'समकालीन हिंदी दलित कविता' पुस्तक की समीक्षा


पुरोहितवाद खारिज और आंबेडकरवाद बुलंद

✍️ डाॅ० बी०आर० बुद्धप्रिय, बरेली (उत्तर प्रदेश)
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आंबेडकरवादी चेतना से लैस धारदार हथियार के रूप में आंबेडकरवाद की नई भूमि तलाशती लेखनी युवा आंबेडकरवादी आलोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी की अपनी ऊर्जावान, जोश-खरोश, बुलंद विशेषता है । जमीनी सरोकारों से जुड़े 'प्रखर' जी द्वारा पुरोहितवाद खारिज करके पाठकों को आंबेडकरवाद से रूबरू कराने का अथक प्रयास सार्थक हुआ है, उनके द्वारा संपादित आंबेडकरवादी पुस्तक 'समकालीन हिंदी दलित कविता भाग-1' में । 'प्रखर' जी ने अपनी इस पठनीय और शोधपूर्ण पुस्तक में ढेर सारे स्थापित कवियों/कवयित्रियों के साथ-साथ आम कवियों और कवित्रियों को भी स्थान दिया है । हिंदी साहित्य में स्वानुभूति या आपबीती का यथार्थवादी चित्रण नहीं मिलता है, लेकिन आंबेडकरवादी साहित्य में यथार्थवादी, आपबीती या भोगे हुए यथार्थ का वर्णन मिलता है । आंबेडकरवादी साहित्य का सृजन आग की दरिया के माफिक है । ऐसे माहौल में भी 'प्रखर' जी की संपादित पुस्तक लोगों के बीच में काफी पढ़ी-पढ़ायी जा रही है । कई शोधार्थी शोधकार्य प्रारंभ कर चुके हैं । इस पुस्तक की विशेषता है कि सभी कविताएँ आंबेडकरवादी कवियों और कवित्रियों की हैं, जो समाज में एक नई ऊर्जा भरने का काम करती प्रतीत हो रही हैं । इस पुस्तक के कवियों/कवयित्रियों की कविताओं की लिखावट और बनावट आंबेडकरवादी चिंतन की वजह से सहज ही पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं ।

इस पुस्तक में संकलित मोहनदास नैमिशराय जी की कविताएँ यह बयान करती हैं कि समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व विरोधी इतिहास की जटिलता को जड़ से उखाड़कर फेंकना ही सही आंबेडकरवादी आंदोलन की पहचान है । सामाजिक रूढ़ियों, सामाजिक ताना-बाना, सामाजिक संरचना को तोड़ना अति आवश्यक है । आंबेडकरवादी संकल्प के माध्यम से नैमिशराय जी लिखते हैं -

सोचा था नये शहर में 
नये लोग होंगे 
जीवन के प्रति 
उनकी नयी दृष्टि होगी 
नये विचार होंगे 
और वे होंगे दुष्परंपराओं से मुक्त ।

[समकालीन हिंदी दलित कविता भाग 1, पृष्ठ 23]

आंबेडकरवादी कविता का बाह्य स्वरूप उसकी अंतःधारा से अलग नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्य आंदोलन को आंबेडकरवादी साहित्यकारों ने स्थापित करने का अथक प्रयास किया है । कँवल भारती का नाम अग्रिम पंक्ति में होना ही चाहिए । आंबेडकरवादी कविता अपनी सामाजिक चेतना के कारण सजग और जीवंत रूप में दिखाई देती है । प्रतिकूल और नैराश्यपूर्ण क्षणों में भी आंबेडकरवादी रचनाकारों ने अपनी हीन-भावना त्यागकर सजकता और सतर्कता से विसंगतियों और विषमताओं के बीच आंबेडकरवादी कविता को जीवन के सरोकारों से जोड़ा है । आंबेडकरवादी कविता की सहज और अनिवार्य प्रतिबद्धता है, जो उसकी ऊर्जा का काम करती है । कँवल भारती अपनी पहचान के प्रति पूर्ण रूप से आश्वस्त हैं । वे लिखते हैं कि -

मैं एक-एक कर सारी अभिव्यक्तियाँ 
अग्नि के हवाले कर रहा हूँ 
मैं आज अपनी स्मृतियों से 
तुम्हें आजाद कर रहा हूँ 
सदियों के अंतराल के बाद 
समझ में आया 
शब्द कितने बड़े शस्त्र होते हैं 
व्यूह को सुरक्षित रखते हैं ।

[समकालीन हिंदी दलित कविता भाग 1, पृष्ठ 34]

संपादक देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी ने हिंदी भाषी क्षेत्र के अलावा अपनी इस पुस्तक में मराठी कवि प्रोफेसर दामोदर मोरे 'दीपंकर' की आंबेडकरवादी कविताओं को भी श्रेष्ठता के पायदान से चयनित किया है, जो काबिले तारीफ है । प्रोफेसर मोरे की आंबेडकरवादी कविताओं के उद्गार फौलादी, सशक्त, प्रभावात्मक, कलात्मक संवेदनात्मक, जनजीवन का दुःख-दर्द, रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, परंपराओं, आडंबरों के प्रति तीखा प्रहार, विद्रोही स्वभाव अपनाना, जुझारू प्रवृत्ति, जीवन जीने की कला आदि पर आधारित हैं । प्रोफेसर मोरे की कविताएँ मूलतः राजनैतिक, सामाजिक विसंगतियों पर सीधा प्रहार करती हैं । उनकी कविताएँ आंबेडकरवादी क्रांति की वाहक, यथार्थवादी और वैचारिक क्रांति की मिसाल हैं । वे लिखते हैं -

हमारे दिल की धड़कन है 'जय भीम' 
हमारे कलेजे का टुकड़ा है 'जय भीम' 
आप चाहो, तो 'जय भीम' क्रांति है
आप चाहो, तो 'जय भीम' शांति है
'जय भीम' इंसानियत की महकती बगिया है ।

[समकालीन हिंदी दलित कविता भाग 1, पृष्ठ 35]

आंबेडकरवादी कविता का सौंदर्य, काव्यदृष्टि संचेतना है, जो प्यार-मोहब्बत, करुणा, मैत्री, समता, सम्मान, उत्थान जैसी समानताओं से परिपूर्ण, आजाद खुशहाल होते देखना चाहती है । समतामूलक समाज की स्थापना की हिमायती डॉ० सी०बी० भारती की आंबेडकरवादी कविताओं का चयन भी संपादक द्वारा किया गया है । डॉ० सी०बी० भारती की आंबेडकरवादी कविताएँ सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षिक विध्वंस के विरुद्ध ललकारती नजर आती हैं । भारत देश में हमेशा आंबेडकरी लोगों का शोषण सामंतवादियों द्वारा किया जा रहा है । आंबेडकरवादी समाज के लोग विद्रोही मनोवृत्ति के हैं और शोषण के विरुद्ध विद्रोह करके सभी दमनकारी ताकतों को नष्ट कर सकते हैं । डॉ० सी०बी० भारती शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ लिखते हैं -

जोंक जानती है 
सिर्फ औरों का खून चूसना 
जोंक जानती है 
सिर्फ औरों के खून से 
अपने कद को बड़ा करना
जोंक कब मसल दी जाएगी 
वह नहीं जानती ।

[समकालीन हिंदी दलित कविता भाग 1, पृष्ठ 57]

आंबेडकरवादी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, साहित्यकार, सामाजिक चिंतक और आंबेडकरवादी आंदोलन के जुझारू क्रांतिकारी डॉ० जयप्रकाश कर्दम की आंबेडकरवादी कविता का संपादक द्वारा सम्यक चयन किया गया है । डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी की आंबेडकरवादी कविताओं में आशा तथा परिवर्तन की विद्रोही अभिव्यक्ति है । सामाजिक कुरीतियों पर करारा प्रहार करती डॉ० कर्दम की कविताएँ संवेदनात्मक संचार की संवाहक हैं । वर्णव्यवस्था को खारिज कर आंबेडकरवाद को बुलंद करती कविताएँ श्रेष्ठतम हैं । वे आंबेडकरी समाज को जातिगत उत्पीड़न, अत्याचार, अन्याय, शोषण, व्यभिचार से मुक्ति दिलाने के लिए बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर को भगवान न बनाने की नसीहत देते हैं । वे लिखते हैं -

आंबेडकर करोड़ों दलित लोगों की 
अस्मिता का प्रतीक है 
उनके जीवन का संगीत है 
आंबेडकर एक जीवंत विचारधारा है 
आक्रोश के आवेश में 
जीवंत विचारों को मत दबाओ 
आंबेडकर को भगवान मत बनाओ ।

[समकालीन हिंदी दलित कविता भाग 1, पृष्ठ 59]

आंबेडकरवादी संचेतना के बगावती कवि, साहित्यकार डॉ० एन० सिंह की आंबेडकरवादी कविताओं में जुल्म के खिलाफ बगावत का तेवर दिखाई देता है । सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ डॉ० एन० सिंह की कविताएँ व्यवस्था को तोड़ती, ध्वस्त करती, जर्जर बनाती नजर आती हैं और भारत देश के गरीबों, मजलूमों को अन्याय से मुक्त कराने के लिए, अत्याचार, शोषण की जंजीरों को तोड़ने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं । भारतीय समाज में सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर की वैचारिक क्रांति के फलस्वरूप क्रांति आयी है । डाॅ० एन० सिंह की कविताओं में दुखी लोगों के प्रति संवेदना परिलक्षित होती है । आंबेडकरी मानव समाज की संवेदनाओं को कवि ने सशक्त अभिव्यक्ति दी है ।

अंधविश्वास के अंधेरों के विरुद्ध 
लामबंद हो गये हैं लोग 
अब वे जान गये हैं 
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे 
मानवीय मूल्यों को 
जो मनुष्य मात्र को 
गरिमा प्रदान करते हैं ।

[समकालीन हिंदी दलित कविता भाग 1, पृष्ठ 66]

इक्कीसवीं सदी के युवा क्रांतिकारी आंबेडकरवादी कवि और लेखक देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी की जीवटता को देखते हुए मुझे मुंबई के आंबेडकरवादी कवि नामदेव ढसाल की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं । नामदेव ढसाल अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'गोलपीठा' में लिखते हैं कि " मेरे लहू में जन्म ले चुकी अनगिनत चिंगारियाँ/वे सह ना सकेंगी/सदियों की बंदिशों को/मेरे लहू में जन्मी अनगिनत चिंगारियाँ/अब शहर-शहर में फैलकर/यलगार करती चलेंगी ।" 'प्रखर' जी ने अपनी संपादित पुस्तक 'समकालीन हिंदी दलित कविता भाग 1' में सामाजिक सरोकारों को आंबेडकरी सरोकारों के साथ समाहित किया है, जिससे पुरोहितवाद खारिज होता हुआ और आंबेडकरवाद बुलंद होता हुआ प्रतीत होता है ।

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