये की गाँठ नहीं मिली, क्योंकि धींग ने चुरा लिया था । सुरती को इस बात का संदेह हो गया था, इसलिए वह धींग के घर पहुँच गयी । सांभरिया जी के शब्दों में, " धींग खाट पर लेटा था, उघड़े बदन । वह गाँठ के छोर को चुटकी से पकड़कर उससे खेल रहा था, पिंजरे में बंद मैना की नाई । नाहर गच्चा खा जाए । बाज चूक जाए । क्रोध झागती सुरती धींग पर बिजली सी टूट पड़ी थी । " [123] सांभरिया जी की इस कहानी की नायिका सुरती चरित्रवान महिला थी, जिसने कर्ज लेकर उसे कठिन परिश्रम करके चुकाना स्वीकार किया, लेकिन कर्ज के बदले किसी गैर-मर्द के साथ शारीरिक संबंध बनाना स्वीकार नहीं किया । सुरती को अन्याय, बेईमानी और धोखा बिल्कुल भी पसंद नहीं था, इसलिए वह धींग से लड़ गयी थी । इस कहानी में सांभरिया जी ने देशकाल का उल्लेख नहीं किया है, जिससे इस कहानी के यथार्थ पर संदेह होता है । सुरती ने साहूकार धींग से तीन सौ रुपये कर्ज लिया था और सूद सहित तीन सौ पंद्रह रुपये चुकाया था । चूँकि यह कहानी वर्ष 2000 के बाद लिखी गयी है, इसलिए यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या वंचित-वर्ग के लोगों की स्थिति इक्कीसवीं सदी में भी इतनी दयनीय है कि एक महिला के लिए एक महीने में तीन सौ पंद्रह रुपये की व्यवस्था करना कठिन हो गया ? 'बिपर सूदर एक कीने' कहानी में सांभरिया जी ने जाति में भी जाति की उत्पत्ति और जातिगत भेदभाव को रेखांकित किया है । चर्मकार जाति के दो भाइयों जीवण लाल और श्यामू लाल में जीवण लाल सूत्रकार था, क्योंकि उसने चमड़े का काम छोड़ दिया था और श्यामू लाल रांपावत था, क्योंकि वह चमड़े का काम करना नहीं छोड़ा था । श्यामू चमड़े का काम इसलिए नहीं छोड़ा, क्योंकि वह लंगड़ा था और अपने लड़के को शहर में पढ़ा रहा था । वह दूसरा व्यवसाय करने में असमर्थ था, इसलिए जब गाँव की पंचायत में गंगाजली उठाने को कहा गया, तो श्यामू नहीं उठाया । परिणामस्वरूप वह बेजात हो गया तथा उसका हुक्का-पानी बंद हो गया । कहानी के अंत में श्यामू के अफसर लड़के द्वारा रह भेदभाव समाप्त किया गया और कहानीकार के शब्दों में 'विप्र-शूद्र' एक हुये, क्योंकि अफसर होने के कारण पुजारी का साला उसे अपना दामाद बनाने के लिए तैयार हो गया था । सांभरिया जी के शब्दों में, " मुँह दर मुँह यह बात समूची सूत्रकार बिरादरी में फैल गयी थी कि पुजारी और उसका साला बिरादरी बाहर श्यामूलाल की खुरेड़ी खाट पर बैठे उसके साथ हुक्का पी रहे हैं । " [124] इस कहानी में सांभरिया जी ने सरकारी नौकरी और बड़े पद तथा शिक्षा के महत्व को व्यक्त किया है, लेकिन उनका यह कथन कि 'आदमी संघर्ष पर उतारू हो जाए, तो लक्ष्मी कदमों पर आ गिरती है' तथा गंगाजली उठाने का प्रसंग आदि उनकी हिंदूवादी मानसिकता का परिचय देते हैं ।

सांभरिया जी की कहानियाँ संघर्ष शिक्षा, सदाचार, समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम की पक्षधर प्रतीत होती हैं । उनकी कहानियाँ जीवन-मूल्यों का अनुपालन करने की प्रेरणा देती हैं । इस संदर्भ में डॉ० धूलचंद मीणा ने लिखा है, " कथाकार सांभरिया संक्रमण के इस दौर में भी जीवन-मूल्य, आदर्श, मान-मर्यादा व परंपरा को जीवंत रखने के लिए अपनी लेखनी बेबाक व सशक्त तरीके से चला रहे हैं । वैश्वीकरण के दौर में समाज का वास्तविक चेहरा भी विषाक्त हो चुका है । व्यक्ति अपने आपको खोता-सा नजर आ रहा है । वह अपनी जड़ों से ही कट रहा है । सांभरिया ने समाज के जीवन-मूल्यों व आदर्शों की पैरवी ही नहीं की है, अपितु वे समाज के सजग प्रहरी भी हैं । कथाकार ने समाज की आस्थाओं, लोक-संस्कृति को जीवंत व अक्षुण्ण रखा है । " [125] डॉ० मीणा के इस कथन की अंतिम पंक्ति को यदि सही मान लिया जाए, तो सांभरिया जी ने समाज की आस्थाओं यानी परंपराओं का संरक्षण किया है अर्थात हिंदू धर्म का पोषण किया है । लोक संस्कृति को जीवंत रखना भी कोई बहुत अच्छा काम नहीं है, क्योंकि होली, दीवाली, तीज-त्यौहार आदि से संबंधित अनेक विसंगति और विडंबना से परिपूर्ण रीत-रिवाज लोक-संस्कृति के ही अंग हैं । सांभरिया जी की कहानियों में सतही तौर पर आंबेडकरवादी चेतना की अनेक विशेषताएँ लक्षित होती हैं, लेकिन आंबेडकरवादी कहानी के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है । आंबेडकरवादी कहानी में आंबेडकरवादी शब्दावली, पात्रों का आंबेडकरवादी आंदोलन से जुड़ाव, बौद्घ संस्कारों का क्रियान्वयन, हिंदू धर्म संबंधी आडंबरों का विरोध आदि का समावेश होना अनिवार्य है । फिर भी, सांभरिया जी की कहानियाँ नकली आंबेडकरवादी कहानीकारों की कहानियों की अपेक्षा उत्कृष्ट हैं । सांभरिया जी स्वयं को आंबेडकरवादी कहानीकार घोषित करते रहे हैं, लेकिन वे पूर्णतः आंबेडकरवादी कहानीकार नहीं है । इस संदर्भ में कँवल भारती जी ने लिखा है, " किंतु 2010 आते-आते सांभरिया 'दलित' शब्द को भी स्वीकार करने लगे और दलित विमर्श भी करने लगे । (घासवाली के संकलन के बहाने दलित-विमर्श, लमही, अक्टूबर-दिसंबर 2009) दलित आलोचक के रूप में वह 'मुंशी प्रेमचंद और दलित समाज' (2011) में प्रेमचंद की कहानियों की आलोचना करते हैं और अपने अगले कथा-संग्रह का नाम भी 'दलित समाज की कहानियाँ' (2011) रखते हैं । इसके प्राक्कथन में वह दलित कथाकारों का बौद्धिक नेतृत्व करते हुए उन्हें कहानी का 'क' 'ख' 'ग' पढ़ाते हैं । लेकिन सबसे बड़ी बात है कि वह दलित कहानी को स्वीकार करते हैं । ...  सांभरिया प्रेमचंद के कटु आलोचक हैं । परंतु उन पर सबसे अधिक प्रेमचंद का ही प्रभाव है । वह प्रेमचंद की ही गाँव-गँवई की बानी-बोली में कहानियाँ लिखते हैं और उन्हीं की शैली में प्रस्तुत करते हैं । वह दलित पात्रों के नाम भी उसी तरह रखते हैं, जैसे प्रेमचंद रखते थे - मिनखू, पूछा, मालू, मल्ली, कालू, रूना, लूना, बिल्लो आदि । " [126] स्पष्ट है कि रत्नकुमार सांभरिया जी आरंभ में स्वयं को आंबेडकरवादी कहानीकार कहते रहे तथा 'दलित' शब्द और दलित-साहित्य का विरोध करते रहे, लेकिन अंत में उन्होंने 'दलित' शब्द को अंगीकार कर लिया और स्वयं को दलित कहानीकार भी कहने लगे । इस प्रकार उन्होंने महत्वाकांक्षा और प्रसिद्धि के लोभ में अपनी विचारधारा से विचलित होकर समझौता किया । ध्यातव्य है कि अपने संकल्प से डिगने वाला समझौतावादी व्यक्ति आंबेडकरवादी नहीं कहा जाता है । सांभरिया जी ने अपने पात्रों का नाम भी विकृत और हिंदू नाम रखा है । वे भले ही परंपरा का विरोध करने का ढोंग करते हों, लेकिन वास्तव में उन्होंने अपनी कहानियों में परंपरा का खुलकर विरोध नहीं किया है । अतः रत्नकुमार सांभरिया जी आंशिक रूप से ही आंबेडकरवादी चेतना के कहानीकार हैं ।


डाॅ० जयप्रकाश कर्दम  (5 जुलाई 1958)

डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी की कहानियाँ आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण हैं तथा बहुजन को सम्यक दृष्टि प्रदान करने में पूर्णतया समर्थ हैं । डॉ० कर्दम जी की कहानियाँ शिल्प और शैली की दृष्टि से उत्कृष्ट होने के साथ-साथ आंदोलन के उद्देश्य की दृष्टि से भी विशिष्ट हैं । प्रसिद्ध आलोचक कँवल भारती ने डाॅ. अजय नावरिया की कहानी 'संक्रमण' को विदेशी पृष्ठभूमि पर लिखी गयी पहली दलित कहानी घोषित किया है, जबकि डाॅ. जयप्रकाश कर्दम की कहानी 'मंगलसूत्र' विदेशी पृष्ठभूमि पर लिखी गयी पहली दलित कहानी है । लेकिन यह कहानी आंबेडकरवादी कहानी नहीं है । तथाकथित हिंदू स्त्रियों द्वारा मंगलसूत्र हटाकर गैर मर्द के साथ हमबिस्तर होने की दुष्प्रवृत्ति पर बहुत ही सटीक कटाक्ष किया है - कर्दम जी ने । डाॅ. कर्दम जी ने भी अपनी कहानी में सेक्स का चित्रण किया है, लेकिन उतनी बेशर्मी के साथ नहीं, जितनी बेशर्मी के साथ डाॅ. नावरिया ने किया है । डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी की कहानियों में 'तलाश', 'मूवमेंट',  'काॅमरेड का घर', 'गँवार' ('तलाश' कहानी-संग्रह से), 'हाउसिंग सोसायटी', 'मजदूर खाता', 'रास्ते', 'मॉनीटर', 'गोष्ठी', 'पगड़ी', 'मंदिर' ('खरोंच' कहानी-संग्रह से) आदि कहानियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । इनमें भी, विशेष रूप से दो कहानियाँ 'रास्ते' और 'गोष्ठी' अत्यंत पठनीय हैं । ये दोनों कहानियाँ आंबेडकरवादी आंदोलन को भली प्रकार समझाने में सफल हैं । डॉ० कर्दम जी की कुछ कहानियाँ काफी कमजोर हैं । इस बात को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि उनकी कुछ कहानियों का आंबेडकरवादी आंदोलन से कोई संबंध नहीं है तथा वे कहानियाँ भावुकता पर आधारित हैं, जो किसी प्रकार का सामाजिक संदेश देने में सफल नहीं हो पाती हैं । इन कहानियों को केवल सांसारिक यथार्थ और सामाजिक त्रासदी के रूप में देखा जा सकता है । ऐसी कहानियों में 'छिपकली', 'पेंशन' आदि के नाम शामिल हैं ।

'तलाश' कहानी का नायक रामवीर सिंह है । वह एक सरकारी अधिकारी था और हफ्ते भर से किराए के मकान की तलाश कर रहा था । उसे एक मकान मिला, जिसका मालिक गुप्ता था । गुप्ता के द्वारा परिचय पूछने पर उसने अपना नाम सहित अपने गृह-जनपद 'बुलंदशहर' बताते हुए कहा, " मैं व्यापार कर अधिकारी हूँ । " यह सुनकर गुप्ता ने रामवीर सिंह को अदब से 'साहब' संबोधित करना आरंभ कर दिया था, क्योंकि वह एक व्यापारी था । रामवीर सिंह गुप्ता के मकान में रहने लगा । वहाँ एक रामबती नाम की महिला सफाई का काम करती थी । खाना बनाने की असुविधा को ध्यान में रखकर रामवीर सिंह ने रामबती को अपना खाना बनाने के लिए तैयार कर लिया । लेकिन जब गुप्ता और उसकी पत्नी को पता चला, तो उन्हें बुरा लगा । अगले दिन गुप्ता ने रामवीर सिंह से कहा कि वह रामबती से खाना ना बनवाए, तो रामवीर सिंह ने इसका कारण पूछा । गुप्ता ने कहा, " आप नहीं जानते साहब, रामबती चूहड़ी है । एक चूहड़ी से खाना बनवाएँगे आप ? माँस-मछली पता नहीं क्या-क्या खाती है । मुझे तो सोचकर ही घिन-सी आ रही है । और वह रसोईघर के अंदर घुसकर सब चीजों को छूएगी । " [127] रामवीर सिंह ने कहा, " चूहड़ी है तो क्या हुआ ? है तो वह भी इंसान ही और फिर वह साफ-शुद्ध रहती है । " जब गुप्ता ने अपने मकान और रसोईघर के अपवित्र होने की बात कही, तो रामवीर सिंह ने कहा, " हमें इस तरह की बातें नहीं सोचनी चाहिए । ये बातें बहुत पुरानी है और पीछे छूट चुकी हैं । हमारा संविधान, जिससे हमारा देश चलता है, उसकी नजर में हम सब बराबर हैं । कोई किसी से छोटा-बड़ा या छूत-अछूत नहीं है । " यह सुनकर गुप्ता ने स्पष्ट कहा, " संविधान से देश चलता है साहब, समाज नहीं । समाज परंपराओं से चलता है । इस पूरे मुहल्ले में ब्राह्मण-बनिये रहते हैं - धर्म-कर्म से चलने वाले । आपको मेरी बात नहीं जँच रही है, तो देख लीजिए साहब आप ही । आप रामबती से ही खाना बनवाना चाहते हैं, तो आपको मकान खाली करना पड़ेगा । " [128] रामवीर ने किराए का मकान खाली कर दिया, लेकिन अपनी समतावादी विचारधारा से समझौता नहीं किया । समतावाद का समर्थक होने और जातिवाद का विरोध करने के कारण इस कहानी का नायक आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण है और यह कहानी आंबेडकरवादी कहानी है ।

'मूवमेंट' कहानी के नायक को लेखक डॉ० कर्दम जी ने 'वह' से संबोधित किया है । वह रोज की तरह आज फिर देर से घर लौटा था । जब तक उसने कपड़े बदलकर हाथ-मुँह धोये, तब तक उसकी पत्नी सुनीता ने खाना लगा दिया था । खाना खाने के बाद उसने सुनीता को नाराज देखकर बातचीत शुरू की । सुनीता को इस बात की शिकायत थी कि 'वह' सामाजिक कार्यों में ज्यादा समय देता था और परिवार में कम । जब उसने कहा, " तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं मूवमेंट के काम में ही व्यस्त रहता हूँ । आखिर समाज... । " तो 'समाज' शब्द सुनते ही सुनीता बीच में बोल उठी, " समाज-समाज-समाज, हर समय समाज का नशा छाया रहता है तुम्हारे दिमाग पर । न खाना, न पीना, न चैन न आराम । न घर की चिंता न बाहर की, जब देखो तब समाज । मैं पूछती हूँ क्या देता है समाज तुम्हें ? तुम भूखे मरते हो, कोई तुम्हारी दवा-दारू नहीं कराता । तुम फटे चीथड़े लटकाये फिरते हो, कोई तुम्हें कपड़े नहीं देता । तुम्हारे बच्चों के स्कूल की फीस टाइम से नहीं जाती, कोई पूछने नहीं आता । बार-बार तुम किराए के मकानों में कभी यहाँ कभी वहाँ सामान उठाये फिरते हो, कोई तुम्हें रहने को ठौर नहीं दे सकता । फिर कैसा समाज, किसका समाज ? सब अपनी-अपनी आपाधापी में लगे हुये हैं, सब कंपटीशन में उलझे हुये हैं । क्या ऐसे ही स्वार्थ में लिप्त लोगों के समूह को समाज कहते हैं ? " [129]
उसने सुनीता को समझाते हुए कहा, " देखो सुनीता यदि बाबा साहेब आंबेडकर ने भी ऐसा ही सोचा होता, यदि उन्होंने भी समाज की परवाह न करके केवल अपना ही हित देखा होता, तो उनके लिए किस चीज की कमी थी ? वह चाहते तो ढेर सारा पैसा कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया । यदि उन्होंने ऐसा किया होता, तो जानती हो हमारे समाज में क्या होता, हम तुम आज कहाँ होते ? " यह सुनकर सुनीता ने कहा, " तुम हर बात में बाबा साहेब को क्यों घसीट लाते हो ? बात मेरी और तुम्हारी हो रही है, उनको बीच में घसीटने की क्या जरूरत है ? " [130] उसने कहा, " क्या कह रही हो तुम ? मैंने कब तुम्हारी उपेक्षा की है, कब अपने से कम समझा है तुमको ? " सुनीता ने कहा, " बराबर भी कब समझा है ? समझते तो अपने निर्णयों में मुझे भी भागीदार बनाते, मुझसे भी कंसल्ट (सलाह) करते । यही तो सबसे बड़ी त्रासदी है मेरी कि हर काम में तुम्हारा साथ निभाकर भी मैं कहीं नहीं हूँ । मेरी कोई कीमत या कद्र नहीं है । तुम समाज के बीच जाते हो । समाज में तुम्हारी पहचान है, मान-सम्मान है और मैं इस चारदीवारी के अंदर पिसती हूँ । मेरा कोई एक्जिस्टेंस (अस्तित्व) नहीं है । " [131] डॉ. कर्दम जी की इस कहानी में स्त्री-पुरुष के बीच समता की भावना को अभिव्यक्ति दी गयी है । पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष दोनों का अधिकार बराबर होता है । यह बराबरी की भावना आंबेडकरवादी चेतना की परिचायक है ।

'गँवार' कहानी का नायक प्रभात है । प्रभात दिल्ली से सटे गाँव का रहने वाला था । वह आंबेडकरवादी था । अपने गाँव में आंबेडकर जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में सक्रिय भागीदारी की वजह से वह चाहते हुए भी दिल्ली में संसद भवन पर नहीं पहुँच पाता था । जब उसकी नौकरी दिल्ली में लग गयी, तो वह चौदह अप्रैल के दिन अपने गाँव की बजाय संसद भवन गया । प्रभात संसद भवन के बाहर पुस्तकों की एक दुकान पर पुस्तकें देख रहा था, तभी उसे वहाँ उसकी पुरानी दोस्त रचना मिली । रचना ने बातचीत के दौरान आभा का जिक्र किया । आभा प्रभात की अच्छी दोस्त थी, जिसे वह मन ही मन प्रेम करता था । जब रचना ने आभा को प्रभात से शादी करने के लिए कहा था, तो उसने इंकार कर दिया था । रचना ने पूछा था, " क्यों ? इसमें गलत क्या है ? वह इतना क्वालिफाइड है । नौकरी पर भी है । इसके अलावा वह अच्छे स्वभाव का है । " आभा ने कहा, " लेकिन है तो वह एकदम गँवार । न उस पर ढंग के कपड़े होते हैं, न उसे खुद को मेनटेन करना आता है । रही नौकरी की बात, तो क्या है वह, सिर्फ क्लर्क ही न ? कितनी तनख्वाह मिलती है उसे ? ऊपर से इतनी सारी जिम्मेदारियों का बोझ है उसके सिर पर । कौन-सी अक्लमंदी है उसके साथ शादी करने में ? " [132]
प्रभात ने कहा, " दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती वह । कुछ सहारा मिलेगा उसे । उसकी तकलीफें कुछ तो कम होंगी । " रचना ने उसे बताया, " शादी तो खैर उसने नहीं की है, लेकिन बीच-बीच में कई पुरुषों से दोस्ती उसने की है । आजकल रमेश नाम के एक व्यक्ति से उसकी दोस्ती है । लेकिन रमेश से भी किसी तरह का कोई सहारा उसको नहीं है । वह शादीशुदा है । अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता है । उन्हीं पर अपनी कमाई खर्च करता है । आभा की वह शायद ही कभी कोई मदद करता है । थोड़ी-बहुत देर के लिए जब भी वह आभा के पास आता है, शराब के नशे में धुत होता है । कुछ क्षण आभा के साथ बिताता है और चला जाता है । उसे न आभा के किसी दुःख-तकलीफ से कोई मतलब होता है न उसके बच्चों के भविष्य से । वह सिर्फ आभा से शरीर-सुख चाहता है । " [133] वास्तव में, आभा स्वच्छंदतावादी थी । उसका स्वच्छंद आचरण ही उसके दुःख का कारण बना । इसके विपरीत प्रभात अनुशासित और शीलवान था । अपने सदाचरण के कारण वह जीवन में निरंतर उन्नति करता गया और स्थायी सुख को प्राप्त किया । 

'हाउसिंग सोसाइटी' कहानी का नायक विजय महतो है । वह आर.के. पुरम में सरकारी क्वार्टर में रह रहा था । एक दिन उसके ऑफिस के एक साथी अरुण कुमार सिन्हा ने कहा, " अरे ताज्जुब है, इतना अच्छा वेतन पाते हो और तुमने अभी तक अपना मकान नहीं खरीदा । तुम करते क्या हो इतने रुपयों का । " विजय मेहता केवल इतना ही कहा, " मैं भी प्रयास कर रहा हूँ । अभी संयोग नहीं बना है, जब संयोग बनेगा, देर सबेर मेरा अपना मकान भी बन जाएगा । " [134] विजय महतो की पत्नी भी चाहती थी कि जल्दी से उनका भी अपना मकान हो जय । एक दिन विजय को ठीक-ठाक मूड में देखकर उसने कहा, " इतनी सारी ग्रुप हाउसिंग सोसायटी हैं सरकारी कर्मचारियों की । सब लोग किसी न किसी सोसाइटी के सदस्य हैं । तुम भी किसी हाउसिंग सोसायटी के सदस्य क्यों नहीं बन जाते ? " विजय ने बताया, " चाहता तो हूँ मैं भी मेंबरशिप लेना । लेकिन पता ही नहीं चल पाता कि कब में सोसाइटी बन जाती है और कब में उनकी मेंबरशिप खत्म हो जाती है । जिन कुछ एक सोसाइटी यों के बारे में पता चला और मैंने संपर्क किया वहां पर सदस्यता नहीं मिली । " [135] एक दिन उसने समाचार-पत्र में सहकारी आवास समिति का विज्ञापन देखा । विज्ञापन में आवास योजना की शर्ते भी दी गयी थीं । प्रस्तावित फ्लैट दो या तीन कमरों के थे । सबसे बड़ी राहत वाली बात यह थी कि फ्लैट की कीमत का भुगतान एकमुश्त अथवा फ्लैटों के निर्माण के साथ-साथ किस्तों में किया जा सकता था । उसने तुरंत टेलीफोन उठाया और विज्ञापन में दिये गये नंबरों में से एक नंबर डायल कर दिया । सोसाइटी के सेक्रेटरी एस.के. शर्मा ने फोन उठाया और नाम पूछा । विजय महतो ने अपना नाम बताया । शर्मा ने कहा, " ठीक है मेहता जी, आपको मेंबरशिफ मिल सकती है । " विजय महतो ने कहा, " मेहता नहीं जी, मैं महतो हूँ । " यह सुनकर शर्मा ने कहा, " महतो जी, मैं आपसे पाँच मिनट बाद में बात करता हूँ । " [136] इतना कहकर उसने फोन बंद कर दिया । पाँच मिनट के बाद भी एस०के० शर्मा का फोन नहीं आया, तो विजय महतो कुछ और देर करके स्वयं फोन किया । फोन उठाकर शर्मा ने पाँच मिनट और इंतजार करने के लिए कहा । घंटे भर के बाद भी शर्मा ने दोबारा फोन नहीं किया, तो विजय महतो हाउसिंग सोसायटी के ऑफिस पहुँच गया । वहाँ लंबी बातचीत के दौरान अंत में शर्मा ने स्पष्ट कर दिया कि सोसाइटी में केवल ऊँची जाति के लोगों को ही फ्लैट दिया जा रहा है । यह सुनकर विजय सन्न रह गया । घर पहुँचने के बाद जब उसकी पत्नी ने पूछा तो उसने बताया, " जाति के कारण केवल उच्च जाति के लोगों को ही मेंबर बना रहे हैं वे, दलितों को नहीं बना रहे । " [137]

'मजदूर खाता' कहानी का नायक रामलाल है । उसका बेटा बहुत बीमार था । उसकी पत्नी ने बताया था कि गाँव के डॉक्टर ने जवाब दे दिया था और शहर ले जाकर अस्पताल में भर्ती कराने के लिए कहा था । रामलाल ने गाँव न पहुँचने की असमर्थता प्रकट की, लेकिन पैसा भेजने का आश्वासन दिया । जब उसने फैक्ट्री मालिक से थोड़ी देर के लिए बैंक जाने का अनुरोध किया, तो फैक्ट्री मालिक ने कारण पूछा । रामलाल ने सब कुछ साफ-साफ बता दिया । फैक्ट्री मालिक ने रामलाल को बैंक जाने की अनुमति दे दी । रामलाल बैंक से जल्दी ही लौट आया, तो फैक्ट्री मालिक ने जल्दी आने का कारण पूछा । रामलाल ने बताया कि बैंक वालों ने पैसा देने से मना कर दिया और शनिवार को आने के लिए कहा । फैक्ट्री मालिक को यह सुनकर आश्चर्य हुआ । उसे बैंक कर्मियों के इस व्यवहार पर गुस्सा आ रहा था । वह स्वयं रामलाल को साथ लेकर बैंक गया । फैक्ट्री मालिक ने बैंक मैनेजर से प्रतिवाद किया, " जब बाकी सब कस्टमर किसी भी दिन अपने खातों से ट्रांजैक्शन कर सकते हैं, तो मजदूर क्यों नहीं कर सकते ? उनके लिए ही केवल शनिवार का दिन क्यों निर्धारित है ? " बैंक मैनेजर ने उत्तर दिया, " ऐसा इसलिए है, क्योंकि ये लोग गंदे रहते हैं । इनके कपड़े मैले-कुचैले और तेल-चीकट में सने होते हैं ।इनके बैंक में होने से बाकी कस्टमर, जो साफ-सुथरे कपड़े पहनकर आते हैं, असहज महसूस करते हैं । इससे बैंक के बिजनेस पर प्रभाव पड़ता है । इसीलिए इनके लिए शनिवार का दिन निर्धारित किया हुआ है, ताकि इनका भी काम चल जाए और बैंक के बिजनेस पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़े । " [138] फैक्ट्री मालिक ने कहा, " यह भेदभाव तो गलत है । देश के सब नागरिक सम्मान हैं । सबको समानता का अधिकार है । बैंक के लिए भी सब ग्राहक समान होने चाहिए । मजदूरों को उनके खाते में ट्रांजैक्शन करने से रोकना तो एकदम अमानवीय और संविधान का उल्लंघन है । " [139] अंततः फैक्ट्री मालिक ने शाखा प्रबंधक की शिकायत उसके सी०एम०डी० और रिजर्व बैंक से करने की चेतावनी दी तथा रामलाल को पैसे देने के लिए अपने अकाउंट से रुपए निकालने के लिए फार्म भरने लगा ।

'रास्ते' कहानी का नायक दीपक दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था । वह उत्तर प्रदेश के एक गाँव का निवासी था ।
चूँकि डॉ० कर्दम जी एक बहुत ही अच्छे समीक्षक हैं, इसलिए उन्होंने अपनी कहानियों में भी कहीं-कहीं पर समीक्षा शैली का प्रयोग किया है । उदाहरण के रूप में 'रास्ते' कहानी का एक उद्धरण प्रस्तुत है, " अंग्रेजी बोलना गाँव से - विशेष रूप से उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के किसी गाँव से - आने वाले छात्रों की सबसे बड़ी कमजोरी होती है । गाँव के स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ना-लिखना तो सिखाया जाता है, अंग्रेजी बोलने पर वहाँ खास ध्यान नहीं दिया जाता है । इसलिए अंग्रेजी का ग्रामर, पंक्चुएशन वहाँ के छात्र अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन अंग्रेजी बोल नहीं पाते हैं । बोलना अभ्यास से आता है, जो गाँव के माहौल में दूभर सी बात है । दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में घुसते ही ग्रामीण छात्रों का पहला मुकाबला अंग्रेजी से होता है, जो उन्हें असहज और आक्रांत बना देती है । अंग्रेजी न बोल पाने के कारण वे अन्य छात्रों के साथ वार्तालाप से बचने की कोशिश करते दिखाई देते हैं । इसलिए शहरी छात्रों के साथ उनकी घनिष्ठता नहीं हो पाती । उनकी मित्रता ज्यादातर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए छात्रों के साथ ही होती है । " [140] इस उद्धरण में सामाजिक सर्वेक्षण, पारिस्थितिक विश्लेषण और मनोवैज्ञानिक सूक्ष्म अध्ययन स्पष्ट लक्षित है । दीपक बी०ए० में प्रवेश लेने के लिए आया था और कल्पना आंबेडकर स्टूडेंट फेडरेशन के कुछ अन्य सदस्यों के साथ में छात्रों का मार्गदर्शन कर रही थी । कल्पना का बात करने और समझाने का ढंग बहुत सहज और अपनेपन से भरा था, जिसने दीपक को अत्यधिक प्रभावित किया । 'आंबेडकर स्टूडेंट फेडरेशन' सीनियर छात्र ब्रह्मसिंह की पहल और उसके प्रयासों से स्थापित किया गया था, इसलिए सभी छात्र ब्रह्मसिंह की बहुत इज्जत करते थे । ब्रह्मसिंह और कल्पना सहित वंचित वर्ग के सभी छात्र-छात्राओं को दीपक ने अपने तर्क-वितर्क से प्रभावित किया । कल्पना के आग्रह पर दीपक ने छात्र-संघ का चुनाव लड़ा, वह सचिव पद का उम्मीदवार था । दीपक चुनाव हार गया, लेकिन उसने एनएसयूआई और एबीवीपी के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी । इससे वह अपने कॉलेज और विश्वविद्यालय में चर्चित हो गया था । इसी बीच निरंतर मिलते रहने से कल्पना और दीपक के बीच काफी अपनापन सा हो गया, जो धीरे-धीरे प्यार में परिवर्तित हो गया था । जब अचानक दीपक कहीं गायब हो गया और दो सप्ताह तक कल्पना से मिलने नहीं आया, तो कल्पना ने दीपक के काॅलेज जाकर मालूम किया । वहाँ से सिर्फ यही पता चला कि कई दिनों से वह कॉलेज नहीं आ रहा था । कई सप्ताह के अंतराल के बाद दीपक कल्पना से मिलने उसके घर आया । वह उदास था ।  कल्पना ने उदासी का कारण पूछा । कल्पना के बहुत आग्रह करने पर दीपक ने कहा, " पिताजी की डेथ हो गई है । " दीपक के भैया भी जीवित नहीं थे । उनका मर्डर हो गया था । जब कल्पना ने दीपक से पूछा, " कहीं से कोई सपोर्ट ? " तो दीपक बोला, " अपने समाज की सच्चाई तो तुम जानती ही हो । जो कहीं नौकरी पर हैं या जिनके पास थोड़ी-बहुत जमीन है, वे ही दो रोटी आराम से खा रहे हैं । नहीं तो रोज कमाना रोज खाना । हैंड कुमावत की हालत में जीते हैं सब अचानक कल्पना को कुछ याद आया उसने उत्साहित होकर कहा मिल गया रास्ता देखो मैं कमाते हो कुछ तो मैं तुम्हें सहयोग करूंगी और खुश हूं ट्यूशन पढ़ाकर करोगे मैं समझती हूं कि इससे तुम्हारी सोच से हल हो जाएगी दीपक सोमानी था उसने कहा कि मैं अपना संघर्ष अपने दम पर करना चाहता हूं कल्पना ने उसे समझाया और कहा कि समाज की बहुत सी प्रतिभाएं सहयोग के अभाव में इसी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों की भेंट चढ़ जाती हैं । मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे साथ भी ऐसा हो । " दीपक जब उसके कर्ज चुराने की बात करता है, तो कहती है, " तुम्हारी एजुकेशन पूरी हो जाएगी और अच्छी नौकरी मिल जाएगी, तो देख लेना तुम्हारी सब समस्याएँ आसानी से हल हो जाएँगी । फिर भी तुमको मेरा सहयोग कोई बोझ या कर्ज लगे, तो अपनी नौकरी लग जाने पर तुम मुझे वापस लौटा देना । " [141]

'मॉनिटर' कहानी का नायक सतीश है । वह इंटरमीडिएट विज्ञान का छात्र था । वह अपनी कक्षा का सबसे होशियार छात्र तथा माॅनीटर था । वह दिन-रात पढ़ाई में लगा रहता था और हर समय पढ़ाई-लिखाई की ही बातें करता था । उसका सपना इंजीनियर बनने का था, किंतु पिता की असमय मृत्यु के कारण उसका इंजीनियर बनने का सपना चकनाचूर हो गया था । परिवार की आय का कोई अन्य साधन नहीं था । इसलिए इंजीनियर बनने की अपनी इच्छा को मारकर सतीश ने अपने ताऊ रामस्वरूप के साथ काम पर जाना शुरू कर दिया था । रामस्वरूप राजमिस्त्री था और आसपास के गाँवों में राजगीरी का काम करता था । उसने सिकरौड़ा गाँव में ठेके पर एक मकान बनाने का काम लिया था और सतीश उसके साथ बेलदारी का काम करता था ।
सतीश जिस मकान में बेलदारी का काम कर रहा था, वह गाँव के मुख्य रास्ते पर था, जिसका एक छोर डासना से तथा दूसरा सदरपुर से मिलता था । डासना और सदरपुर दोनों ही सिकरौड़ा से एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर थे । डासना में एक इंटरमीडिएट कॉलेज था और एक दूसरा इंटरमीडिएट कॉलेज डासना के बिल्कुल समीप अध्यात्मिक नगर में था । सतीश अध्यात्मिक नगर इंटरमीडिएट कॉलेज का छात्र था । अपने कॉलेज में पढ़ने वाले सदरपुर के अधिकांश छात्रों को वह पहचानता था, विशेष रूप से कक्षा नौ से बारह तक सीनियर विंग के छात्रों को वह अच्छी तरह जानता था । दोपहर के लगभग एक बजे का समय हो गया था, वह उसका लंच का समय था ।सतीश ने तसला गारा के गड्ढे के पास रखकर पास में लगे हैंडपंप के पानी से हाथ-मुँह धोया । नीम के पेड़ के नीचे जमीन पर बैठकर वह रामस्वरूप के साथ रोटियाँ खाने लगा । सतीश जानता था कि उसके कॉलेज में पढ़ने वाले सदरपुर के लड़के उसी रास्ते से गुजरते थे और उनके वापस लौटने का समय होने वाला था । इसलिए उसने इस बात का ध्यान रखा था कि उसका मुँह रास्ते की ओर न हो । वह रास्ते की ओर पीठ करके बैठा था, ताकि रास्ते से गुजरते हुए लड़के उसे न देख सकें । रोटी खाने के बाद वह एक शीशम के पेड़ के नीचे खड़ा था, तभी डसना की ओर से रास्ते पर लड़कों का एक झुंड आता दिखाई दिया । वे उसके कॉलेज में पढ़ने वाले सदरपुर के लड़के थे । इसलिए सतीश पेशाब का बहाना करके अरहर के खेत में घुस गया । लड़कों का दल वहाँ से गुजर गया, तो सतीश ने राहत की साँस ली और खेत से बाहर आ गया । फिर से काम शुरू हो गया । सतीश तसले में गारा भरकर रामस्वरूप को पकड़ा रहा था ।अचानक सदरपुर के लड़कों का एक और दल वहाँ से गुजरा । उनमें से महीपाल नामक एक लड़के की नजर तसले में गारा ढोते सतीश पर पड़ गयी । उसने तुरंत सतीश को ठोका, " अरे सतीश ! " लेकिन सतीश कुछ नहीं बोला । तो महिपाल अपने साथ चल रहे साथियों को संबोधित करते हुए बोला, " अरे सुबोध, कुँवरपाल, देखो, माॅनीटर क्या कर रहा है ? " [142] महिपाल से 'माॅनीटर' का नाम सुनकर वे दोनों रुक गये और पलटकर पीछे की ओर देखा । सतीश को वहाँ देखकर वे भी चौंक गये । आखिर सतीश के बारे में वे सब जान गये कि वह वहाँ पर मजदूरी कर रहा था । अभी तक वे उसे संपन्न घर का लड़का समझते थे, क्योंकि वह साफ कपड़े पहनकर काॅलेज जाता था और सबके साथ घुल-मिलकर रहता था । उसकी सच्चाई जानकर महीपाल ने व्यंग किया, " कक्षा में तो तू मॉनीटर बनकर बड़ा रोब दिखाता था और तेरी औकात ये है ? " सतीश उसके व्यंग से विचलित नहीं हुआ, बल्कि सहजतापूर्वक बोला, " तुम सही कहते हो महिपाल, मेरी कोई औकात नहीं है । एक गरीब आदमी की कोई औकात नहीं होती, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ । इसलिए मैंने कभी रोब या दिखावे की कोई बात नहीं की । कक्षा में मैंने जो कुछ किया या करता हूँ, वह केवल मॉनीटर के रूप में क्लासटीचर द्वारा सौंपी गयी जिम्मेदारी का निर्वाह होता है । अपनी ओर से मैं कुछ नहीं करता । मेरी जगह यदि तुम मॉनीटर होते, तो तुम भी वही करते, जो मैंने किया है या करता हूँ । " [143] 

'गोष्ठी' कहानी का नायक कुमार आदित्य है । वह कुछ तथाकथित दलित लेखकों डॉ० के०आर० गौतम, बी०एस० निम, एस०पी० तरुण और डॉ० सुमन समीपी की गोष्ठी में एक दिन शामिल हुआ । गोष्ठी डॉ० सुमन समीपी के घर रखी गयी थी । डॉ० समीपी जानता था कि कुमार आदित्य शराब नहीं पीता है, इसलिए उस रोज उसने शराब के गिलास न निकालकर अपनी पत्नी से कहकर चाय बनवाया । डॉ० के०आर० गौतम एक अति साधारण स्तर के साप्ताहिक पत्र का संपादक था । उसके संपादकीय में न कोई दृष्टि होती थी, न विचार, न दिशा । वह केवल कहने भर के लिए संपादक होता था । बी०एस० निम ने कभी कुछ लिखा नहीं था । वह केवल गौतम का पिछलग्गू बनकर उसके साथ घूमता रहता था । एस०पी० तरुण कभी-कभी लिखता था, लेकिन उसका लेखन दलित विषयक नहीं था । डॉ० सुमन समीपी दलित विषयों पर लिखने वाला लेखक था । तथाकथित दलित लेखक के रूप में उसकी पहचान भी थी तथा उसकी एक-दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं । गौतम और समीपी दोनों में से किसी ने भी किसी विश्वविद्यालय में कोई शोधकार्य नहीं किया था, लेकिन बड़ी शान से वे अपने नाम के साथ 'डॉ०' लिखते थे । दूसरे तथाकथित दलितों की तरह 'जय भीम' कहकर एक-दूसरे का अभिवादन करने वाले वे सब लोग स्वयं को डॉ० भीमराव आंबेडकर का अनुयायी कहते थे । कुमार आदित्य की स्थिति उन सभी से अलग थी । वह तथाकथित दलित साहित्य की संगोष्ठियों, सेमिनारों आदि में भाग लेता रहता था । तथाकथित दलित साहित्यकारों के बीच तो उसकी सम्मानजनक स्थिति थी ही, अन्य साहित्यकार भी उसकी समझ और तार्किकता का सम्मान करते थे । इसलिए तथाकथित दलित साहित्य से संबंधित गोष्ठी या सेमिनारों में उसको एक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया जाता था । उस रोज गोष्ठी में बातचीत के दौरान डॉ० समीपी ने कुमार आदित्य से पूछा, " पिछले सप्ताह भी तो आप किसी सेमिनार में भाग लेने गये थे ? " कुमार आदित्य ने बताया, " हाँ, लखनऊ गया था । " डाॅ० समीपी ने पूछा, " आपके अलावा कोई और दलित लेखक भी आये थे उस गोष्ठी में ? " कुमार आदित्य ने जवाब दिया, " हाँ, भारती जी थे, डॉ० चैन सिंह थे । " डॉ० चैन सिंह का नाम सुनकर डॉ० समीपी कुछ ऐसा असहज हो गया और उसने कहा, " यह चैन सिंह जाटव नहीं लगता । " कुमार आदित्य ने उसका मतलब पूछा, तो डाॅ० समीपी ने बेझिझक कहा, " वह भंगी लगता है । देखो न, अपने प्रत्येक लेख में वह ओमप्रकाश वाल्मीकि का उल्लेख जरूर करता है और वाल्मीकि को ही समस्त दलित लेखकों में सबसे ऊपर रखता है । " [144] कुमार आदित्य ने कहा, " डॉ० चैन सिंह की अपनी दृष्टि है । उनको जैसा लगता है, वे चीजों को जिस रूप में देखते हैं, वैसा लिखते हैं । यह कोई जरूरी नहीं है कि किसी एक व्यक्ति के विचार से दूसरे सब लोग सहमत हों । असहमति हो सकती है । चैन सिंह को अन्य दलित लेखकों की अपेक्षा ओमप्रकाश वाल्मीकि का लेखन अधिक प्रभावित करता है, तो इसमें गलत क्या है ? आपको ऐसा नहीं सोचना चाहिए । " डॉ० समीपी ने प्रतिवाद किया, " नहीं, आप नहीं समझते आदित्य जी ! यह भंगियों की मुहिम है । वे सब एकजुट होकर साहित्य के मूवमेंट पर काबिज होना चाहते हैं । " कुमार आदित्य, डॉ० सुमन समीपी को बौद्ध और आंबेडकरवादी आंदोलन से जुड़ा होने के कारण समन्वयवादी व्यक्ति समझा था । डॉ० समीपी के मुख से इस तरह की संकीर्णतापूर्ण बातें सुनकर उसको धक्का सा लगा । वह सोचने को विवश हुआ कि यह कैसा आंबेडकरवाद है ? बाबा साहेब आंबेडकर ने जीवन भर जातिभेद का विरोध किया और वे जातिविहीन समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत रहे । फिर कैसे उनका कोई अनुयायी जातीय संकीर्णता की बात कर सकता है ? कुमार आदित्य ने जातिभेद से मुक्त होने की बात कही । साथ ही, उसने अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में अपनी बात रखी । उसने सबसे पहले पढ़े-लिखे भंगी और चमार लोगों को यह समझाने की बात कही कि उनके पिछड़ेपन का कारण उनकी जाति है । उन्हें जाति-व्यवस्था का विरोध करना चाहिए तथा आपस में रोटी-बेटी का संबंध बनाना चाहिए । यह बात सुनकर डॉ० समीपी बोला, " क्या बात कह रहे हैं आप आदित्य जी ! हम सब अपने बच्चों की शादी भंगियों में करेंगे ? उन लोगों का जो स्तर है, वे उससे ऊपर उठने वाले नहीं हैं । उल्टे हमारे बच्चे और उस गड्ढे में जा गिरेंगे । " [145] कुमार आदित्य ने कहा, " यह कौन कहता है कि आप अयोग्य लड़के-लड़कियों के साथ अपने बच्चों की शादी करें । योग्य लड़के-लड़कियों के साथ करें । " [146]

'पगड़ी' कहानी की नायिका सरबतिया है । उसके लड़के की सगाई थी । कई दिनों से वह भूख-प्यास और थकान की परवाह किये बिना भागदौड़ कर रही थी । उसका पति रामसिंह निठल्ला, शराबी और निहायत गैर-जिम्मेदार था । सरबतिया मजदूरी करने जाती और उसका पति दिन भर यहाँ-वहाँ घूमता फिरता । सरबतिया की कमाई से ही परिवार की आजीविका चलती थी । उसने ही अपनी कमाई से मकान बनवाया और बच्चों को पढ़ाया-लिखाया था । रामसिंह की न अपनी कोई पहचान थी, न इज्जत, और न उसे कोई किसी काम में पूछता था । बेटे के लिए लड़की सरबतिया ने पसंद की थी । लड़की वालों से बात भी उसने ही की थी । सगाई के दिन पंच इकट्ठे हो गये थे । मास्टर प्रेमसिंह सबसे बुजुर्ग पंच थे, इसलिए उन्हें ही कार्यवाही शुरू करने के लिए कहा गया । प्रेमसिंह ने बिचौला (अगुआ) सुखदेव से उसका पता और लड़की-पक्ष का पता पूछा । सुखदेव ने बताया कि वह मेरठ में शेरगढ़ी का रहने वाला था और लड़की-पक्ष के लोग मेरठ के ही कंकड़खेड़ा के निवासी थे । मास्टर प्रेमसिंह ने जब कंकड़खेड़ा वालों से पूछा, " वहाँ के पंचों ने कुछ भेजा है यहाँ के पंचों के लिए ? " तो उनमें से एक व्यक्ति ने कहा, " अजी वहाँ के पंचों ने यहाँ के पंचों के लिए 'जय भीम' भेजी है । " यह सुनकर मास्टर प्रेमसिंह ने कहा, " उनकी 'जय भीम' यहाँ के पंचों को मंजूर है । यहाँ के पंचों की 'जय भीम' भी वहाँ के पंचों को जाकर देना । " [147] 

पंचों के सामने लड़के को बुलाया गया । लड़का 'जय भीम' का अभिवादन करके वहीं जमीन पर बैठ गया । उसके बाद प्रेमसिंह ने लड़की पक्ष के लोगों को संबोधित करते हुए आगे का काम करने के लिए कहा । लड़की-पक्ष से एक व्यक्ति उठा और हाथ जोड़ते हुए विनम्र शब्दों में कहा, " पंचो हमारे पास केवल लड़की है । लड़की के अलावा हमारे पास देने को और कुछ नहीं है । " प्रेम सिंह ने कहा, " अजी, वैसे तो जिसने लड़की दे दी, उसने सब कुछ दे दिया । हमें भी केवल लड़की चाहिए । पर आप कह रहे हो, तो केवल लड़की नहीं जी, साथ में आप लोगों की थोड़ी मोहब्बत भी चाहिए । " उस व्यक्ति ने कहा, " अजी, थोड़ी क्यों ? खूब लो । मोहब्बत की कोई कमी नहीं है ।पर मोहब्बत हम भी सेंत-मेंत नहीं देंगे । इसके बदले में हमें भी आप लोगों की मोहब्बत चाहिए । " [148] उस व्यक्ति ने लड़के के सामने बैठकर उसको अंगूठी पहनाई तथा पतलून कमीज का कपड़ा और एक मिठाई का डिब्बा उसके हाथों में तुम्हारा जब पगड़ी का रस्म अदा करने का समय आया, तो प्रेमसिंह ने लड़के के पिता रामसिंह को आवाज लगायी । रामसिंह ने सरबतिया की ओर देखा । एक पंच ने घर के मुखिया को सामने आने को कहा । वहाँ बैठे गाँव के लोगों में सबकी एक ही राय थी कि परिवार की मुखिया सरबतिया है । एक आदमी कह रहा था कि परिवार की मुखिया सरबतिया है, लेकिन स्त्री को पगड़ी नहीं बँधती है, वह तो पुरुष को ही बँधती है । दूसरे व्यक्ति ने अपनी राय व्यक्त की, " समाज की यह परंपरा ही तो है कि पगड़ी स्त्री को नहीं बँधती । इस परंपरा को बदला क्यों नहीं जा सकता ? परिवार का सारा बोझ स्त्री उठाए, वही रात-दिन हर काम में खटे । पुरुष केवल मूछों पर ताव दिये इधर-उधर मटरगस्ती करता घूमता फिरे । न कमाए-धमाए, न कोई और जिम्मेदारी उठाए । ऊपर से दारू पीकर अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मारपीट करे, तो वह परिवार का कैसा मुखिया हुआ ? भई, मेरी राय में तो जो परिवार की जिम्मेदारी उठाए, परिवार के लिए त्याग करे, वही परिवार का मुखिया है और पगड़ी उसी को बँधनी चाहिए । " [149]

'मंदिर' कहानी का नायक रंगलाल है । एक दिन उसके फ्लैट पर शर्मा, अरुण कुमार कौशिक, प्रदुम्न तिवारी, गोयल और चौधरी मंदिर बनवाने के लिए चंदा लेने आये । रंगलाल ने पूछा, " यहाँ पर तो पहले से ही कई मंदिर हैं । फिर नये मंदिर की क्या आवश्यकता है ? उसने कॉलोनी में और आसपास से गुजरते हुए जितने मंदिर देखे थे, उन सबके बारे में बताते हुए कहा, " एक मंदिर कॉलोनी के गेट के बाहर है, दूसरा मंदिर बाहर बड़े वाले पार्क के कोने में है और तीसरा मंदिर एलआईजी फ्लैट्स में है । " तो अरुण कुमार कौशिक ने स्पष्टीकरण किया, " वे सब मंदिर तो हमारी कॉलोनी यानी एमआइजी फ्लैट्स के बाहर हैं । हमारी कॉलोनी में बनने वाला यह एकमात्र मंदिर है । " [150] रंगलाल ने सौ रूपये का नोट निकालकर दिया, तो शर्मा ने कहा, " हम तो सोचकर आये थे कि आपसे ग्यारह हजार रुपए लेंगे । लेकिन आप...। सौ रूपये की आज क्या कीमत रह गयी है ? मंदिर निर्माण में कई लाख रूपये लगेंगे । आप आकर देखिए कभी, संगमरमर बिछाया जा रहा है सारे में । देने तो चाहिए ज्यादा ही, पर चलिए, ज्यादा नहीं तो ग्यारह सौ रूपये तो कर ही दीजिए । " [151] वह मंदिर सरकारी जमीन में बनाया जा रहा था । रंगलाल एक सरकारी अधिकारी था और धार्मिक कर्मकांड में उसकी कोई आस्था नहीं थी । इसलिए उसने स्पष्ट कहा, " आप लोग कहीं पर जमीन खरीदकर उस पर मंदिर बनाएँ । धर्म का काम करें । इस पर किसी को क्या आपत्ति होगी ? लेकिन आप लोग तो सरकारी जमीन पर कब्जा करके मंदिर बना रहे हैं । ऐसा करना तो गैर-कानूनी है, और अनैतिक भी है । धर्म तो नैतिकता का दूसरा नाम है । लेकिन जो कुछ आप लोग कर रहे हैं, वह अनैतिक है । इसे कैसे सही कहा जा सकता है ? मैं एक सरकारी कर्मचारी अधिकारी हूँ और मैं किसी गैर-कानूनी काम का समर्थन नहीं कर सकता । " उन सभी चंदा माँगने वालों को यह विश्वास हो गया कि रंगलाल से और अधिक पैसे नहीं मिल सकते । अंततः वे सब लौट गये ।


8. डाॅ० श्यौराज सिंह 'बेचैन'  (5 जनवरी 1960) 


डाॅ. श्योराज सिंह 'बेचैन' की अधिकांश कहानियों के पात्र (नायक/नायिका) ब्राह्मण और क्षत्रिय हैं । ऐसी स्थिति में इनकी कहानियों को समीक्षक 'दलित कहानी' कैसे कहते हैं ? यह आश्चर्यजनक है । बेचैन जी की कहानियों में 'अस्थियों के अक्षर' और 'सिस्टर' दोनों को स्वरूप और शैली के आधार पर क्रमशः आत्मकथा और रेखाचित्र की श्रेणी में रखना उचित होगा । 'बस इत्ती सी बात' कहानी में ठाकुर कुंवर सिंह अपनी पूर्व-पत्नी कीर्ति का केवल इसलिए मर्डर कर दिया कि उसके छोड़ने के बाद कीर्ति एक तथाकथित निम्न-जाति के युवक रतन लाल से विवाह कर ली थी । वकील द्वारा पूछने पर उसने कहा, " जिस जूती को हमने पाँव से उतारकर फेंक दिया, उसी जूती में अपना पाँव घुसेड़ने की कोई भंगी, चमार, पासी, कुम्हार, जुलाहा, धोबी, धानुक, खटीक जुर्रत करेगा क्या ? हमारी जाति की परित्यक्ता को भी हाथ लगाएगा ? " अपनी पत्नी की आजादी के संदर्भ में कुंवरसिंह ने कहा, "... उसने हमारी ही जाति में पुनर्विवाह किया होता या ब्राह्मण, वैश्य अथवा कायस्थ वगैरह किसी तत्सम जाति में घरेलू औरत की तरह चुपचाप जिंदगी के दिन पूरे कर रही होती, तो मैं उससे कुछ नहीं कहता । परंतु उसने तो सब हदें पार कर दी थी । " [152]

अपनी कहानी 'कलावती' के बारे में डाॅ. श्यौराज सिंह 'बेचैन' जी ने लिखा है, " कलावती बड़ी विषय वस्तु की कहानी है, परंतु उसका ताना-बाना उपन्यास की माँग करता है । कह नहीं सकता कि हाथ-पाँव समेटकर सर्दी में सिकुड़ी बैठी यह कलावती की भाँति कथा कब अपनी काया को खोल पाएगी, अपने बड़े आकार में आ पाएगी ? " [153] 'बेचैन' जी की यह टिप्पणी पढ़कर एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिर इस कहानी में ऐसा क्या है, जिसे बेचैन जी उपन्यास का रूप देना चाहते हैं ? दरअसल, 'कलावती' कहानी में कलावती की तीन बेटियाँ थीं - चंद्रवती, निहालदेई और किरन तथा दो बेटे थे - रमेश और अशोक । कलावती की लाडली चंद्रवती और निहालदेई दोनों के बाल-विवाह एक साथ हुये थे । कलावती के पति रघुवीर ने उनके घर-वर की तलाश अपनी बिरादरी की मदद से की थी । रघुवीर की अकाल मौत हो गयी । चंद्रवती का पति पच्चीस साल बड़ा था । वह दबंगों द्वारा मार दिया गया । निहालदेई का पति पूरी तरह पागल हो गया । कलावती के बेटे रमेश की भी मृत्यु हो गयी । कलावती के घर के पास एक हैंडपंप लगा था । उस हैंडपंप पर पानी के लिए मारा-मारी के दौरान अशोक को इतनी मार पड़ी कि उसके प्राण-पखेरू उड़ गये । अंत में कलावती भी मर गयी । पड़ोसियों का कहना था कि कलावती ने कुछ खा लिया था । बेचैन जी ने कहानी के अंत में लिखा है, " कुछ औरतें कहती हैं कलावती भूत हो गयी है, चुड़ैल हो गयी है । वह हर रात आती है, पर किसी को न सताती है, न डराती है । वह अपनी कहानी सुनाती है । " [154] 'बेचैन' जी की इस कहानी का यह अंतिम कथन वैज्ञानिक चेतना के प्रतिकूल है । अतः 'बेचैन' जी की यह कहानी आंबेडकरवादी कहानी की परिधि से बाहर हो गयी है ।

डाॅ. श्यौराज सिंह 'बेचैन' ने लिखा है, " क्रीमीलेयर कहानी के बारे में कहानी खुद बता रही है । हाँ, इसे लिखने की प्रेरणा के बारे में बताना अलग बात है । मैं यह देखकर दुखी था कि तथाकथित रोशन ख्याल जाति-बुद्धिजीवी खासकर साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में कथनी-करनी का ऐसा भेद बनाए हुये हैं कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'हम भारत के लोग' जिस समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित देश बनाने के लिए स्वयं को वचनबद्ध करते हैं, उस भावना के ठीक विपरीत जाति-बौद्धिक काम कर रहे हैं । उनकी सोच और साजिशें कहानी के खलनायकों के संवाद बन रहे हैं । साथ ही, जो सच में ही समतामूलक समाज बनाने के लिए स्वयं की भूमिका जाति-धर्म की भी समानता स्वीकार कर 'सब जन देशबंधु हैं' की भावना से काम करते हैं । कहानी में वे सहज ही नायक होने का सम्मान प्राप्त करते हैं । 'क्रीमी लेयर' में इसके संकेत मौजूद हैं । " [155] 'क्रीमीलेयर' कहानी की नायिका प्रणीता है । वह मानवाधिकार की कार्यकर्ता थी और सामाजिक न्याय की पक्षधर थी, जबकि उसका पति सुधांशु इसके विरुद्ध था । सुधांशु एससी/एसटी के अंतर्विरोधों का लाभ उठाना चाह रहा था । वह जहाँ भी सुनता कि वंचित कह रहे हैं कि उनके वर्ग के आरक्षण-भोगी नेताओं और अफसरों ने समाज के लिए कुछ नहीं किया, बल्कि उन्होंने उच्च-वर्ग की नकल की और उनकी नकल करने की कोशिश में समाज डूब गया, तो वह इसका एक ही समाधान देता था कि " एससी/एसटी में क्रीमीलेयर लागू करा दो, उनको नौकरी नहीं मिलेगी । उनकी जगह खाली होगी, तब बाकी का नंबर आएगा । दूसरी ओर वह शिक्षा के व्यवसायीकरण से खुश होता कि जब तालीम ही नहीं पाएगा, तो कौन एससी/एसटी आगे आएगा ? [156] न्याय अन्याय की बात पर उन दोनों पति-पत्नी के बीच में लंबी हमेशा बहस होती थी । एक दिन सुधांशु ने कहा, " देखो प्रणीता, गृहस्थी की गाड़ी दो पहियों के तालमेल से चलती है । एक पहिया दूसरे के साथ नहीं चलेगा, तो गाड़ी की धुरी टूट जाएगी । मेरा मतलब तुम मेरे साथ नहीं हो, तो मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता हूँ ? " इस पर प्रणीता बोली कि नहीं रह सकते, तो मैं क्या कर सकती हूँ ? सुधांशु तपाक से बोला, " तो तुम अलग रह सकती हो । " प्रणीता ने भी तुरंत जवाब दिया, " ठीक है कर दो अलग । मैं भी तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती हूँ । " [157] उन दोनों के बीच में बात जब तलाक तक पहुँच गयी, तो सुधांशु ने यहाँ तक कह दिया कि " तुमने इसलिए तलाक का प्रस्ताव रखा है क्योंकि जरूर तुम्हारा टाँका किसी एससी/एसटी क्रीमीलेयर से भिड़ गया है । ये एससी/एसटी हमारे घर में पहले भी सेंध लगा चुके हैं । " [158] सुधांशु ने ऐसा क्यों कहा ? इसके पीछे एक कहानी थी । सुधांशु की बुआ बाल-विधवा थी और उसकी दीदी फिजिकल चैलेंज्ड । जिस कक्षा में वे दोनों पढ़ती थीं, उसी कक्षा में एससी और एसटी के दो लड़के भी पढ़ते थे । सुधांशु की बुआ की दोस्ती एससी लड़के से हो गयी और उसकी दीदी की एसटी लड़के से । जब दोनों लड़कों को नौकरी मिल गयी, तो सुधांशु की बुआ और दीदी उन लड़कों से शादी करके चली गयीं । यही कारण था कि सुधांशु ने कसम खायी थी कि कानून पढ़कर प्रोफेसर बनेगा और अखबार में लिखेगा तथा जान की बाजी लगाकर एससी/एसटी को नौकरी नहीं करने देगा । जब ये सारी बातें प्रणीता की ननंद ने उसे बताया, तो वह क्रीमी लेयर क्रिएशन की समस्या समझ गयी थी । 'क्रीमी लेयर' कहानी में ब्राह्मणी नायिका प्रणीता के मुख से डाॅ. 'बेचैन' जी ने एक संवाद बुलवाया है, " मैं क्यों मायावती के साथ खड़ी होऊँ ? वे कौन सी गाँव-गाँव में हुई सरकारी स्कूलों की हत्याएँ रोक पाईं ? उन्हीं के समय में लखनऊ से लेकर गाजियाबाद तक विकसित की गई आवास विकास कॉलोनियों में कहीं कोई सरकारी स्कूल खोला मायावती ने ? वे कब एससी/एसटी को वीसी बनाती हैं, उनके हिस्से के साहित्यिक सम्मान किसे दिला पाती हैं ? हिंदी अध्यापक स्नातक में लगी संस्कृत की अनिवार्यता नहीं हटवा पाती हैं । जबकि हिंदी अध्यापक के लिए स्नातक में संस्कृत की शर्त किसी राज्य में नहीं है । मायावती के राज में हिंदी अध्यापक की नौकरी किसी एससी/एसटी को क्यों नहीं मिलती है ? " [159] यह बात प्रणीता अपने पति से कहती है । जबकि वह अनुसूचित जाति के लोगों की पक्षधर है, फिर भी वह मायावती की निंदा करती हुई दिखाई गई है । आखिर डाॅ. 'बेचैन' जी अपनी कहानी की नायिका को मायावती के खिलाफ क्यों खड़ा करते हैं ? यह प्रश्न अनुत्तरित है । डाॅ. 'बेचैन' जी यह कहानी आरक्षण संबंधी उनके गंभीर अध्ययन और चिंतन को व्यक्त करती है । इस कहानी के द्वारा कहानीकार ने तथाकथित ब्राह्मणों की कलुषित मानसिकता का यथार्थ चित्रण किया है । केवल आरक्षण संबंधी मामलों पर तर्क-वितर्क करना आंबेडकरवादी चेतना की पहचान नहीं है । अतः डॉ. 'बेचैन' जी की यह कहानी आंशिक रूप से आंबेडकरवादी कहानी मानी जा सकती है ।

बेचैन जी ने लिखा है, " शिष्या-बहू विरोधाभास की कहानी है । सास ब्राह्मण, बहू दलित दोनों अलग-अलग किनारों पर प्रेम का पुल बनता है । अस्पृश्यता के घृणा रूपी हमले इस पुल को तोड़ने का उपक्रम करते हैं । साहित्य की उत्कृष्टता, मार्मिकता, चित्रात्मकता और विशेषकर संदेशात्मक ऊर्जा मुक्ति का मार्ग खोल देती है । कहानी में वर्णित सामाजिक दूरियाँ रक्त संबंधों के नजदीकियों में बदल जाती हैं । कथा कहीं न कहीं गाँधी जी के अस्पृश्यता उन्मूलन और बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर के 'जाति-तोड़ो', 'समाज-तोड़ो' की मुहिम से जुड़ जाती है । " [160] 'शिष्या-बहू' कहानी में तो 'बेचैन' जी ने पूरा का पूरा ब्राह्मणवाद/हिंदूवाद का पोषण ही किया है । उनकी कहानियों के पात्रों के नाम इस प्रकार हैं - गंगा, वेद, वर्णानंद, विद्या आदि । मजे की बात तो यह है कि 21वीं सदी में एक शिक्षित लड़की का नाम उन्होंने 'गुलाबो' रखा है । वह लड़की अनुसूचित जाति की है, जो एक ब्राह्मण परिवार की बहू बन गई है और उसके ससुराल वाले उसे 'गुल्लो' के नाम से पुकारते हैं । यह कितना हास्यास्पद लगता है, बिल्कुल यथार्थ से परे ।

गुलाबो शादी के बाद अपने ससुराल पहुँची, तो वहाँ किसी ने उसका खुले दिल से स्वागत नहीं किया था । उसका पति उसे उसके घर के नाम 'गुल्लो' से पुकारता था । उसके साथ विद्या शर्मा ने भी उसे पहले दिन से ही 'गुल्लो' नाम से पुकारना शुरू कर दिया था । विद्या शर्मा ने पहले दिन ही गुल्लो से आँखें तरेरते हुए साफ-साफ कहा था, " देख री गुल्लो, अब तू आ तो गयी मेरे घर में बेटे की बहू बनकर, पर तू यह मत समझ लेना कि तू इस घर में पति के अलावा और भी कुछ पा सकेगी । " [161] कहानीकार ने इस संवाद के माध्यम से विद्या शर्मा को क्रूर और जातिवादी महिला के रूप में दिखाने का प्रयास किया है, किंतु यह कोई नयी बात नहीं है । प्रेमविवाह का ऐसा परिणाम हर जाति, हर वर्ग, हर धर्म के परिवारों में देखने को मिलता है । कहानीकार डॉ० बेचैन जी ने माँ को तो जातिवादी और संविधानविरोधी प्रवृत्ति के रूप में चित्रित करके उसे खलनायिका बना दिया है, किंतु उसी के पुत्र को समतावादी और आरक्षण का पक्षधर बनाकर उसे नायक बना दिया है । एक संवाद द्रष्टव्य है । गुलाबों के पति वेद और उसकी सास विद्या के बीच आरक्षण को लेकर वाद-विवाद हुआ, तो वेद ने एससी/एसटी के पक्ष में कहा, " वे तो सौ में बाइस होने थे, पर हकीकत में तो वे चार-पाँच फीसद भी नहीं हैं और जब आरक्षित जगहों का ही निजीकरण हो गया, तो अब आरक्षण बचा कहाँ है, जो वे लोग लेंगे ? " उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, " दलित  आदिवासियों को शिक्षित कर दिया जाए, तो वे इतनी कमैरी कौमें हैं कि वे खुद को ही नहीं, देश को उन्नत कर सकती हैं । दूसरों के लिए जॉब भी जनरेट कर सकती हैं, जाति, कलह और द्वेष से मुक्त, हम सबको भी अच्छा जीवन जीने के साधन उपलब्ध करा सकती हैं । बशर्ते उन्हें मौके दिये जाएँ, लायक बनाया जाए । " यह सुनकर विद्या ने कहा, " ऐसा कहीं होता है, जो बनना है तो खुद बनें । " तब वेद ने कहा, " होता है, तो अमीर भी गरीबी हटा सकते हैं । गोरों ने भी कालों को आजाद किया है । अमरीकी, अफ्रीकी गुलामों को जब डायवर्सिटी-नीति के रूप में पक्का आरक्षण लागू हुआ, तो देखो अमेरिका कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया, काले-गोरों ने मिलकर । चीन और रूस के मजदूर सर्वहारा, जिन्हें भारत में दलित कहते हैं, उनको मौका मिला, तो चीन आज चाँद बना रहा है । रूस हमें लड़ाकू विमान मुहैया करा रहा है । " [162] यह कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे केवल आरक्षण के मुद्दे पर केंद्रित होती जाती है । इसमें कोई संदेह नहीं कि कहानीकार डाॅ० बेचैन जी ने आरक्षण के प्रति अनुसूचित जाति और सामान्य-वर्ग के लोगों की मानसिकता को आधार बनाकर ही इस कहानी का कथानक गढ़ा है । लेकिन उन्होंने गुलाबों के पति वेद शर्मा के चरित्र का जिस प्रकार अंकन किया है, उससे यह अनुभव होता है कि सामान्य-वर्ग में युवा पीढ़ी की मानसिकता में परिवर्तन हो रहा है । इस कहानी में तीनों प्रमुख पात्रों के द्वारा आरक्षण के मुद्दे पर होने वाला वाद-विवाद धीरे-धीरे निजी स्वार्थ की परिधि में प्रवेश करने लगता है । जब वेद ने कहा, " वैसे माँ आपकी बहू भी तो आरक्षण वाली ही है । " तो विद्या शर्मा ने कहा, " वही तो मैं इतनी देर से कह रही हूँ कि जनरल का हिस्सा भी तो सब आरक्षण वाले ले गये ना । " वेद ने रोकते हुए कहा, " हाँ, माँ आपने एक बात पर तो ध्यान ही नहीं दिया कि गंगा का चयन तो मेरिट में टॉप करने के कारण अनरिजर्व ओपन पोस्ट पर हुआ है और यह तो गर्व की बात है । " यह सुनकर विद्या शर्मा खुश होने की बजाय और अधिक क्रुद्ध होकर बोली, " लो जी और सुन लो, आरक्षण भी नहीं लायी । अब तक तो शैड्यूल्ड कास्ट की लड़कियाँ इंटरकास्ट मैरिज में कम-से-कम दहेज के बदले आरक्षण तो अपने साथ लेकर आती थीं । यह तो दहेज में आरक्षण भी लेकर नहीं आयी । इसने तो हमारा लड़का भी ले लिया और एक क्लास वन पोस्ट का स्थान भी । यह तो डबल गेनर निकली, हम सब तरह से लूजर हो गये । " [163] ये संवाद इसी बात की ओर संकेत करते हैं कि सामान्य-वर्ग के लोग आरक्षण का विरोध इसीलिए करते हैं, क्योंकि इससे उनका व्यक्तिगत नुकसान होता है तथा अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग आरक्षण का समर्थन इसीलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें व्यक्तिगत लाभ होता है । क्योंकि इस तरह की लाभ-हानि का संबंध सरकारी नौकरियों से है, इसलिए सरकारी क्षेत्र में इस तरह का आरोप-प्रत्यारोप देखने को मिलता है । जबकि निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसी कोई बात नहीं है, इसलिए निजी क्षेत्र के समस्त वर्गीय कर्मचारी समानता का व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं । इस दृष्टि से यह कहना गलत नहीं होगा कि आरक्षण ने लोगों के मन में दुर्भावना को जन्म दिया है । इसके कई कारण हो सकते हैं । पहला कारण तो यह है कि लोगों ने आरक्षण को गलत ढंग से परिभाषित किया है तथा दूसरा कारण यह है कि आरक्षण का लाभ लेने वाले लोग आत्मप्रदर्शन और अहंकार करने लगते हैं, जिसे देखकर प्रायः सामान्य-वर्ग के लोग चिढ़ते हैं । वे क्यों चिढ़ते हैं ? यह आलोचना का विषय नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य का स्वभाव है । अपनी इस कहानी में डॉ० बेचैन जी ने मनोवैज्ञानिक ढंग से आरक्षण संबंधी मनोभावों को रेखांकित किया है, जो अत्यंत सरल, सहज और ग्राह्य है । यह कहानी आरक्षण के संबंध में उनके द्वारा किये गये गहन चिंतन और मनन का परिचय देती है । कहानी के अंत में कहानीकार ने छुआछूत की समस्या को भी उजागर किया है । जब गुलाबो गर्भावस्था में थी और अस्पताल में भर्ती थी, उसे बच्चा होने वाला था । मिसेज शर्मा को एक साथ दो समाचार प्राप्त हुये - अच्छा भी और बुरा भी । वेद ने अपनी माँ विद्या शर्मा से कहा, " तुम्हारी बहू या बच्चा दोनों में से एक को ही बचाया जा सकता है और खून नहीं मिला, तो एक को भी नहीं । " विद्या शर्मा का ब्लड ग्रुप 'ओ पॉजिटिव' था । इस ब्लड ग्रुप का व्यक्ति किसी को भी अपना खून दे सकता है, क्योंकि यह ब्लड ग्रुप सर्वदाता होता है । विद्या शर्मा के मन का द्वंद बढ़ने लगा । वह सोचने लगी, " क्यों नहीं दूँ अपना खून, आखिर मेरे वंश को आगे बढ़ाएगा मेरा खून ? " दूसरे ही क्षण उसका द्वंद्व करवट लेने लगा, " न-न मैं नहीं दूँगी, एक बूँद भी नहीं, नहीं ऐसा नहीं होगा । मेरा पवित्र खून किसी अछूत की रगों में कदापि नहीं दौड़ सकता । और फिर हो सकता है कि एक-दो बूँद उसके लहू की मेरे लहू में मिल गयी तो ? तब मेरे शरीर का भी सारा खून खराब हो जाएगा । " प्रश्न उत्पन्न होता है कि कहानीकार डॉ० बेचैन जी ने यह कैसे जान लिया कि मिसेज शर्मा क्या सोच रही थीं ? इसे 'परकाया प्रवेश' का भी नाम नहीं दिया जा सकता है । क्योंकि कहानी के अंत में स्वयं डॉ० बेचैन जी ने लिखा है, " मिसेज शर्मा के अंतर्मन में क्या चल रहा है, कोई नहीं जान रहा था । " [164] स्पष्ट है कि डॉ० बेचैन जी ने मिसेज शर्मा की सोच का जो उल्लेख किया है, वह काल्पनिक और मनगढ़ंत है । इस कहानी का अंत परिणामविहीन है, जिसके कारण यह कहानी पाठकों को निराश करती है । कहानीकार ने नायकों का चरित्र-चित्रण करने में कम रुचि ली है, जबकि खलनायिका का चरित्र-चित्रण उन्होंने विशेष रुचि के साथ किया है । इस प्रकार यह कहानी खलनायिका-प्रधान कहानी बन गयी है ।

'रावण' कहानी को बेचैन जी ने 'कलाकार' शीर्षक दिया था । 'हंस' पत्रिका के संपादक राजेंद्र यादव ने उसका शीर्षक बदलकर 'रावण' कर दिया था । इस कहानी के संदर्भ में बेचैन जी ने लिखा है, " असल में यह एक सत्य घटना पर आधारित है । मैं अपने गाँव गया था, तो मुझे पता चला कि मेरे पड़ोस के ताऊ डोरीलाल का बेटा गाँव की रामलीला में रावण की भूमिका अदा कर रहा है । वह रावण की भूमिका दिल्ली और बाजपुर की रामलीला में भी कई बार अदा कर चुका था । वह दलित था । राम की भूमिका वाले गैर-दलित ने एतराज किया कि रावण की भूमिका में खड़े दलित को अभिवादन कैसे किया जा सकता है ? मंच पर हुई हाथापाई मारपीट में बदल गयी । फूलसिंह का परिवार उस अपमान से दुखी होकर गाँव छोड़ने को विवश हो रहा था । मैं जब दिल्ली लौटा, तो वह वाकया मेरी ज़हन से नहीं उतर पाया । " [165]

'रावण' कहानी का नायक मूल सिंह है । उसके गाँव की नाटक-मंडली के इतिहास में पहली बार एक चमार जाति के कलाकार यानी मूलसिंह को रामलीला में हिस्सा लेने का अवसर मिला था । रामलीला शुरू हो गई थी । लंका दहन होने वाला था । परंतु मंच पर दहाड़कर जा बैठे रावण को 'जय शंकर की' बोलकर उसके दरबार में सिर कौन झुकाएगा, अभिवादन कौन करेगा ? क्या इस शिष्टाचार के बगैर रावण का दरबार नहीं चल सकता ? क्या यह अनुशासन रावण के सैनिकों को मारना अनिवार्य है ? इस तरह के अनेक सवाल यादव, बनियों और कायस्थों के जो क्रमशः मेघनाद, विभीषण और कुंभकर्ण बने हुये थे, के बीच में उठ खड़े हुये । उधर मेकअप कर रहे राम, हनुमान, सुग्रीव के कान में भी यह सवाल गया । एक ने अनसुना करना चाहा, तो रावण का बेटा मेघनाद भड़क उठा, " नहीं, चमार को सिर नहीं झुकाया जा सकता । " राम ने कहा, तो सुग्रीव बोला, " अरे, यह तो नाटक है । कौन से हम असल जिंदगी में काऊ चमार-भंगी को दुआ सलाम करने जा रहे हैं ? " [166] लेकिन हनुमान और लक्ष्मण नहीं माने । उन्होंने ताल ठोककर मंच पर उछलकर मूलसिंह से कहा, " तू रावण को पाठ नाय करंगो । " उसके बाद उसके हाथों को उसकी एक-एक बाँह को चार-चार हाथों की गिरफ्त ने जकड़ लिया । मूलसिंह ने झटका मारा, तो हनुमान ने उसकी पीठ पर प्रहार कर दिया । राम ने अपने कंधे की धनुष को फेंककर सीधे घूँसे जमा दिये । इस प्रकार उन सबने मिलकर मूलसिंह की बुरी तरह पिटाई कर दी । 

महीने डेढ़ महीने खाट पर पड़े रहते समय मूलसिंह के बच्चों का गुजारा होना मुश्किल हो गया । आखिर में, घर और घर का सामान औने-पौने में बेचकर वह सपरिवार दिल्ली चला गया । वह दिल्ली जाकर एक झोपड़-पट्टी में रहने लगा और राजगिरी करके बच्चे पालने लगा । गाँव से आने-जाने वाले प्रायः हरेक व्यक्ति से पूछता, " अम्मा की तबीयत कैसी है ? बापू ने पैसा नहीं मँगाए है क्या ? मेरे पास आने को कह रहे हैं या ना ? " इधर यमुना में बाढ़ आ जाने के कारण मूलसिंह की झुग्गी में पानी भर गया, तो उसका परिवार फुटपाथ पर आ गया । ऐसे में वह माँ-बाप को कुछ भी मदद भेजने में तो असमर्थ हो ही गया, साथ ही उसके खुद के परिवार का निर्वाह करना मुश्किल हो गया । गाँव से बेलदारी करने आये हरीसिंह के हाथों पिता का संदेश मिला कि बेटा गाँव लौट आ । अब मायावती की सरकार काम कर रही है । बापू की चिट्ठी देखते ही मूलसिंह के चेहरे पर चमक आ गयी । इस कहानी के अंत में मूलसिंह दिल्ली छोड़कर पुनः अपने गाँव जाकर बस गया ।

'आँच की जाँच' कहानी में जे०पी० वर्मा एक बच्चे को लेकर अपने एसोसिएशन में आया,  जिसे एक एनजीओ ने उसकी कॉलोनी में लाया था ।  एसोसिएशन के सदस्य लक्ष्मीचंद मिश्रा, अभय सिन्हा, भारद्वाज और अशोक सागर ने मिलकर उस बच्चे का स्वास्थ्य-परीक्षण कराने का निश्चय किया । भारद्वाज ने उस बच्चे की बीमारी की जाँच से अधिक उसकी जाति और धर्म का पता लगाना आवश्यक समझा था । उसने मिश्रा से कहा, " मुझे तो सबसे बड़ी व्याधि यानी इसकी जाति का पता करना है । इसकी जाति और धर्म का पता लगाना परम् आवश्यक है । " [167] इसलिए उसने डॉक्टर से उस लड़के की जाति जाने के लिए हर छोटा से छोटा शारीरिक परीक्षण करने के लिए कह दिया । हर प्रकार की जाँच करने के बाद भी उस लड़के की जाति का पता नहीं चला । आखिर में डॉक्टर के० लाल ने भारद्वाज से कहा, " देखो भारद्वाज जी, बच्चे की जाति-जमाती धर्म-कर्म जो भी जानना है, उसका रूट कॉज (मूल कारण) जानना चाहिए । मेरा मतलब बच्चा कहाँ से आया, कौन लाया, पता करने से सब कुछ पता चल जाएगा । " [168] भारद्वाज ने घर लौटते ही समिति के सदस्यों से परामर्श किया और एनजीओ द्वारा संपर्क कर बच्चे की जड़ों की खोज करने निकल पड़ा । भारद्वाज और अभय सिन्हा उस बच्चे को लेकर बनारस की गलियों में पहुँचे । बच्चा अपने घर को पहचान लिया । भारद्वाज को वहाँ पता चला कि उस लड़के का नाम 'रोशन' था । वह एक ब्राह्मण परिवार से था । उसके माता-पिता का मर्डर कर दिया गया था । इसलिए उसका पालन-पोषण मुसलमान दंपत्ति ने किया था ।

'बेचैन' जी ने अपनी कहानियों में अंतर्जातीय विवाह का वर्णन किया है, लेकिन अंतर्जातीय विवाह की सफलता का नहीं, बल्कि असफलता का वर्णन किया है । ऐसी स्थिति में इनकी कहानियों में अंतर्जातीय विवाह का समर्थन नहीं, बल्कि अंतर्जातीय विवाह का विरोध लक्षित होता है । इस प्रकार की कहानियाँ आंबेडकरवाद पर कुठाराघात करती हुई दिखाई देती हैं ।

'बेचैन' जी की कहानियों में इतना बनावटीपन है कि ये कहानियाँ धरातल से ऊपर उठकर चलती हैं यानी बिल्कुल हवा-हवाई । इसलिए कहानीकार के द्वारा काव्यात्मक शब्दावली का प्रयोग करने के बावजूद भी इन कहानियों में सरसता की बजाय नीरसता का समावेश हो गया है ।

अंत में, यही कहा जा सकता है कि डाॅ. श्योराज सिंह 'बेचैन' की कहानियाँ न तो मनोरंजन करने में सफल हो पाती हैं और न ही शिल्प के रूप में सार्थक हो पाती हैं । कहानियों की भाषा की बात की जाए, तो 'बेचैन' जी की कहानियों की भाषा राजेंद्र यादव की तरह निबंध की भाषा है ।


विपिन बिहारी (2 जनवरी 1965)

विपिन बिहारी जी लंबे समय से कहानियाँ लिख रहे हैं । उनका कथा-साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है । 'विपिन बिहारी की प्रतिनिधि कहानियाँ' पुस्तक के संपादक डॉ० कर्मानंद आर्य ने लिखा है, " विपिन बिहारी को दलित साहित्य लेखन में सर्वाधिक कहानियाँ लिखने का गौरव प्राप्त है । वे सर्वाधिक उपन्यास लिखने वाले पहले दलित रचनाकार भी हैं । विपिन बिहारी की अब तक लगभग दो सौ पंचानवे कहानियाँ और छःउपन्यास, ग्यारह कहानी-संग्रह, एक लघुकथा-संग्रह और दो कविता-संग्रह मिलाकर डेढ़ दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हैं । " [169] डॉ० आर्य की अन्य बातें तो सही हैं, लेकिन उन्होंने विपिन बिहारी जी को सर्वाधिक उपन्यास लिखने वाला रचनाकार भी घोषित किया है, जबकि यह बिल्कुल गलत है । यदि उन्होंने श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी का साहित्य पढ़ा होता, तो वे इस प्रकार का मिथ्या दावा करने का साहस नहीं करते । 'श्यामलाल राही प्रियदर्शी - व्यक्तित्व एवं कृतित्व' नामक पुस्तक के लेखक 'प्रखर' जी के अनुसार, " श्यामलाल राही जी के तेरह उपन्यास प्रकाशित हैं । " [170] विपिन बिहारी जी, डॉ० कर्मानंद आर्य के प्रिय कहानीकार हैं । अपने संपादकीय में डॉ० आर्य ने लिखा है, " मेरे अत्यंत प्रिय कहानीकार विपिन बिहारी अपनी कहानियों में इतिहास की झलक और मनुष्यता के विकास का ऐतिहासिक गौरव अपने संग्रह की कहानियों के माध्यम से करवाते हैं । इन कहानियों में दलित जीवन का मनोवैज्ञानिक चिंतन, उनकी चिंता, संघर्ष, पितृसत्ता के दंड आदि अभिव्यक्त होते हैं । ... 'लागा झुलनिया का धक्का' अस्सी के दशक में समाज के भीतर जबरिया घर कर चुकी पितृसत्ता और सामंतवाद के गहरे गठजोड़ को दिखाती है । मध्यम और निम्नमध्यम वर्गीय समाजों में जीवनयापन के लिए बड़े शहरों की तरफ पलायन, शोषण, बाजारी प्रवृतियाँ, शहर गये पति की स्त्री के शोषण और दमन को रेखांकित करने वाली अद्भुत कहानी है । " [171] डॉ० कर्मानंद आर्य ने लच्छेदार शब्दों में बड़ी-बड़ी बातें कह दी हैं, जिनका विपिन बिहारी की उक्त कहानी से अत्यल्प सरोकार है । 

'लागा झुलनिया का धक्का' कहानी में पितृसत्ता और सामंतवाद का गठजोड़ कहीं नहीं दिखाई देता है, यह डॉ० आर्य की कोरी कल्पना है । इस कहानी की नायिका मानमती से उसका पति सुमेर बहुत प्रेम करता था । जब उसने सुमेर से झुलनिया खरीदने की माँग की, तो सुमेर उसकी इच्छा पूरी करने के लिए कोलकाता कमाने चला गया, लेकिन जाने से पहले सुमेर ने मानमती को उसके मायके भेज दिया था । मानमती के मायके में बिकरमा नामक बदमाश युवक उसके कुँवारेपन से ही उसके साथ संबंध बनाने का इच्छुक था । मानमती को मायके में हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि शाम के समय जब वह फारिग होने गयी थी, तो बिकरमा ने उसे उठा लिया । दूसरे दिन रहर के खेत में बिकरमा की लाश मिली और मानमती गायब थी । कुछ लोगों का कहना था कि वह नक्सलाइट हो गयी, तो कुछ का कहना था कि वह मार दी गयी । जब सुमेर कोलकाता से लौटकर ससुराल पहुँचा, तो उसे सारी बातें मालूम हुईं । सुमेर बहुत दुःखी हुआ । विपिन बिहारी जी के शब्दों में, " अब वह झुलनिया का क्या करे ? अपने घर जाए कि ससुराल में ही रह जाए ? अब उसकी ससुराल भी कैसी, जब औरत ही नहीं रही ? वह उठकर चल दिया था, ससुराल के सिवाने से बाहर । " [172] स्पष्ट है कि इस कहानी में सुमेर के परिवार में पितृसत्ता जैसी कोई दुष्प्रवृत्ति नहीं है और न ही मानमती के साथ किसी प्रकार का शोषण और दमन किया जाता है । यह बात अलग है कि बिकरमा द्वारा मानमती का बलात्कार करने का प्रयास किया जाता है । यदि डॉ० कर्मानंद आर्य जैसे लोग बलात्कार को पितृसत्ता और सामंतवाद की सीमा में रखते हैं, तो यह उनकी अपनी अवधारणा हो सकती है । बलात्कार तो उन देशों, क्षेत्रों और समुदायों में भी होता है, जहाँ के लोग पितृसत्ता और सामंतवाद का नाम तक नहीं सुने हैं । वास्तव में, विपिन बिहारी जी की इस कहानी का उद्देश्य मात्र मनोरंजन करना है, जिसका कथानक एक लोकोक्ति पर आधारित है । कहानी के अंत में, नक्सली बनने के एक कारण की ओर संकेत अवश्य किया गया है, लेकिन इसमें भी संदेह है, क्योंकि यह निश्चित नहीं हो पाया कि मानमती नक्सली बन गयी थी या मार दी गयी थी । विपिन बिहारी जी ने इस कहानी में अनेक स्थानों पर हिंदूवादी शब्दों का प्रयोग किया है, यथा - 'भाग्यवती थी मानमती', 'सुमेर किस्मतवाला है', 'रणचंडी सी हो गयी थी मानमती' आदि ।

'मात' कहानी के बारे में डॉ० कर्मानंद आर्य ने लिखा है, " केसर भुंइन के बहाने विपिन बिहारी ने जिस कहानी 'मात' की पृष्ठभूमि रची है, वह एक दलित स्त्री की अदम्य जिजीविषा, शोषण, दमन के खिलाफ उच्चतम अवस्था तक जाने की ताकीद करती कहानी है । प्रतिभा विपरीत परिस्थितियों में ही निखरती है । रामबालक मिसिर, सुकिया, विधायक, नंदू और रामनाथ जादव के बहाने यह कहानी भी 'लागा झुलनिया का धक्का' की अगली कड़ी प्रतीत होती है । झुनिया और धनिया की तरह सिम्बोलिक प्रतिकार नहीं, अपितु विपिन बिहारी की कहानियाँ स्त्री के उस रूप का चित्रण करती हैं, जहाँ प्रतिरोध करती हुई स्त्री अपनी जगह बना लेती है । " [173] डॉ० आर्य के कथन में कितनी सत्यता है, इसके लिए 'मात' कहानी का आँकलन करना आवश्यक है । इस कहानी की नायिका केसर भुंइन है, जो एक पार्टी की अध्यक्ष थी । वह अनगिनत पुरुषों के साथ यौन-संबंध बनायी थी । स्पष्टीकरण के लिए उदाहरणस्वरूप अग्र-संवाद प्रस्तुत है । जब विधायक ने हँसकर कहा, " केसर बोलते समय काफी खूबसूरत लगने लगती हो । " तो केसर ने तुरंत जवाब दिया, " विधायक जी, औरत का शरीर सुंदर तो लगता ही है मरदों को । मन ललच रहा है, तो पीछे नहीं हटूँगी । जब कहिए तब इ भुइन आपके लिए हाजिर है । लेकिन इ सुंदर शरीर पर मत जाइए । जो कुछ है, इ शरीर है; बाकी कुछ नहीं है । ऊपर से फिटफाट, नीचे से मोकामा घाट है । " विधायक के जाने के बाद सभी कार्यकर्ता एक साथ कहने लगे कि विधायक जी से ऐसा नहीं बोलना चाहिए था । यह सुनकर केसर ने कहा, " झूठ मैं कहाँ बोली, सच ही तो कहा है । अनगिनत मरदों को सह चुका है इ शरीर । इसमें का रह गया है, जो सुंदर कह रहे थे विधायक जी । " [174] स्पष्ट है कि 'मात' कहानी की नायिका केसर भुंइन एक निर्लज्ज और दुश्चरित्र महिला थी । उसके इस व्यक्तित्व-निर्माण का कारण उसके साथ किया गया सामूहिक बलात्कार था । लेकिन प्रश्न है यह उत्पन्न होता है कि क्या आवश्यक है कि एक बलात्कार-पीड़िता वेश्यावृत्ति की ओर उन्मुख हो जाए ? यदि इस बात को समर्थन दिया जाए, तो फिर संघर्ष और सदाचार जैसी बातें मात्र पाखंड हैं । यह कैसी जिजीविषा है, जो मनुष्य को पशु बनने के लिए प्रेरित करती है ? क्या एक स्त्री द्वारा देह-व्यापार करके ऊँचा पद पाना प्रतिभा है ? इस कहानी में प्रतिरोध कहीं नहीं है । फिर भी डॉ० कर्मानंद आर्य को इस कहानी में प्रतिरोध का दर्शन हो रहा है, तो निश्चित रूप से उन्हें दृष्टिदोष है । कहानी के अंत में, केसर भुंइन राजनैतिक चालों से मात खा गयी और जिस उपलब्धि को उसने अपना चारित्रिक पतन करके प्राप्त किया था, उससे भी वंचित हो गयी । 'मात' कहानी 'लागा झुलनिया का धक्का' कहानी की अगली कड़ी नहीं है, क्योंकि दोनों कहानियों के कथानक में बहुत अंतर है तथा दोनों कहानियों की नायिकाओं का चरित्र एक-दूसरे के विपरीत है । वास्तव में, विपिन बिहारी जी की यह कहानी सामाजिक-यथार्थ का चित्रण प्रस्तुत करती है । साथ ही, यह कहानी उन महत्वाकांक्षी स्त्रियों को सावधान करती है, जो किसी विशिष्ट उपलब्धि के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार हो जाती हैं ।

विपिन बिहारी जी की कहानियों में शोषण, उत्पीड़न, बलात्कार आदि को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त किया गया है । विपिन बिहारी जी ने अपनी दो कहानियों 'लागा झुलनिया का धक्का' और 'मात' की नायिकाओं को 'जारज' कहकर डॉ० धर्मवीर जी के द्वारा खोजी गयी जारसत्ता की ओर संकेत किया है । इसी प्रकार 'जनी शिकार' कहानी की नायिका बुनिया के साथ ठेकेदार बलात्कार करने का प्रयास किया, लेकिन शारीरिक रूप से सशक्त बुनिया के हाथ में बरछा था, जिससे ठेकेदार को मारकर उसने अपनी अस्मत बचा ली । 'लागा झुलनिया का धक्का' और 'जनी शिकार' दोनों कहानियों की नायिकाएँ सच्चरित्र हैं, जो वंचित वर्ग की स्त्रियों के लिए आदर्श हैं । 'जनी शिकार' कहानी में भी विपिन बिहारी जी ने अनेक स्थानों पर हिंदूवादी शब्दों का प्रयोग किया है । यथा - 'ऐसा लगता था, उस पर कोई प्रेतात्मा सवार हो गयी हो', 'शंखनाद' आदि । विपिन बिहारी जी की संपूर्ण कहानियों का सूक्ष्म अध्ययन करने के पश्चात् संभवतः कुछ कहानियों में आंबेडकरवादी चेतना की विशेषताएँ मिल सकती हैं, लेकिन तब वही कहावत चरितार्थ होगी - 'खोदा पहाड़, निकली चुहिया' ।

अन्य कहानीकारों में अनेक नाम ऐसे हैं, जो बहुत ही पुराने और प्रसिद्ध हैं । ऐसा ही एक नाम है - प्रहलादचंद्र दास जी का । उनके तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं - 'पुटूस के फूल' (1998), 'पराये लोग' (2008) और 'आग ही आग' (2017) । 'आग ही आग' कहानी-संग्रह की कहानियों के बारे में स्वयं प्रह्लादचंद्र दास जी ने लिखा है, " दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति उस दिन हुई थी, जिस दिन आग का आविष्कार हुआ । ... एक सामाजिक प्राणी के रूप में लेखक भी इसके कई रूपों से रूबरू हुआ - भूख और दुःख की आग, प्रतिरोध और प्रतिशोध की आग, अपमान और लांछन की आग, मन और तन की आग । " [175] जैसा कि लेखक के स्वकथन से ही स्पष्ट है कि उनका किसी विचारधारा से कोई संबंध नहीं है । उन्होंने अपनी कहानियों में केवल यथार्थ को अभिव्यक्त किया है । इसी प्रकार 'पुटूस के फूल' संग्रह में प्रह्लादचंद्र दास जी ने लिखा है, " इधर हिंदी से साहित्य में 'दलित' लेखन पर काफी चर्चा हो रही है । इस संकलन की कहानियाँ दलित लेखन के अंतर्गत आती हों या नहीं, लेकिन जलन के जितने आयाम हो सकते हैं - जन्म, सेक्स, शिक्षा, आर्थिक और राजनैतिक, इन कहानियों में सबों की झाँकियाँ मिलेंगी । " [176] प्रह्लादचंद्र दास जी अपने लेखन की दृष्टि और दिशा से स्वयं अनभिज्ञ हैं, तो भला कोई समीक्षक उन्हें जबरदस्ती किसी विचारधारा में क्यों शामिल करे ? उनके संपूर्ण कथा-साहित्य का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने पर ऐसी कोई कहानी नहीं मिली, जो आंबेडकरवादी चेतना के अंतर्गत उल्लेखनीय हो । वैसे तो, वंचित-वर्ग के लगभग सभी कहानीकार अपने आपको आंबेडकरवादी कहने में कोई संकोच नहीं करते हैं, लेकिन जब आंबेडकरवादी साहित्य में भागीदारी की बात होती है, तो अधिकांश अपनी-अपनी विवशताएँ गिनाकर अपने हाथ-पाँव समेट लेते हैं । शुद्ध रूप से आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकारों की खोज अभी तक जारी है । इसलिए फिलहाल आंबेडकरवादी कहानीकारों की निश्चित संख्या का दावा नहीं किया जा सकता है । अन्य आंबेडकरवादी कहानीकारों में कर्मशील भारती, शीलबोधि और देवचंद्र भारती 'प्रखर' आदि की कहानियाँ आंबेडकरवादी आंदोलन को गति प्रदान करने में समर्थ हैं ।

डॉ० नीरा परमार (3 मई 1950), डाॅ० रजत रानी 'मीनू' (4 फरवरी 1966), हीरालाल राजस्थानी (9 जून 1968), डॉ० पूनम तुषामड़ (18 अप्रैल 1975), अरविंद भारती (11 अक्टूबर 1979), डॉ० बिपिन कुमार (1 जनवरी 1980), डाॅ० नीलम (5 मई 1980)

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि समकालीन हिंदी कहानियों में आंबेडकरवादी चेतना का विकसित रूप समाविष्ट हुआ है । आंबेडकरवादी कहानीकारों ने मानव मूल्यों के संरक्षण हेतु आंबेडकरवादी चेतना को व्यापक स्वरूप प्रदान किया है । फिर भी कुछ वरिष्ठ कहानीकारों सहित युवा कहानीकारों में वैचारिक भटकाव लक्षित होता है । विडंबना तो यह है कि वैचारिक भटकाव की प्रक्रिया अभी भी निरंतर जारी है । इस संदर्भ में डॉ० सूरज बड़त्या जी की कहानी 'छानबूर' को देखा जा सकता है, जिसमें सिवाय 'सेक्स' के, कोई सामाजिक संदेश अथवा क्रांतिकारी विचार अभिव्यक्त नहीं हुआ है । कहानी तभी कमजोर होती है, जब कहानी का मुख्य पात्र मानसिक रूप से कमजोर, दुश्चरित्र अथवा असामाजिक होता है । यदि सामाजिक सोच वाले, आंदोलन के प्रति समर्पित और संघर्षशील मुख्य पात्रों को आधार बनाकर कहानी का सृजन किया जाए, तो निश्चित रूप से कहानी आंबेडकरवादी चेतना को समृद्धि प्रदान करने वाली होगी । इस संदर्भ में हीरालाल राजस्थानी जी की कहानी 'माइंडसेट' पठनीय एवं विचारणीय है, जिसमें मुख्य पात्र शिक्षित, आधुनिक और समतावादी विचारधारा से संपन्न हैं । यही कारण है कि यह कहानी जातीय कुंठा से मुक्त होकर मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हुए समस्त मानव के हित का संदेश देती है । कहानीकार श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी की भी कहानियाँ आंबेडकरवादी चेतना से संपन्न है और समाज को सम्यक दिशा प्रदान करने में समर्थ हैं । उनकी कहानियाँ 'कलुआ', 'फैसला' और 'परिवर्तन' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । आंबेडकरवादी चेतना और आंबेडकरवादी आंदोलन को सम्यक दिशा प्रदान करते हुए सामाजिक क्रांति करने के लिए यह आवश्यक है कि कहानीकार सामाजिक यथार्थ, समाज की वर्तमान समस्याओं और विसंगतियों को ठीक प्रकार से जानें, समझें और विचार करें; तभी समकालीन कहानी मानव मूल्यों का संरक्षण करने में समर्थ हो सकती है ।


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संदर्भ :-

[1] आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान : देवचंद्र भारती 'प्रखर', पृष्ठ 82, प्रकाशक - पुष्पांजलि प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2020
[2] तीन महाप्राणी : बुद्ध शरण हंस, पृष्ठ 30, प्रकाशक - आंबेडकर मिशन पटना, दूसरा संस्करण 2007
[3] वही, पृष्ठ 32
[4] वही, पृष्ठ 37
[5] वही, पृष्ठ 38
[6] वही, पृष्ठ 44
[7] वही, पृष्ठ 45
[8] वही, पृष्ठ 60
[9] वही, पृष्ठ 60-61
[10] वही, पृष्ठ 83-84
[11] वही, पृष्ठ 85
[12] वही, पृष्ठ 93-94
[13] वही, पृष्ठ 95
[14] वही, पृष्ठ 106
[15] वही, पृष्ठ 108
[16] वही, पृष्ठ 115
[17] को रक्षति वेदः : बुद्ध शरण हंस, पृष्ठ 16-17, प्रकाशक - आंबेडकर मिशन पटना, प्रथम संस्करण 2003
[18] वही, पृष्ठ 22-23
[19] वही, पृष्ठ 28
[20] वही, पृष्ठ 31
[21] वही, पृष्ठ 48
[22] वही, पृष्ठ 50
[23] वही, पृष्ठ 53
[24] वही, पृष्ठ 60
[25] वही, पृष्ठ 65
[26] वही, पृष्ठ 66
[27] वही, पृष्ठ 77
[28] वही, पृष्ठ 86
[29] वही, पृष्ठ 91
[30] वही, पृष्ठ 92
[31] वही, पृष्ठ 104
[32] वही, पृष्ठ 106
[33] वही, पृष्ठ 110
[34] वही, पृष्ठ 111
[35] वही, पृष्ठ 121
[36] वही, पृष्ठ 123-124
[37] वही, पृष्ठ 132
[38] वही, पृष्ठ 134
[39] वही, पृष्ठ 143
[40] वही, पृष्ठ 146
[41] आवाजें : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ 17, प्रकाशक - नटराज प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2020
[42] वही, पृष्ठ 23
[43] वही, पृष्ठ 71
[44] वही, पृष्ठ 75
[45] वही, पृष्ठ 80
[46] वही, पृष्ठ 119
[47] वही, पृष्ठ 122
[48] हमारा जवाब : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ 18, प्रकाशक - नटराज प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2020
[49] वही, पृष्ठ 28
[50] वही, पृष्ठ 35
[51] वही, पृष्ठ 40
[52] वही, पृष्ठ 54
[53] वही, पृष्ठ 63
[54] वही, पृष्ठ 64
[55] वही, पृष्ठ 69
[56] वही, पृष्ठ 73
[57] जनेऊ और मोची ठाकुर : श्यामलाल राही, पृष्ठ 27, प्रकाशक - लता साहित्य सदन गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), प्रथम संस्करण 2014
[58] वही, पृष्ठ 28
[59] वही, पृष्ठ 29
[60] वही, पृष्ठ 47
[61] वही, पृष्ठ 47
[62] वही, पृष्ठ 61-62
[63] वही, पृष्ठ 63
[64] वही, पृष्ठ 64
[65] वही, पृष्ठ 72
[66] वही, पृष्ठ 72
[67] वही, पृष्ठ 73
[68] वही, पृष्ठ 82
[69] वही, पृष्ठ 83
[70] वही, पृष्ठ 85
[71] दस प्रतिनिधि कहानियाँ : ओमप्रकाश वाल्मीकि, भूमिका, पृष्ठ 10, प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2013
[72] सलाम : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 12, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण 2020
[73] वही पृष्ठ 13
[74] वही पृष्ठ 16
[75] वही पृष्ठ 18
[76] वही पृष्ठ 19
[77] दलित साहित्य के प्रतिमान : डॉ० एन० सिंह, पृष्ठ 151, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2016
[78] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 189, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[79] वही, संपादकीय, पृष्ठ 10
[80] ओमप्रकाश वाल्मीकि - व्यक्ति विचारक और सृजक : संपादक - डाॅ० जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 25, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[81] घुसपैठिये : ओमप्रकाश वाल्मीकि, भूमिका, पृष्ठ 8, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पहला संस्करण 2016
[82] वही, पृष्ठ 36
[83] वही, पृष्ठ 36
[84] वही, पृष्ठ 37
[85] वही, पृष्ठ 38
[86] वही, पृष्ठ 39
[87] वही, पृष्ठ 41
[88] वही, पृष्ठ 42
[89] वही, पृष्ठ 42
[90] सलाम : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 80, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण 2020
[91] वही, पृष्ठ 81
[92] वही, पृष्ठ 84
[93] घुसपैठिये : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 34-35, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पहला संस्करण 2016
[94] वही, पृष्ठ 66
[95] जरा समझो : सुशीला टाॅकभौरे, पृष्ठ 23, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2019
[96] वही, पृष्ठ 26
[97] वही, पृष्ठ 27
[98] वही, पृष्ठ 31
[99] वही, पृष्ठ 33-34 
[100] वही, पृष्ठ 34 
[101] वही, पृष्ठ 43 
[102] वही, पृष्ठ 54 
[103] वही, पृष्ठ 57
[104] वही, पृष्ठ 57
[105] वही, पृष्ठ 58
[106] वही, पृष्ठ 60 
[107] वही, पृष्ठ 62
[108] वही, पृष्ठ 63 
[109] वही, पृष्ठ 64 
[110] प्रेरक दलित कहानियाँ : डॉ० कुसुम वियोगी, पृष्ठ 84, प्रकाशक - अक्षर पब्लिशर्स एंड डिसटीब्यूटर्स दिल्ली, संस्करण 2021
[111] वही, पृष्ठ 18
[112] वही, पृष्ठ 13
[113] वही, पृष्ठ 23
[114] वही, पृष्ठ 10
[115] वही, पृष्ठ 28
[116] वही, पृष्ठ 53
[117] वही, पृष्ठ 49
[118] वही, पृष्ठ 59
[119] वही, पृष्ठ 66
[120] समाजद्रष्टा साहित्यकार रत्नकुमार सांभरिया - भाग 2 : संपादक - डॉ० विवेक शंकर व डॉ० अनिता वर्मा, पृष्ठ 10, प्रकाशक - दृष्टि प्रकाशन जयपुर, संस्करण 2020
[121] वही, पृष्ठ 5
[122] हुकुम की दुग्गी : रत्नकुमार सांभरिया, पृष्ठ 8, रचना प्रकाशन जयपुर, द्वितीय संस्करण 2018
[123] काल तथा अन्य कहानियाँ : रत्नकुमार सांभरिया, पृष्ठ 25, रचना प्रकाशन जयपुर, द्वितीय संस्करण 2018
[124] खेत तथा अन्य कहानियाँ : रत्नकुमार सांभरिया, पृष्ठ 102, आधार प्रकाशन हरियाणा, द्वितीय संस्करण 2012
[125] समाजद्रष्टा साहित्यकार रत्नकुमार सांभरिया - भाग 2 : संपादक - डॉ० विवेक शंकर व डॉ० अनिता वर्मा, पृष्ठ 221, प्रकाशक - दृष्टि प्रकाशन जयपुर, संस्करण 2020
[126] हंस (मासिक पत्रिका) : संपादक - संजय सहाय, पृष्ठ 79, अंक - नवंबर 2019
[127] तलाश : डॉ० जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 26, प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2019
[128] वही, पृष्ठ 27
[129] वही, पृष्ठ 81-82
[130] वही, पृष्ठ 82-83
[131] वही, पृष्ठ 87
[132] वही, पृष्ठ 130
[133] वही, पृष्ठ 127-128
[134] खरोंच : डाॅ० जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 38, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[135] वही, पृष्ठ 39
[136] वही, पृष्ठ 41
[137] वही, पृष्ठ 46
[138] वही, पृष्ठ 51-52
[139] वही, पृष्ठ 52
[140] वही, पृष्ठ 55
[141] वही, पृष्ठ 66
[142] वही, पृष्ठ 71
[143] वही, पृष्ठ 73
[144] वही, पृष्ठ 77
[145] वही, पृष्ठ 80
[146] वही, पृष्ठ 81
[147] वही, पृष्ठ 86
[148] वही, पृष्ठ 88
[149] वही, पृष्ठ 90
[150] वही, पृष्ठ 109
[151] वही, पृष्ठ 111-112
[152] मेरी प्रिय कहानियाँ : डॉ० श्यौराज सिंह 'बेचैन', भूमिका, पृष्ठ 8, प्रकाशक - राजपाल एंड संस नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019
[153] वही, पृष्ठ 
[154] वही, पृष्ठ 
[155] वही, पृष्ठ 
[156] वही, पृष्ठ 
[157] वही, पृष्ठ 
[158] वही, पृष्ठ 
[159] वही, पृष्ठ 
[160] वही, पृष्ठ 8
[161] वही, पृष्ठ 46
[162] वही, पृष्ठ 52-53
[163] वही, पृष्ठ 53
[164] वही, पृष्ठ 64
[165] वही, पृष्ठ 9
[166] वही, पृष्ठ 98
[167] वही, पृष्ठ 108
[168] वही, पृष्ठ 124
[169] विपिन बिहारी की प्रतिनिधि कहानियाँ : संपादक - डॉ० कर्मानंद आर्य, पृष्ठ 6, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन जयपुर, प्रथम संस्करण 2020
[170] श्यामलाल राही प्रियदर्शी - व्यक्तित्व एवं कृतित्व : देवचंद्र भारती 'प्रखर', पृष्ठ 9, प्रकाशक - साहित्य संस्थान गाजियाबाद, प्रथम संस्करण 2021
[171] विपिन बिहारी की प्रतिनिधि कहानियाँ : संपादक - डॉ० कर्मानंद आर्य, पृष्ठ 10, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन जयपुर, प्रथम संस्करण 2020
[172] वही, पृष्ठ 35
[173] वही, पृष्ठ 11-12
[174] वही, पृष्ठ 124
[175] आग ही आग : प्रहलादचंद्र दास, पृष्ठ 5, प्रकाशक - रश्मि प्रकाशन लखनऊ, पहला संस्करण 2017
[176] पुटूस के फूल : प्रहलादचंद्र दास, पृष्ठ 10, प्रकाशक - रश्मि प्रकाशन लखनऊ, पहला संस्करण 2019

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