आंबेडकरवादी कहानियों में स्त्री-चिंतन


आंबेडकरवादी कहानियों में जो स्त्री-चिंतन का स्वरूप है, वह बुद्ध-दर्शन और आंबेडकरवादी आंदोलन से प्रभावित है । लेकिन स्त्री-चिंतन का ऐसा स्वरूप विशेष रुप से आंबेडकरवादी पुरुष कहानीकारों की कहानियों में दिखाई देता है । जबकि स्वयं को आंबेडकरवादी कहने वाली महिला कहानीकारों की कहानियों में स्त्री-चिंतन का जो स्वरूप है, वह हिंदी साहित्य में किये गये स्त्री-विमर्श से प्रभावित है । इसलिए आंबेडकरवादी कहानियों में स्त्री-चिंतन के स्वरूप का विवेचन करने से पहले हिंदी साहित्य में किये गये स्त्री-चिंतन के स्वरूप का विवेचन आवश्यक है ।

हिंदी साहित्य में स्त्री-चिंतन का स्वरूप

हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श पर सबसे अधिक चर्चा 'हंस' पत्रिका के द्वारा राजेंद्र यादव ने किया । इस क्रम में 'औरत : उत्तरकथा' (1994), 'अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य' (2000), 'देहरी भई विदेस' (2001), 'आदमी की निगाह में औरत' (2002), 'पितृसत्ता के नए रूप - स्त्री और भूमंडलीकरण' (2003) और 'कथा जगत की बागी मुस्लिम औरतें' (2006) आदि पुस्तकों को राजेंद्र यादव ने संपादित किया । हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श को केंद्र में लाने वाले राजेंद्र यादव ही हैं । रूप सिंह चंदेल के शब्दों में, " दलित और नारी-विमर्श आज साहित्य और वैचारिक विमर्श की मुख्यधारा बन गया है, तो उसका बड़ा श्रेय वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र यादव को है । उन्होंने इसके लिए 'हंस' का मंच ही उपलब्ध नहीं करवाया, बल्कि इन मुद्दों को साहित्य की बहस बना दिया । " [1] इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राजेंद्र यादव नारी-विमर्श के जनक हैं । भारतीय परिप्रेक्ष्य में नारी-विमर्श का आरंभ करने वाले पहले व्यक्ति हैं - महामना ज्योतिराव फुले । उन्होंने स्त्री को मिथ्या परंपरा से मुक्त करने के लिए आंदोलन चलाया । उनके नारी-आंदोलन का मुख्य उद्देश्य स्त्रियों को शिक्षित करना था । फुले जी के बाद बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने संविधान में स्त्रियों को मौलिक अधिकार प्रदान करके उन्हें हर प्रकार से सशक्त बनने का अवसर प्रदान कर दिया । लेकिन स्वेच्छाचारी स्त्रियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों को प्राप्त करने की बजाय कुछ दूसरे तरह का ही विमर्श करना आरंभ कर दिया, जिसका नेतृत्व साहित्य के क्षेत्र में राजेंद्र यादव ने किया ।

सन् 2001 में राजेंद्र यादव द्वारा संपादित पुस्तक 'देहरी भई विदेस' प्रकाशित हुई, जिसमें नारी-विमर्श को आधार बनाकर लेखिकाओं के आत्मकथांश संकलित किये गये हैं । इस पुस्तक के संपादकीय में राजेंद्र यादव ने लिखा है, " स्त्री का अपना कोई घर नहीं होता है, उसका अपना कोई नाम, कोई जाति, कोई धर्म, कोई भाषा आदि कुछ भी नहीं होता है । ये सब उसे पुरुष देता है । " [2] इस कथन की प्रतिक्रिया में डाॅ० मीरा रामराव निचले ने लिखा है, " राजेंद्र यादव की ये स्थापनाएँ विवादास्पद एवं अर्धसत्यों से भरी हैं । उदाहरण के रूप में राजेंद्र यादव के साथ विवाह करके मन्नू भंडारी 'मन्नू यादव' या 'मन्नू राजेंद्र' के नाम से नहीं जानी गयी । क्यों ? यदि राजेंद्र यादव के ऊपर उपर्युक्त स्थापना पूर्ण सत्य होती, तो मन्नू भंडारी को हर हालत में मन्नू यादव हो जाना चाहिए था, जो वे नहीं हुईं । " [3] इसी पुस्तक के अपने संपादकीय में राजेंद्र यादव ने आगे लिखा है, " उसके (स्त्री के) पास कुछ न हो, मगर देह और मन तो उसके अपने हों । उन्हीं को लेकर अपने फैसले ही उसे मुक्ति की राह दिखाएँगे । सौंदर्य स्त्री के लिए वरदान भी है और अभिशाप भी । सुंदर और स्वतंत्र स्त्री, पुरुष के लिए चुनौती है । परिवार और पर्दे के पीछे भी यह सुंदर स्त्री की विशेष या निर्विशेष हैसियत का स्रोत है । हर स्त्री अपने सौंदर्य की शक्ति को पहचानती और कौशल से इसका इस्तेमाल करती है । जो जितने बंधन में है, वह उतनी ही स्कीमिंग भी है । " [4] राजेंद्र यादव के इस कथन का विरोध करते हुए डाॅ० मीरा रामराव निचले ने लिखा है, " राजेंद्र यादव की इस मान्यता से पता चलता है कि वह स्त्री और स्त्री-पुरुष संबंधों को एक विशेष चश्मे से देखते हैं, यथार्थ दृष्टि से नहीं । स्त्री-पुरुष संबंधों को नियंत्रित करने के लिए मानव समाज ने परिवार और विवाह नामक की संस्थाओं का विकास किया है । 'देहरी भई विदेस' में उनकी मौलिकता, संस्कृति और विकृति के अनेक रूप विद्यमान हैं । कुछ लेखिकाएँ ऐसी हैं, जो विधवा हैं और जिन्हें पुनर्विवाह का विभिन्न कारणों से अवसर नहीं मिला । दुखिनी बाला कुछ ऐसी हैं, जिन्हें पति ने त्याग दिया है । कुछ ऐसी हैं, जिन्होंने विधवा होने के बाद पुनर्विवाह किया - दिनेशनंदिनी डालमिया, जिन्हें मनचाहा पति नहीं मिला । कृष्णा अग्निहोत्री, जिन्होंने अपने पहले पति से मुक्ति पायी और दूसरे पुरुष से विवाह किया । कुछ ऐसी हैं, जिन्होंने विवाहित या अविवाहित पुरुषों के साथ खुलेआम प्रेम-संबंध बनाये - प्रभा खेतान और रमणिका गुप्ता । जिन्हें एकांत बहुत प्रिय है - मृदुला गर्ग । कुछ ऐसी हैं, जिन्होंने एकाकी जीवन व्यतीत करने का निर्णय किया, जैसे - जयंती । प्रायः ये सभी लेखिकाएँ विभाजित व्यक्तित्व वाली हैं । सुधा अरोड़ा ने अपने आत्मकथ्य में जो शैली अपनाई, है वह इसी विभाजित व्यक्तित्व का परिणाम है । " [5]

नारी-विमर्श को 'नारीवाद' नाम देकर नारीवादी चिंतकों ने स्त्री के लिए देह की स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया है । इस संदर्भ में डॉ० नमिता सिंह ने लिखा है, " हिंदी साहित्य में देह की स्वतंत्रता के नाम पर निश्चित रूप से व्यभिचार को नैतिकता का जामा पहनाने का प्रयास किया गया है । साहित्य तो चलो मान लिया कितने लोग पढ़ते हैं, लेकिन इस अवधारणा ने सामाजिक स्तर पर व्यभिचार का समर्थन किया है और देह को भोगने और बेचने को नारी-मुक्त जैसे आंदोलन से जोड़कर सामाजिक विकास की प्रक्रिया को भ्रष्ट किया है तथा स्त्री को बाजारवाद के अभियान में शामिल कर लिया है । " [6] जब नारीवादी स्त्रियों ने देह की स्वतंत्रता का विमर्श आरंभ किया, तो बाजारवादी पुरुषों ने इस अवसर का भी लाभ उठाया । उन्होंने कहा, " ठीक है, तुम मुक्त हो । दिखाओ अपनी देह, हम उसी का पैसा वसूल करेंगे । हम तुम्हारे शरीर के साथ साबुन और पाउडर बेचेंगे । विश्व सुंदरी प्रतियोगिता करेंगे । " [7] नारीवादी स्त्रियाँ इस प्रकार का नारी-विमर्श करके सामंती दुष्चक्रों से मुक्त होने की बजाय बाजारवाद के दुष्चक्र में फँस गयीं और वे बाजार में वस्तुओं की तरह इस्तेमाल की जाने लगीं । फिर भी वे इसे अपनी मुक्ति समझकर प्रसन्न होती रहीं । इस प्रकार की स्वतंत्रता चाहने वाली स्त्रियों को अय्याश-प्रवृत्ति वाले पुरुषों ने प्रोत्साहन प्रदान किया । क्योंकि ऐसे पुरुषों को अय्याशी करने के लिए अनायास अवसर उपलब्ध होने लगे । राजेंद्र यादव की प्रवृत्ति भी कुछ ऐसी ही थी । वे मुक्त यौन-संबंध बनाने की पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित थे । वे स्त्री को मित्र बनाकर उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने के पक्ष में थे, लेकिन उसी स्त्री के साथ वैवाहिक-बंधन में बँधना उन्हें स्वीकार नहीं था । राजेंद्र यादव ने लेखिका मन्नू भंडारी से प्रेम किया और उनके साथ शारीरिक-संबंध बनाया । राजेंद्र यादव, मन्नू के साथ इसी प्रकार आजीवन संबंध बनाये रखना चाहते थे, लेकिन मन्नू के द्वारा अधिक जोर देने पर अंततः उन्हें दांपत्य-सूत्र में बँधना पड़ा । राजेंद्र यादव ने विवशता में मन्नूू के साथ विवाह तो कर लिया, लेकिन उनकी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण उनका वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण हो गया । इसलिए कई बार उन्होंने अपनी पत्नी मन्नू भंडारी के साथ मारपीट भी किया । मन्नू भंडारी से लेखिका प्रभा खेतान का घनिष्ठ संबंध था । मन्नू जब प्रभा से मिलतीं, तो उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी बतातीं । जब प्रभा खेतान को पता चला कि राजेंद्र यादव मन्नू भंडारी को मारते-पीटते हैं, तो वे उनसे चिढ़ने लगीं । राजेंद्र यादव के इस चरित्र का विश्लेषण करते हुए प्रभा खेतान ने लिखा है, " यादव जी (राजेंद्र यादव) उस दिन बस स्टॉप पर मुझे छोड़ने आये । फिर बस में ही मेरे साथ गरियाहाट तक गये । उनके चेहरे पर ग्लानि का कुहासा था । बोले, देखो प्रभा, मन्नू ने जो कुछ भी तुमसे कहा, वह सब सच नहीं है । इस वक्त वह पत्नी है और पत्नी की शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया करते । बेकार में तुम लड़कियाँ मेरे बारे में गलत धारणा बनाओगी । मैंने कहा कि मैं आपसे इसलिए चिढ़ती रही हूँ, क्योंकि आपने बाईसा (मन्नू भंडारी) को रुलाया । जवाब मिला कि तो क्या करूँ, मेरा सारा विद्रोह पत्नीत्व नामक इस संस्था से है । हमें साथ रहना चाहिए था, मगर शादी नहीं करनी चाहिए थी । और मैं खामोश हो गयी । मगर मेरी आँखें बहुत कुछ कह रही थीं और यादव जी सहमे हुये थे । मैं हर तरह से बाईसा के लिए थी । उनका लिखा हुआ एक-एक अक्षर पढ़ती और राजेंद्र यादव का यदि कभी कुछ पढ़ा भी, तो काट-पीट कर फेंक दिया । फिर एक दिन यादव जी ने कहा, सीमोन द बुइवार का 'सेकंड सेक्स' पढ़कर देखो, सुधर जाओगी और मुझसे नफरत करना बंद कर दोगी । और सच ही बाद में मैं यादव जी की सबसे घनिष्ठ मित्र हो गयी । " [8] नारीवादियों के नारी-विमर्श का जो स्वरूप है, उसके विवेचन से स्पष्ट है कि वे स्त्री-पुरुष की मित्रता में यौन-संबंध को स्वीकृति प्रदान करते हैं । अतः प्रभा खेतान के उक्त कथन से समझा जा सकता है कि उनके और राजेंद्र यादव के बीच किस प्रकार का संबंध रहा होगा ?

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिंदी साहित्य में नारीवादी आंदोलन का नेतृत्व करने वाले लेखक और लेखिकाएँ अपने वैवाहिक जीवन में सफल नहीं हुये अथवा उन्हें मनचाहा जीवनसाथी नहीं मिला अथवा अनुशासित जीवन जीना उन्हें पसंद नहीं था । उन्होंने अपने मानसिक विकार को 'विमर्श' का नाम देकर अवैध-संबंध का समर्थन किया । जबकि इस प्रकार के विमर्श का स्त्री-मुक्ति की मूल समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है । क्योंकि भारतीय समाज का सर्वेक्षण करने से ज्ञात होता है कि यहाँ केवल भौगोलिक विविधता ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता भी पायी जाती है । भारत में हर प्रदेश की, हर वर्ग की स्त्रियों की स्थिति एक जैसी नहीं है । यही बात पुरुषों की स्थिति पर भी लागू होती है । रही बात मुक्त यौन-संबंध बनाने की, तो यह प्रवृत्ति पशु-प्रवृत्ति है । मनुष्य इसीलिए मनुष्य है और संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, क्योंकि वह अन्य प्राणियों की नकल नहीं करता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने के कारण समाज बनाया, तो समाज को व्यवस्थित रूप देने के लिए 'विवाह' नामक संस्था का सृजन किया । विवाह-बंधन को एक पवित्र-बंधन के रूप में देखा जाता है । यदि आधुनिक समय में इस बंधन को पवित्र न मानकर एक समझौता के रूप में भी देखा जाए, तो प्रश्न यह उठता है कि वह समझौता किस प्रकार का होना चाहिए ? क्या स्त्री-पुरुष का यह बंधन केवल कामतुष्टि तक ही सीमित हो ? इसके अतिरिक्त वे एक-दूसरे से अन्य किसी प्रकार की इच्छा और उम्मीद न रखें ? क्या एक-दूसरे पर अधिकार जताना गलत है ? यह कैसा विमर्श है कि एक मनुष्य अपना अधिकार तो चाहता है, लेकिन दूसरे का अधिकार उसे देना पसंद नहीं है । सच तो यह है कि 'विवाह' नामक संस्था मानव-समाज को जोड़ने के लिए एक अहम भूमिका निभाती है । डाॅ० मीरा रामराव निचले के शब्दों में, " विवाह संस्था स्त्री-पुरुष के संबंधों को एक प्रामाणिक पहचान ही नहीं देती, बल्कि एक दिशा भी प्रदान करती है । विवाहोपरांत बाहर के संबंध न केवल असामाजिक ही माने गये हैं, बल्कि अनैतिक भी माने गये हैं । विवाह संस्था के प्रति स्त्री-पुरुष को और दृढ़ बनाने के लिए विवाह को धार्मिक रूप दे दिया गया है । लेकिन समकालीन परिवेश में पाश्चात्य सभ्यता का एक ऐसा रेला आया कि उसने विवाह संस्था की प्राचीरों को हिला दिया है । विवाह पर अब प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं । विवाह को एक पवित्र बंधन के रूप में स्वीकार न करके एक समझौते के रूप में स्वीकारा जाने लगा है । पुरुष तो शुरू से ही विवाहेतर संबंधों से कामतुष्टि करते आये हैं, लेकिन अब महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं । विवाह पूर्व दांपत्य संबंध रखना और फिर विवाह संस्कार को निभाना आधुनिकता की पहचान हो गया है । स्वच्छंद काम-संबंध महानगरों के दूषित वातावरण में पनपने लगे हैं । पाश्चात्य सभ्यता से उत्पन्न फ्री-सेक्स की सभ्यता भारत में पायी जाने लगी है और यहाँ भी मातृत्वहीन, पत्नीत्वहीन नारियाँ समकालीन हिंदी कहानियों में आ रही हैं । " [9]


आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन का स्वरूप

आंबेडकरवादी साहित्य-आंदोलन का उद्देश्य समतामूलक समाज की स्थापना करने में वैचारिक सहयोग प्रदान करना है तथा भारत के वंचित-वर्ग को उनका संपूर्ण मानव-अधिकार प्राप्त करने हेतु प्रेरित करना है । चूँकि आंबेडकरवादी साहित्यकार समतावादी हैं और स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर हैं, इसलिए अलग से स्त्री-विमर्श करना उन्हें स्वीकार नहीं है । आंबेडकरवादी चेतना लैंगिक स्तर पर किसी को विशेष दर्जा प्रदान नहीं करती है, इसलिए स्त्री की समस्याओं को विशेष मानकर स्त्री-विमर्श करना आंबेडकरवादी साहित्य का अंग नहीं है । फिर भी स्त्री-विमर्श की तेज बहती हुई हवा के बहाव में कई आंबेडकरवादी साहित्यकार बहते जा रहे हैं । वास्तव में, इस बहाव में बहने वाले केवल नाम के ही आंबेडकरवादी साहित्यकार हैं । उनमें आंबेडकरवादी चेतना का अंश बहुत ही अल्प मात्रा में है । ऐसे ही एक तथाकथित आंबेडकरवादी साहित्यकार डॉ० तेज सिंह थे, जो मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद की मिश्रित विचारधारा के पोषक थे । शुद्ध आंबेडकरवादी चेतना से तो उनका दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था । फिर भी वे आंबेडकरवादी आलोचक के रूप में प्रसिद्ध हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी पत्रिका 'अपेक्षा' के माध्यम से आंबेडकरवादी साहित्य-विमर्श का आरंभ किया था । लेकिन उन्होंने आंबेडकरवादी साहित्य-विमर्श का आरंभ क्यों और किस स्थिति में किया था ? इसका भी संज्ञान लेना आवश्यक है । डॉ० तेज सिंह अध्ययनशील, चिंतनशील और प्रभावी व्यक्तित्व के धनी प्राध्यापक थे । इसीलिए वे 'दलित लेखक संघ' के अध्यक्ष पद पर दो बार चुने गये थे । लेकिन तीसरी बार ऐसा हुआ कि उन्हें दलित लेखक संघ के अध्यक्ष पद पर चयनित नहीं किया गया । इसी कारण से उन्होंने रोष और आक्रोश में आकर आंबेडकरवादी साहित्य-विमर्श का आरंभ किया था । 'दलित लेखक संघ' के पूूर्व अध्यक्ष कर्मशील भारती जी के शब्दों में, " इस बार उन्हें अध्यक्ष नहीं चुना गया । उसके बाद अपेक्षा का अंक प्रकाशित हुआ, तो उस पर 'दलित लेखक संघ का मुखपत्र' की जगह 'आंबेडकरवादी साहित्य का मुखपत्र' लिखा हुआ था । इससे दलेस के लोगों में आक्रोश था । पर इस आक्रोश को जाहिर करने की हिम्मत किसी में नहीं थी । फिर उन्होंने दलित के ही कुछ साथियों को अपनी तरफ खींच लिया और 'आंबेडकरवादी लेखक संघ' नाम से संगठन भी बना लिया था । अपने इन विचारों को उन्होंने कई पुस्तकों में लिखा भी था । " [10] डॉ० तेज सिंह महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे । वे पद, प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि के लिए आंबेडकरवादी साहित्य का झंडा उठाये थे । आरंभ में वे मार्क्सवादी थे । लंबे समय तक मार्क्सवादियों के बीच में रहकर जब वे अपना स्थान नहीं बना पाये, तो मौका पाकर वे दलित साहित्य के खेमे में घुस आये तथा बाद में उन्होंने आंबेडकरवादी साहित्य का विमर्श आरंभ किया । लेकिन अपने जीवन के अंतकाल तक वे अपने पूर्व-संस्कार अर्थात् मार्क्सवादी चेतना से मुक्त नहीं हो पाये थे और उन्होंने जो भी चिंतनपरक विचार दिया, उसमें हिंदूवाद, मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद आदि सभी का मिश्रण स्पष्ट लक्षित होता है । 

1. आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन का विकृत स्वरूप 

डाॅ० तेज सिंह द्वारा संपादित पुस्तक 'आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन : सामाजिक शोषण के खिलाफ आत्मवृत्तात्मक संघर्ष' (2011) में उनके द्वारा लिखे गये संपादकीय का एक उद्धरण प्रस्तुत है । उन्होंने लिखा है, " प्रश्न दलित अस्मिता या दलित स्त्री अस्मिता का ही नहीं है, बल्कि नारी अस्मिता का प्रश्न ही मूल प्रश्न है । नारी को रखैल, वेश्या, देवदासी, कुलटा, चुड़ैल, डायन, व्यभिचारिणी, चरित्रहीन और धर्मपत्नी, पतिव्रता आदि विशेषण भी ब्राह्मणी पितृसत्ता समाज की ही प्रमुख देन हैं, जिन्हें पुरुषसत्ता के प्रतीक पुरुषों ने अपने जातिगत और वर्गहितों को ध्यान में रखकर ही गढ़ा है । ताकि स्त्री समुदाय के आत्म-सम्मान और स्वाभिमान को कुचलकर अपने अधीन रखा जा सके और उसकी स्वतंत्रता का हनन किया जा सके और अंततः उन पर अपना वर्चस्व स्थापित किया जा सके । जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि मातृसत्तात्मक समाज में ऐसे नारी-अस्मिता विरोधी शब्दों और विशेषताओं के लिए कोई स्थान नहीं था । उस समाज में स्त्री-पुरुष संबंध समानता और स्वतंत्रता पर आधारित थे । वहाँ लिंग और वर्ग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था । इसका यह अर्थ नहीं है कि हम आदिम समाज के मातृसत्तात्मक समाज की वापसी चाहते हैं, यह तो इतिहास विरोधी काम होगा या हम पितृसत्तात्मक समाज का समर्थन कर रहे हैं । हम सिर्फ यही चाहते हैं कि स्त्री-पुरुष में आपसी स्वतंत्रता, भाईचारा और बराबरी विकसित हो । और वह सामाजिक लोकतंत्र कायम किये बिना असंभव है । " [11] डॉ० तेज सिंह नारी-अस्मिता की बात करते हुए ब्राह्मण-धर्म और ब्राह्मणी व्यवस्था का उल्लेख करने से नहीं चूकते हैं । यदि वे आंबेडकरवादी चेतना के आलोचक थे, तो उन्हें पता होना चाहिए था कि बुद्धकालीन सामाजिक व्यवस्था में तथा धम्म और संघ में स्त्रियों के लिए समान अधिकार प्राप्त थे । आंबेडकरवादी चेतना के आलोचक को तो अपने लेखों में ब्राह्मणी व्यवस्था का उल्लेख ही नहीं करना चाहिए । जबकि डॉ० तेज सिंह ने यही गलती की है । ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने आंबेडकरवादी ग्रंथों का कम और ब्राह्मणवादी ग्रंथों का अधिक अध्ययन किया था । डॉ० तेज सिंह ने 'मातृसत्तात्मक समाज' और 'पितृसत्तात्मक समाज' आदि शब्दों का प्रयोग किया है, लेकिन उन्होंने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि भारत में मातृसत्तात्मक समाज कब से कब तक था और मातृसत्तात्मक समाज की क्या-क्या विशेषताएँ थीं ? उन्होंने कालबोधक के रूप में 'आदिम समाज' शब्द का प्रयोग अवश्य किया है, लेकिन इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि वे किस समय के आदिम-समाज की बात कर रहे हैं ? यदि आदिम-समाज का तात्पर्य आदिमानव-समाज से लिया जाए, तो डॉ० तेज सिंह का कथन पूर्णतः असत्य है । क्योंकि आदिमानव-समाज में मातृसत्ता और पितृसत्ता जैसी कोई विशेषता नहीं थी ।

वास्तव में, मातृसत्तात्मक परिवार-व्यवस्था का संबंध आदिवासी नाग सभ्यता से है । नाग सभ्यता एक श्रेष्ठ सभ्यता थी । इस संदर्भ में डाॅ० नवल वियोगी जी ने लिखा है, " टी०डब्ल्यू० राइस डेविड्स पहला अंग्रेज विद्वान था, जिसने बौद्ध पालि साहित्य के गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला एवं रहस्योद्घाटन किया कि प्राचीन काल में आदिवासी जनतांत्रिक लोग बहुत सभ्य थे । ... जब सिंधु घाटी के प्राचीन शहरों की खुदाई अंग्रेज पुरातत्वविद मार्शल, मैके तथा व्हीलर महोदय ने की, तो तस्वीर का रुख ही बदल गया है और यह पूरी तरह प्रमाणित हो गया है कि वह सभ्यता, जिसका संबंध आदिवासियों के साथ था, बहुत उच्च थी । " [12] मातृसत्तात्मक परिवार-व्यवस्था की विशेषता के बारे में डॉ० वियोगी जी ने लिखा है, " मातृसत्तात्मक परिवार-व्यवस्था नाग जाति की एक प्रमुख विशेषता थी । ऐसी व्यवस्था के विकास का संबंध मातृ देवी की उपासना से था । इस कारण निश्चय ही इसका जन्म पश्चिम एशिया में हुआ, जो बाद में सुमेरियन लोगों के आगमन के साथ-साथ भारत पहुँच गयी । मगर दूसरी ओर, पितृसत्तात्मक परिवार-व्यवस्था आर्यों में प्रचलित थी । मातृसत्तात्मक परिवार में परिवार की सबसे बड़ी बेटी की धन-दौलत, भूमि तथा राज्य की वास्तविक उत्तराधिकारी होती है । जबकि आर्यों में सबसे बड़ा बेटा उत्तराधिकारी होता है । मगर मातृसत्तात्मक व्यवस्था आज भी पूर्व तथा दक्षिण भारत की नाग जातियों में प्रचलित है । " [13] अतः स्पष्ट है कि मातृसत्तात्मक परिवार-व्यवस्था पहले भी थी और अब भी है, लेकिन उसका संबंध आदिवासी नाग-जातियों से है । जबकि ब्राह्मणी (हिंदू) परिवार-व्यवस्था में पितृसत्ता पहले भी थी और अब भी है । डॉ० तेज सिंह को आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए था कि डाॅ० आंबेडकर ने वंचित-वर्ग को हिंदू नहीं, बल्कि हिंदुओं का गुलाम कहा है । साथ ही उन्होंने वंचितों (अछूतों) को प्राचीन-बौद्ध सिद्ध किया है । बौद्ध धम्म का पतन होने के पश्चात वंचितों ने अपने आपको ब्राह्मणी व्यवस्था का अंग मान लिया और अब तक मान रहे हैं । वे स्वयं को हिंदू धर्म (ब्राह्मण धर्म) से जोड़ते हैं तथा हिंदू धर्म सुधार-आंदोलन में सक्रिय हैं । किसी आंबेडकरवादी व्यक्ति को हिंदू धर्म-सुधार से क्या लेना-देना है ? उसे बौद्ध बनकर बौद्ध-संस्कार को ग्रहण करना चाहिए । बौद्धों में पितृसत्ता जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि स्त्री-पुरुष दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं । उक्त उद्धरण में डॉ० तेज सिंह ने अंत में इस बात को स्वीकार किया है कि वे स्त्री-पुरुष समानता चाहते हैं, तो फिर प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि मातृसत्ता पर लंबा-चौड़ा संपादकीय लिखने की क्या आवश्यकता थी, सीधे-सीधे भारतीय संविधान में वर्णित समानता के अधिकार की बात करते । क्योंकि संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की बात करना भी आंबेडकरवाद ही है ।

जिस प्रकार 'आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन : सामाजिक शोषण के खिलाफ आत्मवृत्तात्मक संघर्ष' नामक पुस्तक के संपादक डॉ० तेज सिंह अधूरे आंबेडकरवादी हैं, उसी प्रकार इस पुस्तक में संकलित आत्मवृत्तों की लेखिकाएँ भी आधी-अधूरी आंबेडकरवादी हैं । इस बात की पुष्टि के लिए उनके द्वारा लिखित आत्मवृत्तों का विवेचनात्मक अध्ययन आवश्यक है । रजनी तिलक ने अपने आत्मवृत्त में लिखा है, " बड़ी-बूढ़ी औरतों के साथ हँसी-मजाक, उनके सरों की मालिश करना, उनके सरों का जू निकालना हमारी बस्ती की रंगत थी, तो आपस में मनमुटाव हो जाने पर घाघरा फाड़ने से लेकर एक-दूसरे की बेटियों को एक-दूसरे के मर्दों से बलात्कार करवाने की गाली से नवाजने का खलल भी इन बस्तियों का संताप था, जो इनके पिछड़ेपन, विकृत मनो की दास्तान, यौन कुंठाओं और पितृसत्तात्मक व्यवहारों को स्पष्ट देखा जा सकता है । " [14] यहाँ रजनी तिलक स्त्रियों के दुर्व्यवहार में भी पुरुषों को ही दोषी सिद्ध कर रही हैं । यानी कि 'करे कोई और, भरे कोई और' । स्त्रियाँ आपस में गाली-गलौच करती हैं, तो क्या ये गालियाँ उन्हें पुरुष सिखाते हैं ? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । बल्कि समाज में यह देखा गया है कि स्त्रियाँ ही अपनी लड़कियों को इस प्रकार की अपमानजनक गालियाँ विरासत में सौंपती हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियाँ ऐसी फूहड़-फूहड़ गालियाँ देती हैं, जिनकी कल्पना भी पुरुष नहीं किये होते हैं । ये गालियाँ वे स्वयं गढ़ती हैं । कहीं भी इन गालियों का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है, न ही कहीं 'गाली प्रशिक्षण केंद्र' खोला गया है, जिसका शिक्षक कोई पुरुष है । गालियों का संबंध पितृसत्ता से कैसे हो सकता है ? क्योंकि गालियाँ अज्ञानता और असभ्यता की प्रतीक हैं । जो स्त्री-पुरुष शिक्षित हो जाते हैं और समाज में उठने-बैठने लगते हैं, वे गाली देने की आदत में बहुत अधिक सुधार कर लेते हैं । जबकि वे मातृसत्ता और पितृसत्ता का नाम भी नहीं सुने होते हैं ।

दलित लेखक संघ की वर्तमान अध्यक्ष अनिता भारती ने अपने बचपन की एक घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है, " मुझे अपने बचपन की एक और घटना भुलाए नहीं भूलती और इस घटना का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहती हूँ, क्योंकि इस घटना का संबंध एक ऐसे शख्स से है, जो अपने आपको एक महान बौद्ध और आंबेडकरवादी मानता था । जब मैं आठ-नौ साल की रही होऊँगी, मेरी बड़ी बहन की एक सहेली थी सरोज, उसके पिताजी, जिनको सब दीवान अंकल कहते थे, बौद्ध विचारों के थे तथा वे लोगों को आंबेडकरवादी और बौद्घ बनाने के लिए गली-मुहल्लों में खूब मीटिंगें लिया करते थे । हमारे घर में उनकी बड़ी इज्जत थी, उनकी इज्जत का कारण दलित होने के बावजूद उनका खूब पढ़ा-लिखा होना था । उन्होंने एक दिन मेरी माँ से कहा कि इसे मेरे पास भेज दिया करो । मैं इसे बुद्ध भगवान के गाने सिखाऊँगा । मेरी माँ को उनके प्रस्ताव से कोई आपत्ति नहीं थी । माँ को लगता था कि अंकल मुझे बहुत प्यार करते हैं । दूसरे, वे अपने समाज के हैं, इसलिए वे उन पर भरोसा करती थीं । दीवान अंकल मुझे अपनी गोद में बैठाकर गाना सिखाते थे, जिनमें एक गाना था - 'मैं हूँ भीमराव की चेली, मैंने बुद्ध शरण है ले ली, चली आई मैं अकेली बुद्ध विहार में', यह गाना सिखाते-सिखाते वे मेरा हाथ अपनी पैंट की तरफ ले जाते, मुझे गाना गाते-गाते अजीब-सा महसूस होने लगता । ऐसी हरकत उन्होंने मेरे साथ एक बार नहीं, तीन-चार बार की । " [15] अनिता भारती ने लिखा है कि " इस घटना का जिक्र मैं इसलिए भी करना चाहती हूँ, क्योंकि इस घटना का संबंध एक ऐसे शख्स से है, जो अपने आपको एक महान बौद्ध और आंबेडकरवादी मानता था । " इस वाक्य में बलाघात है । यानी कि उन्होंने इस घटना का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक समझा, क्योंकि उनके साथ दुर्व्यवहार करने वाला एक बौद्ध-आंबेडकरवादी व्यक्ति था । यदि वह कोई हिंदूवादी, मार्क्सवादी अथवा गांधीवादी व्यक्ति होता, तो शायद वे ऐसा नहीं करतीं । प्रश्न यह है कि क्या दीवान अंकल के बाद अनिता भारती के साथ फिर किसी लड़के अथवा आदमी ने छेड़खानी नहीं की ? क्या इस घटना का उल्लेख अनिता भारती ने केवल बौद्ध-आंबेडकरवादी व्यक्तियों को दुश्चरित्र सिद्ध करने के लिए किया है ? प्रायः ऐसा होता है कि एक व्यक्ति के साथ अनेक लोग दुर्व्यवहार करते हैं, लेकिन वह केवल उसी व्यक्ति के दुर्व्यवहार का ढिंढोरा पीटता है, जिससे उसे चिढ़ होती है अथवा द्वेष-भाव । यदि अनिता भारती ने अपने आपको सच्चरित्र दिखाने का प्रयास किया है, तो यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि बचपन में तो हर व्यक्ति सच्चरित्र होता है । इस संदर्भ में आंबेडकरवादी साहित्यकार एस०एन० प्रसाद जी द्वारा रचित एक मुक्तक विचारणीय है । 'प्रसाद' जी के शब्दों में :

बचपन की बातें बुढ़ापे में याद आती क्यों हैं ?
शरारतें जवानी की अक्सर भूल जाती क्यों हैं ? 
खुद का गुनाह छिपाने में ये शातिर दुनिया,
इल्जाम अपना दूसरों के सिर लगाती क्यों है ?

डॉ० रजत रानी मीनू ने लिखा है, " बीते दशकों में पापा जी और श्यौराज अपनी-अपनी तरह से मुझे उठाने-चलाने की बातें करते रहे । हो सकता है, वे दोनों अपनी-अपनी जगह सही रहे हों, पर मेरी भी तो कुछ सोच-समझ थी । अब सोचती हूँ, मुझे उठाने-चलाने में मेरे दो अभिभावकों की भूमिकाएँ पूरी हो गयी । अभी मेरा बेटा छोटा है । वह कहता है - 'मम्मी ! उठो, खाना दो ।' डरती हूँ, बड़ा होकर वह भी न कहने लगे कि - मम्मी ! उठो, निकलो...। " [16] डॉ० मीनू के इस कथन में चिंतन तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन चिंता अवश्य दिखाई दे रही है । उन्हें इस बात की चिंता है कि उनका लड़का वृद्धावस्था में कहीं उन्हें ठोकर न मार दे । इस चिंता का कारण पितृसत्ता का भय है । ध्यातव्य है कि डाॅ० मीनू एक प्राध्यापिका और विदुषी महिला हैं । उनके पति (जीवनसाथी) भी एक प्राध्यापक और विद्वान पुरुष हैं । साथ ही, दोनों लोग कथित रूप से मातृसत्ता और पितृसत्ता के विशेषज्ञ भी हैं । तो फिर डाॅ० मीनू को अपने परिवार में मातृसत्तात्मक व्यवस्था लागू करनी चाहिए । उन्हें अपने अनुसार अपने परिवार के सभी सदस्यों को अपने नियंत्रण में रखना चाहिए । इसमें चिंता की कौन-सी बात है ? लड़का उनका है; वे जैसा चाहें, वैसा संस्कार दे सकती हैं । यदि वे पाश्चात्य-सभ्यता का अनुकरण करते हुए अपने लड़के की परवरिश करेंगी, तो परिणाम भारतीय सभ्यता जैसा कैसे मिलेगा ? संत कबीर ने कहा है - 'बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय' । यदि डाॅ० मीनू को पुरुष-जाति पर संदेह है, तो इसका कोई इलाज नहीं ।

पुष्पा विवेक ने अपने पति के जुल्म के बारे में लिखा है, " यहाँ नहीं बैठना, कमरे में ही रहना, खिड़की से पर्दा नहीं हटाना, किसी से बात नहीं करना जैसी छोटी-छोटी बातों की हिदायतों के साथ पिटाई होती रहती । महीनों तक बात नहीं करती । कहीं बाहर घूमने लेकर जाते, तो फलाँ आदमी तेरी तरफ क्यों देख रहा था ? तू क्या सबसे ज्यादा सुंदर है ? तुझसे भी ज्यादा सुंदर-सुंदर पड़ी है । तू वेश्या की तरह दिखती है और यह सब मैं बिना सफाई में कुछ कहे चुपचाप सुनती रहती, पिटती रहती । कभी कहीं से खून निकल आया, कभी हाथ टूट गया । कभी मुँह सूज जाता, तो खाना भी नहीं खा पाती  । और इसी प्रकार के इल्जाम मुझ पर लगते रहते । एक-दो बार मैंने अपने आपको खत्म करने की कोशिश की थी, लेकिन नाकाम रही । इन सबकी खबर पड़ोस तक न लगती । इसी प्रकार दिन, महीने और सालों बीत गये और मैं तीन बच्चों की माँ भी बन गयी । सात-सात बार गर्भपात करवाया, क्योंकि पति ने सपना देखा कि गर्भ में लड़की है, इसलिए इसे गिरवा दो । डाॅक्टरनी भी कहने लगी कि तुझे मरना है, जो हर दूसरे-तीसरे महीने यहाँ आ जाती है ? पेट में ट्यूमर हो गया, नहीं पता लगा और वह पेट में ही फट गया और ऑपरेशन करवाना पड़ा, तभी इस पर रोक लगी । " [17] इस संदर्भ में इतना ही कहना पर्याप्त है कि प्रत्येक पुरुष का स्वभाव एक जैसा नहीं है और न ही एक जैसा हो सकता है । कुछ पुरुषों के दुर्व्यवहार के आधार पर समस्त पुरुषों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है । प्रत्येक परिवार में प्रत्येक स्त्री के साथ इस प्रकार का अत्याचार भी नहीं किया जाता है । पुष्पा विवेक जी के साथ उनके पति ने जो बर्ताव किया, वह निंदनीय है । लेकिन साथ ही, इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि उस समय उनके पति की मानसिक स्थिति क्या रही होगी ? स्त्रियों को अपने पति की मानसिक स्थिति को समझकर वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल व्यवहार करना चाहिए ।

डाॅ० रजनी अनुरागी ने लिखा है, " बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर लद्दाख बौद्ध विहार या अशोक मिशन बौद्ध विहार भी जाया करते थे । गौतम बुद्ध का भव्य रुप आकर्षित अवश्य करता था, किंतु प्रभावित कभी नहीं कर सका । उनके जीवन चरित्र में पढ़ा था कि वह अपनी पत्नी और पुत्र को सोता हुआ छोड़कर ज्ञान प्राप्ति के लिए निकल गये । लड़की होने के कारण स्त्री-भाव कहूँ या स्त्री-चेतना तभी जागृत हुई । पत्नी से पूछे बिना पति कैसे सांसारिक गतिविधियों को त्याग कर जा सकता है ? पुत्र को एक साल की छोटी सी अवस्था में कैसे छोड़ा जा सकता है ? अगर यशोधरा छोड़कर चली जाती, तो तो क्या उसे भी समाज में गौतम बुद्ध जैसा ही सम्मान मिलता ? ये प्रश्न और ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न मन में उमड़ आते । " [18] डॉ० अनुरागी ने गौतम बुद्ध के जीवन से जुड़ी जिस घटना का उल्लेख किया है, उसे उन्होंने ब्राह्मणवादी लेखकों द्वारा लिखी गयी पुस्तकों में पढ़ा था । यदि वे बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखी गयी पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' को पढ़ी होतीं, तो वे गौतम बुद्ध के बारे में इस प्रकार का अनाप-शनाप नहीं लिखतीं । यह एक विडंबना है कि जो लोग यह नहीं जानते कि डाॅ० आंबेडकर ने अपनी पुस्तकों में क्या लिखा है, वे भी स्वयं को गर्व से आंबेडकरवादी कहते हैं । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने 'बुद्ध और उनका धम्म' नामक पुस्तक में गौतम बुद्ध से जुड़ी इस प्रकार की घटना का उल्लेख कहींं नहीं किया है । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि सिद्धार्थ द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण करने का कारण रोहिणी नदी के जल-बँटवारे को लेकर उत्पन्न विवाद था । शाक्य संघ के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध करने का प्रस्ताव रखा था, जिसे संघ के सभी सदस्यों ने समर्थन दिया । लेकिन संघ के सदस्य के रूप में वहाँ उपस्थित सिद्धार्थ ने उस प्रस्ताव का विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें दंडित करने की घोषणा की गयी । सिद्धार्थ को तीन बातों में से एक का चुनाव करना था - (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, (2) फाँसी पर लटकना या देशनिकाला स्वीकार करना, (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार के लिए राजी होना । सिद्धार्थ ने देशनिकाला स्वीकार किया था । जब सिद्धार्थ प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए घर से निकले थे, तब वे समस्त परिजनों से अनुमति लिये थे । उन्होंने यशोधरा के सामने भी अपनी विवशता प्रकट की, जिसे सुनकर यशोधरा ने कहा, " तुम्हारा निर्णय ठीक है । तुम्हें मेरी अनुमति और समर्थन प्राप्त है । मैं भी तुम्हारे साथ प्रव्रजित हो जाती । यदि मैं नहीं हो रही हूँ, तो इसका मात्र यही कारण है कि मुझे राहुल का पालन-पोषण करना है । ... अब मैं इतना ही चाहती हूँ कि अपने प्रिय संबंधियों को छोड़-छाड़कर जो तुम प्रव्रजित होने जा रहे हो, तुम किसी ऐसे नये पथ का आविष्कार कर सको, जो मानवता के लिए कल्याणकारी हो । " [19] अतः डॉ० अनुरागी द्वारा उल्लिखित इस प्रसंग से उनके अल्पज्ञान और हिंदू-मानसिकता की पहचान हो जाती है । 

डॉ० रजनी अनुरागी ने आगे लिखा है, " लड़की होने के कारण जातिवाद से पहले मैंने पितृसत्ता, पितृवाद के कुचक्रों को अपने आस-पास गहराई से महसूस किया । जातिगत भेदभाव से तो मैं प्रत्यक्षतः बाद में अवगत हुई, किंतु पितृसत्ता में पुल्लिंग की श्रेष्ठता को मैंने सर्वप्रथम घरेलू स्तर पर ही जाना । घरेलू स्तर पर पापा के द्वारा लिया गया निर्णय सर्वोपरि था । उन्होंने कभी मम्मी को या हम बच्चों से यह जानने की कोशिश नहीं की कि हम क्या सोचते हैं ? क्या चाहते हैं ? क्या बनना चाहते हैं ? पापा ने जो कोर्स हमारे लिए चुने, हमने वही पढ़े । मेरे लिए यह समझना भी मुश्किल होता था कि एक ओर जहाँ पापा ब्राह्मणवाद, मनुवाद, जातिवाद, मानसिक गुलामी आदि का विरोध करते हैं । समाज में समानता, स्वतंत्रता की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे (विशेष रूप से लड़कियों) बोलने पर हमारी इच्छाओं पर कड़ा नियंत्रण क्यों लगाते हैं ? यह विरोधाभास मुझे अंदर तक कचोटता और मैं गहरी सोच में पड़ जाती और पापा के प्रति एक दूरी का भाव मुझमें उत्पन्न हो जाता । " [20] डॉ० अनुरागी ने लड़की होने पर जिस समस्या का अनुभव किया है, वैसी समस्याओं का अनुभव लड़के भी करते हैं, ऐसा नहीं है कि लड़के मनमाने होते हैं । हर माता-पिता का कुछ न कुछ सपना होता है । कोई चाहता है कि उनका लड़का अथवा लड़की पढ़-लिखकर - डॉक्टर बने, कोई चाहता है - इंजीनियर बने, कोई चाहता है - प्रोफेसर बने, कोई चाहता है - आईएएस अधिकारी बने । माता-पिता को खुश करने के लिए उनकी इच्छाओं को पूरा करना और उनकी पसंद-नापसंद का ख्याल रखना कोई गुनाह नहीं है । यह अलग बात है कि लड़के-लड़कियों की भी कुछ इच्छाएँ होती हैं, जिन पर माता-पिता को नियंत्रण नहीं करना चाहिए । लेकिन इस बात का दावा नहीं किया जा सकता है कि ऐसा हर परिवार में होता है । ऐसे बहुत से परिवार हैं, जिनमें लड़के-लड़कियों को समान स्वतंत्रता और समान अवसर प्रदान किये जाते हैं । यदि ऐसा नहीं होता, तो आज जगह-जगह महिलाएँ नौकरी करती हुई दिखाई नहीं देतीं । लड़कियों के हँसने-बोलने पर पाबंदी वाली बात तो बिल्कुल निरर्थक है । क्योंकि पाबंदी तो लड़कों के हँसने-बोलने पर भी लगायी जाती है । इसके हजारों प्रमाण गिनाये जा सकते हैं । हँसने-बोलने का संबंध अनुशासन और मर्यादा से भी होता है । कोई भी व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष, हर समय और हर जगह जोर-जोर से हँस या बोल नहीं सकता है । जिसे अनुशासन और मर्यादा का पालन करना पसंद नहीं है, उसके लिए क्या परिवार ? क्या समाज ? और क्या मानवता ? सब के सब व्यर्थ हैं ।

'आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन : सामाजिक शोषण के खिलाफ आत्मवृत्तात्मक संघर्ष' नामक पुस्तक के अतिरिक्त कुछ पत्रिकाओं और संपादित पुस्तकों में भी लेखिकाओं ने नारी-विमर्श संबंधी अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । डॉ० सुशीला टाॅकभौरे ने लिखा है, " जो पुरुष दलित शोषण के विरुद्ध अपनी मुक्ति की आवाज उठाते हैं, वे पुरुष भी अपने घर-परिवार और जाति-समाज में अपनी महिलाओं को शोषण का शिकार बनाकर रखते हैं । जब बहन-बेटी और माँ के रूप में भी स्त्रियों पर बंधन लगाए जाते हैं, तब पत्नी के रूप में उनके अधिकारों की बात निराधार लगती है । सवर्ण पुरुष वर्ग की तरह दलित पुरुष वर्ग भी स्त्री को दोयम स्थान पर रखते हैं और उसके समक्ष स्वयं को प्रथम या श्रेष्ठ मानते हैं । दलित पुरुषों द्वारा लिखे साहित्य में नारी का चित्रण इसी आशा और निराशा के रूप में नारी के मानसिक शोषण की अपेक्षा सवर्ण द्वारा उनके शारीरिक शोषण का चित्रण अधिक किया गया है । अधिकतर दलित महिलाएँ सवर्ण अत्याचारों का मुकाबला डटकर तय करती हैं, मगर वे भी अपने वर्ग के पुरुषों द्वारा शोषित-पीड़ित रहने के लिए मजबूर रहती हैं । " [21] डॉ० सुशीला टाॅकभौरे वंचित वर्ग के लेखकों के बारे में इस प्रकार का दावा कैसे कर सकती हैं कि इस वर्ग के लेखक अपने परिवार की स्त्रियों का मानसिक-शोषण करते हैं ? क्या वे वंचित वर्ग के सभी लेखकों के घर जाकर उनके पारिवारिक जीवन पर शोध की हैं ? डॉ० टाॅकभौरे के कथन से तो यही प्रतीत होता है कि उन्हें वंचित समाज के परिवारिक यथार्थ से अनभिज्ञ हैं । जिस वर्ग के पुरुष स्वयं उपेक्षित और प्रताड़ित किये जाते रहे, यदि वे अवसर पाकर अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में थोड़ा-सा सुधार कर लिये, तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि वे हर प्रकार से समर्थ हो गये । वास्तव में, डॉ० टाॅकभौरे के इस कथन में उनकी महत्वाकांक्षा का भाव समाविष्ट है । डॉ० सुशीला टाॅकभौरे ने आगे लिखा है, " खुद को दलित लेखक कहने वाले दलित पुरुषों की स्त्रियाँ कितनी साहित्यिक, सामाजिक अथवा दूसरे सार्वजनिक कामों में हिस्सा ले रही हैं, क्या लेखक उन्हें मौका देते हैं ? " [22] डॉ० टाॅकभौरे को शायद यह नहीं पता कि हर मनुष्य की रूचि एक जैसी नहीं होती है । हर स्त्री अथवा पुरुष सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेना पसंद नहीं करता है । ऐसे सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ता पुरूष हैं, जो अपनी स्त्रियों को सभाओं और सम्मेलनों में जाने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन वे नहीं जाती है । ऐसी स्थिति में भला पुरुषों का क्या दोष ? डॉ० टाॅकभौरे यह सोचती है कि उन्हें खाने के लिए रोज मक्खन मिलता है, तो सभी लोग मक्खन खाते होंगे । जबकि वंचित वर्ग की हर महिला डॉ० सुशीला टाॅकभौरे की तरह स्वच्छंद विचरण करने वाली नहीं है । दूसरी बात यह है कि हर लेखक की अपनी-अपनी पारिवारिक समस्याएँ है । यदि किसी लेखक के घर में दो ही प्राणी (पति-पत्नी) हों और दोनों सामाजिक कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज करने पहुँच जाएँ, तो उनके घर चोरी हो जाने पर क्या डॉ० टाॅकभौरे भरपाई करेंगी ? नहीं, बिल्कुल नहीं । इसलिए बुजुर्गों ने कहा है कि मनुष्य को कोई बात सोच-समझकर कहनी चाहिए ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन के नाम पर लेखिकाओं ने बिना सिर-पैर का विमर्श किया है । इस प्रकार के चिंतन का न तो आंबेडकरवाद से कोई संबंध है और न ही समाज-हित में इसकी कोई उपयोगिता है । क्योंकि दस-पंद्रह महिलाओं की घरेलू समस्याओं के आधार पर संपूर्ण समाज का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है । स्वयं को नारीवादी कहने वाली लगभग सभी लेखिकाओं ने नारी-विमर्श और नारी-आंदोलन को अपनी व्यक्तिगत परेशानियों और स्वछंदता के आधार पर समझने और समझाने का प्रयास किया है । स्त्री-लेखन के उद्देश्य का स्पष्टीकरण करते हुए प्रोफेसर चमनलाल ने लिखा है, " सच्चे नारीवादी लेखन का उद्देश्य एक ऐसे जनतांत्रिक समाज के निर्माण की प्रेरणा प्रदान करना है, जिस समाज में जाति, लिंग, रंग, वर्ग या आयु के आधार पर मनुष्यों के बीच भेदभाव या ऊँच-नीच का विचार न हो । " [23] प्रोफेसर चमनलाल का कथन विचारणीय है, लेकिन उन्होंने 'नारीवाद-लेखन' शब्द का प्रयोग किया है, जो उचित नहीं है । " यदि पुरुषवाद बुरा है, तो नारीवाद कैसे अच्छा हो सकता है ? आंबेडकरवादी विचारधारा स्त्री-पुरुष समानता के आधार पर स्त्री-स्वतंत्रता की पक्षधर है, जिसके अंतर्गत 'नारीवाद' शब्द के बजाय 'नारी-विमर्श' शब्द का प्रयोग किया जाता है । " [24]

2. आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन का सम्यक स्वरूप 

आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन की दृष्टि को आलंब प्रदान करने वाले चार स्तंभ हैं - समता, स्वतंत्रता, न्याय और प्रेम । इन्हीं आधार स्तम्भों के माध्यम से आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन की दिशा और दशा चिन्हित की जाती है ।

1. 'समता' के अंतर्गत स्त्री-पुरुष समानता की बात की जाती है । कोई पुरुष अपनी पत्नी को अपने से निम्न न समझे तथा अपने परिवार में स्त्रियों-लड़कियों को पुरुषों- लड़कों की अपेक्षा कमतर आंकते हुए उनके साथ विषमता का व्यवहार न करे; इस प्रकार का चिंतन समता के सिद्धांत पर आधारित स्त्री-चिंतन कहा जाता है । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रकार के चिंतन में 'स्त्री-सत्ता' अथवा 'मातृ-सत्ता' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है, क्योंकि इस प्रकार के शब्द का प्रयोग करने का तात्पर्य है 'स्त्री को पुरुष से उच्च स्थान प्रदान करना', जिससे स्त्री-पुरुष विषमता का बोध होता है ।

2. 'स्वतंत्रता' के अंतर्गत स्त्रियों को पुरुषों के समान स्वतंत्रता प्रदान करने की बात की जाती है । स्त्रियाँ अपनी इच्छानुसार खाने, पहनने, बोलने, घूमने, पढ़ने और अपने जीवनसाथी का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हों; इस प्रकार का चिंतन स्वतंत्रता के सिद्धांत पर आधारित स्त्री-चिंतन कहा जाता है । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि स्त्रियों को उतनी ही स्वतंत्रता दी जाए, जिससे पुरुषों की स्वतंत्रता बाधित न हो । अन्यथा इस प्रकार की स्वतंत्रता को 'स्वच्छंदता' का नाम दिया जाता है । स्वच्छंदता का व्यवहार किसी के लिए भी उचित नहीं है - चाहे वह स्त्री हो, चाहे पुरुष । क्योंकि स्त्री-पुरुष की स्वच्छंदता पारिवारिक विघटन को जन्म देती है, पति-पत्नी के बीच मनमुटाव होता है, तनाव होता है, झगड़ा-लड़ाई और मारपीट की स्थिति बन जाती है । 

3. 'न्याय' के अंतर्गत स्त्रियों को शोषण से मुक्ति प्रदान करके उनके साथ न्याय करने की बात की जाती है । स्त्रियों का घर में चाहे बाहर कहीं भी शोषण न हो, उनके साथ छेड़खानी न हो, बलात्कार न हो तथा ऐसा कुछ भी होने पर उनके साथ अत्याचार करने वाले को कड़ी सजा मिले, जिससे पीड़ित स्त्रियों के साथ न्याय हो सके । इस प्रकार का चिंतन न्याय के सिद्धांत पर आधारित स्त्री-चिंतन कहा जाता है । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि स्त्रियों के साथ न्याय करते समय उनके द्वारा दिये गये बयान पर गंभीरता से विचार करते हुए सभी पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक होता है । अन्यथा स्त्रियों के साथ न्याय करने के चक्कर में प्रायः पुरुषों के साथ अन्याय हो जाता है ।

4. 'प्रेम' के अंतर्गत स्त्रियों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करने की बात की जाती है । स्त्रियों के प्रति घृणा अथवा द्वेष की भावना न रखी जाए, उन्हें उचित सम्मान देते हुए उनसे विनम्रतापूर्वक वार्तालाप किया जाए, उन्हें केवल भोग की वस्तु न समझा जाए और न ही उन्हें केवल एक देह के रूप में देखा जाए, बल्कि उनकी भावनाओं को भी समझा जाए । इस प्रकार का चिंतन प्रेम के सिद्धांत पर आधारित स्त्री-चिंतन कहा जाता है । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि स्त्रियों को उतना ही प्रेम दिया जाए कि वे पुरुषों के सिर पर चढ़कर नृत्य न करें, उनकी भावनाओं को ठेस न पहुँचाएँ, उनका अपमान न करें और न ही उनके हृदय को जलाएँ । अन्यथा यह पुरुषों के प्रेम और विश्वास के साथ खिलवाड़ कहा जाएगा । 

स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन का जो सम्यक स्वरूप है, उसके अंतर्गत स्त्री-पुरुष समानता का पूरा ध्यान रखा जाता है । इस प्रकार के चिंतन से समाज और राष्ट्र का ही नहीं, बल्कि मानवता का भी हित होता है । महामना ज्योतिराव फुले से लेकर बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर तक सम्यक नारी-विमर्श किया है । " नारी-विमर्श के संपूर्ण इतिहास का अध्ययन करने से जो निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, उसके आधार पर नारी-विमर्श को तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है - (i) नारी-मुक्ति (ii) नारी-जागृति और (iii) नारी-प्रगति । " [25] इन्हीं को आधार बनाकर नारी-विमर्श करना उचित है । इनसे इतर नारी विषयक विमर्श औचित्यहीन है । आंबेडकरवादी साहित्यकार और क्रांतिकारी मिशनरी बुद्ध शरण 'हंस' जी ने लिखा है, " जैसे शरीर में दायाँ हाथ, बायाँ हाथ, दायाँ पैर, बायाँ पैर, बायीं आँख, दायीं आँख है, उसी तरह परिवार में लड़के-लड़की, स्त्री-पुरुष हैं । किसका आंदोलन ? किस बात का आंदोलन ? स्त्री का आंदोलन ? स्त्री का पुरुष के विरुद्ध आंदोलन ? ऐसे प्रश्न मेरे लिए बकवास से अधिक कुछ भी नहीं हैं । स्त्री का पुरुष के विरुद्ध आंदोलन बाएँ हाथ का दाहिने हाथ के विरुद्ध आंदोलन से ज्यादा कुछ भी नहीं है । " [26] 



आंबेडकरवादी कहानियों में स्त्री-चिंतन

ओमप्रकाश वाल्मीकि का कहानी-संग्रह 'सलाम' सन् 2000 में प्रकाशित हुआ था । इस संग्रह में संग्रहीत स्त्री-विषयक कहानियों की समालोचना करते हुए डॉ० एन० सिंह जी ने लिखा है, " यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि जो महिलाएँ पाखाना साफ करती हैं, वे भंगी औरतें हैं, वे सबकी सब सच्चरित्र और दबंग हैं तथा जो भट्टे पर काम करती हैं, वे चमार औरते हैं, जो रखैल हैं, चरित्रहीन हैं । प्रकारांतर से वाल्मीकि जी यहाँ भी यह कहना चाहते हैं कि चमारों की संपन्नता उनकी उस दुश्चरित्रता की वजह से ही है । क्या यह दृष्टिकोण पूर्वाग्रह से युक्त और जातीयता से परिपूर्ण नहीं है ? जो जातीय विद्वेष पैदा करता है । हमारा विचार है कि भंगी औरतें, जो घरों में पाखाना साफ करती हैं, घरों में उनका उत्पीड़न हो जाता है । चमार महिलाएँ, जो खेत मजदूर हैं या भट्टों पर काम करती हैं, वहाँ पर उनका उत्पीड़न होता रहा है । सच्चरित्र और दुश्चरित्र महिलाएँ भंगियों में भी हैं और चमारों में भी हैं, लेकिन भंगियों में सब औरतें चरित्रवान और दबंग ही हैं और चमारों में सब रखैलें ही हैं, यह सच नहीं है । लेखक को इस तरह के आग्रह से मुक्त होकर व्यष्टि सच की अपेक्षा समष्टि सच को अभिव्यक्ति देने का प्रयास करना चाहिए । " [27] लेकिन इसके ठीक विपरीत डॉ० रजत रानी मीनू ने लिखा है, " अम्मा के रूप में संपूर्ण दलित स्त्री का सच्चरित्र प्रदर्शित हुआ है । अम्मा अपने समाज की प्रतिनिधि पात्र है । " [28] उक्त दोनों समालोचकों के कथनों में परस्पर विरोध है । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि किसका कथन सत्य है और किसका असत्य ? इसका निर्णय करने के लिए 'अम्मा' कहानी की सूक्ष्म जाँच आवश्यक है । 'अम्मा' कहानी में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने आरंभ में ही लिखा है, " यह कहानी अम्मा की है - आप कह सकते हैं, लेकिन किसी एक अम्मा की नहीं, न जाने कितनी अम्मा सुबह-सवेरे हाथ में झाड़ू-कनस्तर थामे हुए गली-मुहल्लों में मिल जाएँगी । " [29] वाल्मीकि जी के इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि 'अम्मा' कहानी की नायिका अम्मा संपूर्ण वंचित-स्त्री का प्रतिनिधित्व नहीं करती है, बल्कि केवल मेहतर समुदाय का ही प्रतिनिधित्व करती है । क्योंकि वंचित वर्ग की हर स्त्री सुबह-सवेरे हाथ में झाड़ू-कनस्तर थामे गली-मुहल्लों में नहीं दिखाई देती । डॉ० मीनू को 'समाज' की बजाय 'समुदाय' शब्द का प्रयोग करना चाहिए था । यदि उन्हें समाज और समुदाय में अंतर नहीं पता है, तो यह बात अलग है । इस कहानी में अम्मा का जिस तरह से चरित्र-चित्रण किया गया है, इसमें कोई संदेह नहीं कि अम्मा एक सच्चरित्र महिला थी । लेकिन यह कहना कि मेहतर-समुदाय की प्रत्येक महिला सच्चरित्र है, यह तो बिल्कुल असत्य है । क्योंकि यह बात किसी भी समुदाय, किसी भी समाज, किसी भी वर्ग पर पूर्णतः लागू नहीं हो सकती है । डॉ० मीनू के कथन में बौद्धिकता कम और भावुकता अधिक है । इस संदर्भ में डॉ० एन० सिंह का कथन बिल्कुल सत्य है । क्योंकि 'सलाम' कहानी-संग्रह की सभी स्त्री-विषयक कहानियों का सूक्ष्म अध्ययन करने पर ज्ञात हो जाता है कि वाल्मीकि जी ने बड़ी चतुराई के साथ अपने समुदाय की महिलाओं को सच्चरित्र दिखाया है, जबकि चमार-समुदाय की महिलाओं को उन्होंने दुष्चरित्र दिखाया है ।

डॉ० एन० सिंह जी के कथन की सत्यता का स्पष्टीकरण करने के लिए 'अम्मा' कहानी की नायिका अम्मा और 'खानाबदोश' कहानी की उप-नायिका किसनी का ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा किये गये चरित्र-चित्रण पर ध्यान देना आवश्यक है । 'अम्मा' कहानी की नायिका अम्मा मिसेज चोपड़ा के घर काम करती थी । मिसेज चोपड़ा का एक विनोद नामक व्यक्ति के साथ अवैध-संबंध था । अम्मा ने एक दिन उन्हें शारीरिक-संबंध बनाते हुए देख लिया था । इसलिए मिसेज चोपड़ा ने अम्मा की तनख्वाह दोगुनी कर दी थी यानी कि उसे अन्य घरों से पाँच रुपये मिलता था, जबकि मिसेज चोपड़ा के घर से दस रुपये । एक दिन शौचालय धोते समय अम्मा के साथ एक घटना घटी, जो अम्मा के चरित्र को रेखांकित करती है । हुआ यूँ था कि अम्मा ने टट्टी धोने के लिए मिसेज चोपड़ा से बाल्टी का पानी माँगा । मिसेज चोपड़ा बाथरूम में नहा रही थी, इसलिए उसने विनोद से पानी-भरी बाल्टी अम्मा को देने के लिए कहा । विनोद उठा और पानी की बाल्टी अम्मा के सामने ले जाकर रख दिया । अम्मा ने पानी डालने के लिए हाथ से इशारा किया । उसके बाद क्या हुआ ? वाल्मीकि जी के शब्दों में, " विनोद ने टट्टी में पानी डालने की बजाय अम्मा की कमर में हाथ डालकर झटके से उसे अपनी ओर खींचा । अम्मा इस हरकत से हड़बड़ा गयी । चीखकर बोली - क्या करते हो यह ? छोड़ो । छूटने के लिए कसमसाने लगी । विनोद ने दबाव बढ़ा दिया । कसकर अपने सीने से भींच लिया । अम्मा को लगा, जैसे किसी आदमखोर ने उसे दबोच लिया है । वह बंधन ढीला करने के लिए जोर लगा रही थी । जैसे ही, पकड़ कुछ कम हुई, झटका देकर उसने खुद को मुक्त कर लिया । हाथ में थमी झाड़ू की मूठ पर हथेली कस गयी । पूरी ताकत से झाड़ू का वार सीधा उसकी कनपटी पर दिया । चोट लगते ही वह लड़खड़ा गया और बेडरूम की तरफ भागा । अम्मा लगातार उसे पीटते हुए बेडरूम में घुस गयी । वह नीचे फर्श पर गिर पड़ा था । अम्मा की झाड़ू सड़ाक-सड़ाक उस पर पड़ रही थी । मुँह से गालियाँ फूट रही थीं । चीख-पुकार सुनकर मिसेज चोपड़ा अर्धनग्न कपड़ों में बाथरूम से बाहर आ गयी । बेडरूम का दृश्य देखकर भौचक रह गयी; विनोद को बचाने के लिए दौड़ी । 'रुको, यह क्या कर रही हो ? रुको, मत मारो उसे । मिसेज चोपड़ा ने उसके हाथ से झाड़ू छीनने की कोशिश की । अम्मा ने उसे भी धक्का देकर पीछे धकेल दिया । दो तीन वार और किये। रुककर बोली - भैण जी, इस हरामी के पिल्ले से कह देणा, हर एक औरत छिनाल ना होवे है । " [30] ध्यातव्य है कि वाल्मीकि जी ने मेहतर-समुदाय की 'अम्मा' को सच्चरित्र रूप में प्रस्तुत किया है । जबकि चमार-समुदाय की 'किसनी' को उन्होंने दुश्चरित्र रूप में प्रस्तुत किया है । किसनी अपने पति महेश के साथ जिस भट्टे पर काम करती थी, उसके मालिक का बेटा सूबेसिंह था । वाल्मीकि जी के शब्दों में, " एक रोज सूबेसिंह की नजर किसनी पर पड़ गयी । तीन महीने पहले ही किसनी और महेश भट्टे पर आये थे । पाँच-छः महीने पहले ही दोनों की शादी हुई थी । सूबेसिंह ने उसे दफ्तर की सेवा-टहल का काम दे दिया था । शुरू-शुरू में किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था । लेकिन जब रोज ही गारे-मिट्टी का काम छोड़कर वह दफ्तर में ही रहने लगी, तो मजदूरों में फुसफुसाहटें शुरू हो गयी थीं । तीसरे दिन सुबह जब मजदूर काम करने के लिए झोपड़ियों से बाहर निकल रहे थे, किसनी हैंडपंप के नीचे खुले में बैठकर साबुन से रगड़-रगड़कर नहा रही थी । भट्टे पर साबुन किसी के पास नहीं था । साबुन और उससे उठते झाग पर सबकी नजर पड़ गयी थी । लेकिन बोला कोई कुछ भी नहीं था । सभी की आँखों में शंकाओं के गहरे काले बादल घिर आये थे । कानाफूसी हल्के-हल्के शुरू हो गयी थी । महेश गुमसुम-सा अलग-अलग रहने लगा था । साँवले रंग की भरे-पूरे जिस्म की किसनी का व्यवहार महेश के लिए दुखदायी हो रहा था । वह दिन-भर दफ्तर में घुसी रहती थी । उसकी खिलखिलाहटें दफ्तर से बाहर तक सुनाई पड़ने लगी थीं । महेश ने उसे समझाने की कोशिश की थी । लेकिन वह जिस राह पर चल पड़ी थी, वहाँ से लौटना मुश्किल था । " [31] वाल्मीकि जी ने आगे लिखा है, " सूबेसिंह किसनी को शहर भी लेकर जाने लगा था । किसनी के रंग-ढंग में बदलाव आ गया था । अब वह भट्टे पर गारे-मिट्टी का काम नहीं करती थी । महेश रोज रात में शराब पीकर मन की भँड़ास निकालता था । दिन में भी अपनी झोपड़ी में पड़ा रहता था या इधर-उधर बैठा रहता था । किसनी कई-कई दिन तक शहर से लौटती नहीं थी । जब लौटती, थकी, निढाल और मुरझाई हुई । कपड़ों-लत्तों की अब उसके पास कमी नहीं थी । " [32] स्पष्ट है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि में जातीय चेतना अत्यंत प्रबल थी तथा मानसिकता कलुषित थी । चमार-समुदाय के प्रति अपनी दुर्भावना को उन्होंने कहानी के माध्यम से व्यक्त कर दिया है ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी 'घाटे का सौदा' और 'अंधड़' की नायिकाओं के बारे में डॉ० रजत रानी मीनू ने लिखा है, " 'घाटे का सौदा' और 'अंधड़' कहानियों में नारी पराधीन हैं । वे अमीर पतियों की पत्नियाँ भर हैं । उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है । घर में जो कुछ भी हो रहा है, वह पति की इच्छा से ही है । आनंदी अपने पति डी० लाल द्वारा जाति छुपाकर रहने पर आपत्ति तो करती है, लेकिन वह पति की इच्छा के विरुद्ध कुछ करने में असमर्थ है । " [33] इस कथन में 'पतियों की पत्नियाँ भर' का क्या तात्पर्य है ? क्या एक स्त्री को अपने पति की पत्नी भर न रहकर उसकी बहन-माँ, बुआ-मौसी, दादी-नानी सब बन जाना चाहिए ? यह 'स्वतंत्र अस्तित्व' क्या होता है ? ऐसे प्रश्न उठाने से पहले डॉ० मीनू को 'बंधन' का तात्पर्य समझ लेना चाहिए । 'बंधन' बँधने का ही नाम है । जब विचार से विचार न बँधे, पसंद से पसंद न बँधे, इच्छा से इच्छा न बँधे, तो फिर बंधन किस काम का ? यदि पति-पत्नी एक-दूसरे की भावनाओं को न समझें, तो केवल नाम के बंधन का क्या औचित्य है ? क्या डॉ० मीनू यही चाहती हैं कि यदि मि० लाल शहर में अपनी जाति छुपाकर रहते थे, तो उनकी पत्नी सविता ढिंढोरा पिटती हुई चिल्ला-चिल्लाकर मुहल्ले के लोगों से कहती कि 'सुनो-सुनो मैं नीच जाति की हूँ ?', तो उसका स्वतंत्र अस्तित्व होता ? मि० लाल खटिक-समुदाय से थे । उन्होंने जातिभेद का दंश झेला था । उनके बचपन के कार्यकलाप के बारे में वाल्मीकि जी ने लिखा है, " सुबह होते ही सुअर को पकड़कर बूचड़खाना के अंदर ले जाते थे । मारना, दूणना और फिर साफ-सफाई करके उसे धोना । काट-कूट करके छोटे-छोटे टुकड़ों में काटना काफी थका देने वाला काम था । उन्हें भी भाइयों के साथ लगना पड़ता था । उनके कपड़ों से लेकर हाथ-पाँव चेहरे तक पर गोश्त के छोटे-छोटे टुकड़े, खून के धब्बे लग जाते थे । फुर्सत मिलते ही वह खूब रगड़-रगड़कर नहाते थे । फिर भी उनके जिस्म से सुअर के गोश्त की गंध जाती नहीं थी । यह गंध उनकी पहचान बन गयी थी । कक्षा में कोई उनके पास बैठना पसंद नहीं करता था । अक्सर वह अलग-थलग ही रहते थे । कक्षा में प्रथम आने के बावजूद वह हीनता-बोध से मुक्त नहीं थे । कई बार तो सहपाठी उन्हें 'खटिक' कहकर चढ़ाते थे । " [34] यह कहानी सन् 2000 ई० से पहले लिखी गयी थी । उस समय खटिक-समुदाय की लड़कियाँ सुअर को मारने-दूणने का काम नहीं करती थीं और न ही आज करती हैं; सुअर चराने की बात अलग है । यह तो वही बात हुई कि 'जाके पैर न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई ?' डॉ० मीनू एक महिला हैं, वे भला पुरुषों की पीड़ा क्या जानें ?

'प्रमोशन' कहानी के संदर्भ में डाॅ० रजत रानी मीनू की टिप्पणी है, " कहानी के दोनों पात्र शांति और सुरेश अशिक्षित हैं । आशय यह कि मानसिक स्तर दोनों का लगभग एक समान है, परंतु व्यवहार में पुरुष पुरुष है, स्त्री स्त्री है । पत्नी पर पति का आधिपत्य सामंती विचारों से भरा है, अर्थात् शांति के रूप में दलित नारी का स्थान उसके परिवार और समाज में द्वितीय दर्जे का है । उसे बराबरी के रूप में नहीं आँका जाता है । " [35] डॉ० मीनू के इस कथन में कितनी सत्यता है ? यह जानने के लिए इस कहानी के उन संवादों पर ध्यान देना आवश्यक है, जिनमें शांति और सुरेश की भावनाएँ अभिव्यक्त हुई हैं । 'प्रमोशन' कहानी का नायक सुरेश जब अपना प्रमोशन होने पर अपनी पत्नी शांति और बच्चों को मिठाई खिलाते हुए अपने प्रमोशन की खुशी व्यक्त कर रहा, तो उस समय शांति की मानसिक स्थिति क्या थी ? ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में, " शांति के मन में काफी देर तक एक सवाल खदबदा रहा था, जिसे वह चाहकर भी टाल नहीं पा रही थी । उसे डर था, कहीं उसका सवाल खुशी में कहीं खलल न डाल दे । फिर भी उसने हिम्मत करके पूछ ही लिया - 'अजी, इब तनख्वाह कितनी बढ़ जावेगी ?' वह (सुरेश) अभी तक हवा में तैर रहा था । अचानक जैसे जमीन पर आ गिरा, फटी-फटी आँखों से शांति को देखने लगा । 'तू हमेशा पैसों के ही बारे में सोचेगी । मान-अपमान भी तो कुछ होता है । अरी पगली, अब हम भंगी नहीं रहे, मजदूर हो गये हैं । " [36] स्पष्ट है कि यहाँ शांति अपने पति के सामने अपने मन की बात रखने के लिए स्वतंत्र थी । वह समझती थी कि सुरेश का प्रमोशन हो गया है, तो उसकी तनख्वाह भी बढ़ गयी है । जबकि सुरेश का प्रमोशन केवल इस अर्थ में हुआ था कि उसे जाति की श्रेणी से ऊपर वर्ग की श्रेणी प्राप्त हुई थी । वह मार्क्सवादियों के एक यूनियन का मेंबर बन गया था । इस कहानी में कहानीकार का मुख्य उद्देश्य भारतीय मार्क्सवादियों के ढोंग का पर्दाफाश करना लक्षित होता है, न कि नारी-विमर्श करना । लेकिन डॉ० मीनू हर कहानी के नारी पात्र को जरिया बनाकर नारी-विमर्श करने के लिए लालायित जान पड़ती हैं । उन्हें इस कहानी में शांति के रूप में वंचित-वर्ग की नारी का स्थान उसके परिवार और समाज में द्वितीय दर्जे का प्रतीत होता है, जबकि यह मिथ्या है । शांति को अपने परिवार में अपने पति के सामने अपनी बात रखने का समान अधिकार प्राप्त है । उसकी वाक्-स्वतंत्रता का एक और उदाहरण प्रस्तुत है । जब सुरेश ने शांति को यूनियन द्वारा किये गये धरना के बारे में बताया, तो शांति ने पूछा, " अजी, कल आपके साथ कुछ ऐसा-वैसा हो जावे, तो ये लोग तब भी धरने पर बैठेंगे ? आपका साथ देंगे ?' हाँ, देंगे । मैं भी तो यूनियन का मेंबर हूँ । मैंने अकेले पंडाल लगाया । फिर खोलकर पूरा सामान वापस पहुँचाया । उनके साथ नारे लगाये, क्यों नहीं देंगे साथ ? उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा । 'नहीं, मैं तो कहती हूँ कि तुम तो स्वीपर...।' शांति की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि वह उखड़ गया - स्वीपर था, अब नहीं हूँ । अब मैं मजदूर हूँ...कामगार । मजदूर-मजदूर भाई-भाई... इंकलाब जिंदाबाद...। उसका स्वर तेज होने लगा था । शांति चुपचाप उठी और बर्तन माँजने लगी । " [37] यदि इस संवाद के आधार पर डॉ० मीनू ने यह निष्कर्ष निकाला हो कि सुरेश अपनी पत्नी शांति की बात को नहीं मानता था और इसलिए शांति का स्थान अपने परिवार में दोयम दर्जे का था, तो यह उनका भ्रम है । क्योंकि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष, किसी की बात को तभी मानता है, जब सामने वाला अपनी बात आत्मविश्वास के साथ प्रामाणिक ढंग से रखता है । जबकि इस संवाद से स्पष्ट है कि शांति ने केवल अपने मन की शंका व्यक्त की थी । उसके पास अपनी बात का कोई प्रमाण नहीं था और न ही उसे फैक्ट्री-यूनियन का कोई अनुभव था । इसके विपरीत सुरेश को अपनी बात पर विश्वास था, क्योंकि उसने उस यूनियन से जुड़े हुये कई लोगों को बड़ा पद और बड़ा नाम प्राप्त कर करते हुए सुना और देखा था । यह बात अलग है कि छद्म मार्क्सवादियों द्वारा उसके साथ जातिगत भेदभाव किया गया और अंत में उसका विश्वास टूट हो गया ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ 'ग्रहण' और 'बिरम की बहू' दोनों एक ही कहानी के दो भाग हैं । 'ग्रहण' कहानी में बिरम की पत्नी (बहू) को बच्चा नहीं हो रहा था, इसलिए उसके ससुराल वालों द्वारा उसे अपमानित किया जाता था । उसका पति बिरम भी उससे नफरत करता था । बहू ने चंद्रग्रहण की रात में भंगी-बस्ती के लोगों को अनाज बाँटते समय अवसर पाकर मेहतर रमेसर के साथ शारीरिक संबंध बनाया । 'बिरम की बहू' कहानी में रमेसर के साथ शारीरिक संबंध बनाने के बाद बहू गर्भवती हो गयी । जब रमेसर को यह बात पता चली, तो वह समझ गया कि बहू के गर्भ में उसका ही बच्चा है । इसलिए उसका प्रेम बहू के प्रति और बढ़ गया । लेकिन बहू ने चंद्रग्रहण की रात के बाद फिर कभी रमेसर की ओर पलटकर नहीं देखा । बहू की स्थिति पर तथाकथित नारीवादी दृष्टिकोण से विचार करते हुए डॉ० रजत रानी 'मीनू' जी ने लिखा है, " सामान्यतया सवर्ण स्त्रियों के दिलों में उनके पुरुषों की भाँति अस्पृश्यता की भावना गहरे तक बैठी होती है । उनकी दृष्टि में अस्पृश्य नीच होते हैं, उनका स्पर्श नहीं किया जा सकता । जबकि यहाँ विरम की बहू में अस्पृश्यता का भाव और लोक लज्जा का भय कहीं दिखाई नहीं देता । उक्त कहानी से यह सिद्ध होता है कि द्विज स्त्रियों के लिए सामाजिक व्यवस्था इतनी ज्यादा जटिल है कि उसे एक बच्चे की चाह की पूर्ति के लिए पराए मर्द के साथ शारीरिक संबंध भी बनाने पड़ते हैं । यहाँ ध्यान देने की बात है कि बहू रमेसर की तरफ पुनः मुड़कर नहीं देखती । यह उसकी रमेसर के प्रति गद्दारी या पति बिरम के प्रति वफादारी कहें ? परंतु रमेसर के मन में उस घटना के बाद बहू के प्रति एक सहज-स्वाभाविक आकर्षण अवश्य है, जो वफादारी का संकेत है, परंतु उसे निराशा ही हाथ लगती है । बहू उसके बाद भी सहज है । कहीं उसके मन में ग्लानि या पश्चाताप नहीं है । रमेसर जो बच्चे का असली पिता है, उसे ऐसे भूल जाती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो । यहाँ बहू का स्वार्थी चरित्र चित्रित होता है । " [38] भारतीय समाज का यह कटु यथार्थ है कि तथाकथित सवर्ण स्त्रियों के मन में उनके पुरुषों की भाँति ही अस्पृश्यता की भावना होती है । डॉ० मीनू जी इस तथ्य को स्वीकार की हैं । फिर भी उन्हें बहू में अस्पृश्यता का भाव और लोक-लज्जा का भय नहीं दिखाई दिया है, तो निसंदेह उन्हें दृष्टिदोष है । एक कहावत है - भूख न जाने जूठा भात, प्यार न जाने जात-कुजात । बहू को रमेसर से न तो प्रेम था, न ही हवस की भूख । उसे केवल जरूरत थी । उसने अपनी जरूरत पूरी करने के लिए रमेसर का इस्तेमाल किया था । ऐसी स्थिति में कोई भी एक दिन के लिए अस्पृश्यता का भाव अपने मन से निकाल सकता है । यही कारण है कि तथाकथित सवर्ण पुरुष भले ही वंचित वर्ग के पुरुषों के साथ सदियों से छुआछूत का बर्ताव करते आ रहे हैं, लेकिन उन्होंने वंचित वर्ग की स्त्रियों के साथ शारीरिक संबंध बनाने से कभी परहेज नहीं किया । बहू के मन में लोक-लज्जा का भय था । इसीलिए उसने अपनी जरूरत पूरी होने के बाद फिर कभी रमेसर की ओर मुड़कर नहीं देखा । विडंबना यह है कि डॉ० मीनू ने बहू को स्वार्थी कहा है । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि तो क्या बहू को परमार्थी बने रहना चाहिए था ? उसे रमेसर के साथ आजीवन अवैध-संबंध निभाते रहना चाहिए था । यह कैसा स्त्री-चिंतन है, जो मात्र भावुकता पर आधारित है ? पंचशील के अंतर्गत कहा जाता है - 'कामेसुमिच्छाचारा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि ।' अर्थात् 'मैं काम-भोग की इच्छा और आचरण से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ ।' ध्यातव्य है कि यहाँ विरत रहने की बात की गयी है, पूरी तरह से वर्जित नहीं किया गया है । जरूरत पड़ने पर व्यक्ति किसी के साथ अवैध-संबंध बना सकता है । लेकिन उसे अपनी आदत बनाना बिल्कुल गलत है । धम्म-चिंतक शीलबोधि जी के शब्दों में, " बुद्ध ने अपनी शिक्षा में पंचशील जैसे अनेकों संस्कार दिये । वहीं वे प्रत्ययसमुत्पाद में संस्कार को दुःख का कारण बताते हैं । बड़ा ही विरोधाभास जान पड़ता है । ... बुद्ध ने महापरिनिर्वाणसुत्त में संस्कार को व्ययधर्मी कहा है । खाँसी होने पर चिकित्सक की सलाह अनुसार निश्चित की गयी मात्रा और दिनों तक खाँसी की दवा पीनी होती है, जिसमें एल्कोहल होता है । एल्कोहल भी शराब का एक रूप है । अब आप पंचशील-धारक हैं, इसलिए खाँसी की दवा पीने से मना करते हैं, तो यह तरीका बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है । दवा के रूप में एल्कोहल लेना और आदत के रूप में एल्कोहल लेना दोनों में फर्क है । एक आपकी जरूरत है, दूसरा आपकी आदत है । आदत गुलामी का प्रतीक है । अच्छी हो या बुरी, आदत गुलामी है । गुलामी से मुक्ति होनी ही चाहिए । इसलिए बुद्ध महापरिनिर्वाणसुत्त में कहते हैं कि कर्मनिष्ठ होकर अपनी मुक्ति का प्रयत्न करो । किसी काम को करना है, चाहे रोज-रोज ही करना है, लेकिन इसलिए नहीं करना है कि यह आदत है, बल्कि इसलिए करना है कि यह मेरी आज की जरूरत है । " [39] स्पष्ट है कि बहू ने पंचशील के अनुसार आचरण किया था । वह अपनी जगह बिल्कुल सही थी, लेकिन रमेसर अपने मन का गुलाम बन गया था । उसका अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं था । वह बिल्कुल गलत था ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी 'जिनावर' के संदर्भ में डॉ० रजत रानी 'मीनू' ने लिखा है, " यह कहानी स्त्रियों के विरुद्ध समाज में स्थापित सामंती वर्चस्व की ओर संकेत करती है, जिसमें दलित और स्त्री का जीवन सुरक्षित नहीं है । साथ ही, बहू और जगेसर के रूप में यह कहानी परंपरागत परिवार व्यवस्था के विरोध की कहानी है, जिसमें एक पीढ़ी बहू की सास और माँ सामंती हालातों से समझौता करती रही हैं । नई पीढ़ी के रूप में बहू अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करती है और जगेसर भी कहानी के अंत में विद्रोही हो जाता है । " [40] डॉ० मीनू के कथनानुसार क्या वास्तव में 'जिनावर' कहानी बहू और जगेसर के रूप में परंपरागत परिवार-व्यवस्था के विरोध की कहानी है ? इसका निर्णय करने के लिए कहानी का निरीक्षण करना आवश्यक है । इस कहानी का नायक जगेसर, चौधरी का नौकर था । वह चौधरी की पुत्रवधू को उसके मायके छोड़ने के लिए निकला था । बहू शांत और उदास थी । जब जगेसर ने बहुत जोर देकर उसकी उदासी का कारण पूछा, तो उसने पूरी आपबीती सुना दी । वह अपनी मर्जी से मायके नहीं जा रही थी । बहू ने जगेसर को बताया, " चौधरी, मेरा ससुर, ससुर नहीं खसम बणना चाहवे था मेरा । मैंने विरोध करा, तो मुझे मारा-पीटा गया । तरह-तरह के जुल्म किये । फिर भी मैन्ने हार नी मानी, तो निकाल बाहर किया । तुझे हुकुम दिया, जा छोड़ आ इसे । " [41] ध्यातव्य है कि यहाँ परिवार-व्यवस्था की कोई बात ही नहीं है । इस कहानी में स्त्री-जीवन की सुरक्षा का प्रश्न अवश्य है, लेकिन दलित-जीवन की सुरक्षा का कहीं कोई प्रश्न नहीं है । बहू को अपने पति के अलावा किसी गैर-मर्द के साथ सारिक संबंध बनाना पसंद नहीं था तथा उसने चौधरी की इच्छा का विरोध किया था । इसलिए हवेली के मालिक चौधरी ने उसे अपनी हवेली से निकाल दिया था । विडंबना तो यह है कि बहू का पति बिरजू अपने पिता के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं कर पाया । कहा जाता है कि ससुराल में स्त्री अपने पति पर ही गर्व करती है । लेकिन जब उसका पति ही उसके समर्थन में खड़ा न हो, तो वह असहाय हो जाती है । बिरजू भी अपने पिता का ही पक्ष लेता था । यथा, " मेरे बाप के खिलाफ एक भी लफ्ज़ बोल्ली, तो हाड़-गोड़ तोड़ के धर दूँगा । जिंदगी भर लूली-लँगड़ी बणके खाट पे पड़ी रहेगी । औरत है, तो औरत बणके रहे । " बहू अपने मायके नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि बचपन में ही उसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी । वह अपनी माँ के साथ अपने ननिहाल में रहती थी तथा उसके मामा की उस पर बुरी नज़र थी । मामा से एक बार बलत्कृत होने के बाद वह सतर्क हो गयी थी और फिर उसने अपने मामा को अपना शरीर दुबारा छूने नहीं दिया । इस प्रकार वह अपने मामा के घृणित व्यवहार का सदैव विरोध करती रही । वास्तव में, इस कहानी के माध्यम से ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ठाकुरों के घर में होने वाले दुष्कर्म का पर्दाफाश किया है । उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि जो ठाकुर तथाकथित निम्न जाति के लोगों के साथ जातिगत भेदभाव और छुआछूत का बर्ताव करते हैं, वे स्वयं आचरण से पतित और निकृष्ट हैं । इस कहानी में जिनावर (जानवर) चौधरी है, जो अपनी पुत्रवधू को भी अपनी हवस का शिकार बनाने की इच्छा रखता है । यही नहीं, चौधरी ने किसनी नाम की एक लड़की के साथ दुष्कर्म करके उसे मार डाला था । जब ये बातें जगेसर को पता चलीं, तो उसका मन दुःख और आक्रोश से भर गया । वाल्मीकि जी के शब्दों में, " जगेसर का सोच भी संशय की गहरी मटमैली चादर ओढ़ चुका था । उसे रह-रहकर ख्याल आ रहा था कि अपनी बस्ती में ऐसा न कभी देखा था, न सुना था । उसका मन नफरत और गुस्से से भर उठा । उसे लग रहा था जैसे उसके भीतर कुछ जल रहा है । उसे खुद पर भी गुस्सा आ रहा था । उसने एक ऐसे आदमी के लिए अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली, जो आदमी नहीं, जंगली जिनावर है । " [42] डॉ० मीनू के कथनानुसार जगेसर भी कहानी के अंत में विद्रोही हो जाता है । जबकि यह कथन असत्य है । जगेसर केवल आक्रोश में बहू के साथ अपने गाँव लौटने की बात कहता है । वे गाँव लौट भी नहीं पाते हैं कि कहानी समाप्त हो जाती है । मन में आक्रोश का भाव उत्पन्न होना और विद्रोही होना, ये दो अलग-अलग बातें हैं ।

डॉ० सुशीला टाॅकभौरे की कहानी 'सिलिया' और डॉ० रजत रानी 'मीनू' की कहानी 'सुनीता' की नायिकाओं के चरित्र के बारे में रमणिका गुप्ता ने लिखा है, " सुशीला टाॅकभौरे की 'सिलिया' अंतर्मुखी है, तो रजत रानी मीनू की 'सुनीता' बहिर्मुखी । यही दोनों के चरित्र का अंतर है । सुनीता जो सोचती है, वह बोलती भी है और उसके लिए डटकर मुकाबला भी करती है । अपनी बात मनवाने की धुन और जिद्द दोनों में है । उसमें नेतृत्व का गुण है । वह अवसर की ताक में चुप रहना भी जानती है । सब सुनती है, पर करती अपने मन की है । सिलिया में भी जिद्द है, पर वह एक ही बार निर्णय लेती है और फैसला करवा लेती है । सिलिया नम्र है । वह परंपरा को मोड़ती है अपने पक्ष में यानी अपनी माँ को भी । माँ का सपना बदला लेने का है कि वह भी सवर्णों को अपने घर नौकर रखेगी, लेकिन सिलिया की यह सोच नहीं है । जिन्हें सिलिया बदलना चाहती है, वह जड़ परंपराएँ और उन पर आधारित लोग हैं । " [43] यहाँ इस बात का स्पष्टीकरण आवश्यक है कि रमणिका गुप्ता के कथन में आंशिक सत्यता है । प्रमाणस्वरूप अंतर्मुखी व्यक्तित्व और बहिर्मुखी व्यक्तित्व के सिद्धांत का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है । स्विट्जरलैण्ड के मनोवैज्ञानिक तथा मनश्चिकित्सक कार्ल गुस्टाफ युंग (26 जुलाई 1875 ई० - 6 जून 1961 ई०) ने वैश्लेषिक मनोविज्ञान की नींव डाली थी । युंग ने व्यक्तियों को अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दो भागों में बाँटा । " बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले लोग मिलनसार, दूसरों में रुचि लेने वाले, व्यवहार कुशल, संकोच रहित, वर्तमान को महत्व देने वाले, शीघ्र निर्णय लेने वाले तथा वस्तुगत दृष्टिकोण आदि विशेषताओं वाले होते हैं । ये लोग खुशमिजाज और आशावादी होते हैं । अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले लोग, कल्पनाशील, चिंतनशील, अपने ही विचारों, भावनाओं और आदर्शों में लीन रहने वाले होते हैं । लोगों से मिलना-जुलना कम पसंद करते हैं । एकांतप्रिय होते हैं । देर से निर्णय लेना, देर से क्रियान्वित करना, कम बोलना, भविष्य को महत्व देना आदि इनकी प्रमुख विशेषताएँ होती हैं । " [44] चूँकि 'सिलिया' कहानी की नायिका सिलिया ने अपने विवाह की बात पर शीघ्र निर्णय लिया था, इसलिए वह अंतर्मुखी नहीं थी । वह पढ़-लिखकर एक महाविद्यालय में प्राध्यापिका बन गयी थी । अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाला व्यक्ति अध्यापन के क्षेत्र में नहीं जाता है, क्योंकि एक अध्यापक को अपने छात्रों के साथ मिलनसार होना पड़ता है । अध्यापक अपनी व्यक्तिगत बातें भी छात्रों से साझा करते हैं । इस कहानी के कथानक से स्पष्ट है कि सिलिया बहिर्मुखी थी । ऐसी ही स्थिति 'सुनीता' कहानी की नायिका सुनीता की भी है । उसका भी विवाह उसके घरवाले उसी उम्र में करना चाहते थे, जिस उम्र में सिलिया के घरवाले उसका विवाह करना चाहते थे । सुनीता ने अपनी माँ से कहा, " माँ, मैं अभी शादी नहीं करूँगी । मैं आगे और पढ़ूँगी । [45] यही बात सिलिया ने भी अपनी माँ और नानी के सामने कहा था, " मैं शादी नहीं करूँगी, मुझे बहुत आगे तक पढ़ना है । " ('आंबेडकरवादी चेतना और समकालीन कहानी' नामक अध्याय में डॉ० सुशीला टाॅकभौरे की कहानियों की समालोचना पढ़ें ।) अतः स्पष्ट है कि दोनों कहानियों की नायिकाएँ बहिर्मुखी व्यक्तित्व की हैं । दोनों अपने-अपने को प्रतिष्ठित करने की इच्छुक थीं । एक, उच्च शिक्षा ग्रहण करके प्राध्यापिका बन गयी, तो दूसरी, स्नातक तक शिक्षा लेकर राजनीति में अपना स्थान बनायी ।

निष्कर्षतः स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन के सम्यक स्वरूप के पक्ष में समालोचकों ने नाम मात्र लेखन किया है । जबकि आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन का विकृत स्वरूप चर्चा में है । यही बात आंबेडकरवादी कहानीकारों के संदर्भ में भी कही जा सकती है । अधिकांश तथाकथित आंबेडकरवादी कहानीकारों की कहानियों में स्त्री-चिंतन का विकृत स्वरूप ही लक्षित होता है । कुछ ही आंबेडकरवादी कहानीकार हैं, जिनकी कहानियों में आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन का सम्यक स्वरूप लक्षित होता है । आंबेडकरवादी स्त्री-चिंतन की दृष्टि से बुद्ध शरण 'हंस' की कहानी 'फरिश्ते', मोहनदास नैमिशराय की कहानी 'तुलसा', डॉ० जयप्रकाश कर्दम की कहानी 'पगड़ी', डॉ० कुसुम वियोगी की कहानी 'कमला की कमाई', श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' की कहानी 'परिवर्तन', देवचंद्र भारती 'प्रखर' की कहानी 'अधिकार' आदि उल्लेखनीय हैं । 'फरिश्ते' कहानी की चाँद-हसीना (बुआ) भले ही अनपढ़ थी, लेकिन उसमें मानवता के लगभग सभी गुण विद्यमान थे । वह रहीमपुर गाँव के स्कूल में आया थी । 'हंस' जी के शब्दों में, " बुआ भी अपने धुन की पक्की निकली । रोज घर-घर घूमना, बच्चों के माता-पिता को समझाना, बच्चों को स्कूल ले जाना और दिन भर स्कूल में बच्चों को पानी पिलाना, उनकी देखभाल करना बुआ की दिनचर्या बन गयी । " [46] 'तुलसा' कहानी की नायिका तुलसा शहर में रहते हुए भी अनपढ़ थी । लेकिन वह अपने भाई सुमित के स्कूल में नाटक देखकर पढ़ने के लिए प्रेरित हुई और उसने कहा, " हाँ, मैं पढ़ूँगी । मैं अवश्य ही पढ़ूँगी । " [47] 'पगड़ी' कहानी की नायिका सरबतिया परिश्रमी, सहनशील और सामाजिक महिला थी । उसका पति रामसिंह निठल्ला, शराबी और गैर-जिम्मेदार पुरुष था । लेकिन सरबतिया उसे कोंसती अथवा उससे झगड़ा नहीं करती थी । बल्कि वह अपने काम से काम रखती थी । चूँकि रामसिंह घर के किसी काम में कोई रुचि नहीं लेता था, न ही हाथ बँटाता था । इसलिए जो कुछ सरबतिया करती या चाहती थी, घर में वही होता था । अर्थात् अपने घर की मालकिन सरबतिया थी । कर्दम जी के शब्दों में, " कब, कौन-सा काम, कैसे करना है, सारे निर्णय सरबतिया ही लेती थी । गाँव के लोग रामसिंह से अधिक सरबतिया को ही जानते और मानते थे । मोहल्ले-पड़ोस वाले किसी भी काम में सरबतिया को ही पूछते थे । गाँव भर में उनके परिवार की पहचान सरबतिया के नाम से थी - सरबतिया का परिवार । " [48] 'कमला की कमाई' कहानी की नायिका कमला एक संघर्षशील महिला थी । उसने गरीबी से संघर्ष करते हुए अपनी दोनों बेटियों और एक बेटे को पढ़ा-लिखाकर काबिल बना दिया था । कमला के निधन के बाद उसकी तीनों औलादें उसके दिये हुये संस्कार का अनुपालन करती रहीं । डॉ० वियोगी जी के शब्दों में, " आज एक बहन नर्सिंग ऑफिसर है, तो दूसरा दिल्ली मेट्रो में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर, तो तीसरी बी०काम० कर रही है । सच, कोयले की खदानों में ही हीरा निकलते हैं, कीमत तो तराशने पर ही मिलती है । आज यही सब, उस संघर्षशील कमला की कमाई शेष रह गयी थी । " [49] 'परिवर्तन' कहानी की नायिका पूनम सिंह शिक्षित और समझदार लड़की थी । वह आधुनिक विचारों वाली एवं सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार करने वाली थी । उसने वंचित-वर्ग के युवक हेमंत सिंह से प्रेम किया था, जो निहालचंद्र का भानजा था । जब निहालचंद्र ने उसके सामने उसके पिता के विचार और जातिगत ऊँच-नीच संबंधी संदेह प्रकट किया, तो पूनम ने कहा, " मेरे पिता की सोच परिवर्तित हो गयी है । मैंने उन्हें परिवर्तन के लिए तैयार किया है । उन्हें अपने अतीत पर पछतावा है । वो आपकी बहुत तारीफ करते हैं । लखनऊ से वापस जाने के बाद उनकी सोच एकदम बदल गयी है । समाज की उन्नति के लिए वो जाति-पाँति को बाधक मानते हैं । जाति का संबंध हमारे पेशे से है और समाज तथा देश की तरक्की के लिए हर पेशा और उसका विकास जरूरी है । " [50] 'अधिकार' कहानी की नायिका करुणा शिक्षित, सुंदर और सुशील लड़की थी । वह अनुशासित एवं संयमी थी । स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता का व्यवहार करना उसे पसंद नहीं था । वह सच्चे अर्थों में आंबेडकरवादी चेतना से संपन्न थी ।


संदर्भ :-

[1] जवाब दो विक्रमादित्य : संपादक - राजेंद्र यादव, पृष्ठ 29, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2003
[2] देहरी भई विदेस : संपादक - राजेंद्र यादव, पृष्ठ 15, प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001
[3] हिंदी कहानियों में हंस पत्रिका का योगदान : डाॅ० मीरा रामराव निचले, पृष्ठ 126, प्रकाशक - अमरसत्य प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012
[4] देहरी भई विदेस : संपादक - राजेंद्र यादव, पृष्ठ 15, प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001
[5] हिंदी कहानियों में हंस पत्रिका का योगदान : डाॅ० मीरा रामराव निचले, पृष्ठ 126-127, प्रकाशक - अमरसत्य प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012
[6] संबोधन (त्रैमासिक) : संपादक - कमर मेवाड़ी, पृष्ठ 156, जनवरी-अप्रैल-जुलाई 2005
[7] जवाब दो विक्रमादित्य : संपादक - राजेंद्र यादव, पृष्ठ 243, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2003
[8] पितृसत्ता के नए रूप - स्त्री और भूमंडलीकरण : संपादक - राजेंद्र यादव, प्रभा खेतान, अभय कुमार दुबे, पृष्ठ 14-15, प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, दूसरा संस्करण 2019
[9] हिंदी कहानियों में हंस पत्रिका का योगदान : डाॅ० मीरा रामराव निचले, पृष्ठ 160-161, प्रकाशक - अमरसत्य प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012
[10] मगहर (त्रैमासिक पत्रिका) : संपादक - मुकेश मानस, पृष्ठ 375-376, दसवाँ अंक - जुलाई 2018
[11] आंबेडकरवादी स्त्री चिंतन : संपादक - डॉ. तेज सिंह, पृष्ठ 34-35, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2011
[13] भारत की आदिवासी नाग सभ्यता : डॉ० नवल वियोगी, भूमिका पृष्ठ 4, प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2008
[13] वही, पृष्ठ 35
[14] आंबेडकरवादी स्त्री चिंतन : संपादक - डॉ. तेज सिंह, पृष्ठ 109, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2011
[15] वही, पृष्ठ 139
[16] वही, पृष्ठ 154
[17] वही, पृष्ठ 168
[18] वही, पृष्ठ 228
[19] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 47, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया नागपुर, संस्करण 2011
[20] वही, पृष्ठ 230
[21] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - डॉ० श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 131, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[22] वही, पृष्ठ 132
[23] दलित साहित्य - एक मूल्यांकन : प्रोफेसर चमनलाल, पृष्ठ 78, प्रकाशक - राजपाल एंड संस नई दिल्ली, संस्करण 2017
[24] हाशिए की आवाज (मासिक) : संपादक - डाॅ० भिनसेंट एक्का, पृष्ठ 20-21, अंक - फरवरी 2021
[25] वही, पृष्ठ 20
[26] बहुजन चिंतन : बुद्ध शरण हंस, पृष्ठ 68, प्रकाशक - आंबेडकर मिशन प्रकाशन पटना, संस्करण 2001
[27] दलित साहित्य के प्रतिमान : डॉ० एन० सिंह, पृष्ठ 155, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2016
[28] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - डॉ० श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 142, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[29] सलाम : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 113, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण 2020
[30] वही, पृष्ठ 116
[31] वही, 124-125
[32] वही, पृष्ठ 127
[33] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - डॉ० श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 142, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[34] वही, पृष्ठ 88
[35] वही, पृष्ठ 143
[36] घुसपैठिए : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 44-45, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण 2016
[37] वही, पृष्ठ 48
[38] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - डॉ० श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 148, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[39] बोधिसत्व मिशन (मासिक पत्रिका) : संपादक - डॉ० बृजेश कुमार भारती, पृष्ठ 16-17, अंक - मई-जून 2021
[40] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - डॉ० श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 150, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[41] सलाम : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 99, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण 2020
[42] वही, पृष्ठ 101
[43] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - डॉ० श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 144, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[44] प्रेक्षाध्यान - व्यक्तित्व विकास : मुनि धर्मेश कुमार, पृष्ठ 42, जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय राजस्थान, संस्करण 2013
[45] दलित चेतना की कहानियाँ : संपादक - डॉ० रामचंद्र व डॉ० प्रवीण कुमार, पृष्ठ 386, प्रकाशक - ईशा ज्ञानदीप नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[46] को रक्षति वेदः : बुद्ध शरण हंस, पृष्ठ 10, प्रकाशक - आंबेडकर मिशन पटना, प्रथम संस्करण 2003
[47] हमारा जवाब : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ 73, प्रकाशक - निराज प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2020
[48] खरोंच : डाॅ० जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 83, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[49] प्रेरक दलित कहानियाँ : डॉ० कुसुम वियोगी, पृष्ठ 59, प्रकाशक - अक्षर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स दिल्ली, प्रथम संस्करण 2021
[50] जनेऊ और मोची ठाकुर : श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी', पृष्ठ 85, प्रकाशक - लता साहित्य सदन गाजियाबाद, प्रथम संस्करण 2014



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