आंबेडकरवादी चेतना क्या है और दलित चेतना क्या है ? आंबेडकरवादी चेतना के प्रमुख बिंदु कौन-कौन से हैं ? आंबेडकरवादी चेतना और दलित चेतना में क्या अंतर है ? इन सारे प्रश्नों के उत्तर इस पोस्ट में उपस्थित हैं ।
आंबेडकरवादी साहित्य जिस रूप में अपने प्रारंभिक दौर में था, वर्तमान में उसमें बहुत अधिक परिवर्तन आ चुका है । वास्तव में, यह आंबेडकरवादी आंदोलन और आंबेडकरवादी चेतना के विचलन की स्थिति है, जो दलित चेतना के रूप में विख्यात है । दलित चेतना का जो स्वरूप दलित साहित्य के अंतर्गत परिलक्षित होता है, उसके मूल्यांकन से स्पष्ट है कि 'दलित चेतना' आंबेडकरवादी चेतना से भिन्न हो चुकी है । इसलिए यहाँ आंबेडकरवादी चेतना और दलित चेतना के अंतर को स्पष्ट करना अनिवार्य है, जो इस प्रकार है :-
(1) दलित चेतना के केंद्र में केवल दलित है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के केंद्र में बहुजन है । दलित चेतना गैर-दलितों को अपनी परिधि में सम्मिलित नहीं करती, जबकि आंबेडकरवादी चेतना संपूर्ण बहुजन समाज को अपनी परिधि में आमंत्रित करती है ।
(2) दलित चेतना ब्राह्मणवाद को अपना लक्ष्य बनाती है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना आंबेडकरवाद को अपना लक्ष्य बनाती है । आंबेडकरवादी चेतना ब्राह्मणवाद का विरोध करने में कम ऊर्जा खर्च करती है और आंबेडकरवाद को समृद्ध करने में अधिक ऊर्जा खर्च करती है ।
(3) दलित चेतना के अंतर्गत मार्क्सवाद को भी सम्मिलित किया गया है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में केवल आंबेडकरवाद को ही सम्मिलित किया गया है । आंबेडकरवाद में मार्क्सवाद के लिए कोई स्थान नहीं, क्योंकि आंबेडकरवाद स्वयं में एक पूर्ण अवधारणा है ।
(4) दलित चेतना में 'नारीवाद' की चर्चा की जाती है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में 'नारी विमर्श' की चर्चा की जाती है । भारतीय समाज में पुरुष-सत्तात्मक और स्त्री-सत्तात्मक दोनों प्रकार के परिवार पाए जाते हैं, इसलिए नारीवाद के नाम पर स्त्री-सत्ता पर बल देना अनुचित है । नारी विमर्श के अंतर्गत स्त्री-मुक्ति की बात की जाती है, स्त्री-स्वतंत्रता की बात की जाती है, स्त्री-स्वछंदता की नहीं ।
(5) दलित चेतना में जाति विशेष का संबोधन किया जाता है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में बहुजन बोधक संबोधन किया जाता है । आंबेडकरवादी चेतना में किसी जाति-विशेष को संबोधित करना स्वीकार्य नहीं है । किसी जाति-विशेष पर आधारित साहित्य आंबेडकरवादी चेतना का साहित्य नहीं कहा जा सकता ।
(6) दलित चेतना में व्यक्तिवाद को सम्मिलित किया जाता है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में समाजवाद को सम्मिलित किया जाता है । दलित चेतना से युक्त साहित्यकार अपनी निजी बातें साहित्य में लिखते हैं और समाज की बातें कम लिखते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना से युक्त साहित्यकार समाज की बातें अधिक लिखते हैं, अपनी बातें कम लिखते हैं ।
(7) दलित चेतना से युक्त साहित्यकार पुराणों का उल्लेख करते हुए साहित्य-सृजन करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना से युक्त साहित्यकार विज्ञानों का उल्लेख करते हुए साहित्य-सृजन करते हैं ।
(8) दलित चेतना के साहित्यकार बुद्ध-दर्शन को स्वीकार नहीं करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकार बुद्ध-दर्शन को हृदयंगम करते हैं ।
(9) दलित चेतना से युक्त साहित्यकार स्वयं को 'दलित' कहने में गर्व का अनुभव करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकार स्वयं को 'दलित' कहने में हीनता का अनुभव करते हैं ।
(10) 'दलित चेतना' हिंदू धर्म का विरोध करती है, लेकिन हिंदू धर्म को छोड़ने की पक्षधर नहीं है, जबकि 'आंबेडकरवादी चेतना' हिंदू धर्म का त्याग करके बौद्ध धम्म को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है ।
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संदर्भ :- आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान : देवचंद्र भारती 'प्रखर', पृष्ठ 82,83,84, प्रकाशक - पुष्पांजलि प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2020
ध्यातव्य है कि दलित प्रस्थिति से ऊपर उठ चुके प्रोफेसर लोग अपने आपको दलित सिद्ध करने में लगे हुए हैं । जो कभी वास्तविक दलितों (दबे-कुचले, दबाये-कुचले गये) के बीच में जाते नहीं है और घर में एक कोठरी में बैठकर ए.सी. की हवा लेते हुए सोचते-विचारते हैं, वे अपनी चेतना को दलित चेतना का नाम देते हैं । यह सबसे बड़ी विडंबना है ।
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