सम्यक संबोधि प्राप्त करके बोधिसत्व गौतम सम्यक संबुद्ध हो गये ।


आंबेडकरवादी साहित्य के प्रिय पाठकों! इस पोस्ट में आप जानेंगे कि सम्यक संबोधि प्राप्त करके बोधिसत्व गौतम कैसे सम्यक संबुद्ध हो गये ? साथ ही आप यह भी जानेंगे कि 'बोधिसत्व' कौन और क्या होता है और एक बोधिसत्व 'बुद्ध' कैसे बनता है ? बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' में इस विषय पर बहुत गंभीरता से व्यवस्थित विवरण दिया है, जो आप लोगों के लिए यहाँ प्रस्तुत है ।

सम्यक संबोधि प्राप्त करके बोधिसत्व गौतम 'सम्यक संबुद्ध' हो गये ।

1. ज्ञान-प्राप्ति के पूर्व गौतम केवल एक 'बोधिसत्व' थे । ज्ञान-प्राप्ति के बाद ही वह 'बुद्ध' बने ।

2. 'बोधिसत्व' कौन और क्या होता है ?

3. जो प्राणी 'बुद्ध' बनने के लिए प्रयत्नशील रहता है, उसे 'बोधिसत्व' कहते हैं ।

4. एक बोधिसत्व 'बुद्ध' कैसे बनता है ?

5. बोधिसत्व को लगातार दस जन्मों तक 'बोधिसत्व' रहना पड़ता है । 'बुद्ध' बनने के लिए एक 'बोधिसत्व' को क्या करना होता है ?

6. एक जन्म में वह 'मुदिता' प्राप्त करता है । जैसे सुनार सोने-चाँदी के मैल को दूर करता है । उसी प्रकार एक 'बोधिसत्व' अपने चित्त के मैल को दूर करके इस बात को स्पष्ट रूप से देखता है कि जो आदमी चाहे पहले प्रमादी रहा हो, लेकिन यदि वह प्रमाद का त्याग कर देता है, तो वह बादल-मुक्त चंद्रमा की तरह इस लोक को प्रकाशित करता है । जब उसे इस बात का बोध होता है, तो उसके मन में मुदिता उत्पन्न होती है और उसके मन सभी प्राणियों का कल्याण करने की उत्कट इच्छा उत्पन्न होती है ।

7. अपने दूसरे जन्म में वह 'विमला-भूमि' को प्राप्त होता है । इस समय 'बोधिसत्व' काम-चेतना से सर्वथा मुक्त हुआ रहता है । वह कारुणिक होता है, सबके प्रति कारुणिक । न वह किसी के अवगुण को बढ़ावा देता है और न किसी के गुण को घटाता है ।


8. अपने तीसरे जीवन में वह 'प्रभाकारी-भूमि' प्राप्त करता है । इस समय 'बोधिसत्व' की प्रज्ञा दर्पण के समान स्वच्छ हो जाती है । वह अनात्म और अनित्यता के सिद्धांत को पूरी तरह से समझ लेता है और हृदयंगम कर लेता है । उसकी एकमात्र आकांक्षा ऊँची से ऊँची प्रज्ञा प्राप्त करने की होती है और इसके लिए वह बड़े से बड़े त्याग करने के लिए तैयार रहता है ।

9. अपने चौथे जीवन में वह 'अर्चिष्मती-भूमि' को प्राप्त करता है । इस जन्म में 'बोधिसत्व' अपना सारा ध्यान अष्टांगिक मार्ग पर केंद्रित करता है, चार सम्यक व्यायामों ऊपर केंद्रित करता है तथा चार प्रकार के ऋषि-बल पर केंद्रित करता है और पाँच प्रकार के शील पर केन्द्रित करता है ।

10. पाँचवें जीवन में वह 'सुदुर्जया-भूमि' को प्राप्त करता है । वह सापेक्ष तथा निरपेक्ष के बीच के संबंध को अच्छी तरह हृदयंगम कर लेता है ।

11. अपने छठे जीवन में वह 'अभिमुखी-भूमि' को प्राप्त होता है । अब इस अवस्था में चीजों के विकास, उनके कारण, बारह निदानों को हृदयंगम करने की 'बोधिसत्व' की पूरी-पूरी तैयारी हो चुकी है, और यह अभिमुखी नामक विद्या उसके मन में सभी अविद्या-ग्रस्त प्राणियों के लिए असीम करुणा का संचार कर देती है ।

12. अपने सातवें जीवन में बोधिसत्व 'दुरंगमा-भूमि' प्राप्त करता है । अब 'बोधिसत्व' देश, काल के बंधनों से परे है, वह अनंत के साथ एक हो गया है, किंतु अभी भी वह सभी प्राणियों के प्रति करुणा का भाव रखने के कारण देह-धारी है । वह दूसरों से इसी बात में पृथक है कि अब उसे भव-तृष्णा उसी प्रकार स्पर्श नहीं करती, जैसे पानी किसी कँवल को । वह तृष्णा-मुक्त होता है, वह दानशील होता है, वह क्षमाशील होता है, वह कुशल होता है, वह वीर्यवान होता है, वह शांत होता है, वह बुद्धिमान होता है तथा वह प्रज्ञावान होता है ।

13. अपने सातवें जीवन में वह धर्म का जानकार होता है, लेकिन लोगों के सामने वह उसे इस ढंग से रखता है कि उनकी समझ में आ जाए । वह जानता है कि उसे कुशल तथा क्षमाशील होना चाहिए । दूसरे आदमी उसके साथ कुछ भी व्यवहार करें, वह उद्विग्नता-रहित होकर उसे सह लेता है, क्योंकि वह जानता है कि अज्ञान के कारण ही वह उसकी मंशा को ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहे हैं । इसके साथ-साथ वह दूसरों का भला करने के अपने प्रयास में तनिक भी शिथिलता नहीं आने देता, और न वह अपने चित्त को प्रज्ञा से इधर-उधर भटकने देता है । इसलिए उस पर कितनी भी विपत्तियाँ आएँ, वे उसे सुपथ से कभी नहीं हटा सकतीं ।

14. अपने आठवें जीवन में वह 'अचल' हो जाता है । 'अचल' अवस्था में 'बोधिसत्व' कोई प्रयास नहीं करता । वह कृत-कृत्य हो जाता है । जो कुछ भी वह करता है, उसमें सफल होता है ।

15. अपने नौवें जीवन में वह 'साधुमती-भूमि' प्राप्त हो जाता है । जिसने तमाम धर्मों को या पद्धतियों को जीत लिया है अथवा उनके भीतर प्रवेश पा लिया है, सब दिशाओं को जीत लिया है, समय की सीमाओं को लाँघ गया है, वही साधुमती अवस्था-प्राप्त कहलाता है ।

16. अपने दसवें जीवन में बोधिसत्व 'धर्म-मेधा' बन जाता है । उसे 'बुद्ध' की दिव्य-दृष्टि प्राप्त हो जाती है । 

17. बुद्ध होने की अवस्था के लिए आवश्यक इन दसों बलों (भूमियों) को बोधिसत्व प्राप्त करता है ।

18. एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होने पर 'बोधिसत्व' को न केवल इन दस भूमियों को प्राप्त करना होता है, बल्कि उसे दस पारमिताओं को भी पूर्णता को पहुँचाना होता है ।

19.  एक जन्म में एक पारमिता की पूर्ति करनी होती है । पारमिताओं की पूर्ति क्रमशः करनी होती है । एक जीवन में एक पारमिता की पूर्ति करनी होती है, ऐसा नहीं कि थोड़ी एक, थोड़ी दूसरी ।

20. जब दोनों तरह से वह समर्थ सिद्ध होता है, तभी एक 'बोधिसत्व' बुद्ध बनता है । बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा ही 'बुद्ध' बनना है ।

21. जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत से सर्वथा प्रतिकूल है अर्थात ईश्वर के अवतार धारण करने के सिद्धांत से ।

22. जातक कथाओं का आधार है कि बुद्ध के व्यक्तित्व में गुणों की पराकाष्ठा का समावेश हुआ है ।

23. अवतारवाद के अनुसार भगवान को अपने अस्तित्व में निर्मल होने की आवश्यकता नहीं । ब्राह्मणी अवतारवाद का ब्राह्मणी सिद्धांत यही कहता है कि इस ईश्वरावतार चाहे अपने आचरण में अपवित्र और अनैतिक ही क्यों न हो, किंतु वह अपने अनुयायियों की, अपने भक्तों की रक्षा करता है ।

24. बुद्ध बनने से पूर्व बोधिसत्व के लिए दस जन्मों तक श्रेष्ठतम जीवन की शर्त और किसी भी धर्म में नहीं है । यह अनुपम है । कोई भी दूसरा धर्म अपने संस्थापक के लिए इस प्रकार की परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं ठहराता ।

निष्कर्ष : इस पोस्ट में आपने जाना कि सम्यक संबोधि प्राप्त करके बोधिसत्व गौतम कैसे सम्यक संबुद्ध हो गये ? साथ ही आपने यह भी जाना कि 'बोधिसत्व' कौन और क्या होता है और एक बोधिसत्व 'बुद्ध' कैसे बनता है ?

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संदर्भ :- बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव रामजी आंबेडकर, अनुवादक - डाॅ० भदंत आनंद कौसल्यायन, पृष्ठ 71-72, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसाइटी नागपुर, संस्करण 2011

📖  प्रस्तुतकर्ता :- ✍️  देवचंद्र भारती 'प्रखर' 
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मोहरगंज, चंदौली (उत्तर प्रदेश) 
                    मोबाइल : 9454199538
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