'शवयात्रा' कहानी की शवपरीक्षा


'शवयात्रा' कहानी 'इंडिया टुडे' (22 जुलाई 1998) में छपी थी । इस कहानी के प्रकाशित होते ही कई आलोचकों ने इसकी कड़ी आलोचना की । रत्नकुमार सांभरिया ने लिखा है, " 'शवयात्रा' के बहाने वाल्मीकि ने चमार जाति को बड़ा ही निष्ठुर, संवेदनहीन और घोर जातिवादी दिखाया है । वाल्मीकि 'कफन' जैसी कहानी के विरोधी रहे हैं, लेकिन 'शवयात्रा' खुद 'कफन' से होड़ है । 'शवयात्रा' की शुरुआत होती है - 'चमारों के गाँव में बल्हारों का एक कुनबा था, जो जोहड़ के पार रहता था । कफन की शुरुआत है - 'गाँव में चमारों का एक कुनबा था, बहुत ही बदनाम' । " [1] डाॅ० श्योराज सिंह 'बेचैन' 'हिंदी दलित साहित्य का इतिहास : शोध और सृजन' विषय लेकर अध्येता के तौर पर सितंबर 2006 ई० को 'भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान' शिमला, हिमाचल प्रदेश में दाखिल हुए थे । उन्होंने लिखा है, " मैं यहाँ एडवांस स्टडी में जब बतौर अध्येता आया था, तब मेरी मुलाकात अध्येता डॉ० दूधनाथ सिंह जी से हुई थी । उन्होंने मुझे बताया कि मैंने 'समरहिल' (अनियतकालिक अंग्रेजी पत्रिका) में ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक कहानी 'शवयात्रा' अंग्रेजी में अनुवाद करवाकर छपवाई है । शवयात्रा ही क्यों ? सलाम क्यों नहीं ? पी०आर०ओ अशोक वर्मा जी से और ज्यादा जानकारी मिली कि वाल्मीकि जी ने इस कहानी के अनुवाद के लिए कितनी मिन्नतें की । वे खुद अंग्रेजी के अनुवादक के लिए उनके घर दिल्ली तक गये । तब मैं कहानी के अंदर की कहानी समझने लगा । वाल्मीकि जी की यह गढ़ी हुई झूठी कहानी 'सवर्ण प्रिय कहानी' क्यों बनी ? वे चमारों की क्या हानि चाहते थे और व्यक्तिगत क्या पाना चाहते थे ? 'शवयात्रा' के साथ ही ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यह क्यों नहीं जाहिर किया कि यह कहानी काल्पनिक है ? जयप्रकाश वाल्मीकि द्वारा भेजी गई खबर, जिसका चमारों से कोई संबंध नहीं था, के आधार पर मनोगत चमार-द्वेष की भावना से गढ़ी गई है ? " [2] 'बेचैन' जी ने अपने एक आलेख में इस बात को और स्पष्ट लिखा है, " 'शवयात्रा' कहानी की प्रमाणिकता पर उन्होंने (ओमप्रकाश वाल्मीकि) खुद ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया था । जब लिखा था कि जयप्रकाश वाल्मीकि द्वारा भेजी गयी अखबारी खबर में लिखा था कि एक व्यक्ति साइकिल के कैरियर पर रखकर अपनी बेटी की लाश ले जा रहा था । कोई उसके साथ नहीं था । इस घटना के इर्द-गिर्द कहानी की काल्पनिक और मनोगत बुनावट की गयी । मैंने इसे 'सवर्ण प्रिय कहानी' कहा, तो मार्क्सवादी और एक ब्राह्मण आलोचक ने मुझे अपना कोपभाजक बना लिया था । " [3] इस कहानी के संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने लिखा है, " इस कहानी को लेकर कई दलित आलोचकों, लेखकों के अंतर्विरोध जिस तरह खुलकर सामने आये, वह सब पीड़ादायक है । " [4] उपर्युक्त आलोचनात्मक टिप्पणियों को पढ़कर 'शवयात्रा' कहानी पर विस्तार से विचार करना आवश्यक समझ में आया । इसलिए इस कहानी की विस्तृत समालोचना यहाँ प्रस्तुत है । 'शवयात्रा' कहानी के आरंभ में ही ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने लिखा है, " चमारों के गाँव में बल्हारों का एक परिवार था, जो जोहड़ के पार रहता था । " [5] यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि वाल्मीकि जी ने 'चमारों के गाँव' शब्द का प्रयोग किया है । जबकि चमारों का गाँव नहीं होता है, चमारों की तो बस्ती होती है और वह भी समान्यतः गाँव के दक्षिण ओर । इसीलिए 'चमटोल' (चमारों का टोला) शब्द प्रचलित है । सामान्य बोलचाल में भी लोग इसी शब्द का प्रयोग करते हैं । आज तक 'चमारों का गाँव' शब्द कहीं सुनने को नहीं मिला है । जबकि वाल्मीकि जी ने 'चमारों का गाँव' शब्द का प्रयोग किया है, जो पूरी तरह से मनगढ़ंत और काल्पनिक है । दूसरी बात यह है कि जब भी गाँव की बात की जाती है, तो गाँव में अनेक जाति, अनेक वर्ग, अनेक धर्म के लोगों की बात की जाती है, लेकिन इस कहानी में वाल्मीकि जी ने केवल चमारों की बात की है । भारतीय गाँवों की यह सच्चाई है कि किसी गाँव में एक ही जाति के लोग नहीं होते हैं । यदि कहीं पर केवल एक जाति के लोग होते हैं, तो उसे 'गाँव' नहीं बल्कि 'टोला' (मुहल्ला) कहा जाता है ।

बल्हार परिवार का मुखिया था - 'सुरजा' । सुरजा का एक बेटा था, जिसका नाम 'कल्लू' था । वह दस-बारह साल की उम्र में ही घर छोड़कर भाग गया था । कुछ साल इधर-उधर भटकने के बाद उसे रेलवे में नौकरी मिल गयी थी, जिससे वह पढ़ने-लिखने की ओर आकर्षित हुआ था । उसने हाई स्कूल करके तकनीकी प्रशिक्षण लिया और रेलवे में ही फिटर हो गया था । उसका नाम कल्लू से कल्लन हो गया था । सुरजा की एक लड़की थी - 'संतो' । जब संतो की शादी हुई, तो सारा खर्च कल्लन ने ही उठाया था । संतो शादी के तीसरे साल में ही विधवा होकर मायके लौट आयी थी । सुरजा की घरवाली को मरे भी तीन साल हो गये थे । कल्लन की शादी रेलवे कॉलोनी में ही हो गयी थी । उसके ससुर भी रेलवे में ही थे । उसे पढ़ी-लिखी पत्नी मिली थी, जिसके कारण उसके रहन-सहन में अंतर आ गया था । वह गाँव में कभी-कभी ही आता था । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " जब भी वह गाँव आता, चमार उसे अजीब सी नजरों से देखते थे । कल्लू से कल्लन हो जाने को वे स्वीकार नहीं कर पा रहे थे । उनकी दृष्टि में वह अभी भी बल्हार ही था । समाज-व्यवस्था में सबसे नीचे यानी अछूतों में भी अछूत । " [6] किसी व्यक्ति की तरक्की से किसी परिवार, मुहल्ले अथवा गाँव के कुछ लोग ईर्ष्या कर सकते हैं, सभी नहीं । लेकिन वाल्मीकि जी ने वहाँ के सभी चमारों को ईर्ष्यालु के रूप में चित्रित किया है । 'उनकी दृष्टि में वह अभी भी बल्हार था' कथन भी औचित्यहीन है, क्योंकि जब भारतीय समाज की यह सच्चाई है कि व्यक्ति चाहे जितना भी धनवान अथवा विद्वान हो जाए, लेकिन उसे उसकी जाति के नाम से ही जाना और पहचाना जाता है; तो फिर यदि एक बल्हार को बल्हार के रूप में नहीं जाना जाएगा, तो भला किस रूप में जाना जाएगा ? कल्लन की केवल आर्थिक स्थिति बदली थी, उसने धर्म नहीं बदला था अथवा वह कोई नास्तिक नहीं था । तो फिर उसे 'बल्हार' शब्द से क्यों आपत्ति हो सकती है ? यदि उसे 'बल्हार' शब्द से आपत्ति थी अथवा स्वयं लेखक वाल्मीकि जी को आपत्ति थी, तो उन्हें कल्लन को बौद्ध अथवा नास्तिक युवक के रूप में चित्रित करना चाहिए था । वाल्मीकि जी ने 'बल्हार' के लिए एक शब्द का प्रयोग किया है - 'अछूतों में अछूत' । इस प्रकार के किसी शब्द का प्रयोग तो बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने भी नहीं किया है । शायद वाल्मीकि जी अपने आपको डॉ० आंबेडकर से भी बड़ा विद्वान समझते रहे होंगे । जबकि सच्चाई यह है कि अछूत तो अछूत होता है । 'अछूतों में अछूत' शब्द बिल्कुल निरर्थक है । यह केवल अछूतों में वर्गीकरण करने की भावना से गढ़ा गया शब्द है । इसी प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का यह कथन भी अस्पष्ट और अर्थहीन है कि " गाँव वाले उसे 'कल्लू बल्हार' ही कहकर बुलाते थे । उसे यह संबोधन अच्छा नहीं लगता था । नश्तर की तरह उसे बींधकर हीन भावना से भर देता था । " [7] इस कथन में एक बात ध्यान देने योग्य है कि वाल्मीकि जी ने 'गाँव वाले' शब्द का प्रयोग किया है । गाँव वाला कोई भी हो सकता है - बाभन, ठाकुर, बनिया, अहीर, कोईरी कोई भी; केवल चमार ही नहीं ।

इस बार जब कल्लन गाँव आया, तो उसने सुरजा से अपने साथ दिल्ली चलने के लिए कहा । लेकिन सुरजा अपने जीवन के अंतिम समय में अपने गाँव को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ । कल्लन ने संतों की ओर देखा । वह तो जाना चाहती थी, लेकिन अपने बापू की बात काटने का उसमें साहस नहीं था । सुबह होते ही कल्लन दिल्ली चला गया । पैसों की व्यवस्था करके वह हफ्ते भर में लौट आया । साथ में पत्नी सरोज और दस साल की बेटी सलोनी भी आयी थी । बेटे को वे उसकी ननिहाल में छोड़कर आये थे । कल्लन ने आते ही बापू से कहा, " किसी मिस्तरी से बात करो । कल ईंटों का ट्रक आ जाएगा । " यह सुनते ही सुरजा की आँखों में चमक आ गयी थी । गाँव में अधिकतर मकान सूरतराम ठेकेदार ने बनाये थे । सुरजा उसके पास पहुँचा और मकान बनाने की बात कही । सूरतराम को कहीं जाना था । वह लौटने के बाद बात करने के लिए कहकर चला गया । वहाँ से सुरजा साबिर मिस्त्री के यहाँ गया । साबिर मान गया, लेकिन अपना मेहनताना पेशगी लेने के लिए कहा । सुरजा ने स्वीकार कर लिया । वह बहुत खुश था । जब तक वह लौटकर घर पहुँचा, तब तक ईंटें आ चुकी थीं । जोहड़ पार ईंटें उतरती देखकर गाँव के कई लोग जोहड़ के किनारे खड़े हो गये थे । रामजीलाल कीर्तन-सभा का प्रधान था । रविदास-जयंती पर रात भर कीर्तन चलता था । भीड़ में वह भी खड़ा था । उसने मकान बनवाने से पहले ग्रामप्रधान से पूछने की सलाह दी । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " रामजीलाल सीधा प्रधान के पास पहुँचा । जोहड़ पार के हालात नमक-मिर्च लगाकर उसने प्रधान बलराम सिंह के सामने रखे । " [8] वाल्मीकि जी ने रामजीलाल को एक चुगलखोर के रूप में चित्रित किया है । उन्होंने रामजीलाल के बहाने रविदास-कीर्तन-समिति के सदस्यों पर मानसिक-मलीनता का आक्षेपण किया है । हो सकता है कि कभी रविदास जयंती के अवसर पर चमारों द्वारा उन्हें मंचासीन करके सम्मानित न किया गया हो अथवा रविदास-कीर्तन में गाने का अवसर न दिया गया हो, इसीलिए उन्होंने इस कहानी के माध्यम से अपने मन की भड़ास निकाल दी है ।

अगले दिन सुबह प्रधान का आदमी सुरजा के घर आया और उसे बुलाकर प्रधान जी के पास ले गया । सुरजा को देखते ही बलराम सिंह बोला, " अंटी में चार पैसे आ गये, तो अपनी औकात भूल गया । बल्हारों को यहाँ इसलिए नहीं बसाया था कि हमारी छाती पर हवेली खड़ी करेंगे । वह जमीन, जिस पर तुम रहते हो, हमारे बाप-दादों की है । जिस हाल में हो, रहते रहो; किसी को एतराज नहीं होगा । सिर उठाकर खड़ा होने की कोशिश करोगे, तो गाँव से बाहर कर देंगे । " [9] बलराम सिंह की भाषा से ऐसा लगता है कि वह 'चमार' नहीं, बल्कि कोई ठाकुर जमींदार था । इस बात की अधिक संभावना उसके इस कथन से भी हो जाती है कि बल्हार-परिवार जिस जमीन पर बसा था, वह उसके बाप-दादों की जमीन थी । अपने बाप-दादों की जमीन पर किसी को बसाने और उजाड़ने का काम तो हमेशा से जमीदारों का ही रहा है । यदि बलराम सिंह जमींदार नहीं होता, तो ओमप्रकाश वाल्मीकि उसका परिचय देते समय उसके नाम के आगे 'सिंह' नहीं लगाते, जिस तरह रामजीलाल के नाम के आगे 'सिंह' नहीं लगाये हैं । यदि वाल्मीकि जी के समर्थक यह तर्क देंगे कि जिस क्षेत्र की यह कहानी है, उस क्षेत्र के चमार अपने नाम के आगे 'सिंह' लगाते हैं, तो भी यह प्रश्न अपनी जगह ज्यों का त्यों रहेगा कि यदि ऐसी बात है, तो फिर रामजीलाल के नाम के आगे 'सिंह' क्यों नहीं है ।

कल्लन की लड़की सलोनी को बुखार हो गया था । सरोज ने बुखार की दो चार गोलियाँ खिलायी थी, लेकिन फिर भी बुखार कम नहीं हुआ था । सरोज ने किसी डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा । गाँव भर में केवल एक ही डॉक्टर था । कल्लन उसे बुलाने के लिए गया, लेकिन डॉक्टर आने से मना कर दिया । जब कल्लन ने मरीज को क्लीनिक में लेकर आने की बात कही, तो डॉक्टर ने उसके लिए भी मना कर दिया । कल्लन निराश लौट आया । डॉक्टर ने कुछ गोलियाँ दी थीं, वे भी प्रभावहीन थीं । सलोनी की तबीयत बहुत अधिक बिगड़ गयी थी । सुबह होते ही कल्लन ने सलोनी को पीठ पर लादा । सरोज भी साथ थी । शहर गाँव से लगभग आठ-दस किलोमीटर दूर था । आने-जाने का कोई साधन नहीं था । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " कल्लन ने गाँव के संपन्न चमारों से बैलगाड़ी माँगी थी, लेकिन बल्हारों को वे गाड़ी देने को तैयार नहीं थे । " [10] भारत का इतिहास साक्षी है कि बैलगाड़ी रखने का शौक ठाकुर जमींदारों को था । कोई संपन्न चमार भला बैलगाड़ी क्यों रखेगा ? 'शवयात्रा' कहानी का प्रकाशन वर्ष इक्कीसवीं सदी के आरंभ से दो वर्ष पहले का है । उस समय तक तो जो संपन्न चमार रहे होंगे, उनके पास मोटरकारें रही होंगी । यदि किसी चमार के पास बैलगाड़ी रही भी होगी, तो उसे किसी बल्हार को देने से आपत्ति क्यों हुई होगी ? ऐसा काम तो वे लोग करते हैं, जो छुआछूत का बर्ताव करते हैं । वाल्मीकि जी ने इस कथन के माध्यम से इसी ओर संकेत किया है कि चमार बल्हारों से छुआछूत का बर्ताव करते थे । जबकि यह कथन बिल्कुल मिथ्या है, क्योंकि इस देश में चमारों के साथ सदैव छुआछूत का बर्ताव होता रहा है । जो स्वयं अछूत थे, वे किसी अछूत के साथ छुआछूत का बर्ताव कैसे कर सकते थे ? वाल्मीकि जी के इस कथन में तनिक भी सच्चाई नहीं है ।

पीठ पर लादकर सलोनी को ले चलना कठिन हो रहा था । शहर लगभग आधा किलोमीटर दूर रह गया था । अचानक कल्लन को लगा, जैसे सलोनी का भार कुछ बढ़ गया है । उसने सरोज से कहा - देखो तो, सलोनी ठीक तो है ? सलोनी के शरीर में कोई स्पंदन ही नहीं था । सरोज दहाड़ मारकर चीख पड़ी - मेरी बेटी को क्या हो गया ? देखो तो, यह हिल क्यों नहीं रही ? कल्लन ने सलोनी को पीठ से उतारकर सड़क के किनारे लिटा दिया । दस वर्ष की जीती-जागती सलोनी उसके हाथों में ही मुर्दा जिस्म में बदल गयी थी । वे शहर से लौट आये । दाह-संस्कार के लिए लकड़ियाँ उनके पास नहीं थीं । उन्होंने लकड़ियों की जगह उपले से ही मुर्दा जलाया । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " चमारों का श्मशान गाँव के निकट ही था, लेकिन उसमें बल्हारों को अपने मुर्दे फूँकने की इजाजत नहीं थी । " [11] 'चमारों का श्मशान गाँव के निकट था' इस वाक्य पर विचार करने की आवश्यकता है । क्योंकि श्मशान उस भूमि को कहते हैं, जहाँ हिंदुओं का मुर्दा फूँका जाता है और हिंदुओं की मान्यता के अनुसार श्मशान सामान्यतः नदियों के किनारे ही होते हैं । वाल्मीकि जी ने इस कहानी में 'नदी' का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है । यदि उन्होंने किसी 'कब्रिस्तान' को 'श्मशान' के रूप में नाम बदलकर वर्णित किया हो, तो वह बात अलग है । क्योंकि 'कब्रिस्तान' मुसलमानों के हर मुहल्ले में होता हैं । 'चमारों के शमशान' की बात तो बिना सिर-पैर की बात है । बाभनों का श्मशान हो सकता है, ठाकुरों का श्मशान हो सकता है, लेकिन चमारों का निजी श्मशान हो, यह तो कोरी कल्पना है । वाल्मीकि जी ने आगे लिखा है, " बल्हारों के मुर्दे को हाथ लगाने या शवयात्रा में शामिल होने गाँव का कोई भी व्यक्ति नहीं आया था । 'जात' उनका रास्ता रोक रही थी । " [12] इस कथन से उन्होंने चमारों को छुआछूत और जातिगत भेदभाव का पोष अनुपालक सिद्ध करने का प्रयास किया है, जो बिल्कुल निराधार है । अतः स्पष्ट है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कहानी 'शवयात्रा' एक मनगढ़ंत कहानी है, जिसका सामाजिक यथार्थ से कोई संबंध नहीं है । इस कहानी में चमारों के प्रति वाल्मीकि जी की कुंठा, ईर्ष्या और द्वेष-भावना अभिव्यक्त हुई है तथा वंचित-वर्ग की दो उप-जातियों में टकराव उत्पन्न करना ही इस कहानी का उद्देश्य प्रतीत होता है ।


संदर्भ :-
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[1] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - श्यौराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 189, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2018
[2] वही, संपादकीय, पृष्ठ 10
[3] ओमप्रकाश वाल्मीकि - व्यक्ति विचारक और सृजक : संपादक - डाॅ० जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 25, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[4] घुसपैठिये : ओमप्रकाश वाल्मीकि, भूमिका, पृष्ठ 8, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, पहला संस्करण 2016
[5] वही, पृष्ठ 36
[6] वही, पृष्ठ 36
[7] वही, पृष्ठ 37
[8] वही, पृष्ठ 38
[9] वही, पृष्ठ 39
[10] वही, पृष्ठ 41
[11] वही, पृष्ठ 42
[12] वही, पृष्ठ 42


=========== ।। आलोचक ।। ===========
                  ✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' 
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मोहरगंज, चंदौली (उत्तर प्रदेश) 
                    मोबाइल : 9454199538
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