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।। दूसरे अंक से संबंधित संपादक के नाम पत्र ।।
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📜 आंबेडकरवादी साहित्य का घोषणा-पत्र एक मिसाल है ।
प्रिय आयु० देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी को सस्नेह जय भीम ! यह 'आंबेडकरवादी साहित्य' का प्रथम वर्ष का प्रथम अंक है । आकर्षक मुखपृष्ठ तथा सुंदर कलेवर ने मन मोह लिया । रचनाओं के चयन में शुद्ध आंबेडकरवादी साहित्य के प्रतिमान का स्वर मुखर होता दिखाई देता है । मुझे कविताओं में विशेष रुप से कांता बौद्ध, रघुवीर सिंह नाहर, डॉ० कुसुम वियोगी, पुष्पा विवेक, दिलीप कुमार कसबे, सूरजपाल सूर्यवंशी तथा सुनीता बौद्ध जी ने सोचने, समझने एवं चिंतन करने के लिए प्रेरित किया । आपके संपादकीय की क्या कहें ? हिंदी के विस्तृत परिप्रेक्ष्य में आंबेडकरवादी साहित्य का घोषणा पत्र आपने जिस वैचारिक गहराई, समझ एवं सूझ-बूझ के साथ वर्तमान परिस्थिति की संकुचित दलित मानसिकता का पर्दाफाश करके किया है, वह अपने आप में एक मिसाल है । इस संदर्भ में मुझे आंबेडकरवादी आलोचक स्मृतिशेष डॉ० तेज सिंह जी का स्मरण हुआ है । 'आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्विरोध' में ईशकुमार गंगानिया जी के विश्लेषण से आंबेडकरवादी विचारधारा का सैद्धांतिक पक्ष समझकर ही इस शुद्ध आंबेडकरवादी साहित्य की निर्मिति में सही मायने में सहायक सिद्ध हो सकेंगे । प्रोफेसर डाॅ० अर्जुन चौहान जी ने दामोदर मोरे जी के काव्य-शिल्प पर शोधपत्र के माध्यम से मूल्यांकन किया है, जिसमें बिंब, प्रतीक, अलंकार, शब्द चयन, व्यंग्य तथा संवाद शिल्प का विवेचन उचित काव्य पंक्तियों का संदर्भ देकर किया है । आनंद कुमार 'सुमन' द्वारा प्रस्तुत चौरी-चौरा कांड का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ेगा, जिसमें दलित, दमित, अछूत और शूद्रों ने अपने ऊपर होने वाले जातिवादी अत्याचार का बदला बड़ी बहादुरी से अपना बलिदान देकर लिया, इसका सच बयान किया है । कुल मिलाकर 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका हम पाठकों को आंबेडकरी साहित्य में घुसपैठ करने वाली सवर्ण मानसिकता को बेनकाब करने का भी हौसला बँधाती है । यह बहुत बड़ी बात है । आपको तथा संपादक-मंडल के विद्वान जनों को पुनश्च जय भीम !
✍️ भीमराव गणवीर,
नागपुर (महाराष्ट्र)
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📜 आंबेडकरवादी साहित्य, क्रांति का साहित्य है ।
आंबेडकरवादी साहित्य पत्रिका के संपादक महोदय जी आपको मेरा जय भीम ! आपकी पत्रिका के पहले अंक में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर मेरा ध्यान गया । आंबेडकरवादी साहित्य के विस्तृत परिप्रेक्ष्य में आंबेडकरवादी वैचारिकी शुद्ध और स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है । आपके द्वारा आंबेडकरवादी साहित्य के घोषणा-पत्र में आंबेडकर विचारधारा को पहले रखा गया है, जिसमें डॉ० आंबेडकर द्वारा ली गयी बाईस प्रतिज्ञाओं का उल्लेख किया गया है । इससे मैं काफी प्रभावित हुई हूँ । आपके अनुसार, आंबेडकरवादी साहित्य को क्रांति का साहित्य कहना उचित है, जिससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ । इस अंक में सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह दिखाई देता है कि खुद को अब दलित कहने की बजाय आंबेडकरवादी कहें ।
✍️ ललिता,
शिमला (हिमाचल प्रदेश)
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📜 दलित साहित्य को ट्रैक पर लाने में समर्थ है - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका ।
दलित साहित्य को ट्रैक पर रखने के लिए अच्छी समालोचना और दिशानिर्धारक पत्रिकाओं की महती आवश्यकता है । आंबेडकरवादी साहित्य पत्रिका में इसकी प्रबल संभावना नजर आती है । दलित साहित्य का अपना स्वरूप है, अपनी प्रवृत्तियाँ हैं । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर की बाईस प्रतिज्ञाएँ दिशा निर्धारण की लकीरें हैं । लेकिन ये अनायास ही रचना में अनुस्यूत होनी चाहिए । ध्यातव्य रहे, साहित्य रुचिकर शब्द-साधना है । परिस्थितियों के घात-प्रतिघात चरित्रों को गढ़ते हुए ऊँचाइयों की ओर ले जाएँ । पात्र गत्यात्मक हों, न कि बने-बनाये दर्शन के खाँचे में फिट हों । इससे रचना हल्की पड़ती है ।
आंबेडकरवादी साहित्य पत्रिका का अप्रैल-जून-2021 कहानी विशेषांक पढ़ा । बहुत अच्छा लगा। कहानियाँ और समालोचना एक अच्छा विमर्श उपस्थित करती हैं । प्रखर जी और आर.डी. आनंद जी की यह बात सही है कि दलित कहानीकार को दलित अस्मिता के साथ स्त्री की अस्मत का पूरा ख्याल रखना चाहिए । हिंदू कोड बिल और बाबा साहेब का मंत्री पद से त्यागपत्र सदा जेहन में रखना चाहिए । साहित्य पिक्टोग्राफी नहीं है। यथार्थ के नाम पर स्त्री चरित्रहनन की इजाजत नहीं दी जा सकती । वात्स्यायन के कामसूत्र की आंबेडकरवादी साहित्य के साथ लय बिठाने की कोशिश ट्रैक से उतरना और बाबा साहेब के दर्शन की गरिमा का हनन है । दिशा भटकना है ।
इस अंक में संकलित कहानियाँ पढ़कर अच्छा लगा । कर्दम जी की मूवमेंट कहानी का मानसिक अंतर्द्वंद्व बाबा साहेब के मिशन के प्रति समर्पित हर कार्यकर्ता के जीवन का यथार्थ है । बाबा साहेब से बड़ा इसका दूसरा उदाहरण कहाँ मिलेगा ? कुसुम वियोगी जी की कहानी 'संस्कारों का सफर...' सांस्कृतिक व्यवहार प्रतिमानों के संक्रमण के दर्द को व्यक्त करती है । रीति-रिवाजों की नई लकीरें खींचना आसान नहीं होता । अपमान और उलाहनों के दौर से गुजरना पड़ता है । श्यामलाल 'राही' की कहानी 'परिवर्तन' बहुत सुंदर कहानी है । गाँवों में थोड़ी ही सही, कुछ स्वार्थ से ही सही पर परिवर्तन की बहती बयार आशा जगाती है, उस भारत का, जिसका स्वप्न बाबा साहेब ने देखा था । विपिन बिहारी की कहानी 'मुद्दा' यथार्थ के धरातल पर उकेरी गयी कहानी है । दलित स्त्री के साथ बलात्कार अखबार वालों के लिए महत्वहीन खबर है । स्त्रीवादी नारियों के लिए पुरुषवर्चस्ववाद के खिलाफ आत्मप्रदर्शन का मुद्दा है । सवर्ण सामंतों के लिए दलित स्त्री देह भर है, मात्र एक खिलौना है । उपचार स्वयं दलित स्त्रियों को अपने पैरों पर खड़ा होना है । नैमिशराय की कहानी 'आवाजें' में मैला ढोने के खिलाफ जो आवाज उठी थी, वो अंत में उतना प्रभावोत्पादन न कर पायी, जिसकी अपेक्षा थी । देवचंद्र भारती 'प्रखर' की कहानी विवाह पूर्व लड़के-लड़की के मिलन की आतुरता-अधीरता के मनोविज्ञान पर टिकी है । चाहकर भी लड़की का इस विषयक संकोच समझा जा सकता है । समाज की यह बद्धमूल धारणा कि 'यौवन की जमीन बड़ी रपटीली होती है ।", सर्वथा गलत नहीं है । कुल मिलाकर यह अंक अपनी पूरी सार्थकता के साथ उपस्थित हुआ है ।
✍️ डॉ० शिवताज सिंह, नारनौल (हरियाणा)
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📜 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका का कहानी-विशेषांक ।
उपरोक्त पत्रिका समयान्तर्गत प्राप्त कर अतीव प्रसन्नता हुई । इस दूसरे अंक का कवर पेज विषय विशेषांक के अनुरूप अद्भुत एवं आकर्षक है । निसन्देह अपने नाम के अनुसार यह पत्रिका श्रेष्ठ साज-सज्जा के साथ अन्य पत्रिकाओं की तुलना में बेहतर है । इसके लिए पत्रिका के संपादक आदरणीय देवचन्द्र भारती 'प्रखर' जी शीर्ष सम्मान के आस्पद हैं । अपने सम्पादकीय में " प्रखर " जी ने साहित्य को परिभाषित करते हुये लेखन के विभिन्न मानकों का उल्लेख किया है । आंबेडकरवादी कहानी के संदर्भ में उनका अभिमत है कि नायक वही व्यक्ति होना चाहिए, जो समतावादी, संघर्षशील, अंधविश्वास का विरोधी, वैज्ञानिक चेतना का समर्थक और पंचशील का अनुपालक हो । वास्तव में, इन साहित्यिक तत्वों के अभाव में आंबेडकरवादी साहित्य का कोई अर्थ भी नहीं है । 'आंबेडकरवादी कहानी का स्वरूप एवं विशेषताएँ' शीर्षक आलेख में उन्होनें विस्तारपूर्वक आंबेडकरवादी कहानियों के स्वरूप तथा विशेषताओं पर प्रकाश डाला है । कथित दलित साहित्य एवं आंबेडकरवादी साहित्य में मूलभूत समानता को स्पष्ट करते हुए बताया है कि दलित साहित्य को आंबेडकरवादी साहित्य के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि उसकी स्थापना करने वालों में मुख्य भूमिका आंबेडकरवादियों की रही है । इस प्रकार इन्होंने दलित और आंबेडकरवादी साहित्य के बीच पल रहे भ्रम को खत्म किया है । रत्नकुमार सांभरिया के आलेख 'आंबेडकरवादी कहानी का रूपबन्ध' तथा सन्तोष कुमार जी के आलेख अत्यंत ज्ञानवर्क हैं । प्रकाशित छः कहानियाँ बेजोड़ और प्रशंसनीय हैं । प्रत्येक कहानी में अन्य विशेषताओं के साथ साथ आंबेडकरवादी चिंतन भी है । 'अधिकार' कहानी बिल्कुल नये कलेवर में द्रष्टव्य है, जिसके नायक और नायिका दोनों ही शील का पालन करते हुए यथार्थवादी आदर्श का उदाहरण पेश किये हैं । निसन्देह इस कहानी के लेखक देवचन्द्र भारती 'प्रखर' जी ने कहानीकारों के लिए नूतन मार्ग प्रशस्त किया है ।
इस प्रकार आंबेडकरवादी साहित्य का दूसरा अंक अपने आप में विशिष्ट है । आशा है भविष्य में पत्रिका बहुआयामी शक्ल में आकर अपने उद्देश्य की पूर्ति में सर्वथा सफल होगी । अंत में पुनः श्रद्धेय सम्पादक जी सहित सम्पादक मण्डल के माननीय सदस्यों एवं समस्त कहानीकारों तथा अन्य विद्वान साथियों को बहुत-बहुत धन्यवाद । पत्रिका के नियमित प्रकाशन हेतु मंगल कामनाएँ ।
✍️ एस. एन. प्रसाद, (से.नि.) जिला विकास अधिकारी,
यूनिटी सिटी, कुर्सी रोड, लखनऊ ।
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।। तीसरे अंक से संबंधित संपादक के नाम पत्र ।।
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