डाॅ. बुद्धप्रिय जी की कविताओं में अस्मिता एवं संघर्ष की भावना


आजकल 'अस्मिता' शब्द को लेकर लोग बहुत ही गंभीर हैं । कुछ लोग दलित-अस्मिता की बात करते हैं, तो कुछ लोग नारी-अस्मिता की बात करते हैं । कुछ लोग आदिवासी-अस्मिता की बात करते हैं, तो कुछ लोग किन्नर-अस्मिता की बात करते हैं । आखिर यह 'अस्मिता' कौन सी बला है ? इसके बारे में विस्तार से जानने के लिए सबसे पहले इसके शब्दार्थ को जानना आवश्यक है । 'अस्मिता' का अर्थ है - अस्तित्व, अपने होने का भाव, अपनी सत्ता की पहचान । हिंदी साहित्य में पहली बार अज्ञेय ने 'आईडेंटिटी' के लिए 'अस्मिता' शब्द का प्रयोग किया था । उसके बाद तो जैसे अस्मिता-विमर्श की होड़-सी लग गयी और अस्तित्ववादियों की संख्या में निरंतर वृद्धि होने लगी । वर्तमान में स्थिति यह है कि हर विमर्श का आधार 'अस्मिता' शब्द पर ही टिका है । यह सच है कि इस संसार में प्रत्येक प्राणी का अपना अस्तित्व है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि संसार के सभी प्राणियों का अस्तित्व एक-दूसरे के अस्तित्व पर निर्भर है । किसी भी प्राणी के अस्तित्व को तभी खतरा होता है, जब वह अन्य प्राणियों के संपर्क में आता है । किसी अकेले प्राणी के अस्तित्व को भला स्वयं से क्या खतरा हो सकता है ? यदि वह आत्महत्या करके अपने अस्तित्व को नष्ट करने की बात सोचे, तो यह बात अलग है । संसार के हर प्राणी की तीन प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं - हवा, पानी और अनाज । पशु, पक्षी और मानव सभी प्राणी अपनी इन प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत होते हैं । इस पर भी, मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएँ पशु-पक्षियों की आवश्यकताओं से संख्या में दो अधिक हैं अर्थात् मनुष्य को कपड़ा और मकान की भी आवश्यकता पड़ती है । इन प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने के साथ-साथ मनुष्य भावनात्मक संतुष्टि भी चाहता है । इसलिए जब बात अस्मिता की हो, तो विमर्श को केवल प्राण के अस्तित्व तक ही सीमित नहीं रखा जाता है, बल्कि विमर्श का प्रसार मनुुुष्य की भावना और कामना तक हो जाता है । प्रत्येक चेतनायुक्त मनुष्य चाहता है कि उसके साथ अन्य मनुष्य समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम का व्यवहार करें । मनुष्य इन्हीं की पूर्ति के लिए विशेष संघर्ष करता है । अन्यथा, पशुओं जैसा जीवन व्यतीत करने के लिए विशेष संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । बात जब संघर्ष की हो और बुद्ध-आंबेडकर की बात न की जाए, तो बात अधूरी रह जाती है । ध्यातव्य है कि त्रिशरण के अंतर्गत दूसरी शरण ग्रहण करते हुए कहा जाता है - " धम्मं शरणं गच्छामि । " अर्थात् " मैं धम्म (सिद्धांत) की शरण में जाता हूँ । " इसी बात को बाबा साहेब ने अपने शब्दों में कहा है - " संघर्ष करो । " तथागत बुद्ध और डॉ० आंबेडकर के इस कथन को अपने जीवन का सिद्धांत बनाकर अपनी अस्मिता के लिए निरंतर संघर्षरत रहे हैं - वरिष्ठ आंबेडकरवादी साहित्यकार डॉ० बी०आर० बुद्धप्रिय जी ।

डाॅ० बुद्धप्रिय जी केवल लिखते ही नहीं हैं, बल्कि वे अपने लिखे हुये के अनुरूप जीवन भी जीते हैं । तात्पर्य यह है कि डाॅ० बुद्धप्रिय जी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है । यही कारण है कि साहित्य-जगत में उनका जितना सम्मान होता है, उससे कहीं अधिक सम्मान वे समाज में पाते हैं । डाॅ० बुद्धप्रिय जी एक साहित्यकार होने के साथ-साथ समाजसेवी, शिक्षक और मिशनरी भी हैं । उन्होंने उक्त चारों क्षेत्रों में निरंतर धैर्यपूर्वक संघर्ष किया है । डाॅ० बुद्धप्रिय जी का साहित्य उनके संघर्षशील जीवन-अनुभव की यथार्थ अभिव्यक्ति है । 'अपराजित' नामक यह कविता-संग्रह डाॅ० बुद्धप्रिय जी का पाँचवाँ कविता-संग्रह है । इसके पूर्व उनके चार कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें 'अभी वक्त है' (2005), 'बगावत' (2009), 'विद्रोह की चिंगारियाँ' (2013), 'बहुजनों की हुँकार' (2014) आदि के नाम शामिल हैं । डाॅ० बुद्धप्रिय जी ने अपनी कविताओं में केवल अपने संघर्ष को ही अभिव्यक्त नहीं किया है, बल्कि उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से वंचित वर्ग के लोगों को शिक्षित बनने, संगठित होने और संघर्ष करने की प्रेरणा भी दिया है । साथ ही, उन्होंने लोगों को शील और संस्कार का पालन करते हुए धम्मानुसार जीवन जीने का संदेश दिया है । डाॅ० बुद्धप्रिय जी ने अपनी कविता 'लगाम' में वंचित वर्ग के लोगों को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक गुलामी से मुक्त होने के लिए सामाजिक आंदोलन करने का मार्ग बताया है । उनकी दृष्टि में इतिहास बदलने के लिए क्रांति करना आवश्यक है । डाॅ० बुद्धप्रिय जी कहते हैं :

सदियों से अंधेरे में जीने वालों !
सामाजिक आंदोलन करो,
वैचारिक विस्फोट करो, 
क्रांति करो, 
इतिहास स्वयं बदल जाएगा ।

डाॅ० बुद्धप्रिय जी यह अच्छी तरह जानते हैं कि वंचित वर्ग के लोग कमजोर नहीं हैं, बल्कि एक सशक्त वर्ग द्वारा उन्हें कमजोर बनाया गया है । इसलिए वे वंचित वर्ग के लोगों को जागरूक करने के साथ-साथ सशक्त वर्ग के लोगों को आत्मसुधार करने चेतावनी भी देते हैं । क्योंकि उस वर्ग के लोग यदि अभी नहीं सुधरे, तो फिर वंचित वर्ग के लोगों की जागृति के बाद उन्हें पछताना पड़ेगा । भविष्य की बात तो दूर है, वर्तमान में परिणाम सामने है । 'बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय' की अवधारणा बनाकर सामाजिक आंदोलन करने वाले आंबेडकरवादी मिशनरी लोगों ने बहुत अधिक सामाजिक परिवर्तन कर दिया है । ऐसे ही आंबेडकरवादी मिशनरियों में एक नाम डाॅ० बुद्धप्रिय जी का भी है । इसलिए डाॅ० बुद्धप्रिय जी अपनी कविता 'बाध्य न करो' में सशक्त वर्ग के शोषक लोगों को संबोधित करके कहते हैं :

बहुजन हिताय - 
बहुजन सुखाय 
की आँच 
तुम्हारे सीने में चुभ जाएगी 
हमारी लोक-कल्याण की भावना 
टकटकी लगाकर देखते रहो ।

वंचित वर्ग के जागरूक लोगों को संबोधित करते हुए डाॅ० बुद्धप्रिय जी ने नये प्रतिमान और नये मुहावरे गढ़ने के लिए उत्साहित किया है । उनका मानना है कि वैज्ञानिक विचारों से अनेक समस्याओं का समाधान संभव है । डाॅ० बुद्धप्रिय जी ने विचार को एक धारदार हथियार के रूप में चित्रित किया है । इस प्रकार उन्होंने अमूर्त विचार को मूर्त रूप प्रदान किया है । यथा :

नये प्रतिमान, नये मुहावरे बनाओ 
प्रतिष्ठा दाव पर लगी है 
भोथरे वैज्ञानिक विचारों को 
नुकीला बनाओ 
धारदार हथियार से 
सब कुछ कट जाता है ।

डाॅ० बुद्धप्रिय जी को समाज में चारों ओर अन्याय और अत्याचार का तूफान दिखाई देता है । इसलिए वे वंचित वर्ग के लोगों को संगठित होकर तूफानों से टकराने और तूफानों का रुख मोड़ने का आह्वान करते हैं । 'तूफान' कविता में वे उन्हें सदियों की ठुकरायी माटी में जान डालने के लिए उत्साहित करते हैं । माटी में जान डालने का तात्पर्य है - सोये हुये लोगों को जगाना यानी लोगों को आंदोलित करना । डाॅ० बुद्धप्रिय जी के शब्दों में :

चारों तरफ अन्याय, अत्याचार का
तूफान ही तूफान है 
वंचित समाज के लोगों, जागो !
तूफानों का रुख मोड़ दो 
सदियों की ठुकरायी माटी में 
जान डाल दो ।

डाॅ० बुद्धप्रिय जी की एक कविता है - 'चढ़ावा' । इस कविता की रचना उन्होंने तब की थी, जब सावन के अंतिम सोमवार को भुताकस्बे नामक स्थान पर उन्होंने वंचित वर्ग के युवाओं को काँवड़ियों के वेश में देखा था । काँवड़ियों की भीड़ के कारण सड़क पर तीन घंटे तक जाम लगा रहा, जिससे अन्य यात्रियों के साथ डाॅ० बुद्धप्रिय जी को भी बहुत परेशानी हुई थी । इस कविता में डाॅ० बुद्धप्रिय जी ने वंचित वर्ग के काँवड़ियों को धिक्कारा है । इस कविता को पढ़ते समय ऐसा जान पड़ता है, जैसे कि इस कविता में सीधी उक्ति है, लेकिन ऐसी बात नहीं है । इस कविता में सीधी उक्ति नहीं है, बल्कि टेढ़ी होती है अर्थात् वक्रोक्ति है । डाॅ० बुद्धप्रिय जी वंचितों को कर्ज लेकर काँवड़ ढोने के लिए कहते हैं, बच्चों को शिक्षित न करने के लिए कहते हैं, मनुस्मृति का पाठ पढ़ाने के लिए कहते हैं, सूदखोरों के आगे गिड़गिड़ाने के लिए कहते हैं । लेकिन उनके द्वारा ये बातें कहने का ढंग ठीक वैसा ही है, जैसे कि कोई नाराज होकर कहता है - " हाँ-हाँ, ठीक है । लगे रहो । " जबकि इस कथन में एक प्रकार का व्यंग्य है, नकार है, विरोध है । अवलोकनार्थ :

बदहाली और लाचारी में 
कर्ज लेकर कावड़ ढोओ 
बच्चों को शिक्षा मत दिलाओ 
मनुस्मृति का पाठ पढ़ाओ 
तुम्हारी सोच-समझ शुभ हो गयी
सूदखोर के पास गिड़गिड़ाओ
खूब चढ़ावा चढ़ाओ 
पशु जैसा भेष बनाओ 
इंसानियत की जड़ कटवाओ ।

अपनी कविता 'आधी आबादी' में डाॅ० बुद्धप्रिय जी ने भारत की संपूर्ण आबादी के लगभग आधे भाग वंचित-वर्ग के लोगों की हित-चिंता को अभिव्यक्त किया है । उनकी दृष्टि में उस वर्ग-हित के लिए लोकतांत्रिक तरीके से लड़ाई लड़ना अभी शेष है । इसलिए डाॅ० बुद्धप्रिय जी वंचित वर्ग के लोगों को अमानवीय साम्राज्य के प्रति विद्रोह करने के लिए प्रेरित करते हैं । यथा :

जनतांत्रिक तरीके से लड़ाई अभी बाकी है 
अमानुषिक साम्राज्य में 
विद्रोह की चिंगारियाँ भड़का दो ।

डाॅ० बुद्धप्रिय जी दर्शन की उस परंपरा का निर्वहन करने वाले व्यक्ति हैं, जिस परंपरा में बुद्ध, कबीर, रैदास, फुले और आंबेडकर आदि महामानवों की गणना की जाती है । इतिहास साक्षी है कि सम्राट अशोक और कनिष्क ने बौद्ध धम्म का देश-विदेश में प्रचार-प्रसार किया था । चूँकि डाॅ० बुद्धप्रिय जी धम्मानुयायी हैं, इसलिए वे धाम्मिक विचार से प्रेरित होकर कार्य करते हैं । यही कारण है कि वे अपने आपको बुद्ध, कबीर, रैदास, अशोक कनिष्क के क्रांति की बुलंद आवाज कहते हैं तथा बुद्धचर्या, सुत्तपिटक और धम्म-देशना के रूप में अपने आपको आरोपित करते हैं । अपनी इस भावना को उन्होंने 'दस्तावेज' कविता में क्रांतिकारी स्वर में व्यक्त किया है । डाॅ० बुद्धप्रिय जी कहते हैं :

बुद्ध, कबीर, रैदास, अशोक, 
कनिष्क के क्रांति की 
बुलंद आवाज हूँ मैं 
नालंदा का प्राण हूँ मैं 
बुद्धचर्या, सुत्तपिटक की 
धम्मदेशना हूँ मैं ।

प्रायः प्रश्न पूछा जाता है कि 'धम्म' क्या है ? इसका स्पष्ट उत्तर है कि 'धम्म' बुद्ध की शिक्षाओं का नाम है । बुद्ध की शिक्षाओं का स्वरूप बहुत ही व्यापक है । उनकी शिक्षाओं में दुखपूर्ण जीवन से मुक्ति पाने और सुखमय जीवन जीने के लिए अष्टांगिक मार्ग का समावेश है । बुद्ध के द्वारा बताया गया मार्ग पूर्णतः वैज्ञानिक मार्ग है, जो मनुष्य को मनुष्यता का अनुपालन करने के लिए प्रेरित करता है । 'अत्त दीपो भव' का उपदेश देकर उन्होंने मनुष्य को आत्मनिर्भर बनकर शिक्षा, संघर्ष और संगठन के प्रति जागरूक होने के लिए इंगित किया । इस प्रकार 'धम्म' जीवन जीने की उत्तम शैली है । कवि डाॅ० बुद्धप्रिय जी ने 'धम्म' को इसी रूप में अंगीकार किया है । वे धम्म-यात्रा को एक उत्सव के रूप में देखते हैं । उन्होंने अपने जीवन में बहुत सी धम्म-यात्राएँ की हैं । अपनी धम्म-यात्राओं का वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक 'धम्म भूमि अवलोकन' (2020) में किया है । यही कारण है कि वे दूसरे लोगों को भी इस 'धम्म-यात्रा' रूपी उत्सव को जीने के लिए कहते हैं । डाॅ० बुद्धप्रिय जी की कविता 'धम्म' की निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

शिक्षा, संघर्ष और संगठन ही धम्म है 
धम्म के लिए आचरण करो 
धम्म-यात्रा उत्सव है 
उत्सव को जीना सीखो ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि डॉ० बी०आर० बुद्धप्रिय जी की कविताएँ अस्मिता और संघर्ष की भावना से परिपूर्ण हैं । उनका मानना है कि अस्मिता के लिए किये जाने वाले संघर्ष में सम्यक दृष्टि अवश्य हो । सम्यक दृष्टि के लिए वे त्रिशरण को ग्रहण करने की प्रेरणा देते हैं । 'त्रिशरण' और डॉ० आंबेडकर के 'त्रिसूत्र' में साम्य है । इसलिए त्रिशरण के संबंध में भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है । डॉ० आंबेडकर के द्वारा बताये गये त्रिसूत्र (शिक्षा, संघर्ष और संगठन) को पूर्णरूपेण धारण करना त्रिशरण को अपनाने के समान है ।


✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' 
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मोहरगंज, चंदौली (उत्तर प्रदेश) 
मोबाइल : 9454199538
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने