डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के विचारों से प्रभावित लोग उनकी धारा में शामिल होकर उन्हीं की गति के साथ प्रवाहित होने लगे । उनके कथनों को सिद्धांत मानकर उनका अनुसरण करने लगे । उनके विचारों को अपने दैनिक व्यवहार में लागू करने लगे । वे लोग डॉ० आंबेडकर जी के अनुयायी कहलाये । अनुयायी यानी अनुसरण करने वाला, लेकिन भक्त नहीं । भक्त और अनुयायी में यही अंतर है कि भक्त आँखें बंद करके अपने नायक के पीछे चलता है, जबकि अनुयायी आँखें खोल करके अपने नायक के पीछे चलता है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी तथागत गौतम बुद्ध के उस धम्म देशना में विश्वास रखते थे, जिसमें बुद्ध ने कौशल जनपद में स्थित केस पुत्तिय नगर के कालाम नामक क्षत्रियों से कहा था कि " किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह तुम्हारे सुनने में आई है । किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह परंपरा से प्राप्त हुई है । किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि बहुत से लोग उसके समर्थक हैं । किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह (धर्म) ग्रंथों में लिखी है । " [1] डॉ० आंबेडकर जी ने बुद्ध को केवल मार्गदर्शक माना था । बुद्ध उनके लिए श्रद्धेय थे, किंतु पूज्य नहीं । जो लोग बुद्ध की पूजा करते हैं अथवा डाॅॅ० आंबेडकर जी की मूर्ति-स्थापना करके उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण करते हैं, वे लोग ठीक तरह से आंबेडकरवाद को नहीं समझ पाये हैं और वे सही अर्थों में आंबेडकरवादी भी नहीं है । ऐसे ही लोगों के क्रियाकलाप को देखकर बहुजन समाज के कुछ धम्म-विरोधी विचारक मनुवादियों के बहकावे में आकर डॉ० आंबेडकर जी की और आंबेडकरवाद की निंदा करते हैं । इसलिए ठीक तरह से आंबेडकरवाद को समझना आवश्यक है ।
आंबेडकरवाद का अर्थ एवं परिभाषा
शब्दकोश के अनुसार 'वाद' का अर्थ है, " वह दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार संसार की सत्ता उसी रूप में मानी जाती है, जैसी वह सामान्य मनुष्य को दृष्टिगोचर है । " [2] 'वाद' शब्द संस्कृत के 'वाक्' शब्द से बना है । 'वाक्' का अर्थ है - 'वाणी'; तथा 'वाद' का अर्थ है - कथन, सिद्धांत, विचारधारा । इस प्रकार 'आंबेडकरवाद का' अर्थ है - आंबेडकर का कथन, आंबेडकर का सिद्धांत, आंबेडकर की विचारधारा । डॉ० जयश्री शिंदे जी ने 'आंबेडकरवाद' को बहुत ही सटीक शब्दों में परिभाषित किया है । उनके अनुसार, " अपमानित, अमानवीय, वैज्ञानिक अन्याय एवं असमानता, सामाजिक संरचना से पीड़ित मनुष्य की इसी जन्म में क्रांतिकारी आंदोलन से मुक्ति करके समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व एवं न्याय के आदर्श समाज में मानव और मानव (स्त्री-पुरुष समानता) के बीच सही संबंध स्थापित करने वाली नई क्रांतिकारी मानवतावादी विचारधारा को अंबेडकरवाद कहा जाता है । " [3] डॉ० एन० सिंह जी के शब्दों में, " बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के सिद्धांतों को मानना और उनका अनुसरण करना ही आंबेडकरवाद है । " [4] इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि सामान्य भाषा में और संक्षिप्त रूप में 'आंबेडकरवाद' की परिभाषा निश्चित की जाए, तो वह इस प्रकार है - बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के कथनों एवं सिद्धांतों को अपने विचार एवं व्यवहार में अंतर्निहित करना ही 'आंबेडकरवाद' कहलाता है ।
आंबेडकरवाद का अन्य वादों से संबंध
स्वयं को दलित चिंतक और बहुजन चिंतक कहने वाले साहित्यकारों ने 'आंबेडकरवाद' को संकुचित विचारधारा के रूप में स्वीकार किया, प्रचारित किया और वैचारिक रूप से सीमित भी कर दिया । सच तो यह है कि 'आंबेडकरवाद' एक व्यापक दृष्टिकोण की विचारधारा है, जिसमें समय के साथ हुए परिवर्तनों को शामिल करने की विशेषता है । इस प्रकार आंबेडकरवाद एक सार्वकालिक विचारधारा है, जो भविष्य में आने वाले किसी भी समय में अप्रासंगिक नहीं हो सकती । इसका एक कारण यह भी है कि आंबेडकरवाद का विश्व के अनेक वादों से घनिष्ठ संबंध है, जिनका विवरण निम्नवत है -
(क) आंबेडकरवाद और मानवतावाद
इटली के निवासी फ्रोसंस्को पैट्रार्क पुनर्जागरण काल में एक प्रमुख विचारक और दार्शनिक थे । उन्होंने ही मानववाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया था । पेट्रार्क ने सबसे पहले अपने साहित्य के माध्यम से मानववादी विचारों को प्रचारित किया, इसलिए उन्हें मानववाद का जनक भी कहा जाता है । अपने साहित्य के साथ ही उन्होंने अनेक यूनानी व लैटिन पुस्तकों की प्रतियाँ तैयार करके लोगों में वितरित करवायी । उन्होंने अनेक देशों की यात्राएँ भी की और मानववाद को प्रचारित किया । मानववाद का मूल आधार मानव है । मानववाद के समथर्क विदेश में पाइथागोरस और हर्डर आदि हैं । भारत में राजाराम मोहनराय, रविन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद और मोहनदास करमचंद गांधी को भी मानववादी कहा जाता है । अतः स्पष्ट है कि मानववादी वह हर व्यक्ति है, जो मानव मात्र के हित की बात करता है । प्रायः 'मानववाद' और 'मानवतावाद' दोनों शब्दों को समानार्थक रूप में प्रयोग किया जाता है, जबकि दोनों विचारधाराओं में अंतर है । इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलिजन एंड एथिक्स में मानववाद की परिभाषा इस प्रकार है कि " मानववाद तथ्यात्मक है और मूल रूप से वह एक सिद्धांत है, दर्शनशास्त्र की पद्धति मात्र नहीं । वह अमानवीय तर्क का विरोध करता है, जिसे व्यक्तिगत पूर्ववर्ती परिणामों के कारण मान लिया जाता है और निर्णय सिद्धांत तथा ज्ञानात्मक सिद्धांत के लिए अव्यावहारिक लगता है । " इस प्रकार मानववाद दर्शन नहीं, बल्कि दार्शनिक दृष्टिकोण है । मानववाद की भाँति मानवतावाद भी मनुष्य की सद्प्रवृत्तियों की सत्ता को ही विशेष महत्व देता है, लेकिन मानववाद शुद्ध रूप से तर्क बुद्धि को स्वीकार करता है, जबकि मानवतावाद व्यक्ति की संवेदनशील प्रवृत्ति को ही व्यक्ति की विशेषता मानता है । मानववाद का क्षेत्र केवल मनुष्य समाज तक ही सीमित है, जबकि मानवतावाद का क्षेत्र व्यापक है और उसकी करुणा के विस्तृत आयाम में मानव समाज के साथ-साथ वस्तु जगत के समस्त जीवों के प्रति उदारता, संवेदना और सहानुभूति के भाव सम्मिलित हैं । बौद्ध धम्म के आदि रूप को भी मानवतावाद की संज्ञा दी जाती है । यहाँ डॉ० सूर्यनारायण रणसुभे जी का यह कथन द्रष्टव्य है, " जिस प्रकार राजनीति में प्रादेशिकता और संकीर्णता उभर रही है, ठीक यही स्थिति इधर साहित्य तथा संस्कृति के क्षेत्र में भी उभर रही है । दलित साहित्य के अंतर्गत हम किसी भी गैर-दलित के प्रवेश को स्वीकारेंगे ही नहीं, यह कौन सी मानसिकता है ? यह मानसिकता डॉ० बाबासाहेब आंबेडकर के मानवतावादी विचारों के खिलाफ जाती है । " [5] प्रोफेसर आर० शशिधरन जी के शब्दों में, " यह तो सर्वविदित है कि दलित साहित्य के सृजन के मूल में आंबेडकरवादी विचारधारा है । आंबेडकर ने मानवतावाद को सर्वोच्च स्थान दिया है । " [6] परिभाषा के रूप में, " मानवीय उच्चतर मूल्यों को 'मानवतावाद' कहा जाता है । " मानवीय उच्चतर मूल्य का अर्थ है - ' स्वार्थ से ऊपर उठकर दूसरो के हित में कार्य करना ' । इस आधार पर डॉ० आंबेडकर जी सच्चे अर्थों में एक मानवतावादी विद्वान थे । इसलिए आंबेडकरवाद का मानवतावाद से घनिष्ठ संबंध है ।
(ख) आंबेडकरवाद और बहुजनवाद
बहुजन शब्द तथागत गौतम बुद्ध के धम्मोपदेशों (त्रिपिटक) से लिया गया है । तथागत बुद्ध के धम्म की विशेषता के बारे में लोकचर्चित उक्ति है, ' बहुजन हिताय - बहुजन सुखाय '। डॉ० विमल कीर्ति जी ने लिखा है कि तथागत बुद्ध ने भिक्खुओं को आदेश देते हुए कहा था, " चरथ भिक्खवे चारिकं, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देव मनुस्सानं, देसेथ भिक्खवे धम्म आदि कल्याणं, मज्झं कल्याणं परियोसान कल्याणं...। " [7] बुद्ध का धम्म बहुत बड़े जन-समुदाय के हित और सुख के लिए है । बहुजन समाज की दुर्दशा का वर्णन करते हुए रामअवतार यादव जी ने लिखा है, " अभिजनों में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य इन तीन वर्णों को 'द्विज' कहा जाता है और शूद्र में शूद्र, अतिशूद्र दो घटक बने । कुल चार वर्णों में हजारों जातियों का आविर्भाव हुआ । वर्तमान में शूद्र, पिछड़े और अतिशूद्र, दलित 'बहुजन' कहलाते हैं । श्रम विभाजन के नाम पर हुये श्रमिक विभाजन के षड्यंत्र का इतना भयंकर परिणाम हुआ कि शूद्र अतिशूद्रों की दशा एवं दिशा की कहानी रोंगटे खड़े कर देती है । " [8] 'बहुजन' शब्द का प्रयोग आधुुनिक युग में किस प्रकार हुआ ? कँवल भारती जी के शब्दों में, " कांशीराम ने दलित वर्गों को 'बहुजन' कहा और व्यवस्था से लाभान्वित होने वाले लोगों को 'मनुवादी' नाम दिया । ये दोनों नाम भारतीय समाज और राजनीति के लिए बेहद विचारोत्तेजक थे और शीघ्र ही ये दोनों नाम प्रसिद्ध हो गये । व्यवस्था से पीड़ित लोगों को 'बहुजन' नाम राजनीतिक उद्देश्य से दिया गया था । यह 'दलित' और 'हरिजन' शब्दों के मुकाबले ज्यादा बोधगम्य में और ग्राह्य था । इसकी अर्थवत्ता 'बहुसंख्यक समाज' के हिंदू मिथक को ध्वस्त करती है और इस सत्य का उद्घाटन करती है कि वास्तविक बहुसंख्यक वे हैं, जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था से पीड़ित हैं । " [9] मान्यवर कांशीराम जी शोषित वर्ग को सत्ता प्रदान करने के उद्देश्य से एक राजनैतिक दल बनाना चाहते थे । इसलिए उन्होंने वृहद अर्थ का बोध कराने वाले शब्द के रूप में 'बहुजन' शब्द को स्वीकार किया और 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किया । 'बहुजन' का तात्पर्य है - अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग का योग । चूँकि 'बहुजन' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भगवान बुद्ध ने किया था और डॉ० आंबेडकर जी बौद्ध धम्म के पालक थे, तो स्पष्ट है कि वे बहुजनवादी थे । इसलिए आंबेडकरवाद का बहुजनवाद से घनिष्ठ संबंध है ।
(ग) आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद
डॉ० शरण कुमार लिंबाले जी के शब्दों में, " बाबा साहेब को मार्क्सवाद अपूर्ण लगता है, क्योंकि मार्क्सवाद में जाति-अंत का विचार नहीं है । दरअसल, उन्हें दलितों की 'अस्पृश्यता' नष्ट होना ही सबसे अधिक महत्व की बात लगती है । " [10] डाॅ० आंबेडकर जी के दर्शन से प्रभावित होकर ओमप्रकाश वाल्मीकि जी माक्सवादी विचारकों से प्रश्न करते हैं, " शोषण विहीन समाज की परिकल्पना को साकार करने के लिए मार्क्सवादी विचारक 'वर्ग' के साथ 'वर्ण' को अपनी लड़ाई का लक्ष्य बनाने में ढुलमुल क्यों है ? भारतीय समाज में 'वर्ण' एक सच्चाई है, जिसने सदियों से इस देश के जनमानस को सिर्फ टुकड़ों में ही नहीं बाँटा, उनके मानवीय सरोकारों को भी छिन्न-भिन्न किया है । भारतीय मार्क्सवादी, प्रगतिवादी, जनवादी इस सच्चाई से कब तक मुँह मोड़े रहेंगे ? " [11] डॉ० गंगाधर पांतवणे जी ने एक साहित्यिक सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में कहा है कि " भाइयों ! हमारे साहित्य की प्रेरणा केवल आंबेडकर और उनकी क्रांतिकारी विचारधारा है, इसमें कोई संदेह नहीं । कई समालोचक दलित साहित्य का रिश्ता कभी मार्क्सवाद से, तो कभी हिंदुत्ववाद से या कभी नीग्रोवाद साहित्य से जोड़ते हैं । मैं इस 'आंबेडकर विचार मंच' पर फिर एक बार दोहराता हूँ कि हमारे दलित साहित्य की प्रेरणा न मार्क्सवाद है, न नीग्रोवाद, न हिंदुत्ववाद है । नीग्रो अछूत नहीं था और न ही है । " [12] डाॅ० जयप्रकाश कर्दम जी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, " बाबा साहेब आंबेडकर की भी मार्क्सवादी के साथ कभी पटरी नहीं बैठी थी । इतिहास गवाह है कि बाबा साहेब के विचार या कार्यों का किसी मार्क्सवादी ने कभी समर्थन या सहयोग नहीं किया था । आज भी दलितों द्वारा सामाजिक समता और स्वाभिमान हेतु किए जा रहे संघर्ष को मार्क्सवादियों का कोई समर्थन नहीं है । दलित जहाँ जाति-विहीन और वर्ग-विहीन समाज की स्थापना के लिए संघर्षरत हैं, मार्क्सवादी वहीं पुराने केवल वर्गभेद मिटाने के अपने पोथीनिष्ठ सिद्धांतों पर अडिग हैं । जाति-विरोध से उनका कोई लेना-देना नहीं है । जब तक मार्क्सवादी चिंतक जाति की खिलाफत को अपना एजेंडा नहीं बनाते, तब तक मार्क्सवादियों को दलितों का हितेषी कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? " [13] डॉ० आंबेडकर जी ने कार्ल मार्क्स के दर्शन को कभी स्वीकार नहीं किया, न ही सामाजिक परिप्रेक्ष्य में, न ही राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में । उनका सामाजिक और राजनैतिक दर्शन स्वयं में पूर्ण दर्शन है, जो भारतीय परिप्रेक्ष्य में वंचित समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विकास हेतु महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है । डॉ० आंबेडकर जी के 'राजकीय समाजवाद' को यदि पूर्णतः लागू कर दिया जाए, तो जो परिणाम प्राप्त होगा, वह वास्तव में आश्चर्यजनक होगा । कार्ल मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत किया था । पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच का संघर्ष ही वर्ग-संघर्ष है । भारत में मजदूरों का वर्ग नहीं, बल्कि उनकी जाति है । यहाँ उच्च जाति का मजदूर भले ही आर्थिक रूप से निर्बल है, किंतु वह सामाजिक रूप से सम्माननीय है और निम्न जाति के मजदूर से घृणा करता है । ऐसी स्थिति में मजदूरों का एक वर्ग नहीं बन सकता । जब तक वर्ग नहीं बनेगा, तब तक वर्ग-संघर्ष की कोई संभावना नहीं । वर्ग बनने के लिए जाति का विनाश आवश्यक है । जाति का विनाश तभी होगा, जब जातिभेद की मानसिकता नष्ट होगी । जातिभेद की मानसिकता को नष्ट करने के लिए ही डॉ० आंबेडकर जी ने 'धम्म' की आवश्यकता और महत्व को स्वीकार किया । इस संबंध में उन्होंने अपना विचार 'बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स' नामक पुस्तक में व्यक्त किया है । स्पष्ट है कि आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद की विचारधारा एक समान नहीं है, इसलिए आंबेडकरवाद का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है ।
(घ) आंबेडकरवाद और नारीवाद
डाॅॅ० आंबेडकर जी का जीवन-दर्शन बुद्ध के दर्शन के अनुकूल है । उन्होंने बौद्ध धम्म की विधिवत् दीक्षा लेकर बुद्ध के उपदेशों को अंगीकार किया था । बुद्ध के पंचशील को धारण करना हर आंबेडकरवादी का कर्तव्य है । आंबेडकरवाद समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और प्रेम का पक्षधर है । स्वतंत्रता हर मनुष्य का अधिकार है, चाहे वह पुरुष हो चाहे स्त्री । आजकल नारीवाद की बड़ी चर्चा है । नारीवाद के अंतर्गत यदि नारी स्वतंत्रता, नारी मुक्ति, स्त्री-पुरुष समानता की बात की जाए, तो कोई दोष नहीं; किंतु नारी स्वच्छंदता, नारी सत्ता, नारी वर्चस्व की बातें करना दोषपूर्ण है । स्वच्छंदता स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ठीक नहीं है । परिवार में जब कोई व्यक्ति स्वच्छंद होकर कार्य करना आरंभ कर देता है, तो पारिवारिक विघटन और कलह की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । नारीवादियों के वर्तमान विचार-व्यवहार और कार्यों का मूल्यांकन करके स्पष्ट हो चुका है कि नारीवाद गलत दिशा में जा रहा है । डॉ० एन० सिंह जी ने लिखा है, " दलित समाज में नारी पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलती है । अतः हम कह सकते हैं कि दलित समाज में स्त्री को समानता का अधिकार प्राप्त है । वह भी खेत में अपने पति के साथ काम करती है, सड़क पर रेडी डालती है, भवन निर्माण में मजदूरी करती है या इसी तरह अनेक काम - झाड़ू लगाने से लेकर मैला उठाने तक के वह करती है । कई बार तो यह भी देखने में आया है कि घर और पुरुष दोनों को संभालती है । ऊपरी तौर पर देखने से पता लगता है कि दलित समाज में स्त्री की हैसियत अन्य भारतीय हिंदू समाज की स्त्रियों से कहीं बेहतर है । " [14] इस संदर्भ में डाॅ० अजय नावरिया जी का मत भी ध्यातव्य है । उन्होंने लिखा है, " जब भंगिन-चमारिन सदा से समाज में पारिवारिक उत्पादक वर्ग की अभिन्न सदस्या रही हैं, तब उनका 'मर्द की गुलामी' करने का कारण समझ से परे है । यह तथ्य सर्वविदित है कि दलित जातियों में तथाकथित सवर्ण जातियों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक स्वतंत्र रही हैं । बाल विवाह, बाल विधवा, सती प्रथा आदि कुरीतियाँ समाज के सवर्ण हिंदुओं में ही व्याप्त रहीं । " [15] दलित स्त्रियों की तलाक संबंधी स्वतंत्रता के बारे में डाॅ० धर्मवीर जी कहते हैं, " दलितों की स्वीय विधि में सारी दलित स्त्रियाँ दलितों में भी दलित नहीं हैं । तलाक के मामले में दलित-रूढ़ि और दलित-प्रथा के तहत स्त्री दलित पुरुष के बराबर का हक रखती है । " [16] वास्तव में, नारीवादी केवल सुविधाभोगी महिलाओं के खाने, पहनने और घूमने की स्वतंत्रता के बारे में ही चर्चा-परिचर्चा करते रहते हैं । मजे की बात तो यह है कि नारीवाद के भी कई प्रकार हैं, जैसे - समाजवादी नारीवाद, मार्क्सवादी नारीवाद, अतिवादी नारीवाद, उदारवादी नारीवाद आदि । फिर भी किसी नारीवादी संगठन ने अभी तक निर्धन महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक मुक्ति के लिए कोई विशेष महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया है । अतः आंबेडकरवाद का नारीवाद से कोई संबंध नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत नारी-विमर्श होना चाहिए, लेकिन 'नारीवाद' शब्द का प्रयोग करना अनुचित है । आंबेडकरवादी साहित्यकारों को नारी-विमर्श के अंतर्गत नारी स्वतंत्रता, नारी-मुक्ति और स्त्री-पुरुष समानता को आधार बनाकर साहित्य-सृजन करना चाहिए, किंतु साथ ही बुद्ध के पंचशीलों का भी ध्यान अवश्य रखना चाहिए ।
(ड़) आंबेडकरवाद और बुद्धवाद
डॉ० आंबेडकर जी ने अपने जीवन के अंतिम समय में बौद्ध धम्म का प्रचार-प्रसार करने के साथ ही 'बुद्ध और उनका धम्म' नामक ग्रंथ लिखकर बौद्ध धम्म को शुद्ध रूप में संसार के समक्ष प्रस्तुत किया । उन्होंने अपने निर्वाण से 52 दिन पहले अर्थात् 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धम्म की दीक्षा ली थी । उन्होंने धम्म-देशना को चित्त से ग्रहण किया था और बुद्ध के बताये मार्ग पर चलने का संकल्प लिया था । स्पष्ट है कि आंबेडकरवाद का बुद्धवाद से घनिष्ठ संबंध है । इसलिए आंबेडकरवादी साहित्य बौद्ध दर्शन के प्रतिकूल नहीं होना चाहिए ।
(च) आंबेडकरवाद और सुधारवाद
सुधारवाद नाम से ही स्पष्ट है कि इसका अर्थ है - सुधार संबंधी विचारधारा । जितने भी समाज सुधारक हुये, वे सभी इसकी परिधि में सम्मिलित हैं । हिंदी साहित्य की संत परंपरा के अंतर्गत शामिल संत कबीरदास और संत रैदास सहित आधुनिक काल के ज्योतिराव फुले, पेरियार रामास्वामी, संत गाडगे और नारायण गुरु आदि सभी सुधारवादी हैं । इन सभी महापुरुषों ने सामाजिक सुधार तथा कुछ हद तक धार्मिक सुधार भी करने में सफलता हासिल की । धार्मिक पाखंडों और अंधविश्वासों पर वैचारिक प्रहार करते हुए इन्होंने जनता के मन में बसे भ्रम को दूर किया । ज्योतिराव फुले का 'सत्य शोधक समाज' और पेरियार रामास्वामी का 'मूर्ति तोड़ो आंदोलन' इसके दृष्टांत हैं । मंगू राम, अछूतानंद, भाग्यरेड्डी वर्मा तथा किशन बनसोडे आंबेडकर से पहले की पीढ़ी के थे । उन्होंने एक नये आंदोलन का प्रतिनिधित्व किया था तथा सामाजिक सुधार का प्रयास किया था । इस संबंध में गेल ओमवेट जी का कथन द्रष्टव्य है, " सामाजिक सुधारों में देवदासी परंपरा को समाप्त करने तथा उपजातियों के बीच मौजूद भेदभाव को दूर करने और मद्यपान व गौमांस भक्षण बंद करने का प्रयास किया गया, तो दूसरी ओर फैक्ट्री तथा मिल मजदूरों से संबंधित आर्थिक मुद्दों के आधार पर संगठन मजबूत किया गया तथा जमीन हासिल करने के प्रयत्न किये गये । " [17] बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी द्वारा किया गया 'महाड सत्याग्रह' और 'मनुस्मृति दहन' भी लोगों का सामाजिक व मानसिक सुधार करने में सफल हुआ । अतः स्पष्ट है कि आंबेडकरवाद का सुधारवाद से घनिष्ठ संबंध है तथा आंबेडकरवादी साहित्य में सुधारवादी दृष्टिकोण को सम्मिलित करना अनुचित नहीं है ।
(छ) आंबेडकरवाद और आदर्शवाद
आदर्शवाद को अंग्रेजी में (आइडियलिज्म) कहा जाता है । यह दो शब्दों से मिलकर बना है, एक शब्द 'आइडिया' और दूसरा शब्द 'इज्म' है । बीच में 'एल' अक्षर उच्चारण के सौंदर्य के लिए प्रयुक्त किया गया है । 'आइडिया' का अर्थ 'विचार' होता है और 'इज्म' का अर्थ 'वाद' होता है । इसलिए इसे 'विचारवाद' भी कहा जाता है । वर्तमान समय में प्रत्ययवाद, विचारवाद, अध्यात्मवाद के स्थान पर 'आदर्शवाद' शब्द का अधिक प्रयोग किया जाता है । आदर्शवादी दार्शनिक विचारों को ही सत्य मानते हैं । प्लेटो ने भी चिंतन, विचारों और तर्क आदि को महत्व दिया है । आंबेडकरवाद में भी चिंतन और तर्क को महत्व दिया जाता है । इस प्रकार आंबेडकरवाद का आदर्शवाद से घनिष्ठ संबंध है । अतः आंबेडकरवादी कवियों को आदर्शवादी दृष्टिकोण से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।
(ज) आंबेडकरवाद और प्रकृतिवाद
प्रकृतिवाद में 'प्रकृति' शब्द का दो अर्थों में प्रयोग किया गया है - भौतिक प्रकृति और मानव प्रकृति । भौतिक प्रकृति को दर्शनशास्त्र के प्रकृतिवादी सिद्धांत में सहवस्तु माना गया है । मानव प्रकृति की व्याख्या मनोविज्ञान करता है । शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवाद से तात्पर्य मानव प्रकृति यानी मानव स्वभाव से है । प्रकृतिवादी दर्शन का तात्पर्य इसके नाम से ही स्पष्ट है । प्रकृतिवादी मनुष्य प्रकृति को ही संपूर्ण मित्र मानता है । प्रकृतिवाद के समर्थकों में अरस्तू, काम्टे हादसे बेकन, डार्विन, लैमार्क, हक्सले, हरबर्ट स्पेंसर, बर्नार्ड शा, सैमुअल बटलर तथा रूसो आदि प्रमुख हैं । प्रकृति से प्रेम तो आंबेडकरवादी भी करते हैं । वे भी प्रकृति को अपना संपूर्ण मित्र मानते हैं । किसी अलौकिक शक्ति के अस्तित्व को नकारकर आंबेडकरवाद के अंतर्गत प्रकृति की सत्ता को ही स्वीकार किया जाता है । इस प्रकार आंबेडकरवाद का प्रकृतिवाद से घनिष्ठ संबंध है ।
(झ) आंबेडकरवाद और यथार्थवाद
यथार्थवाद शब्द अंग्रेजी भाषा के 'रियलिज्म' का समानार्थी है । 'रियल' शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के 'रेस' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है - वस्तु । अतः 'रियलिज्म' शब्द का शाब्दिक अर्थ हुआ - वस्तु संबंधी विचारधारा । यथार्थवाद जीवन की यथार्थता में विश्वास रखता है और भौतिक स्थिति उसका क्रिया-क्षेत्र है । इस दृष्टि से यथार्थवाद, भौतिकवाद पर आधारित है । आंबेडकरवाद के अंतर्गत भी लौकिक जीवन की ही बातें की जाती है तथा संसार व सांसारिक वस्तु के यथार्थ को ही महत्व दिया जाता है । इस प्रकार आंबेडकरवाद का यथार्थवाद से घनिष्ठ संबंध है, लेकिन अति यथार्थवाद से बिल्कुल नहीं । दलित आत्मकथाओं में तथा कुछ दलित कविताओं व कहानियों में भी अति-यथार्थवाद के दर्शन होते हैं । इस प्रवृत्ति को आंबेडकरवादी साहित्य में स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
(ञ) आंबेडकरवाद और प्रयोजनवाद
प्रयोजनवाद एक आधुनिक अमेरिकी जीवन दर्शन है । यह अमेरिकी राष्ट्र के जीवन तथा विचार का प्रतिनिधित्व करता है । प्रयोगवाद अथवा प्रयोजनवाद उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव चिंतन । प्रयोजनवादी वस्तुतः मानव जीवन के वास्तविक पक्ष पर अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं । प्रयोजनवाद कोरी सैद्धांतिक विचारधारा मात्र नहीं है, बल्कि यह जीवन के उपयोगी धरातल पर जीवन की व्यवहारिकता के साथ चलता है । प्रयोजनवाद का शाब्दिक अर्थ है - व्यावहारिकता एवं उपयोगिता । प्रयोजनवाद वह दर्शन है, जिसके अनुसार सिद्धांतों की सत्यता का निर्णय वस्तुओं तथा तथ्यों के व्यावहारिक परिणामों के आधार पर होता है । प्रयोजनवाद को प्रयोगवाद, फलवाद, व्यवहारवाद, उपयोगितावाद आदि नामों से भी जाना जाता है । आंबेडकरवाद का उपयोगितावाद से घनिष्ठ संबंध है, क्योंकि आंबेडकरवादी किसी भी कार्य को तभी महत्वपूर्ण मानते हैं, जबकि वह कार्य समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी हो । इसीलिए आंबेडकरवादी साहित्य में उद्देश्यपूर्ण सृजन पर बल दिया जाता है । आंबेडकरवादी साहित्य केवल शौक अथवा मनोरंजन के लिए नहीं है । जो साहित्य केवल मनोरंजन से परिपूर्ण है और उसमें समाज के लिए कोई संदेश नहीं है, वह आंबेडकरवादी साहित्य नहीं है ।
अतः स्पष्ट है कि आंबेडकरवाद एक पूर्ण अवधारणा है । डाॅ० आंबेडकर जी ने अप्रत्यक्ष रूप से कई महापुरुषों को गुरु (मार्गदर्शक) के रूप में स्वीकार किया था और उनकी विचारधारा को चित्त में ग्रहण किया था । उन मार्गदर्शकों में भगवान बुद्ध, संत कबीर, संत रैदास, महामना ज्योतिराव फुले, नारायण गुरु, पेरियार रामास्वामी, संत गाडगे आदि के नाम शामिल हैं । इसी कारण से आंबेडकरवाद कई विचारधाराओं का संगम है । आजकल कुछ दलित साहित्यकार यह प्रचार कर रहे हैं कि दलित साहित्य की अवधारणा का आधार 'मानवतावाद' है । वे मानवतावाद की परिधि को 'आंबेडकरवाद' से विस्तृत समझते हैं । शायद वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि मानवतावादी तो कथित सवर्ण लोग भी हैं । मानवतावाद एक ऐसी विचारधारा है, जो ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी दया, क्षमा और प्रेम आदि मूल्यों को प्रस्तुत करती है; जबकि आंबेडकरवाद, बुद्धवाद को स्वीकार करते हुए अनात्मवाद को स्वीकार करता है तथा आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को नकारता है । ऐसे दलित साहित्यकार यदि मानवतावादी हैं, तो फिर वे बुद्धवाद को क्यों ग्रहण करते हैं और आत्मा व ईश्वर के अस्तित्व को क्यों नकारते हैं ? यदि वे आत्मा व ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं, तो फिर उन्हें बुद्ध और उनके धम्म से आपत्ति क्यों है ? इससे तो यही स्पष्ट है कि वे लोग या तो स्वयं भ्रमित हैं या फिर वे केवल नाम के ही दलित हैं और विचारधारा से घुसपैठिएँ हैं । आंबेडकरवाद, वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित एक आधुनिक विचारधारा है, जिसके अंतर्गत केवल उसी बात को सत्य के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो बात तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती है । अफसोस, बड़ी-बड़ी डींगे हाँकने वाले अधिकतर दलित चिंतक 'आंबेडकरवाद' को ठीक से समझ नहीं पाये हैं । वास्तव में, 'आंबेडकर' एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जो सारी विचारधाराओं को अपने में ग्रहण करने की क्षमता रखता है । 'आंबेडकरवाद' को एक निश्चित सीमा में नहीं रखा जा सकता । 'आंबेडकरवाद' एक वैश्विक विचारधारा है, एक असीमित विचारधारा है ।
आंबेडकरवादी चेतना
दलित चेतना को स्पष्ट करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने लिखा है, " दलित चेतना के प्रमुख बिंदु हैं - (1) मुक्ति और स्वतंत्रता के सवालों पर डॉ० अंबेडकर के दर्शन को स्वीकार करना । (2) बुद्ध का अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, वैज्ञानिक दृष्टि बोध, पाखंड-कर्मवाद विरोध । (3) वर्ण व्यवस्था विरोध, जातिभेद विरोध, सांप्रदायिकता विरोध । (4) अलगाव का नहीं, भाईचारे का समर्थन । (5) स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय की पक्षधरता । (6) सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्धता । (7) आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवाद का विरोध । (8) सामंतवाद, ब्राह्मणवाद का विरोध । (9) अधिनायकवाद का विरोध । (10) महाकाव्य की रामचंद्र शुक्लीय परिभाषा से असहमति । (11) पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र का विरोध । (12) वर्ण विहीन, वर्ग विहीन समाज की पक्षधरता । (13) भाषावाद, लिंगवाद का विरोध । " [18] ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने दलित चेतना के जिन बिंदुओं का उल्लेख किया है, वास्तव में वे आंबेडकरवादी चेतना के ही बिंदु हैं । फिर भी उन बिंदुओं में संशोधन और परिवर्तन की आवश्यकता है । दलित साहित्य 'आंबेडकरवादी साहित्य' का ही परिवर्तित नाम है । डॉ० विमल कीर्ति जी के शब्दों में, " दलित साहित्य को 'आंबेडकरवादी साहित्य' के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इस साहित्य का निर्माण और इस साहित्यिक आंदोलन का निर्माण आंबेडकरवादियों ने ही किया है । " [19] इस संदर्भ में प्रोफेसर चमनलाल जी ने लिखा है, " एक तर्क के रूप में कहा जा सकता है कि चूँकि 'दलित साहित्य' गौतम बुद्ध व डॉ० आंबेडकर के चिंतन से अनुप्राणित है, इसलिए उसे 'बौद्ध साहित्य' या 'आंबेडकरवादी साहित्य' क्यों न कहा जाए ? महाराष्ट्र में 'बौद्ध साहित्य' पारिभाषिक शब्द गढ़ने का प्रयास और हिंदी में 'आंबेडकरवादी साहित्य' पारिभाषिक शब्द को स्वीकृति मिली, जिस पर अब कोई विवाद नहीं है । " [20] वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए तथा सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार करते हुए सच्चे आंबेडकरवादी साहित्यकारों द्वारा साहित्य का जो रूप प्रस्तुत किया गया है, उनमें निहित साहित्यिक विशेषताओं में जो आंबेडकरवादी चेतना है, मैंने उन्हें दस बिंदुओं में सीमित किया है । व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में आंबेडकरवादी चेतना के बिंदु हैं - (1) बुद्ध और उनके धम्म को डॉ० आंबेडकर के दृष्टिकोण से स्वीकार करना । (2) ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारना । (3) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना । (4) हिंदू देवी-देवताओं को काल्पनिक मानना तथा उनकी चर्चा भी नहीं करना । (5) जातिवाद, लिंगवाद और वर्चस्ववाद का विरोध करना । (6) अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करना । (7) अंधविश्वास, ढोंग और पाखंड की आलोचना करना । (8) समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और प्रेम की भावना को धारण करना । (9) " शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो " की प्रेरणा देना । (10) मैत्री, करुणा और शील का संदेश देना ।
आंबेडकरवादी साहित्य जिस रूप में अपने प्रारंभिक दौर में था, वर्तमान में उसमें बहुत अधिक परिवर्तन आ चुका है । वास्तव में, यह आंबेडकरवादी आंदोलन और आंबेडकरवादी चेतना के विचलन की स्थिति है, जो दलित चेतना के रूप में विख्यात है । दलित चेतना का जो स्वरूप दलित साहित्य के अंतर्गत परिलक्षित होता है, उसके मूल्यांकन से स्पष्ट है कि 'दलित चेतना' आंबेडकरवादी चेतना से भिन्न हो चुकी है । इसलिए यहाँ आंबेडकरवादी चेतना और दलित चेतना के अंतर को स्पष्ट करना अनिवार्य है, जो इस प्रकार है - (क) दलित चेतना के केंद्र में केवल दलित है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के केंद्र में बहुजन है । दलित चेतना गैर-दलितों को अपनी परिधि में सम्मिलित नहीं करती, जबकि आंबेडकरवादी चेतना संपूर्ण बहुजन समाज को अपनी परिधि में आमंत्रित करती है । (ख) दलित चेतना ब्राह्मणवाद को अपना लक्ष्य बनाती है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना आंबेडकरवाद को अपना लक्ष्य बनाती है । आंबेडकरवादी चेतना ब्राह्मणवाद का विरोध करने में कम ऊर्जा खर्च करती है और आंबेडकरवाद को समृद्ध करने में अधिक ऊर्जा खर्च करती है । (ग) दलित चेतना के अंतर्गत मार्क्सवाद को भी सम्मिलित किया गया है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में केवल आंबेडकरवाद को ही सम्मिलित किया गया है । आंबेडकरवाद में मार्क्सवाद के लिए कोई स्थान नहीं, क्योंकि आंबेडकरवाद स्वयं में एक पूर्ण अवधारणा है । (घ) दलित चेतना में 'नारीवाद' की चर्चा की जाती है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में 'नारी विमर्श' की चर्चा की जाती है । भारतीय समाज में पुरुष-सत्तात्मक और स्त्री-सत्तात्मक दोनों प्रकार के परिवार पाए जाते हैं, इसलिए नारीवाद के नाम पर स्त्री-सत्ता पर बल देना अनुचित है । नारी विमर्श के अंतर्गत स्त्री-मुक्ति की बात की जाती है, स्त्री-स्वतंत्रता की बात की जाती है, स्त्री-स्वछंदता की नहीं । (ड़) दलित चेतना में जाति विशेष का संबोधन किया जाता है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में बहुजन बोधक संबोधन किया जाता है । आंबेडकरवादी चेतना में किसी जाति-विशेष को संबोधित करना स्वीकार्य नहीं है । किसी जाति-विशेष पर आधारित साहित्य आंबेडकरवादी चेतना का साहित्य नहीं कहा जा सकता । (च) दलित चेतना में व्यक्तिवाद को सम्मिलित किया जाता है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में समाजवाद को सम्मिलित किया जाता है । दलित चेतना से युक्त साहित्यकार अपनी निजी बातें साहित्य में लिखते हैं और समाज की बातें कम लिखते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना से युक्त साहित्यकार समाज की बातें अधिक लिखते हैं, अपनी बातें कम लिखते हैं । (छ) दलित चेतना से युक्त साहित्यकार पुराणों का उल्लेख करते हुए साहित्य-सृजन करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना से युक्त साहित्यकार विज्ञानों का उल्लेख करते हुए साहित्य-सृजन करते हैं । (ज) दलित चेतना के साहित्यकार बुद्ध-दर्शन को स्वीकार नहीं करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकार बुद्ध-दर्शन को हृदयंगम करते हैं । (झ) दलित चेतना से युक्त साहित्यकार स्वयं को 'दलित' कहने में गर्व का अनुभव करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकार स्वयं को 'दलित' कहने में हीनता का अनुभव करते हैं । (ञ) 'दलित चेतना' हिंदू धर्म का विरोध करती है, लेकिन हिंदू धर्म को छोड़ने की पक्षधर नहीं है, जबकि 'आंबेडकरवादी चेतना' हिंदू धर्म का त्याग करके बौद्ध धम्म को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है ।
संदर्भ :-
[1] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 169, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया, नागपुर, संस्करण 2011
[2] भार्गव आदर्श हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ 703, संपादक - पंडित रामचंद पाठक, प्रकाशक - भार्गव बुक डिपो, चौक (वाराणसी)
[3] आंबेडकरवादी चिंतन और हिंदी साहित्य : डॉ० जयश्री शिंदे, पृष्ठ 17, सारंग प्रकाशन, वाराणसी
[4] सम्यक भारत, सितंबर 2020, पृष्ठ 52
[5] दलित चेतना की पहचान : डॉ० सूर्यनारायण रणसुभे, पृष्ठ 13-14, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012
[6] दलित साहित्य - संवेदना के आयाम : पी० रवि, वी० जी० गोपालकृष्णन, पृष्ठ 27, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019
[7] दलित साहित्य में बौद्ध धम्मदर्शन और चिंतन का प्रभाव : डॉ० विमल कीर्ति, पृष्ठ 82, नवभारत प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[8] दलित साहित्य का सौंदर्य बोध : रामअवतार यादव, पृष्ठ 12, प्रकाशक - अमन प्रकाशन कानपुर (उत्तर प्रदेश), प्रथम संस्करण 2011
[9] दलित विमर्श की भूमिका : कँवल भारती, पृष्ठ 89, प्रकाशक - अमन प्रकाशन कानपुर (उत्तर प्रदेश), द्वितीय संस्करण 2013
[10] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : डाॅ० शरण कुमार लिंबाले, पृष्ठ 69, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[11] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 97, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, तीसरा संस्करण 2019
[12] दलित कविता का यथार्थवादी परिदृश्य : डॉ० दोड्डा शेषु बाबु, पृष्ठ 10, प्रकाशक - क्वालिटी बुक्स पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर कानपुर, प्रथम संस्करण 2013
[13] इक्कीसवीं सदी में दलित आंदोलन : डॉ० जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 54, प्रकाशक - पंकज पुस्तक मंदिर दिल्ली, प्रथम संस्करण 2005
[14] दलित साहित्य के प्रतिमान : डॉ० एन० सिंह, पृष्ठ 240, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2016
[15] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ 302, संपादक - पुन्नी सिंह, कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा
[16] दलित दखल : संपादक श्योराज सिंह 'बेचैन' और रजत रानी 'मीनू', पृष्ठ 73, प्रकाशक - आकाश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), संस्करण 2011
[17] दलित दृष्टि : गेल ओमवेट, पृष्ठ 46, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2011
[18] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 31, राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[19] दलित साहित्य में बौद्ध धम्मदर्शन और चिंतन का प्रभाव : डॉ० विमल कीर्ति, पृष्ठ 78, नवभारत प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[20] दलित साहित्य एक मूल्यांकन : प्रोफेसर चमनलाल, पृष्ठ 33, प्रकाशक - राजपाल एंड संस दिल्ली, संस्करण 2017
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'
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