आंबेडकरवादी चेतना को 'दलित चेतना' के नाम से भी जाना जाता है । ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी पुस्तक 'दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र' में दलित चेतना के तेरह बिंदुओं का उल्लेख किया है, जिनमें संशोधन एवं परिवर्धन करके आंबेडकरवादी चेतना को दस बिंदुओं में समाहित कर दिया गया है । आंबेडकरवादी चेतना के बिंदु हैं - (1) बुद्ध और उनके धम्म को डॉ० आंबेडकर के दृष्टिकोण से स्वीकार करना । (2) ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारना । (3) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना । (4) हिंदू देवी-देवताओं को काल्पनिक मानना तथा उनकी चर्चा भी नहीं करना । (5) जातिवाद, लिंगवाद और वर्चस्ववाद का विरोध करना । (6) अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करना । (7) अंधविश्वास, ढोंग और पाखंड की आलोचना करना । (8) समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और प्रेम की भावना को धारण करना । (9) " शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो " की प्रेरणा देना । (10) मैत्री, करुणा और शील का संदेश देना । (आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान, पृष्ठ 82)
आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण साहित्य ही आंबेडकरवादी साहित्य है । आंबेडकरवादी साहित्यकारों में बुद्ध शरण हंस (8 अप्रैल 1942) जी का नाम प्रमुख है । हंस जी ने केवल आंबेडकरवादी साहित्य का सृजन ही नहीं किया है, बल्कि उन्होंने आंबेडकर-मिशन और आंदोलन में समर्पित भाव से प्रतिभाग भी किया है । वे लंबे समय से आंबेडकर-मिशन पत्रिका का प्रकाशन करते आ रहे हैं । हंस जी मूलतः गद्य लेखक हैं । उनके दो कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं - 'तीन महाप्राणी' और 'को रक्षति वेदः' । बुद्ध शरण हंस जी की कहानियाँ आंबेडकरवादी दृष्टि से परिपूर्ण और सोद्देश्य हैं । उन्होंने बहुजन समाज के लोगों को अंधविश्वास और विषमता की भावना से मुक्त करके उन्हें सम्यक दृष्टि प्रदान करने तथा उनके मन में बौद्ध-आंबेडकरवादी चेतना का संचार करने हेतु योजनाबद्ध तरीके से व्यवस्थित लेखन किया है । उनके कहानी-संग्रह 'तीन महाप्राणी' (1996) में कुल तेरह कहानियाँ हैं, जिनमें छः कहानियों 'बुध सरना कहानी लिखता है', 'देव दर्शन', अरे अधम! मुझे मत बेच', 'अखंड कीर्तन', 'शिवजी का अंडा' और 'ब्रह्मज्ञान' में तथाकथित ब्राह्मणों के दुश्चरित्र, ढोंग, पाखंड और धूर्तता का यथार्थ चित्रण किया गया है । जबकि शेष सात कहानियों 'धिक्-धिक् रे ब्राह्मण', 'माता का भार', 'धम्म जीवन', 'बुद्धम शरणम गच्छामि', 'भोज के कुत्ते', 'कामरेड' और 'तीन महाप्राणी' में सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति हेतु प्रेरणा का समावेश है । इसी प्रकार 'हंस' जी के कहानी-संग्रह 'को रक्षति वेदः' (2003) में कुल अठारह कहानियाँ हैं, जिनमें पाँच कहानियाँ 'सर्वजीत', 'लक्खा मंदिर', 'जाती जाति नहीं जाती', 'कहिए दलित कवि जी' और 'दो भगवती' सामाजिक यथार्थ का चित्र प्रस्तुत करती हैं । जबकि शेष तेरह कहानियाँ 'फरिश्ते', 'अहिंसा परमो धम्म', 'फादर चकलाकल', 'गीदड़म्', 'हलबंदी', 'जानवर जी', 'गौ ब्राह्मण नमो-नमो', 'दो पैसे का भाईचारा', 'प्राण-प्रतिष्ठा', 'मिशनरी हूँ', 'जय अर्जक', 'जहर पोथी' और 'को रक्षति वेदः' बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के समतामूलक समाज की स्थापना करने हेतु सम्यक उपाय की ओर संकेत करती हैं ।
'धिक्-धिक् रे ब्राह्मण' कहानी में 'हंस' जी ने स्वतंत्रता के पश्चात सामान्य वर्ग और वंचित वर्ग के लोगों की स्थिति में हुये सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन को रेखांकित किया है । इस कहानी का नायक सुमन रवि बी.डी.ओ. के पद पर सेवारत था । उसका ड्राइवर टिकू तिवारी तथा चपरासी बुद्धन पंडित था । सुमन रवि को राजगृह जाना जरूरी था, लेकिन ड्राइवर नहीं आया था । इसलिए उसने स्वयं जीप स्टार्ट की और बुद्धन पंडित को साथ ले लिया । रास्ते में उसे जोर की टट्टी (शौच) लगी । वह अपनी गाड़ी की चाल बढ़ाते हुए कई किलोमीटर तक आसपास देखा, लेकिन उसे कहीं पानी नजर नहीं आया । जब उस अनैच्छिक क्रिया पर सुमन रवि का नियंत्रण नहीं रहा, तो उसने अंत में जीप रोक दी और बुद्धन पंडित को पानी लाने के लिए भेजा । बुद्धन को धीरे-धीरे जाते हुए देखकर उसने कहा, " पांडे ! दौड़कर जाओ । तू तो ऐसे चल रहा है, जैसे पाँव में मेहंदी लगाकर ससुराल जा रहा है । और सुन ! यदि दूर में पानी मिले, तो किसी हाड़ी, चुक्का में पानी लेते आना । यदि कोई बर्तन नहीं मिले, तो अपनी धोती को पूरा भिंगोकर पानी लेते आना । उतना से भी मेरा काम बन जाएगा । अब दौड़, पीछे मत ताकना । " [1] बुद्धन पंडित पानी खोजने के लिए तो चल दिया, लेकिन उसे अपनी दुर्दशा पर दुःख हो रहा था । वह सोच रहा था कि क्या दुर्दशा है ? अछूत शौच करता है और ब्राह्मण उसके लिए पानी खोजता है । यह भ्रष्टयुग नहीं, तो और क्या है ? बुद्धन पंडित को गुजरा जमाना याद आ रहा था, जब अछूत ब्राह्मण के पाँव पर पानी गिराने के भी योग्य नहीं था और वर्तमान में ब्राह्मण चमार के चूतड़ (नितंब) पर पानी गिराने के लिए विवश था । बुद्धन पानी की खोज में बहुत दूर निकल गया था । वह पसीना-पसीना हो गया था और हाँफ भी रहा था । अचानक उसे पानी दिखाई दिया, लेकिन उसके सामने पानी ले जाने की समस्या थी । 'हंस' जी के शब्दों में, " साहब का आदेश बुद्धन को स्मरण हो आया । उसने अपनी धोती खोली, पानी में भिंगोया और दौड़ता हुआ जीप को खोजता-निहारता भागा । भींगी हुई धोती से पानी और बुद्धन के शरीर से पसीना टप-टप चू रहा था । " [2] यह कहानी तथाकथित ब्राह्मणों को परिवर्तित समय के साथ अपने विचारों में परिवर्तन करने का संदेश देती है तथा उन्हें सचेत करती है कि वे वंचित वर्ग को निर्बल समझकर अब उन पर अत्याचार करने का प्रयास न करें । साथ ही, यह कहानी वंचित वर्ग के लोगों को अपने पद का भरपूर लाभ उठाने और अपने शत्रु-वर्ग को सबक सिखाने का भी संदेश देती है ।
'माता का भार' कहानी की कथावस्तु कमालपुर गाँव के ब्राह्मणों और उससे सटे हुये सुखदेव टोला के चमारों के बीच परंपरा संबंधी विवाद पर आधारित है । इस कहानी का नायक कमल नामक युवक है । वह बुद्धिजीवी और शालीन था । जब सुखदेव टोला के लोग कलकत्ता, बनारस, दिल्ली आना-जाना शुरू कर दिये, तो उस टोले में परिवर्तन की लहरें दौड़ने लगीं । सबसे पहले लोगों ने दूसरों की मजदूरी करना छोड़कर स्वतंत्र रोजगार करना शुरू कर दिया । स्वतंत्र रोजगार से लोगों में स्वतंत्र विचार पैदा होने लगे । फटे-पुराने चिथड़ों में लिपटी अर्धनग्न महिलाओं के शरीर पर सिंथेटिक की हरी-पीली साड़ियाँ लहराने लगी । जहाँ पहले उस टोले के बच्चे गाय, सूअर के पीछे घूमते नजर आते, अब वे लंबे-चौड़े झोले लेकर स्कूल आने-जाने लगे । परिवर्तन की लहर में लहराते लोगों ने मरी-मुवारी नहीं उठाने-फेंकने का संकल्प ले लिया । इसलिए जब कमालपुर गाँव के लुच्चा मिसिर की गाय मर गयी, तो वह अन्य ब्राह्मणों को साथ लेकर सुखदेव टोला में पहुँच गया । लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी । उस भीड़ में कमल भी उपस्थित था । एक प्रौढ़ ब्राह्मण ने निर्णयात्मक फैसला सुनाया, " लुच्चा मिसिर की गाय मर गयी है । इसे अपने लोगों से कहकर फेंकवा दो । जैसे पहले से होता आ रहा है, वह रिवाज कायम रहना चाहिए । " यह सुनकर कमल ने कहा, " सैकड़ों रिवाज, रीति, परंपरा को आप लोग तोड़ गये, उस पर विवाद नहीं है । आज भी अपने रीति-रिवाज को आप लोग धड़ल्ले से तोड़ रहे हैं । यह बात समझ में नहीं आती कि मरी गाय उठाने, फेंकने की परंपरा पर आप लोग क्यों अड़े हुये हैं ? " उस ब्राह्मण प्रौढ़ ने पूछा, " कौन सी परंपरा ब्राह्मणों ने तोड़ी है, जरा हम भी तो सुनें । " तो कमल ने कहा, " बूटन मिसिर अंडा बेचता है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? गेंदा पांडे चाय बेचता है । सबकी जूती प्याली ढोता है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? लुच्चा मिसिर खुद शराब बेचता है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? रीझन उपाध्याय चोरी के केस में चार साल से जेल की हवा खा रहा है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? जिस तरह नवलपुर बाजार में सीवन मिसिर की पिटाई हुई, कारण सबको मालूम है । क्या यह ब्राह्मणों की परंपरा है ? आप लोगों ने सैकड़ों परंपराएँ तोड़ दी, तब हम लोगों ने एक परंपरा तोड़ दी है । हम लोगों ने जानवर, जूते का कारोबार बंद कर दिया है । " [3] इन संवादों से स्पष्ट है कि इस कहानी का नायक कमल तर्कशील और क्रांतिकारी युवक है । वह बेगारी और गुलामी की प्रथा का विरोधी है । कमल घुमा-फिराकर कोई बात नहीं करता है, क्योंकि वह स्पष्टवादी है । उसने स्पष्ट शब्दों में कहा, " यह गाय तो लुच्चा मिसिर की है । माँ भी उसी की हुई । इस गाय का दूध उसने पीया । इसका बछड़ा उसने लिया । इसके गोबर का भी उपयोग लुच्चा मिसिर ने ही किया । आज जब गाय मर गयी, तब लुच्चा मिसिर के लिए उसकी माता भार बन गयी । माता के शव को अछूतों से उठवाना, फेंकवाना, चिरवाना, उसकी खाल उधेड़वाना, क्या यह गौ माता का अपमान नहीं है ? " [4] बुद्ध शरण हंस जी ने इस कहानी के माध्यम से तथाकथित ब्राह्मणों की निम्न मानसिकता पर कटाक्ष किया है । क्योंकि एक तो वे गाय (पशु) को माता कहते हैं, दूसरे उसी माँ की मृत्यु होने पर उसे कंधा देने से इनकार करते हैं । तथाकथित ब्राह्मण स्वच्छता और पवित्रता का ढोंग करते हैं । वे कामचोर हैं, इसलिए अपनी गौ-माता का भार स्वयं उठाने की बजाय श्रमिक लोगों के कंधों पर लादना चाहते हैं । यह कहानी वंचित वर्ग के लोगों को इस प्रकार के ढोंग से सावधान करती है ।
'धम्म जीवन' कहानी में हंस जी ने बौद्ध धम्म के अनुसार जीवन जीने की विशेषता का वर्णन किया है । इस कहानी का नायक मंगल नामक युवक है, जो समझदार और जिज्ञासु है । धरमपुर गाँव में बीस परिवार भूमिहार, दस परिवार ब्राह्मण, तीस परिवार कुर्मी, दस परिवार अहीर, तेरह परिवार मुसलमान, चौबीस परिवार कोइरी, आठ-आठ परिवार कहार और बढ़ई रहते थे तथा उसके बगल में स्थित करमपुर टोला में बारह परिवार चमार, दस परिवार दुसाध, पाँच परिवार मेहतर और अठारह परिवार रजवार रहते थे । एक दिन करमपुर टोला में एक बौद्ध भिक्षु पधारे । उन्होंने 'नमो बुद्धाय - जय भीम' कहकर करमपुर के लोगों का अभिवादन किया । लोगों ने ऐसी वेशभूषा और ऐसा अभिवादन करने वाला व्यक्ति पहली बार देखा था । इसलिए वे अपनी समझ के अनुसार उन्हें योगी, सन्यासी, साधु, औघड़ इत्यादि समझ रहे थे । बौद्ध भिक्षु ने अपना परिचय देते हुए कहा, " पहले आप यह जान लें कि मैं बाबा नहीं हूँ । न मैं योगी हूँ, न सन्यासी, न औघड़, न साधू, न साधक, न साईं । मैं बौद्ध धम्म का प्रचारक हूँ । मुझे 'भन्ते' कहें, तो अच्छा हो । भन्ते का मतलब होता है बौद्ध धम्म का प्रचारक भिक्षु । भिक्षु का मतलब हिंदू धर्म में भीख माँगने वाला होता है, किंतु बौद्ध धम्म में भिक्षु का मतलब शिक्षा देने वाला होता है । " [5] मंगल ने बौद्ध भिक्षु के समक्ष गौतम बुद्ध, ज्योतिराव फुले तथा बाबा साहेब आंबेडकर के बारे में अपनी जिज्ञासा प्रकट की, तो बौद्ध भिक्षु ने कहा, " गौतम बुद्ध, ज्योतिराव फुले तथा बाबा साहेब आंबेडकर इन तीनों महापुरुषों ने भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा स्वर्ग, नरक को बिल्कुल झूठ और गरीबों को ठगने वाली बात बताया है । ये सब अंधविश्वास हैं । इन सब अंधविश्वासों से आप बचें, दूर रहें । " यह सुनकर दूसरे युवक ने पूछा, " किंतु ब्राह्मण लोगों को तो दिन-रात भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक की ही बात बतलायी जाती है । दिन-रात मंदिर, पूजा, यज्ञ की रट लगाये रहते हैं । " इस पर बौद्ध भिक्षु ने कहा, " जिसका जो व्यवसाय है, वह रात-दिन वही काम करता है । इस व्यवसाय से उस व्यक्ति की जीविका चलती है । बनिया रात-दिन दुकान में बैठकर नमक, तेल, चावल बेचता है । न बेचे, तब वह भूखों मरेगा । किसान रात-दिन खेत-खलिहान में लगा रहता है । यदि किसान खेत-खलिहान में न लगे, तो वह भूखों मरेगा । मिल मालिक रात दिन मिल चलाने में व्यस्त रहता है । यदि वह न चलाए, तब वह भूखों मरेगा । इसी तरह भाग्य, भगवान, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक ब्राह्मणों का रोजगार है । इन सबके प्रचार से उनकी जीविका चलती है । यदि इन सबको वह छोड़ देगा, तब वह भी भूखों मरेगा या तुम्हारी तरह कड़ी मेहनत करके पेट पालना पड़ेगा । " [6] बुद्ध शरण हंस जी की यह कहानी तथाकथित ब्राह्मणों द्वारा प्रचारित आत्मा, परमात्मा और भाग्य संबंधी अंधविश्वास का पर्दाफाश करती है तथा धम्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है ।
'बुद्धं शरणं गच्छामि' कहानी के माध्यम से 'हंस' जी ने हिंदू देवी-देवताओं के प्रति आस्था न रखने और मंदिर में प्रवेश करके पूजा-पाठ, कीर्तन-भजन न करने का संदेश दिया है । साथ ही, उन्होंने मंदिर की बजाय शिक्षालय खोलने के लिए प्रेरित किया है । इस कहानी में अमर और कुंदन दोनों मित्रों ने मिलकर जगजीवन नगर के वंचित-वर्ग के लोगों को जागरूक किया तथा परिणामस्वरूप गाँव के नवयुवकों ने दुर्गा-मंदिर पर कब्जा करके 'रविदास शिक्षा सदन' की स्थापना कर दी । बुद्ध शरण 'हंस' जी के शब्दों में, " महीने के अंत-अंत दुर्गा मंदिर पर जगजीवन नगर के नवयुवकों ने कब्जा कर लिया । 'रविदास शिक्षा सदन' का बोर्ड मंदिर में लटक गया । दुर्गा की जगह संत रविदास, बाबा साहेब आंबेडकर का चित्र लगा दिया गया । अंधविश्वास की जगह आत्मविश्वास, पाखंड की जगह ज्ञान ने ले लिया । पुरुषों को कुंदन, महिलाओं को कमली ने रात-दिन समझाया । जय भीम, जय रविदास कंठ-कंठ से निकलने लगा । रविदास शिक्षा सदन में बुद्ध, ईशा, रविदास, कबीर दास, ज्योतिराव फुले, नारायण गुरु, आंबेडकर, जगदेव प्रसाद, ललई सिंह यादव के चित्र लग गये । " [7] कहानी के अंत में विधुर कुंदन ने विधवा कमली से विवाह करने का प्रस्ताव समाज के बीच रखा, तो कुछ लोगों ने आपत्ति जताते हुए कहा, " बड़ी अजीब बात है कुंदन बाबू ! कमली विधवा है, दुसाध जाति की है । आप विधुर हैं, चमार हैं । यह असंभव है । " यह सुनकर अमर ने कहा, " हम न दुसाध हैं, न चमार, न पासी, न डोम, न धोबी, न मुसहर । हम सभी संत रविदास के वंशज हैं, बाबा साहेब आंबेडकर के सेनानी भीमबंधु हैं । हम हिंदू नहीं हैं, बौद्ध हैं । जब तक हम हिंदू रहेंगे, दुसाध, चमार, कोइरी, गोवार बने बिखरे रहेंगे । हम बौद्ध बनकर एक होंगे, नेक होंगे । " [8] अंततः कथित चमार उपजाति के युवक कुंदन का विवाह कथित दुसाध उपजाति की युवती कमला के साथ हो गया । इस प्रकार यह कहानी अंतर्जातीय/ अंतर्-उपजातीय विवाह के लिए प्रोत्साहित करती है ।
'भोज के कुत्ते' कहानी में 'हंस' जी ने कथित ब्राह्मणों द्वारा भोज खाने और चुराने की प्रवृत्ति का यथार्थ चित्रण किया है । तीनकौड़ी साव के यहाँ भोज था । साव के पिता का देहांत हो गया था । तेरही (ब्राह्मणभोज) का आरंभ करते हुए कथित ब्राह्मण पत्तलों पर पड़े लड्डू-पूरी पर टूट पड़े । वे सब खा भी रहे थे और अपने झोले में खाना चुरा भी रहे थे । भोज खिलाने वाले युवकों ने उनका यह बर्ताव देखकर वहाँ काँव-काँव कर रहे कौवों की ओर संकेत करते हुए कथित ब्राह्मणों को चूतिया और हरामजादा कहकर उनका उपहास किया । वे नाम के ब्राह्मण समझ गये कि चूतिया और हरामजादा जैसे शब्द उन्हीं के लिए प्रयोग किये जा रहे हैं । साथ ही, डंडा से मारने की भी बात की जा रही है, तो उन्होंने वहीं पर खड़े साव से इस संबंध में शिकायत की । साव कुछ जवाब देने वाला था कि बीच में एक बूढ़े ब्राह्मण ने दाँत किटकिटाकर कहा, " साव ! जवाब दो । तुमने हमें खाने के लिए बुलाया था या बेइज्जत करने के लिए ? " सावजी का तेवर बदल गया । उसने चिल्लाकर ब्राह्मणों से पूछा, " यदि यही बात मैं तुम लोगों से पूछूँ, तो क्या जवाब दोगे ? " बूढ़े ब्राह्मण ने तैश में कहा, " पूछो, क्या पूछना है ? तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है । " साव जी ने पूछा, " मैंने तुम लोगों को खाने के लिए बुलाया था या चुराने के लिए ? " कई ब्राह्मण एक साथ पूछ बैठे, " क्या हम लोग चोर हैं ? [9] यह सुनकर साव का तेवर बदल गया । उसने भी अधिक विनती करना उचित नहीं समझा और कहा, " यदि यही बात मैं तुम लोगों से पूछूँ, तो क्या जवाब दोगे ? " जब उनके झोले की तलाशी लेने की बात की गयी, तो सब के सब भाग खड़े हुये । भागते समय उनके झूले में भरे हुये लड्डू-पूरी सब बिखर गये । चूँकि उन्होंने आधा-अधूरा खाया था, इसलिए उनके पत्तल पर लड्डू-पूरी पड़े थे, जिसे कुत्ते खाने लगे थे । एक गृहस्थ ने चिल्लाया, " मारो-मारो, देखो साले कुत्तों ने यज्ञ भ्रष्ट कर दिया । " लेकिन साव ने बहुत ही गंभीरता और शालीनता के साथ कहा, " खाने दो भाई, खाने दो । जो कुत्ते थे, वे भाग गये । असली संत ये ही हैं । ये सिर्फ खाएँगे । एक दाना भी ये चुराकर नहीं ले जाएँगे । जिसका चरित्र उत्तम है, वही ब्राह्मण है । जो ठग है, पाखंडी है, बातुनी है, लम्पट है, लुच्चा है, वह ब्राह्मण तो क्या, इन कुत्तों से भी गया गुजरा है । " [10] 'हंस' जी की यह कहानी प्रत्यक्ष रूप से कथित ब्राह्मणों के भ्रष्ट आचरण को चित्रित करती है तथा परोक्ष रूप से तेरही (ब्राह्मणभोज) का विरोध करती है । कहानी के अंत में साव को भी यह अनुभव हो गया कि कथित ब्राह्मणों के नाम पर भोज खिलाने की परंपरा बिल्कुल गलत है ।
'काॅमरेड' कहानी में बुद्ध शरण हंस जी ने भारतीय मार्क्सवाद को वंचित वर्ग हेतु एक षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत किया है । दलजीत पासवान का ऊँचा बनता हुआ मकान देखकर लुच्चा मिसिर ने रणछोड़ सिंह से मिलकर कूटनीति की । रणछोड़ सिंह ने दलजीत के पास जाकर 'नमस्ते काॅमरेड' का संबोधन करते हुए लाल-सलाम ठोका । उसी समय जंगबहादुर रविदास पहुँचा । उसने दलजीत पासवान और रणछोड़ सिंह दोनों को संबोधित करते हुए 'जय भीम भाई लोग' कहा । दलजीत ने तो प्रत्युत्तर में 'जय भीम भाई जय भीम' कहा, लेकिन रणछोड़ सिंह के मन में आग लग गयी । दलजीत पासवान और जंगबहादुर रविदास दोनों सच्चे आंबेडकरवादी मशीनरी थे । उन दोनों ने लुच्चा मिसिर और रणछोड़ सिंह की चाल को भलीभाँति समझ लिया था । आपस में वार्तालाप करते समय दलजीत ने भारतीय मार्क्सवादियों के बारे में बताया कि कम्युनिस्ट नेता कम्युनिज्म की ट्रेनिंग लेने रूस और चीन जाते हैं, लेकिन अभी तक किसी अछूत परिवार के काॅमरेड को इन्होंने ट्रेनिंग के लिए रूस और चीन जाने नहीं दिया । यह सुनकर जंगबहादुर रविदास ने कहा, " जिन झोपड़ियों पर लाल झंडे लगे हुये हैं, जरा उनके भीतर झाँककर देखो, खाने को अन्न नहीं, पहनने को वस्त्र नहीं, जीने को रोजगार नहीं । शिक्षा नहीं, सफाई नहीं । प्रगति के प्रति न जानकार, न प्रयत्नशील । जिन झोपड़ियों पर लाल झंडे लगे हुये हैं, उन झोपड़ियों से अशिक्षा, अभाव, कुसंस्कार की बदबू आती है । इस देश में गरीबों के लिए कम्युनिज्म एक षड्यंत्र है भाई । गरीबों को गरीब बनाये रखने का षड्यंत्र, अशिक्षित को अशिक्षित बनाये रखने का षड्यंत्र । अपनी प्रगति के प्रति लापरवाह बनाकर किसी बनावटी समस्या में उलझाये रखने का षड्यंत्र । " दलजीत पासवान ने भी उसके समर्थन में मार्क्सवादियों का चरित्र-विश्लेषण करते हुए कहा, " ये काॅमरेड धर्म को विष कहते हैं, मगर सभी दकियानूस हिंदू हैं । ऊपरी तौर पर ये छुआछूत की निंदा करते हैं, किंतु किसी सवर्ण काॅमरेड ने न मनुस्मृति की होली जलाई जैसा कि बाबा साहेब आंबेडकर ने जलाई थी । वेद, पुराण, स्मृति, रामचरितमानस जैसे छुआछूत, जातिवाद फैलाने वाली पुस्तकों की निंदा कोई सवर्ण कम्युनिस्ट नहीं करता, फाड़ना और जलाना तो दूर की बात है । ये सवर्ण कम्युनिस्ट जाति में ही जीते हैं और जाति में ही मरते हैं । भारतीय कम्युनिस्ट के लोग 'बगुला काॅमरेड' हैं । मछलियों को सुरक्षा का उपदेश देकर उन्हीं का भक्षण करने वाले । " [11] अगली सुबह लुच्चा मिसिर जंगबहादुर रविदास के घर आया और अभिवादन में 'जय श्रीराम रविदास भाई !' कहा, तो जंगबहादुर ने मुस्कुराकर कहा, " जय भीम मिसिर जी ! " [12] यह सुनकर लुच्चा मिसिर का मुँह कड़वा हो गया । वह मन ही मन उसे गाली देने लगा । इस प्रकार दोनों आंबेडकरवादी मिशनरियों ने उन दोनों पाखंडियों को उनकी चाल में सफल नहीं होने दिया । रणछोड़ सिंह चाहता था कि दोनों मिशनरी मार्क्सवादी आंदोलन से जुड़कर अपने मुख्य आंदोलन से भटक जाएँ । लुच्चा मिसिर चाहता था कि वे दोनों भक्ति-भजन में लीन होकर मंदिर-निर्माण करने का प्रयोजन करें, जिससे कि लुच्चा मिसिर का धंधा चल सके । 'हंस' जी की यह कहानी वंचित-वर्ग के लोगों को छद्म मार्क्सवाद और हिंदूवाद से सावधान रहने तथा बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के मिशन को पूरा करने हेतु समर्पित रहने की शिक्षा देती है ।
'तीन महाप्राणी' कहानी एक ऐसी कहानी है, जिसमें तीन नायक हैं और तीनों जानवर हैं । एक है सुअर, दूसरा है कुत्ता, तीसरा है गदहा । वैसे तो, हिंदी में प्रेमचंद-युग से ही कहानी का स्वरूप मनुष्य-पात्रों को आधार बनाकर सृजित किया जाने लगा । पहले की कहानियों की तरह पशु-पक्षियों को मनुष्यों से संवाद करते हुए चित्रित करना कहानीकारों को स्वीकार नहीं था । लेकिन जब कहानी में मनुष्य-पात्रों की जगह पशु हों तथा वे मनुष्य के प्रतीक हों, तो बात कुछ और हो जाती है । 'तीन महाप्राणी' कहानी में सुअर ब्राह्मण का रूपक है, कुत्ता क्षत्रिय का रूपक है और गदहा वैश्य का रूपक है । कहानीकार बुद्ध शरण 'हंस' जी ने उक्त तीनों पशुओं को जिन रूपकों से संबोधित किया है, उसका धार्मिक आधार है । हिंदू धर्म वर्ण-व्यवस्था पर आधारित धर्म है । ब्राह्मण-वर्ण के लोग सुअर की भाँति व्यवहार करते हैं । वे लोग स्वयं तो निकृष्ट कर्म में लीन रहते हैं, लेकिन वंचित-वर्ग के लोगों से छुआछूत और भेदभाव का बर्ताव करते हैं । क्षत्रिय-वर्ण के लोग कुत्ते की भाँति व्यवहार करते हैं । वे लोग ब्राह्मणों के संकेत पर अन्य वर्णों के साथ कुत्तों की भाँति लड़ने के लिए तत्पर हो जाते हैं । वैश्य-वर्ण के लोग गदहे जैसा व्यवहार करते हैं । वे ब्राह्मण-वर्ण और छत्रिय-वर्ण की सेवा में लगे रहते हैं । वे हिंदू धर्म का बोझ गदहे की भाँति चुपचाप ढोते रहते हैं । तीनों पशुओं के परस्पर वार्तालाप से हिंदू धर्म, समाज और संस्कृति के अनेक भेद खुलते हैं । सुअर ने शूद्रों की ब्राह्मण-भक्ति का लंबा उदाहरण देते हुए कहा, " आज बाल ठाकरे शूद्र हमारे सनातन धर्म की रक्षा के लिए आकाश-पाताल एक कर रहा है । आडवाणी शूद्र सनातन धर्म का विजय-पताका लेकर हमारा विजय-रथ हाँक रहा है । विवेकानंद शूद्र ने देश से विदेश तक सनातन धर्म का डंका बजाया । कल्याण सिंह शूद्र ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए बजरंग-दल सेना ही बना लिया है । इस बजरंग-दल सेना के आगे रामविलास पासवान की दलित-सेना और कांशीराम का बहुजन समाज पिद्दी है पिद्दी । बाल ठाकरे शूद्र की शिव-सेना विनय कटियार का बजरंग-दल ने बाबरी मस्जिद को चुटकी से मसल दिया । सभी शूद्र ही तो थे, जिन्होंने हमारे सनातन धर्म की रक्षा के लिए अरबों-खरबों रुपए 'राम-ईंट' के रूप में दान भी दिये और बाबरी मस्जिद को धूल में मिला दिये । हम ब्राह्मण तो सिर्फ तमाशा देख रहे थे । शूद्र जगजीवन राम ने हमारे सनातन धर्म की रक्षा के लिए क्या नहीं किया ? हमारे कहने पर ही तो वह डॉ० आंबेडकर का विरोध करता रहा । " [13] यह सुनकर कुत्ते ने अत्यंत रोष और दुःख में अपनी जाति का पक्ष सुअर के समक्ष रखते हुए कहा, " ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र के बहकावे में आकर क्षत्रिय राजाओं ने बौद्ध सम्राट बृहद्रथ का सर कलम कर बौद्धों का राज बर्बाद कर दिया । ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए क्षत्रियों ने ब्राह्मणों का इशारा पाकर महाप्रतापी सम्राट हर्षवर्धन को पराजित करने में कुछ भी बाकी नहीं रखा । ब्राह्मण शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट और मंडन मिश्र के कहने पर क्षत्रियों ने लाखों बौद्धों की गर्दनें उतार दीं । ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए ब्राह्मणों के कहने पर क्षत्रियों ने बौद्ध साम्राज्य (मानवतावाद) समाप्त कर दिया और हैवानियत पर आधारित ब्राह्मण धर्म (सनातन धर्म) की पुनर्स्थापना कर दी । यह सब अन्याय, अनर्थ क्या क्षत्रियों ने अपने लिए किया है ? ब्राह्मण पुष्यमित्र द्वारा संकलित मनुस्मृति को क्षत्रियों ने क्या अपने लाभ के लिए काल में लागू किया ? ब्राह्मणवाद की रक्षा के लिए ही तो शत्रुओं ने यह सब कुकर्म किया है । " [14] गधे ने बड़ी गंभीरता से अपनी बात कहा, " बबूल के काँटों को तोड़ने से तो बेहतर है कि बबूल को जड़ से काट दें । आर०एस०एस०, विश्व हिंदू परिषद तथा बजरंग दल ने तो घोषणा कर दिया कि भारतवर्ष का बँटवारा होने के बाद अब इस देश में कोई मुसलमान है ही नहीं । इन लोगों ने मुसलमानों को महमदिया हिंदू कहना शुरू कर दिया है । जैसे हम लोग वर्षों से इस देश के मूलनिवासियों को शूद्र और अछूत हिंदू कहते-कहते उन्हें सचमुच का थर्ड क्लासी हिंदू बनाकर अपने आप में पचा गये, उसी तरह से मुसलमानों को महमदिया हिंदू, ईसाइयों को मसीही हिंदू कहकर अपने आप में पचा जाने की जरूरत है । " [15] 'हंस' जी की यह कहानी तथाकथित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोगों द्वारा इस देश के मूलनिवासियों के प्रति किये जाने वाले षड्यंत्र का खुलासा करती है । इस कहानी का सूक्ष्म अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि कहानीकार बुद्ध शरण 'हंस' जी को हिंदू धर्म और हिंदू धर्म से संबंधित धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक संगठनों के षड्यंत्रों की विशेष जानकारी है । 'हंस' जी इस कहानी के माध्यम से इस देश के मूलनिवासियों को शत्रुओं के षड्यंत्र से अवगत कराये हैं, ताकि वे सतर्क होकर स्वयं को सुरक्षित रख सकें ।
'फरिश्ते' कहानी का कथानक यह है कि रहीमपुर गाँव में नये-नये मास्टर तारा किरण बौद्ध नियुक्त हुये थे । वहाँ स्कूल में आया के रूप में चाँद-हसीना नाम की मुसलमान महिला थी, जिसे गाँव के लोग बुआ कहते थे । दोनों ने मिलकर उस गाँव में शैक्षिक क्रांति ला दी । दिन में लड़के-लड़कियों की पढ़ाई होती थी और रात में पुरुषों-महिलाओं की पढ़ाई । सामाजिक कार्य करते-करते मास्टर जी और बुआ दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे थे । इस बात की भनक गाँव वालों को भी हो गयी थी । एक दिन रमजान अली के दालान में पाँच-दस लोग बैठकर आपस में बातचीत कर रहे थे । रमजान अली ने कहा, " मास्टर जी अविवाहित हैं । बुआ बेवा है । दोनों हमउम्र हैं । नेक काम में दोनों चाँद-सूरज बने हुये हैं । दोनों अपनी जिंदगी में भी चाँद-सूरज बन जाएँ, तो क्या हर्ज है ? " यह सुनकर दयानंद बौद्ध ने आशंका प्रकट की, " दोनों की राय पहले जान ली जाए । दोनों हो सकता है राजी न हों । " मौलवी जी ने कहा, " मगर मास्टर जी बौद्ध हैं, बुआ मुसलमान है । " इस पर रमजान अली ने कहा, " अरे इंसान तो हैं न दोनों । बौद्ध और मुसलमान वे दोनों अपने लिए होंगे । हम लोगों के लिए तो दोनों फरिश्ते हैं, फरिश्ते । फरिश्तों की न जात होती है, न घेराबंदी हो सकती है । " [16] बुद्ध शरण 'हंस' जी की ने इस कहानी में लड़के-लड़कियों के साथ अनपढ़ पुरुषों और महिलाओं के लिए भी शिक्षा को महत्वपूर्ण और अनिवार्य दिखाया है । यह कहानी दो धर्मों के लोगों के बीच वैवाहिक-संबंध बनाने का प्रबल समर्थन करती है । इस कहानी में विधवा-पुनर्विवाह को स्वीकृति दी गयी है तथा अविवाहित मास्टर जी ने विधवा बुआ से विवाह करके वैवाहिक स्तर (अविवाहित और विधवा के बीच संबंध) की योग्यता-अयोग्यता को निरर्थक सिद्ध कर दिया है ।
'अहिंसा परमो धम्म' कहानी में रत्ना नाम की लड़की के माता-पिता का देहांत हो चुका था । वह अपनी नानी के साथ एक बौद्ध विहार के पास रहती थी, जिसमें भिक्षु शीलपुत्र उपासकों को धम्मोपदेश दिया करते थे । रत्ना जब स्कूल जाती, तो कुछ मनचले उसके साथ छेड़खानी करते थे । एक दिन तो उन्होंने हद कर दी । रात्रि का सुनसान प्रहर था । अचानक भिक्षु शीलपुत्र के कानों में चीख सुनाई पड़ी - 'माँ बचाओ । भंते जी बचाओ ।' वे समझ गये कि चीख रत्ना की है और उस पर विपत्ति आ पड़ी है । उन्होंने अपने पास अंधेरे में लाठी-डंडा टटोलना चाहा, जो नहीं मिला । उन्हें सब्जी काटने वाला चाकू हाथ लग गया । वे उसी को लेकर आहिस्ते से रत्ना के घर के दरवाजे पर पहुँचे । दरवाजा खुला था । दुष्कर्मियों ने कमजोर दरवाजे को धक्का देकर तोड़ डाला था । दो बदमाश रत्ना को घसीट रहे थे । भिक्षु ने पीछे से एक बदमाश के पंजर में चाकू घोंप दिया । चाकू पेट के अंदर धँसते ही एक बदमाश जमीन पर गिरकर छटपटाने लगा, दूसरा बदमाश रत्ना को छोड़कर बाहर भाग निकला । जब वहाँ ग्रामीण इकट्ठे हुये, तो ग्रामीण ने पूछा, " भंते ! इस बदमाश की हत्या किसने की है, रत्ना ने या आपने ? " भिक्षु ने पूरे विश्वास से निर्भयपूर्वक कहा, " मैंने । " ग्रामीण ने फिर पूछा, " किंतु आप तो 'पाणातिपाता वेरमणि मनीषिका सिक्खापदं समादियामि' (प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।), अहिंसा परमो धम्म (अहिंसा पवित्र धम्म है ।) का पाठ पढ़ाते रहे हैं । फिर यह हिंसा ? " यह सुनकर भिक्षु शीलपुत्र ने हिंसा के संबंध में बुद्ध वचन की व्याख्या की और कहा, " अपनी जान देकर या आततायी की जान लेकर किसी की या अपनी जान की रक्षा करना हिंसा है । किसी आततायी को अपनी या दूसरे की जान या इज्जत लूटने देना अहिंसा नहीं है । " दूसरे ग्रामीण ने टिप्पणी की, " भंते जी ! खून करना भी अहिंसा है, यह पहला अनुभव सुन, देख रहा हूँ । " तब भिक्षु शीलपुत्र ने लोगों को समझाया, " यह खून और हत्या तो परिणाम हुआ उपासक । कारण हुआ आततायी का अत्याचार । अकारण हिंसा, हिंसा है । जहाँ अपनी या दूसरे की जान, इज्जत बचाने के लिए हिंसा ही एक विकल्प है, वहाँ हिंसा अनिवार्य है और यह भी अहिंसा ही है । " [17] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी अहिंसा के सिद्धांत की सम्यक विवेचना प्रस्तुत करती है । अहिंसा का तात्पर्य यह नहीं है कि किसी शत्रु के द्वारा अपने जान-माल की हानि होने पर भी व्यक्ति चुपचाप तमाशा देखता रहे । अहिंसा का तात्पर्य है - अकारण हिंसा न करना । यदि अपने प्राण और सम्मान की रक्षा के लिए किसी की हिंसा (हत्या) करनी पड़े, तो वह हिंसा नहीं है । बल्कि इस प्रकार की हिंसा भी अहिंसा की श्रेणी में ही आती है ।
'फादर चकलाकल' कहानी 'मैं' शैली (आत्मकथात्मक शैली) में लिखी गई है, लेकिन इस कहानी का नायक 'मैं' नहीं है । बल्कि 'मैं' (लेखक) कहानी का एक गौण पात्र है, जिसे उप-नायक भी नहीं कहा जा सकता है । कहानी का नायक फाॅदर चकलाकल के०आर० मिशन बेतिया का एक कार्यकर्ता था, जिसका सर्विस एरिया रतनपुरवा था । पचास वर्ष का फाॅदर चकलाकल साइकिल से 95 किलोमीटर की दूरी तय करके अपना मिशनरी कार्य किया करता था । लेखक बुद्ध शरण 'हंस' जी ने फाॅदर चकलाकल के कार्यों को निकट से देखना उचित समझा, इसलिए एक दिन वे रतनपुरवा मिशन फार्म पर गये । वहाँ फाॅदर चकलाकल का आश्रम था, जिसमें क्षेत्र के स्त्री-पुरुषों को शिक्षित किया जाता था । 'हंस' जी के शब्दों में, " आश्रम के पास बाँस, खर की सुंदर झोपड़ी बनी थी, जिसमें पचास-साठ स्त्री-पुरुष बैठे पढ़-लिख रहे थे । यह था - 'जागृति स्कूल' । फादर चकलाकल ने सभी लोगों से मेरा परिचय कराया । ये रतनपुरवा गाँव के लोग थे । मैंने उपस्थित स्त्री-पुरुष से कुछ पूछा । जो कुछ जानकारी मिली, वह मेरी कल्पना से बाहर की बात थी । रतनपुरवा गाँव में सभी टोलों को मिलाकर सौ परिवार रहते हैं । पास में स्कूल नहीं है । एक भी स्त्री-पुरुष बच्चे-बच्चियाँ यहाँ शिक्षित नहीं थे । फादर चकलाकल ने इसी झोपड़ी में स्त्री-पुरुष सबको शिक्षित किया है । आज गाँव की साठ वर्ष की बूढ़ी भी अपना दस्तखत करती हैं । ... लोगों ने यह भी बताया कि गाँव में प्रत्येक काम के लिए सेना बनी हुई है । जैसे - शिक्षा सेना, सफाई सेना, रोजगार सेना, उत्पादन सेना, सुरक्षा सेना, स्वास्थ्य सेना आदि । सभी सेना के अलग-अलग कमांडर हैं । पुरुष भिन्न-भिन्न सेना के सिपाही हैं । " [18] एक दिन फाॅदर चकलाकल लेखक के पास आया और बताया कि बगहा में करीब एक हजार बंधुआ मजदूर हैं । उन बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के लिए फाॅदर चकलाकल ने प्रशासन से लेकर सरकार तक बहुत दौड़-धूप की थी, जिसका मुकद्दमा उच्चतम न्यायालय में चल रहा था । उसने कहा, " ये ब्राह्मण, लोगों को अछूत बनाए हुये हैं, पिछडे़ बनाये हुये हैं, अशिक्षित-गँवार बनाये हुये हैं, अंधविश्वासी-अंधभक्त बनाये हुए हैं । ये जनता को दबाकर रखे हुये हैं । इनकी दादागिरी आम जनता के सीधेपन पर चलती है । हम लोग आम जनता को शिक्षित करते हैं, उन्हें समानता, भाईचारा की शिक्षा देते हैं । उन्हें जागरुक करते हैं, उन्हें रोजगार सिखाते हैं । यही इनकी चिढ़ है । ये कहते हैं, हम सबको ईसाई बनाते हैं । आपने तो आश्रम के पास रतनपुरवा गाँव में बहुत से लोगों को देखा, किसी को ईसाई पाया । वे कल भी हिंदू नहीं थे, आज भी हिंदू नहीं हैं । वे कल भी थारू आदिवासी थे, आज भी थारू आदिवासी हैं । कल वे सोए थे, आज जागे हुये हैं । " यह सुनकर 'हंस' जी को फाॅदर चकलाकल में सच्चे आंबेडकरवादी मिशनरी के गुणों का अनुभव हुआ । 'हंस' जी के शब्दों में, " मुझे फादर चकलाकल की बातें सुनकर अनुभव हुआ कि ये व्यक्ति भले क्रिश्चियन मिशनरी हैं, किंतु यह बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर की विचारधारा के कार्यपालक एजेंट हैं । बाबा साहेब ने यही तो कहा था - शिक्षित करो, संघर्ष करो, संगठित करो । पूरे बगहा की अशिक्षित जनता को शिक्षित करने में ये लगे हुये हैं । सबको जीने के लिए संघर्ष करना सिखा रहे हैं । अपनी प्रगति, सुरक्षा, सम्मान के लिए सबको संगठित कर रहे हैं । बाबा साहेब आंबेडकर के अनुयायी इन सब कार्यों का तोता-पाठ करते हैं, मगर करते नहीं है । वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं । " [19] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी आंबेडकरवादियों को आंदोलन के सही दिशा का ज्ञान कराती है । यह कहानी इस झूठ से भी पर्दा उठाती है कि ईसाई मिशनरी वंचित-वर्ग के लोगों और आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए ही उनके बीच में जाते हैं ।
'गीदड़म्' कहानी में यमुना और जगदीप दो जागरूक नवयुवक अपने गाँव में संघर्ष-मोर्चा चलाते थे । दोनों नवयुवकों ने 'समता सैनिक दल' के कैडर में एक-दो बार भाग लिया था । 'बामसेफ' की एक-दो बैठकों में भी उन दोनों ने भाग लिया था । वर्तमान में वे महामना ज्योतिराव फुले और डॉ० आंबेडकर की विचारधारा में तल्लीन थे । एक दिन उन दोनों ने बाजार की ओर जाते हुए अपने गाँव के जुगल यादव, उसकी पत्नी और उसकी पुत्री को बदहवास हालत में देखा । पूछने पर मालूम हुआ कि जुगल यादव की पुत्री मुनिया घर में अकेली थी, बिल्टू सिंह और फेंकू सिंह दो मनचलों ने एकांत पाकर दिन में ही घर में घुसकर मुनिया के साथ बलात्कार कर दिया था । जगदीप और यमुना जानते थे कि केस-मुकद्दमा करने से कोई लाभ होने वाला नहीं था । दोनों को पता था कि महिला कैदियों के साथ थाने में आये-दिन बलात्कार होता रहता है । उन्हें संदेह था कि बिलटू और फेंकू ने थाने में पहुँचकर दरोगा को रुपये थमा दिये होंगे, इसलिए न्याय की उम्मीद नहीं है । जगदीप और यमुना ने अपने संघर्ष-मोर्चा के सदस्यों की बैठक बुलायी । एक नवयुवक ने पूछा, " मामला क्या है, यह तो बताइए ? " तो यमुना ने कहा, " युगल यादव की बच्ची मुनिया को बिलटू और फेंकू ने दिन-दृष्टि बलात्कार किया है और दोनों कुत्ते थाना-पुलिस से मिलकर हीरो बनकर गाँव में घूम रहे हैं । " यह सुनकर एक नवयुवक ने कहा, " क्यों नहीं बिलटुआ और फेंकुआ दोनों की बहन का बलात्कार कर दो ? बोलो, तो कल ही घर में घुसकर बलात्कार कर देते हैं । जैसे को तैसा जवाब दे दो । " जगदीप ने नवयुवकों को समझाया कि किसी की भी माँ-बहन को अपनी माँ-बहन की प्रतिष्ठा देना हमारा आदर्श है । अंततः विचार-विमर्श करने के बाद एक नवयुवक ने कहा, " तब कर दोगे गीदड़म्। " जमुना ने आश्चर्य के साथ पूछा, " मतलब ? " तो उस नवयुवक ने कहा, " दौड़ा कर मार दो उन सालों को, गीदड़ की तरह । " [20] इस प्रकार उसने गीदड़म् का अर्थ स्पष्ट किया । इस नये शब्द की खोज पर उसे भी प्रसन्नता हुई । सबने उस प्रतीक शब्द को स्वीकार किया । गीदड़ का जवाब 'गीदड़म्' । जब यमुना ने पूछा, " कौन करेगा गीदड़म् ? " तो सब सोचने लगे । अंत में यमुना ने ही योजना बनाया । उसने कहा, " जिसको जहाँ मौका मिले, वहीं कर दो । किंतु सावधान ! होशियारी से । आवेश में नहीं, शांति से । किसी को न पता चले और न कोई पहचान में आवे । " [21] दूसरे ही दिन गाँव में शोर मच गया कि बिलटू सिंह और फेंकू सिंह मारे गये । इस प्रकार 'गीदड़म्' कहानी में भी बुद्ध शरण 'हंस' जी ने 'अहिंसा परमो धम्म' कहानी की भाँति ही आवश्यक-हिंसा को उचित ठहराया है । इस कहानी का सार यही है कि अपराधी को दंड अवश्य मिलना चाहिए । यदि न्यायालय से न्याय न मिले, तो वंचितों को न्याय के लिए स्वयं नीति बनानी चाहिए ।
'हलबंदी' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने एक नये शब्द 'भूराबाल' का प्रयोग किया है, जिससे भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला आदि का सामूहिक-बोध होता है । 'हंस' जी के शब्दों में, " बिहार में 'भूराबाल' प्रतिक्रिया में निकला हुआ शब्द है । चमार, दुकान, मुशहर के लिए जैसे 'अछूत' या 'दलित' शब्द है । कोइरी, यादव, कहार, कुर्मी के लिए जैसे 'बैकवर्ड' शब्द है । उसी तरह दलितों और पिछड़ों ने भूमिहार, राजदूत, ब्राह्मण, लाला यानी कायस्थों के लिए 'भूराबाल' शब्द की ईजाद की है । " [22] इस कहानी में मजदूरी (पारिश्रमिक) के सवाल को उठाया गया है । वंचित-वर्ग के लोगों को तथाकथित ऊँची जाति के हिंदुओं द्वारा उचित मजदूरी नहीं दी जाती है । कहानी में रहमतपुर गाँव है और रविदास नगर टोला है । गाँव में किसान रहते थे और टोले में मजदूर । एक तरफ किसानों की बैठक में भिखारी पांडे मजदूर वंचितों के विरुद्ध 'फूट डालो-राज करो' की नीति बता रहा था, तो दूसरी तरफ मजदूरों की बैठक में मजदूरी बढ़ाने की माँग पर विचार-विमर्श किया जा रहा था । इधर रहमतपुर में यज्ञ किया जा रहा था, जिसमें चमारों को छोड़कर अन्य अछूतों को बुलाया गया था, ताकि उनको आपस में लड़ाया जा सके । उधर रविदास नगर में लोगों को जागरूक और शिक्षित बनाने का कार्यक्रम हो रहा था । 'हंस' जी के शब्दों में, " उधर रविदास नगर में 'जय भीम' स्कूल में पढ़ाई हो रही थी । दो-चार बेरोजगार नवयुवक शिक्षक बने पढ़ा रहे थे । दरअसल, ये शिक्षक कम, दलित सेना, भीम सेना, समता सैनिक दल, बी०एस०पी० के कार्यकर्ता ज्यादा थे । ये राजनीतिक स्तर पर विभक्त थे, किंतु समाज-निर्माण में सब के सब एक थे । बड़ी सुखद बात थी कि समाज-निर्माण के स्तर पर ये राजनीति को घुसने नहीं देते थे । " [23] इधर रहमतपुर के कथित सवर्णों ने प्रस्ताव पास किया कि रविदास नगर के लोगों के पशु उनके खेतों में घास नहीं चरें । यदि ऐसा हुआ, तो उन्हें पचास रुपये प्रति जानवर जुर्माना देना होगा । रविदास नगर के लोगों ने प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहा कि रहमतपुर का कोई व्यक्ति यदि अपने मरे हुये पशुओं को उठा फेंकने के लिए रविदास नगर में किसी को बुलाने आया, तो उसे एक हजार रुपये जुर्माना लगेगा । इस प्रस्ताव से रहमतपुर के बाबू बेचैन हो गये । उन्होंने प्रस्ताव पास किया कि रविदास नगर के लोगों को अपने खेतों में घास काटने नहीं देंगे । रविदास नगर के लोगों को इसी अवसर की तलाश थी । उन लोगों ने प्रस्ताव पास किया कि वे लोग उनके खेतों में इस वर्ष हल नहीं जोतेंगे और घोषणा कर दी - 'हलबंदी' । हलबंदी होने के बाद रहमतपुर के पिछड़े-वर्ग के लोगों को कथित सवर्णों की स्वार्थनीति का अनुभव हो गया । अंत में, रहमतपुर के पिछड़े-वर्ग के लोगों ने रविदास नगर के वंचितों के साथ समझौता कर लिया और वे रविदास नगर के मजदूरों को पचास रुपये प्रतिदिन मजदूरी स्वीकार कर लिये ।
'जानवर जी' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने मनुष्य की पशु-प्रवृत्ति की ओर संकेत किया है । इस कहानी में भैंस, साँड, हाथी, घोड़ा, गाय, बैल, हिरण, गीदड़ आदि जानवर-पात्र हैं, जो आपस में वार्तालाप करते हैं । सभी जानवरों ने अपने तर्क से मनुष्य को जानवर सिद्ध कर दिया है । गर्मी का दिन था । धूप तेज थी । पति-पत्नी छाता लगाये कहीं जा रहे थे । अचानक पत्नी की साड़ी में कुछ व्यवधान हुआ और वह लुढककर गिर गयी । छाता पत्नी के हाथ में था । झटके में छाता की कमानी से पति का कान नुच गया । पति ने कहा, " अंधी हो क्या ? जानवर जैसा क्यों चलती हो ? उठो । देखो, कमानी से मेरा कान नुच गया । " पास में बरगद की छाया में कुछ जानवर मित्रवत बैठे थे । पति की बात सुनकर सभी जानवरों को बुरा लगा । सभी ने अपने आप को मनुष्यों से बेहतर प्रमाणित किया । कुछ जानवरों के महत्वपूर्ण संवाद प्रस्तुत हैं । भैंस ने साँड से पूछा, " सुना मोटू ! यह आदमी क्या कह दिया ? तुम्हारा शरीर तो भारी-भरकम है, क्या तुम इस औरत की तरह कभी लुढककर गिरे हो ? " तो साँड ने कहा, " हम न कभी इस तरह से लुढके हैं, न गिरे हैं । हो सकता है लपेटा कभी गिरा हो, क्योंकि हम पशुओं में सबसे अधिक मोटा तो यही है । " लपेटा हाथी पत्ते चबा रहा था । उसने रूखेपन से कहा, " यह गिरना, लुढ़कना मनुष्यों की कमजोरी है । हम पशु न गिरते हैं, ना लुढकते हैं । आदमी बदजात होता है, बात-बात में अपना दोष जानवरों पर मढ़ देता है । " [24] 'हंस' जी एक आंबेडकरवादी मिशनरी लेखक हैं । उन्होंने कोई भी कहानी निरुद्देश्य नहीं लिखी है । इस कहानी में भी उन्होंने जानवरों के माध्यम से मिशन की बातों का उल्लेख कर दिया है । जब गाय और बकरी दोनों ने एक साथ कहा, " हम लोग तो मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगड़ते हैं । फिर भी ये कसाई हमारे पूरे खानदान को मजे से पीढ़ियों से खाते-चबाते आ रहे हैं । " तो घोड़े ने लंबा भाषण दिया, " सुधुआ का मुँह कुत्ता चाटे । यह कहावत सुनी हो न ! अपनी सींग, खुर को आक्रामक बनाओ । झटके से अपनी सींग से मनुष्य की आँख में, पेट में मारना सीखो । तब यह बेईमान मनुष्य तुम्हें मारने से डरेगा, हिचकेगा । शेर को मनुष्य क्यों नहीं खाता है ? क्योंकि उसे डर है कि कहीं शेर ही उल्टे उसे न खा जाए । मनुष्यों में पैदा हुआ डॉ० बाबा साहेब आंबेडकर ने तो साफ कहा है, बलि बकरे की दी जाती है, शेरों की नहीं । बाबा साहेब की बात को जानने और मानने का प्रयास तो करो । देख नहीं रही हो, बाबा साहेब आंबेडकर के बताये रास्ते पर नहीं चलकर शूद्र, अछूत किस तरह ब्राह्मणवाद की चक्की में पीसे जा रहे हैं । यदि आज शूद्र, अछूत ब्राह्मणों का जाल-फंदा तोड़कर बाबा साहेब के रास्ते पर चलने लगें, तो वे कल से सुखपूर्वक, सम्मानपूर्वक जीवन जी सकते हैं । " [25] इस प्रकार इस कहानी में 'हंस' जी ने भारतीय समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के कारण मनुष्यों को जानवर की श्रेणी में रखा है । जो छुआछूत और ऊँच-नीच का व्यवहार करते हैं, वे भी जानवर है और जो ऐसे व्यवहार को चुपचाप सहते हैं, वे भी जानवर हैं ।
'गौ ब्राह्मण नमो-नमो' कहानी में ब्राह्मण नशेबाज हैं और चमार, दुसाध व्यवसायी हैं । इस परिवर्तन का श्रेय बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के भाषण को दिया गया है । जगत रविदास और सुमन पासवान के बीच चमारों द्वारा मरे पशु को उठाने, फेंकने, चीरने का गंदा काम छोड़ने की बातें हो रही थी । दोनों बहुत पहले कोलकाता गये थे । कोलकाता में उन्होंने बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर का भाषण सुना था । जगत रविदास ने कहा, " सुमन भाई ! याद है, कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में योगेंद्र दा ने बाबा साहेब आंबेडकर को मुंबई से भाषण देने के लिए बुलाया था । ... बाबा साहेब आंबेडकर ने कितना समझाकर हम अछूतों से कहा था - आप लोग अपने बच्चों को पढ़ने क्यों नहीं भेजते हो ? देखो आपके गाँव का ब्राह्मण चाहे कितना भी गरीब हो, अपने लड़के को पढ़ाता है । पहले स्कूल में पढ़ाता है, फिर कॉलेज में, इसके बाद युनिवर्सिटी में । कुछ दिन के बाद ब्राह्मण का लड़का डिप्टी-कलेक्टर बन जाता है । तुम भी ऐसा क्यों नहीं करते ? " सुमन पासवान ने कहा, " सच कहा जगत भाई ! बाबा साहेब आंबेडकर की बात से ही पासवान समाज में ऐसा परिवर्तन हुआ, जो आज तक वरदान साबित हुआ है । उस भाषण में उन्होंने यह भी कहा था कि - 'मृत पशु खाना छोड़ दो ।' लोग पूछते हैं कि फिर अछूत क्या खाएँगे ? उत्तर में मैं एक सदाचारी महिला का उदाहरण देता हूँ । यदि उस पर दुर्दिन भी आ जाए, तो भी वह वेश्या का जीवन गुजारने को तैयार नहीं होगी । वह मर्यादा के लिए दुःख झेलती है । इस संसार में सम्मान से रहना सीखो । आपके मन में इस संसार में कुछ कर दिखाने की अभिलाषा होनी चाहिए । वही लोग उन्नति करते हैं, जो संघर्ष करते हैं । " [26] चमार और दुसाध समुदाय के दोनों जागरूक युवकों जगत और सुमन की अपने परिवार, समाज और जीवन के बारे में इतनी उत्कृष्ट सोच थी, जबकि दो कथित ब्राह्मणों शराबी बंडू और बंडा की सोच बहुत ही निकृष्ट थी । वे दोनों शराब पीने के लिए एक मरी गाय का चमड़ा उतारने के लिए तैयार हो गये । बंडा को मरी गाय निकट से देखकर मिचली आ रही थी । बंडू ने कहा, " महीने भर में चिखने (मसालेदार नाश्ता) के साथ दारु पियोगे, तो इसका लाभ समझ में आएगा । यह मरी हुई गाय नहीं है बंडा, हजार रुपए का नोट है नोट । " बंडा ने पूछा, " मतलब । " तो बंडू ने कहा, " हम लोग इसका चमड़ा उतारकर बेच लें । हजार रुपये के लिए हमें अपनी जोरुओं को कितनों के हाथों, कितनी रात बेचना पड़ेगा । अंधेरी रात है, कोई देखेगा भी नहीं, जानेगा भी नहीं । झट से चमड़ा उतारेंगे, पट से बेचेंगे । जाकर गंगा-स्नान कर लेंगे, गाय का गोबर खा लेंगे, सूर्य को प्रणाम करेंगे । पुराना कुआँ पाँच बार और ब्रह्म बाबा (पीपल का वृक्ष) की दस बार परिक्रमा कर लेंगे ।नया जनेऊ बदल लेंगे । चमड़ा बाजार में, रुपये पाॅकिट में । सब तरह का पाप हवा में । " [27] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी वर्तमान समाज का छायाचित्र है । वर्तमान में वंचित-वर्ग के लोग आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से अपने आपको विकसित कर रहे हैं तथा सदाचार की विशेषताओं को भी हृदयंगम कर रहे हैं । जबकि तथाकथित पवित्र सवर्ण लोग पतन की ओर जा रहे हैं और चारित्रिक रूप से अधम हो रहे हैं । इस कहानी में जगत और सुमन गंदे पेशे को छोड़कर व्यवसायी बन गये थे, जबकि कथित ब्राह्मण बंडू और बंडा दोनों शराब के आदी थे तथा शराब के लिए वे अपनी पत्नियों को भी गैर-मर्दों के साथ बेच देते थे । शराब की आदत ने ही बंडू और बंडा से गाय का चमड़ा उतारने जैसा गंदा काम भी कराया ।
'दो पैसे का भाईचारा' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने हिंदू मानसिकता वाले लोगों द्वारा चुनाव के समय किये जाने वाले समता और बंधुत्व के ढोंग को उजागर किया है । चमरू चतुर्वेदी, भिखारी मिसिर और गुप्ता ने मिलकर वंचित-वर्ग के लोगों का वोट (मत) प्राप्त करने के लिए उनकी बस्ती में सहभोज कराने की योजना बनाया । जीप में दाल, चावल, आलू, टमाटर, बैंगन, घी, अचार, पापड़ सब कुछ लादकर वे बस्ती में पहुँच गये । जब वे सारा सामान बौद्ध-विहार के मैदान में उतरवाने लगे, तो उस बस्ती के नेता पेंटर ने उन्हें रोका और बस्ती के लोगों की आपस में सलाह करने के लिए समय माँगा । बस्ती के बुद्धिजीवी लोग बौद्ध-विहार में जाकर आपस में विचार-विमर्श किये । लौटते समय मास्टर जी ने गुप्ता से सहभोज का उद्देश्य पूछा । गुप्ता ने कहा, " भाई, राय तो हम सबने मिलकर की है । जहाँ तक इस सहभोज के उद्देश्य का सवाल है, वह हम सब का आपसी भाईचारा है । हम लोग सहभोज के द्वारा अपनी एकता व भाईचारा का परिचय देना चाहते हैं । हम लोग छुआछूत, ऊँच-नीच का भेद मिटाना चाहते हैं । हम बाबा साहेब आंबेडकर के सपनों के समाज का निर्माण करना चाहते हैं । " यह सुनकर पेंटर ने कहा, " बात तो आपने ठीक कही है गुप्ता जी । छुआछूत और भेदभाव की समस्या न हमारे घर में है, न समाज में । यह समस्या तो आप सवर्णों, ब्राह्मणों के घर-आँगन में है । इसीलिए हम लोगों की राय हुई है कि यह सहभोज आपके घर में हो । " [28] गुप्ता ने कहा, " बात तो एक ही है । खाना यहाँ बने या वहाँ । लेकिन हम लोग तो गरीबों के साथ बैठकर खाने और खिलाने में ही सहभोज समझते हैं । गरीब भाइयों के बीच बैठकर खाना क्या सहभोज नहीं हुआ ? " तो मास्टर जी ने कहा, " खाना आपके रसोईघर में बने । हमारी माँ-बहनें आपके रसोईघर में खाना बनाएँगी । हमारे घर की स्त्रियाँ आपके घर-आँगन में बैठकर खाना खाएँगी । फिर हम लोग भी आपके साथ आपके आँगन में बैठकर जी भरकर खा लेंगे । इससे बढ़कर प्रेम, भाईचारा और क्या हो सकता है ? " जब भिखारी मिसिर ने कहा, " हम लोग तो बराबर गरीबों के मुहल्ले में सहभोज करते आये हैं । लोगों ने प्रेम से बनाया और सबने प्रेम से खाया । इस वर्ष सहभोज यहाँ हो जाए । अगले वर्ष जैसा सोचा जाएगा, वैसा ही होगा । " यह सुनकर मास्टर जी ने कहा, " आप लोग सहभोज नहीं, सहभोज का प्रदर्शन करते हैं । छुआछूत मिटाने का आप लोग ढोंग करते हैं । साल भर में एक-दो दिन खिचड़ी खिलाकर आप लोग अपना वोट बैंक मजबूत करते हैं। अगर ये बातें सच नहीं हैं, तो हम लोगों ने जैसा निर्णय लिया है, उसी तरीके से सहभोज हो । हम लोग तो सहभोज खाने के लिए भी तैयार हैं और खिलाने के लिए भी । अंतर सिर्फ आँगन का है । बराबर यह ड्रामा हमारे आँगन में हुआ है । हम लोग इस वर्ष आपके आँगन में यह ड्रामा करना चाहते हैं । " [29] यह कहानी उस राजनैतिक यथार्थ की ओर इंगित करती है कि कथित सवर्ण, वंचितों की बस्ती में यदि सहभोज कराते हैं, तो उनमें समता की भावना नहीं होती है, बल्कि समरसता की भावना होती है । इसलिए वंचितों को उनके सहभोज के प्रदर्शन पर मुग्ध नहीं होना चाहिए और न ही उन्हें अपना हितैषी समझकर अपना बहुमूल्य मत (वोट) देना चाहिए ।
'प्राण-प्रतिष्ठा' कहानी में 'हंस' जी ने पत्थर की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा करने के पाखंड की सत्यता को प्रकाशित किया है तथा इस मिथ्या कर्मकांड के प्रति लोगों का जो अंधविश्वास है, उससे उन्हें मुक्त होने के लिए प्रेरित किया है । इस कहानी में चमरू चतुर्वेदी ने अपनी धूर्त-विद्या से रणधीर यादव को बहलाकर, उसे शिव-भक्ति में लगा दिया । रणधीर गाँव के मनचले लड़कों को इकट्ठा करके 'शिव मंदिर निर्माण समिति' बनवाया, रसीदें छपवाया और चंदा माँगना शुरू कर दिया । महीने भर में पर्याप्त रुपया इकट्ठा हो गया । सारा रूपया चमरू चतुर्वेदी के पास रखा गया था । प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन किया गया । खीर-पूरी, मिठाई, फल आदि की व्यवस्था हो गयी थी । गाँव भर की स्त्रियाँ मंदिर की परिक्रमा कर रही थीं । अखंड-कीर्तन हो रहा था । मंदिर पवित्र हो चुका था । देव-मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी थी । तभी चमरू चतुर्वेदी का नौकर आकर उसे बताया कि उसके लड़के बबलू को साँप ने काट लिया है, वह बेहोश है । बबलू, चमरू चतुर्वेदी का इकलौता बेटा था, जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था । चमरू रोता-चिल्लाता अपने घर की ओर भागा । बबलू मर चुका था । चमरू का नौकर सिद्धू अनपढ़-गँवार था । वह बबलू का बहुत प्यारा था और बबलू उसे प्यारा था । इसलिए सिद्धू ने चमरू से कहा, " मालिक ! बबुआ में प्राण-प्रतिष्ठा कर दीजिए । मत गाड़िए, मत जलाइए । " [30] लोगों को आश्चर्य तो हुआ, लेकिन उन्हें लगा कि सिद्धू सच बोलता है । निर्जीव कंकड़-पत्थर की मूर्ति में चमरू ने रात में प्राण भरा था, मंदिर पवित्र किया था । अब उस मंदिर में अछूत नहीं जा सकता था, क्योंकि वहाँ जीवित भगवान विराजमान था और मंदिर पवित्र था । लोग इसी भ्रम में थे । लेकिन चमरू चतुर्वेदी भलीभाँति जानता था कि सत्य क्या है ? चमरू ने कातर दृष्टि से भोले-भाले सिद्धू को देखा । उसकी आँखों से आँसू बहने लगे । उसने मन ही मन में सोचा, " किसी चीज को पवित्र करना मेरे वश की बात नहीं । किसी चीज में प्राण-प्रतिष्ठा करना मेरे वश की बात नहीं । ... अपने स्वार्थ के लिए मैं सब को ठग सकता हूँ, किंतु अपने आपको, बिलखते-चीखते अपने कुल-परिवार को, अपने मृत इकलौते पुत्र को कैसे ठगूँ । मैं रोज-रोज किसी न किसी को ठगता था । आज मैं खुद ठगा गया । मैं हिंदुओं को ठगता था, लूटता था । समय ने, काल ने मुझे ठग लिया, लूट लिया । " [31] 'हंस' जी की यह कहानी तथागत बुद्ध के इस कथन का समर्थन करती है कि 'जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे ।' कहा भी जाता है - जैसी करनी, वैसी भरनी । जो व्यक्ति दूसरे को धोखा देता है, वह भी कभी न कभी अवश्य धोखा खाता है ।
'मिशनरी हूँ' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने स्वयं के द्वारा स्थापित 'आंबेडकर मिशन प्रकाशन' पटना के मिशनरी वितरक (डिस्ट्रीब्यूटर) के अनुभव को अभिव्यक्त किया है । मिशनरी एक सज्जन के घर गया । अभिवादन में वह उन्हें 'जय भीम सर' कहा, लेकिन उस सज्जन ने अभिवादन के प्रत्युत्तर में प्रश्न किया - 'क्या बात है ?' जबकि वे सज्जन स्वयं बहुजन समाज से थे, जिस समाज के उद्धार के लिए बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने अपना जीवन समर्पित कर दिया था । मिशनरी ने उन्हें डॉ० डी०आर० जाटव के द्वारा लिखी गयी पुस्तक 'डॉ० आंबेडकर का सामाजिक दर्शन, राजनीतिक दर्शन', मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा 'अपने-अपने पिंजरे' और डॉ० कुसुम वियोगी की कहानी 'चार इंच की कलम' दिखाया । उस सज्जन ने मिशनरी से उसका परिचय पूछा, तो उसने अपना नाम 'सलीम' और शिक्षा बी०ए० आनर्स बताया । यह जानकर सज्जन ने कहा, " पासवान के फेरा में पड़कर अपना जीवन क्यों बर्बाद कर रहे हो ? " मिशनरी युवक ने बुद्ध शरण 'हंस' जी के सत्कर्म की प्रशंसा करते हुए उनके द्वारा दिये गये सम्मान और सहारा हेतु उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त किया । जब मिशनरी युवक ने बाबा साहेब की चार पुस्तकों का सेट खरीदने के लिए उस सज्जन से आग्रह किया, तो सज्जन ने कहा, " मुझे अब ये सब पढ़ने की फुर्सत नहीं है । और फिर, जो कुछ इन पुस्तकों में है, वह सब कुछ तो मैं जानता हूँ । " [32] मिशनरी युवक ने कहा, " सर ! मैं इन्हीं पुस्तकों को बेचकर अपना अध्ययन कायम किये हुये हूँ । आप कुछ किताबें ले लेंगे, मुझे सहारा मिल जाएगा । और फिर, सर ! आपको क्या कमी है । मैं तो बहुत उम्मीद लेकर आपके पास आया हूँ । " सज्जन ने एक सस्ती वाली पुस्तक 'चार इंच की कलम' ली, जिसका मूल्य था - पंद्रह रुपये । उसमें भी पाँच रुपये कम कराया और मात्र दस रुपये दिया । जबकि वे सज्जन अपने कुत्ते को एक मास्टर से ट्रेनिंग दिलवा रहे थे और पूरे कोर्स का खर्च दो हजार रुपये था । कुत्ते के लिए हड्डी, दूध और बिस्कुट का कुल खर्च सात-आठ सौ रुपये महीना पड़ जाता था । जो मास्टर कुत्ते को ट्रेनिंग देता था, वह एक पुरोहित था । बाबा साहेब डाॅ० आंबेडकर के प्रति उसकी श्रद्धा थी । उसने डॉ० आंबेडकर की चारों पुस्तकें खरीद ली । मिशनरी युवक ने चारों पुस्तकों का मूल्य एक सौ पचासी रुपये बताया और पुरोहित ने पूरे रुपये दिये । मिशनरी युवक ने उन पुस्तकों के साथ पुरोहित को 'जाति का विनाश' नामक पुस्तक मुफ्त में भेंट किया । लौटते समय जब उस सज्जन ने मिशनरी युवक से कहा कि, " चाय पीकर जाओ । " तो उस युवक ने कहा, " सर ! बुरा नहीं मानेंगे । मैं आपके यहाँ चाय नहीं पी सकता । मैं मिशनरी हूँ । जहाँ बाबा साहेब के विचारों का सम्मान नहीं, वह जगह मेरे लिए सम्मान की जगह नहीं । आपको अपने बड़प्पन का ख्याल है और मुझे बाबा साहब के सम्मान का । " [33] 'हंस' जी की यह कहानी उस सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करती है कि वंचित-वर्ग का व्यक्ति जब पढ़-लिखकर नौकरी पा जाता है, तो वह सुख-सुविधाओं का भोग करने में ही मस्त रहता है । उसे अपने समाज और मिशन के प्रति लगाव नहीं होता है । जबकि कथित सवर्ण व्यक्ति भले ही पूरी तरह से सुख-सुविधा का आनंद न ले, लेकिन वह अपने समाज और मिशन के लिए समर्पित होता है । यह कहानी आंबेडकरवादी मिशनरी व्यक्ति को यह शिक्षा देती है कि जो व्यक्ति बाबा साहेब के विचारों का सम्मान न करे, उसके घर का चाय-पानी पीना भी व्यर्थ है ।
'जय अर्जक' कहानी अंतर्जातीय विवाह की पक्षधर कहानी है । शक्ति सिंह यादव और कामता प्रसाद कुशवाहा दोनों घनिष्ठ मित्र तथा 'अर्जक संघ' के सक्रिय कार्यकर्ता थे । एक दिन कामता प्रसाद, शक्ति सिंह के घर गया और अपने पुत्र का विवाह उसकी पुत्री से करने का प्रस्ताव रखा । यह सुनकर शक्ति सिंह के वृद्ध पिता ने कहा, " बबुआ ! हम आइसन न कभी सुनली, न देखली । आपस में संघ, सभा चाहे जे करीं, लेकिन शादी-ब्याह तो जात में ही होवे के चाही । " शक्ति सिंह के भाई ने कहा, " यादव-कोइरी में कभी कहीं विवाह हुआ है, जो आज आप बोल रहे हैं ? आप अपनी लड़की की शादी गैर-जाति में करिएगा ? कामता प्रसाद ने उत्तर दिया, " भाई साहब ! मेरी बच्ची भी शादी योग्य है । इस वर्ष बी०ए० ऑनर्स से पास की है । यदि इसी घर में सुयोग्य लड़का हो, तो यहीं बात पक्की कीजिए । इसमें तो मुझे ज्यादा प्रसन्नता होगी । " [34] शक्ति सिंह, उसके भाई भक्ति सिंह और उसके पिता अंतर्जातीय विवाह करने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे । वे सब पारंपरिक सोच से मुक्त होने में असमर्थ थे । लेकिन तभी शक्ति सिंह की माँ आयीं । वे भले ही वृद्ध और पुराने जमाने की थीं, लेकिन उनके मन में परिवर्तन की लालसा थी । शक्ति सिंह की माँ ने कहा, " आज दस साल से ई गाँव अर्जक संघ के अड्डा बनल है । तीसरा साल रामस्वरूप वर्मा जी और महाराज सिंह भारती जी अइलन हला । उनकर साथ रघुनीराम शास्त्री जी, बलदेव चौधरी जी, दूधनाथ सिंह जी अइलन हल । वर्मा जी और भारती जी के भाषण पर खूब ताली बजल हल । कौन बात पर ताली बजल हल ? बतावा तोहनीन ? वर्मा जी हमरा खड़ा करके सैकड़ों लोगन के बीच पूछला हल - 'माई, हमार सपना पूरा होई ? सब लोगन के बीच हम अभिमान से कहलीं - बेटा, जरूर पूरा होई । कौन सा सपना पूरा करे खातिर वर्मा जी और भारती जी हम सबके कौल करार करइलन हल ? ... क्या अर्जक संघ खाली मीटिंग करे खातिर बनल हई ? खाली ताली बजावे खातिर बनल हई ? खाली कौल करार करे खातिर बनल हई ? तू मरद लोग जिंदगी भर कौन बात के मीटिंग सभा करते रहता है ? दू घर में एक बार रामस्वरूप वर्मा जी, महाराज सिंह भारती जी और रघुनीराम शास्त्री जी के भाषण हम मेहरारू लोग सुनलीं । दुबारे ललई सिंह यादव जी अइलन हल, कानपुर वाले । सब एक बात के रट लगवलन - भाई, जाति तोड़ो, जाति तोड़ो । तब जाति तोड़ले से टूटी ? कि खाली बोले से ? " [35] अंततः यादव और कुशवाहा परिवार के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हुआ तथा अर्जक संघ के उद्देश्य की भी पूर्ति हुई । बुद्ध शरण 'हंस' जी ने इस कहानी के द्वारा अर्जक संघ के कार्यकर्ताओं को कथनी और करनी में अंतर न रखने की सीख दी है ।
'जहर पोथी' कहानी हिंदू धर्म के सभी धर्म-ग्रंथों को जहर-पोथी सिद्ध करती है । इस कहानी में रसूलपुर गाँव में मानस-कथा का आयोजन किया गया था । अमर बौद्ध नामक युवक भी मानस-कथा के आयोजन-स्थल पर उपस्थित था । लेकिन वह कथा सुनने नहीं गया था, बल्कि कथा सुनाने वाले आचार्य से मानस संबंधी कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछकर ग्रामीणों के मन का भ्रम दूर करने के लिए गया था । कथा प्रारंभ हुई । आचार्य मानस की चौपाइयों का सस्वर पाठ करते और बीच-बीच में कथा कहते । कथा सुनाते-सुनाते आचार्य दीनबंधु ने श्रोताओं से पूछा, " किन्हीं भक्तों को किसी विषय पर शंका समाधान करना हो, तो करें । " किशोर नामक युवक की प्रेरणा पाकर अमर ने पूछा, " अभी आपने रामचरितमानस का अच्छा पाठ किया और कई कथाएँ भी सुनायी । रामचरितमानस में कितने काण्ड हैं ? " आचार्य ने उपहास के लहजे में कहा, " मानस में सात काण्ड हैं । इतना भी नहीं जानते ? " अमर ने कहा, " मगर मेरे पास गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरितमानस है, जिसमें छः काण्ड ही हैं । " आचार्य ने कहा, " गलत, ऐसा हो नहीं सकता । " अमर ने अपने झोले से निकालकर रामचरितमानस आचार्य की ओर बढ़ा दिया । आचार्य ने कहा, " यह किताब तो 1956 ई० की छपी हुई है । नया रामचरितमानस में सात काण्ड हैं । यह देखो मेरे पास है । " यह कहते हुए आचार्य ने अपनी किताब दिखायी । तब अमर ने आपत्ति के लहजे में कहा, " इसका मतलब हिंदू धर्म की किताबों में मनमानी परिवर्तन किया गया है और किया जा भी रहा है । तब तो यह नकली किताब हो गयी ? " [36] आचार्य उत्तर देने में असमर्थ थे । उन्होंने सामान्य ज्ञान का प्रश्न पूछने की बजाय भक्तिभाव का प्रश्न पूछने के लिए अमर से कहा । अमर ने फिर पूछा, " रामचरितमानस में लिखा है - 'जे वरनाधम तेली, कुम्हारा, स्वपच, किरात, कोल, कलवारा ।' इसका अर्थ समझा दें ? " इस चौपाई का अर्थ बताने में आचार्य दीनबंधु झिझकने लगे । जब एक अधेड़ ग्रामीण ने जवाब देने के लिए आचार्य पर दबाव डाला, तब आचार्य ने कहा, " वर्णों में यानी हिंदू समाज में तेली, कुम्हार, डोम, कोइरी, कलाल, आदिवासी सबसे नीच हैं, अधम हैं । इस बात को कहने का मतलब बाबा तुलसी ...। " उसके बाद तो वहाँ पर इकट्ठे श्रोता आक्रोशित हो गये । कथा आयोजक शंकर तेली का भी मिजाज बिगड़ गया । वहाँ पर एक कुम्हार युवक भी उपस्थित था, उसने भी अप्रसन्नता प्रकट की । एक कलवार युवक भी था, वह भी क्रोधित हो गया । आचार्य हक्का-बक्का रह गये । कथा आयोजक किशोर ने कहा, " बंद करो यह सब ढोंग, प्रवचन । यह रामायण नहीं, जहर-पोथी है । " अंत में, आचार्य दीनबंधु भाग खड़े हुये । दूसरे दिन सुबह वही वृद्ध ग्रामीण अपने पोते को लेकर स्कूल जा रहा था । पोते ने गाँव के पोखर पर गंदागलीज में बहुत सी किताबों को फटा, फेंका हुआ देखा । उसने उत्सुकता से पूछा, " दादा ! दादा ! वह देखो, बहुत सी किताबे किसी ने फेंक दी है, जाकर उठा लें । " उस वृद्ध ग्रामीण ने कहा, " मत छूओ । वे सब गंदी किताबें होंगी - जहर पोथी । " [37] यह कहते हुए वह वृद्ध व्यक्ति अपने पोते को लेकर स्कूल की ओर चल दिया । इस प्रकार बुद्ध शरण 'हंस' जी ने इस कहानी के माध्यम से यह संदेश दिया है कि जिस धर्म-ग्रंथ में ऊँच-नीच, जाति-पाँति की बातें लिखी गयी हैं, उन्हें पढ़ना और उनका श्रवण करना सर्वथा अनुचित है ।
'को रक्षति वेदः' कहानी में बुद्ध शरण 'हंस' जी ने कथित ब्राह्मणों के मुख से यह स्पष्ट किया है कि अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग (शूद्र) ही वेदों की रक्षा करते हैं । उन्हीं के बल पर ब्राह्मणवाद और हिंदूवाद टिका हुआ है । कहानी में दुर्जन उपाध्याय संस्कृत का शिक्षक था । उसकी बदली ग्वालपुर गाँव में हुई, जहाँ वह पहली बार गया था । उसमें कई गुण थे, यथा - वह ड्यूटी का पक्का था, संस्कृत का अच्छा जानकार था, पक्का कर्मकांडी था और हिंदू धर्म का वफादार सेवक था । साथ ही वह आर०एस०एस० की शाखा का सक्रिय सदस्य भी था । उपाध्याय ने बच्चों का परिचय लेते समय उनका नाम, वर्ग और जाति सब पूछ लिया । स्कूल में सौ से ऊपर बच्चे थे, लेकिन एक भी ब्राह्मण नहीं था । इसलिए दुर्जन उपाध्याय बहुत चिंता में पड़ गया । एक दिन वह एक कथित ब्राह्मण गृहस्थ के घर गया, जिसका नाम जोखन पांडे था । बातचीत के दौरान दुर्जन ने जोखन के सामने हिंदू धर्म और ब्राह्मणवाद की सुरक्षा के प्रति चिंता व्यक्त की और कथित ब्राह्मणों की एक बैठक कराने के लिए कहा । अगले दिन जोखन पांडे ने अपने समधी दुखी मिसिर सहित भिखारी त्रिवेदी और बटोरन पांडे की बैठक करायी । बैठक में धर्म और समाज पर चर्चा होने लगी । बटोरन पांडे ने स्पष्ट किया कि अन्य पिछड़ा वर्ग यानी शूद्र ही वेदों की रक्षा करते आये हैं । यदि वे जागरूक हो गये, तो हिंदूवाद और ब्राह्मणवाद का बहुत नुकसान होगा । बटोरन पांडे ने आगे कहा, " अछूतों से हम निश्चिंत हैं । ये न पहले हिंदू थे, न आज हैं । इन बेहूदों के पास है ही क्या ? दो-चार प्रतिशत लोग पढ़े-लिखे हैं । जमीन-जायदाद के पहले भी कंगाल थे, आज भी हैं । जो लोग नौकरी-पेशा में हैं, उन्हें शराबी बना दीजिए, किसी बदसूरत औरत को उसके पीछे लटका दीजिए और कथा-पूजा के नाम पर इन्हें मनमाना लूटते रहिए । ये अछूत मार्क्स को पढ़ें या आंबेडकर को, ये अक्ल के अंधे, अंधे ही रहेंगे । इसके बावजूद यदि कोई अछूत गर्दन ताने, सर ऊँचा करे, तब किसी कोइरी, कुर्मी, अहीर, कहार, बनवार से इन्हें लड़ा दीजिए, पिटवा दीजिए या फिनिश ... । " [38] बैठक समाप्त होने की घोषणा करते हुए जोखन पांडे ज्यों ही बोलना चाहा, " आज की बैठक ... । " तभी किसी ने पुकारा, " जोखन पांडे ! ओ जोखन पांडे ! " जोखन पांडे बाहर निकला । बोला, " अरे कौन हो ? " लड़कों की भीड़ में से एक ने कहा, " हम लोग जयंती वाले हैं । ज्योतिराव फुले की जयंती का चंदा सिर्फ पाँच रुपये । " यह कहते हुए उसने पाँच रुपये की रसीद थमा दी । जोखन पांडे कहा, " कल आकर ले जाना । " पांडे ने रसीद ली और मुँह लटकाकर अंदर चला गया । दुर्जन उपाध्याय ने अत्यंत दुखी स्वर में पूछा, " ये लौंडे-छौंडे जोखन पांडे कहता है ? पंडित जी नहीं कहता ? " तो जोखन पांडे ने कहा, " पहले कहता था । अब नहीं कहता । अब किस-किसको लाठी से समझाएँ ? पेशवा ब्राह्मण का राज तो है नहीं । " [39] बुद्ध शरण 'हंस' जी की यह कहानी तथाकथित ब्राह्मणों द्वारा वंचितों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के प्रति किये जाने वाले छल को उजागर करती है । यह कहानी स्पष्ट संकेत करती है कि वर्तमान में कथित सवर्ण, वंचितों को जागरूक होते देखकर अत्यंत चिंतित हैं ।
अतः स्पष्ट है कि बुद्ध शरण 'हंस' जी का संपूर्ण कथा-साहित्य आंबेडकरवादी चेतना और आंदोलन के उद्देश्य से परिपूर्ण है । उन्होंने अपनी कहानियों में वंचित-वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग के पात्रों का नाम सुंदर और सार्थक रखा है । यथा - ताराकिरण बौद्ध, अमर बौद्ध, जंगबहादुर रविदास, दलजीत पासवान, यमुना, जगदीप, कमल, कामता प्रसाद कुशवाहा, शक्ति सिंह यादव आदि । जबकि उन्होंने कथित सवर्ण पात्रों का नाम विकृत रखा है । यथा - लुच्चा मिसिर, चोकट उपाध्याय, चमरू चतुर्वेदी, शूकर झा, दुर्जन उपाध्याय, बटोरन पांडे, भिखारी त्रिवेदी, रणछोड़ सिंह, बिलटू सिंह, फेकू सिंह आदि । उन्होंने ऐसा इसलिए किया है, क्योंकि हिंदी साहित्य में प्रेमचंद और उनके समकालीन कथित सवर्ण कहानीकारों ने अपनी कहानियों में वंचित-वर्ग के पात्रों का बहुत ही विकृत नाम रखा है । 'हंस' जी यह भली-भाँति जानते हैं कि कहानी के पात्रों के नामों का पाठकों के मन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है । 'हंस' जी की भाषा पात्रों के अनुकूल है । उन्होंने शिक्षित पात्रों के लिए शिक्षितों जैसी विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग किया है तथा निरक्षर पात्रों के लिए आवश्यकतानुसार क्षेत्रीय बोली का प्रयोग किया है । उनकी कहानियों के शिक्षित पात्र बौद्ध-आंबेडकरवादी हैं, जिन्हें सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक क्षेत्रों की अच्छी जानकारी है । 'हंस' जी की कहानियों में विश्लेषणात्मक शैली की प्रधानता है । कथानक, संवाद और भाषा-शैली की दृष्टि से बुद्ध शरण 'हंस' जी इकलौते आंबेडकरवादी कहानीकार हैं, जिनकी कहानियाँ आंबेडकरवादी साहित्य के प्रयोजन को पूर्ण करने में पूरी तरह सफल हैं ।
संदर्भ :-
[1] तीन महाप्राणी : बुद्ध शरण हंस, पृष्ठ 30, प्रकाशक - आंबेडकर मिशन पटना, दूसरा संस्करण 2007
[2] वही, पृष्ठ 32
[3] वही, पृष्ठ 37
[4] वही, पृष्ठ 38
[5] वही, पृष्ठ 44
[6] वही, पृष्ठ 45
[7] वही, पृष्ठ 60
[8] वही, पृष्ठ 60-61
[9] वही, पृष्ठ 83-84
[10] वही, पृष्ठ 85
[11] वही, पृष्ठ 93-94
[12] वही, पृष्ठ 95
[13] वही, पृष्ठ 106
[14] वही, पृष्ठ 108
[15] वही, पृष्ठ 115
[16] को रक्षति वेदः : बुद्ध शरण हंस, पृष्ठ 16-17, प्रकाशक - आंबेडकर मिशन पटना, प्रथम संस्करण 2003
[17] वही, पृष्ठ 22-23
[18] वही, पृष्ठ 28
[19] वही, पृष्ठ 31
[20] वही, पृष्ठ 48
[21] वही, पृष्ठ 50
[22] वही, पृष्ठ 53
[23] वही, पृष्ठ 60
[24] वही, पृष्ठ 65
[25] वही, पृष्ठ 66
[26] वही, पृष्ठ 77
[27] वही, पृष्ठ 86
[28] वही, पृष्ठ 91
[29] वही, पृष्ठ 92
[30] वही, पृष्ठ 104
[31] वही, पृष्ठ 106
[32] वही, पृष्ठ 110
[33] वही, पृष्ठ 111
[34] वही, पृष्ठ 121
[35] वही, पृष्ठ 123-124
[36] वही, पृष्ठ 132
[37] वही, पृष्ठ 134
[38] वही, पृष्ठ 143
[39] वही, पृष्ठ 146
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मोहरगंज, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल : 9454199538
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