आंबेडकरवादी ग़ज़लों का स्वरूप


आंबेडकरवादी चेतना पर आधारित साहित्य को आंबेडकरवादी साहित्य कहा जाता है । आंबेडकरवादी चेतना के बिंदु हैं - (1) बुद्ध और उनके धम्म को डॉ० आंबेडकर के दृष्टिकोण से स्वीकार करना । (2) ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारना । (3) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना । (4) हिंदू देवी-देवताओं को काल्पनिक मानना तथा उनकी चर्चा भी नहीं करना । (5) जातिवाद, लिंगवाद और वर्चस्ववाद का विरोध करना । (6) अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करना । (7) अंधविश्वास, ढोंग और पाखंड की आलोचना करना । (8) समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और प्रेम की भावना को धारण करना । (9) शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो की प्रेरणा देना । (10) मैत्री, करुणा और शील का संदेश देना । [ आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान : देवचंद्र भारती 'प्रखर', पृष्ठ 82 ] आंबेडकरवादी चेतना से विहीन साहित्य को आंबेडकरवादी साहित्य नहीं कहा जा सकता है, भले ही उसे किसी तथाकथित आंबेडकरवादी व्यक्ति ने सृजित किया हो । क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि स्वयं को आंबेडकरवादी कहने वाला व्यक्ति आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण हो । आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण अनेक साहित्यकारों ने कविता, कहानी, संस्मरण, यात्रावृत्त, उपन्यास और आत्मकथा आदि का लेखन करके आंबेडकरवादी साहित्य को समृद्ध किया है । आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत ग़ज़ल विधा में साहित्य-सृजन करने वालों की संख्या बहुत अधिक होगी, तो लगभग दर्जनभर । उसमें भी, आंबेडकरवादी वैचारिकी को पूर्णतः ध्यान में रखकर उत्कृष्ट साहित्य-सृजन करने वालों में आधे दर्जन से भी कम ग़ज़लकार हैं । ऐसे ग़ज़लकारों में बी०आर० विप्लवी, श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' और देवचंद्र भारती 'प्रखर' के अतिरिक्त आर०पी० राम सोनकर उर्फ़ 'तल्ख़ मेहनाजपुरी' जी का नाम शामिल है । 'तल्ख़' जी आंबेडकरवादी विचारधारा के प्रति समर्पित एवं समाज और देशहित के लिए प्रतिबद्ध ग़ज़लकार हैं । उन्होंने अपनी ग़ज़लों में मजदूरों के शोषण, धार्मिक अंधविश्वास, राजनैतिक स्वार्थपरता, छद्म राष्ट्रवाद, सामाजिक विषमता और अन्याय को गंभीरतापूर्वक अभिव्यक्त किया है । 'तल्ख़' जी इस बात से चिंतित हैं कि मनुष्यों की भीड़ में वास्तविक मनुष्य दिखाई नहीं देते हैं तथा मंदिरों में चढ़ावे के बिना तथाकथित भगवान की मूर्ति का दर्शन करना भी संभव नहीं हो पाता है । यथा :

बला की भीड़ है, इंसान मिल जाए, तो मैं जानूँ ।
बिना पैसे के अब भगवान मिल जाए, तो मैं जानूँ ।।

'तल्ख़' जी के उक्त शे़र का भावार्थ यह नहीं कि वे किसी कथित भगवान में आस्था रखते हैं, बल्कि वे तो लोगों को भक्ति से दूर रहने के लिए सचेत करना चाहते हैं । क्योंकि पंडे और पुजारी भगवान के नाम पर लोगों को ठगते हैं । वे दान के रुप में एकत्रित धन से अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं । यह उनका व्यवसाय है । अज्ञानी लोग उनकी इस धूर्तता को समझ नहीं पाते हैं और जो उन्हें ठगते हैं, उन्हीं से वे आशीष और वरदान भी लेते हैं । 'तल्ख़' जी के शब्दों में :

हमेशा जो ठगे जाते हैं पंडों से पुजारी से,
ठगों से फिर वे सारे लोग ही वरदान लेते हैं ।

सामान्यतः लोग मोची का पेशा, सफाई का पेशा आदि को बदतर समझते हैं । लेकिन 'तल्ख़' जी की दृष्टि में धर्म और सियासत का पेशा दुनिया के सभी पेशों से बदतर है, संभवतः वेश्या के पेशे से भी । गंभीरतापूर्वक विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि इस कथन में यथार्थ है । क्योंकि धर्म के ठेकेदार और राजनीति करने वाले लोग स्वार्थपूर्ति हेतु किसी भी सीमा तक अपना चारित्रिक पतन करने के लिए तैयार हो जाते हैं । इसलिए 'तल्ख़' जी का यह प्रश्न अत्यंत विचारणीय है :

धर्म, सियासत के पेशे से,
पेशा कौन यहाँ बदतर है ?

धर्म और धार्मिक रीति-रिवाजों की आलोचना करने वाले लोग या तो नास्तिक होते हैं या फिर वैज्ञानिक । विज्ञान को मानने वाले भी धार्मिक अंध-परंपराओं का विरोध करते हैं । चूँकि 'तल्ख़' जी जानते हैं कि धार्मिक अंधविश्वास में लिप्त उनके बहुत से अपने लोग हैं, इसलिए वे उन्हें नाराज करना नहीं चाहते हैं, लेकिन धर्मांधता का समर्थन भी नहीं करते हैं । इसलिए वे मध्यम मार्ग का चयन करते हैं । ऐसी स्थिति में उनकी कथ्यशैली में इतना परिवर्तन अवश्य आ जाता है कि वे धार्मिक कर्मकांड का सीधे विरोध न करके विनम्रतापूर्वक वैज्ञानिक चेतना का सम्मान करने के लिए आग्रह करते हैं । यथा :

मुखालिफ हम नहीं मजहब के या रस्मों-रिवाजों के, 
मगर विज्ञान की तौहीन करना बेवकूफी है ।

आर०पी० राम सोनकर उर्फ़ 'तल्ख़ मेहनाजपुरी' जी हथेली की रेखाओं के सद्परिणाम और दुष्परिणाम पर भरोसा नहीं करते हैं अर्थात् वे भाग्यवाद को नहीं मानते हैं । उनका निम्न शेर स्वयं उनके ऊपर तथा दूसरों के ऊपर भी लागू होता है :

हथेली की लकीरों से तू वाकिफ़ खूब है लेकिन,
लकीरों पर भरोसा है, ये कहना बेवकूफी है ।

कहा जाता है कि भगवान 'दीनबंधु' है । लोग उसे 'दीनदयाल' भी कहते हैं । लेकिन क्या सच में भगवान है ? यदि वह है, तो कहाँ है ? क्योंकि जिस देश में भगवान के नाम पर लाखों मंदिर बने हुये हैं, उस देश में करोड़ों लोग दीन-हीन दशा में झोपड़ियों में दिन गुजारने के लिए विवश हैं । उन्हें न तो पेटभर भोजन मिल पाता है, न ही तनभर कपड़ा । तो फिर भगवान को उनकी इस दुर्दशा पर दया क्यों नहीं आती ? वह अपनी संतानों को इस दशा में देखकर स्वयं साफ-सुथरे और सुसज्जित मंदिर में निश्चिंत होकर कैसे रहता है ? उस अस्तित्वहीन काल्पनिक भगवान के लिए मंदिर और शिवाला बनवाने वाले लोगों से 'तल्ख़' जी प्रश्न करते हैं :

दीन-दुखी जब झोपड़ियों में रहते हों, 
भगवन को फिर मंदिर और शिवाला क्यों ?

सच तो यह है कि भगवान में विश्वास करना एक अंधविश्वास है । इस अंधविश्वास ने इस देश और देशवासियों का बहुत नुकसान किया है । मंदिरों के निर्माण में जितना धन खर्च हो जाता है, यदि वह सारा धन निर्धनों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था करने में खर्च किया जाए, तो देश और देशवासियों की पर्याप्त उन्नति संभव है । लेकिन लोग ऐसा नहीं करते हैं । इसीलिए 'तल्ख़' जी चिंतित हैं कि लोग देश की दुर्गति देखकर भी समस्या का समाधान करने के लिए प्रयास नहीं करते हैं । बल्कि किस्से-कहानियाँ लिखकर प्रसन्न होते हैं । यथा :

अंधविश्वासों में फँसकर कौम गारत में गयी,
और हम किस्से-कहानी लिखके खुश होते रहे ।

राजनीति करने वाले सत्तासीन लोग भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन के बीच सुरक्षा संबंधी खतरे पर व्याख्यान देकर देशवासियों के मन में उक्त देशों के प्रति शत्रु-भाव उत्पन्न करते हैं । कुछ सीमा तक यह सही भी है । लेकिन प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि उक्त देशों के सैन्य-अधिकारियों को इस देश की गुप्त सूचनाओं का पता कैसे चलता है ? स्पष्ट है कि इस देश में कुछ आस्तीन के साँप हैं और वे ही इस तरह के खतरों के लिए जिम्मेदार हैं । 'तल्ख़' जी उन अज्ञात आस्तीन के साँपों से सावधान रहने का संकेत करते हैं । उनके शब्दों में :

चीन, पाकिस्तान से खतरा नहीं है,
आस्तीं के साँप से डरना पड़ेगा ।

'तल्ख़' जी ने समसामयिक राजनीति की जुमलेबाजी को भी अपनी ग़ज़ल का विषय बनाया है । भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री महोदय हमेशा दूरदर्शन पर हाजिर हो जाते हैं और देशवासियों को अपने 'मन की बात' सुनाते हैं, लेकिन किसी के मन की बात सुनते नहीं हैं । लोगों के पास रोजगार नहीं है, फिर भी लोग सरकार से रोजगार की माँग नहीं करते हैं । माँग करें भी, तो कैसे ? लाॅकडाउन जो लगा है । ऐसी स्थिति में लोगों का घर से बाहर निकलना भी दुश्वार है । जो व्यक्ति गलती से सड़क पर निकल जाता है, वह पुलिस के डण्डे खाता है । फिर भी 'तल्ख़' जी हर हाल में अपने अधिकार के लिए मुखरित होने की प्रेरणा देते हैं । यथा :

भरता नहीं है पेट कभी 'मन की बात' से, 
रोजी न रोजगार यार खुल के बात कर ।

'तल्ख़' जी ने वर्तमान समय की राजनैतिक धूर्तता को भी रेखांकित किया है । वर्तमान प्रधानमंत्री महोदय ने भेदभावपूर्ण नियम लागू करके पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाया है, जबकि किसानों को बहुत हानि हुई है । 'तल्ख़' जी ने इसी बात की ओर संकेत करते हुए प्रधानमंत्री महोदय के द्वारा दिये गये 'अच्छे दिन' के नारे पर व्यंग्य किया है । यथा :

किसान से खुदकुशी कराए, दे पूँजीपतियों को कर्जमाफी, 
यह तरक्की का फलसफा है, लो अच्छे दिन अब धरे-धरे हैं ।

इस देश की सामुदायिक राजनीति अत्यंत चिंताजनक है । यहाँ सामान्य वर्ग के राजनेता अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मुसलमानों और अन्य कमजोर लोगों का शोषण करने हेतु तथा सामान्य वर्ग के लोगों को निरंतर लाभ पहुँचाने हेतु अनेक नियम और नीतियाँ लागू करते रहते हैं । वे इन लोगों को आपस में लड़वाने के लिए सदैव एकमत हो जाते हैं । 'तल्ख़' जी ने ऐसे षड्यंत्र की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है । ताकि समय रहते इस प्रकार के षड्यंत्र से बचा जा सके । उनके शब्दों में :

एससी, एसटी, मुस्लिम और कमजोरों को,
लड़वाने में वे हैं इक मत क्या कहने ?

'तल्ख़' जी ने अपनी कुछ ग़ज़लों को 'मैं' शैली में लिखा है । लेकिन उनके 'मैं' सर्वनाम का भावार्थ 'हम' सर्वनाम में अंतर्निहित होता है । अर्थात् जहाँ पर उन्होंने 'मैं' उद्बोधन का प्रयोग करके किसी बात का उल्लेख किया है, वहाँ केवल उनके मन की भावाभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण समाज की भावाभिव्यक्ति है । 'मैं' शैली का प्रयोग करते हुए 'तल्ख़' जी ने आरक्षण के सहारे संसद के सदस्य बने वंंचित वर्ग के राजनेताओं पर कटाक्ष किया है कि वे आरक्षण-भोगी लोग किस प्रकार आरक्षण के ही बिल को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं ? अवलोकनार्थ :

रिजर्वेशन के कारण ही तो संसद में पहुँचता हूँ, 
रिजर्वेशन के बिल को फाड़ करके चार करता हूँ ।

आर०पी० राम सोनकर उर्फ़ 'तल्ख़ मेहनाजपुरी' जी ने बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए अत्यंत आनंद का अनुभव किया है । इसलिए वे अपने आनंद और प्रसन्नता के अनुभव को अपने एक शे़र के माध्यम से व्यक्त किये हैं । 'तल्ख़' जी अपने घर की प्रसन्नता का श्रेय बाबा साहेब आंबेडकर को देते हैं और उनका मानना है कि चूँकि उनके घर में बाबा साहेब की शिक्षाओं का अनुपालन किया जाता है, इसलिए उन्हें किसी बात की कमी नहीं है । इस प्रकार वे अपने इस शे़र के द्वारा बाबा साहेब का गुणगान तो करते ही हैं, साथ ही परोक्ष रूप से बाबा साहेब के प्रति आभार भी व्यक्त करते हैं । उनके शब्दों में :

खुशी की बात है, घर में खुशी है । 
यहाँ आंबेडकर हैं क्या कमी है ?

आंबेडकरवाद वह दवा है, जिसका सेवन करने के बाद व्यक्ति के चेहरे का रंग ही नहीं, बल्कि उसके बातचीत करने का ढंग भी बदल जाता है । आंबेडकरवाद केवल आंबेडकर की बातों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आंबेडकर की विचारधारा का व्यापक स्वरूप है । डॉ० आंबेडकर की विचारधारा में गौतम बुद्ध से लेकर कबीर, रैदास, फुले आदि अनेक के महामानवों के विचार समाहित हो जाते हैं । 'तल्ख़' जी इस तथ्य से परिचित हैं । इसलिए वे फुले और आंबेडकर की राह पर निरंतर चलते रहने के लिए वचनबद्ध हैं । 'तल्ख़' जी के शब्दों में :

फुले-आंबेडकर की राह पर चलते ही रहना है, 
उन्हीं की राह पर चलने का मैं इकरार करता हूँ ।

आर०पी० राम सोनकर उर्फ़ 'तल्ख़ मेहनाजपुरी' जी भारत को भीममय बनाने की अभिलाषा रखते हैं । साथ ही उनकी लालसा है कि बौद्धमय संसार हो । इसलिए वे इस मिशन के प्रचार-प्रसार हेतु स्वयं भी प्रयासरत हैं और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते रहते हैं । उनकी इच्छा है कि बाबा साहेब का कारवाँ हर रास्ते पर दिखाई दे । इस संदर्भ में 'तल्ख़' जी का निम्न शे़र द्रष्टव्य है :

भीममय भारत हमारा, बुद्धमय संसार हो,
कारवाँ अपना सभी रस्तों पे दिखना चाहिए ।

स्पष्ट है कि आर०पी० राम सोनकर उर्फ़ 'तल्ख़ मेहनाजपुरी' जी की ग़ज़लों में अंधविश्वास का विरोध, वैज्ञानिकता का समर्थन, अंध-परंपरा का नकार, समता, स्वतंत्रता और न्याय आदि भावों का अंतर्भाव है । इस प्रकार कहा जा सकता है कि सोनकर जी की ग़ज़लें आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण हैं और इन्हें आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत सम्मिलित किया जा सकता है । वैसे तो, 'तल्ख़' जी की ग़ज़लों की विषयवस्तु बहुत ही व्यापक है, लेकिन यह भी ध्यातव्य है कि आंबेडकरवादी साहित्य की विषयवस्तु भी अत्यंत व्यापक है । क्योंकि आंबेडकरवाद का तात्पर्य केवल आंबेडकर और आंबेडकर के कथनों का गुणगान और वर्णन करना नहीं है, बल्कि आंबेडकरवादी चेतना से युक्त सृष्टि के किसी भी मानव और मानवीय घटनाओं को आंबेडकरवादी साहित्य का विषय बनाया जा सकता है । अतः 'तल्ख़' जी की ग़ज़लें आंबेडकरवादी साहित्य की ग़ज़ल विधा को समृद्ध करने में समर्थ हैं ।


✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' 

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