रघुवीर सिंह नाहर के दोहे 'नाहर सतसई'

'सतसई' शब्द 'सत' और 'सई' दो शब्दों से मिलकर बना है । 'सत' का अर्थ है - 'सात' और 'सई' का अर्थ है - 'सौ' । इस प्रकार सतसई-काव्य, वह काव्यरूप है, जिसमें सात सौ दोहे होते हैं । सतसई काव्य-रचना की परंपरा हाल उर्फ शालिवाहन की प्राकृत भाषा में रचित 'गाहा-सतसई' (गाथासप्तशती) से आरंभ हुई । उसके बाद गोवर्धनाचार्य द्वारा 'आर्यासप्तशती' संस्कृत में लिखी गयी । अमरु कवि के 'अमरुशतक' में भी श्रृंगार-रस के सुंदर श्लोक हैं । हिंदी साहित्य में उत्तर मध्यकाल के प्रमुख रीतिसिद्ध कवि बिहारीलाल द्वारा रचित 'बिहारी सतसई' को अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई । 'बिहारी सतसई' की लोकप्रियता से प्रभावित होकर अनेक कवियों ने 'सतसई' की रचना करके इस विधा को समृद्ध किया । मध्यकाल में अनेक सतसई-ग्रंथ लिखे गये, जिनमें बिहारी-सतसई के अतिरिक्त 'रहीम-सतसई', 'तुलसी-सतसई', 'रसनिधि-सतसई', 'मतिराम-सतसई', 'वृंद-सतसई', 'भूपति-सतसई', 'चंदन-सतसई', 'विक्रम-सतसई' और 'राम-सतसई' आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । सतसई कृतियों में प्रमुख रूप से श्रृंगार-रस की प्रधानता है । श्रृंगार के अतिरिक्त नीति, भक्ति और वैराग्य आदि भावों को भी सतसईकारों ने समाविष्ट किया है। 'बिहारी-सतसई' श्रृंगार-प्रधान रचना है, 'वृंद-सतसई' नीतिपरक काव्य है तथा 'तुलसी-सतसई' में भक्ति, ज्ञान, कर्म और वैराग्य भाव के दोहे संग्रहीत हैं । रीतिकाल और आधुनिक काल के संधिकालीन कवि सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा रचित 'वीर सतसई' भी अपने समय की अत्यंत लोकप्रिय रचना रही है । सतसई-लेखन की परंपरा मध्यकाल की सीमा को पार करके आधुनिक काल में भी प्रचलित रही । अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' कृत 'हरिऔध-सतसई' और वियोगी हरि कृत 'वीर-सतसई' आधुनिक काल की प्रसिद्ध सतसई काव्य-कृतियाँ हैं । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, " वियोगी हरि ने वीर-सतसई नामक एक बड़ा काव्य दोहों में लिखा है, जिसमें भारत के प्रसिद्ध वीरों की प्रशस्तियाँ हैं । " [हिंदी साहित्य का इतिहास - रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 317, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, संस्करण 2010] 



वर्तमान में, सतसई परंपरा का निर्वहन करते हुए आंबेडकरवादी कवि रघुवीर सिंह 'नाहर' जी ने सात सौ दोहों का संग्रह 'नाहर-सतसई' के नाम से किया है । 'नाहर' जी की सतसई में वीर-रस की प्रधानता है । लेकिन 'नाहर' जी की वीर-भावना आदिकालीन रासो-ग्रंथकारों और मध्यकालीन प्रशस्ति-ग्रंथकारों की वीर-भावना के समान नहीं है । क्योंकि आदिकालीन कवियों चंदवरदाई और जगनिक तथा मध्यकालीन कवि भूषण आदि ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा की है । जबकि 'नाहर' जी किसी राजा के आश्रित नहीं हैं और न ही उन्होंने किसी समकालीन शासक/प्रशासक की स्वार्थवश प्रशंसा की है । 'नाहर' जी की वीर-भावना उस रूप में है, जिस रूप में संतकवि कबीर और निबंधकार सरदार पूर्णसिंह ने वीरता को परिभाषित किया है । कबीर का कथन है, " सद्गुरु साचा सूरिवाँ/शब्द जु बाह्या एक/ लागत ही भै मिलि गया/पड्या कलेजे छेक । " इस दोहे के माध्यम से कबीर ने दूसरों का हृदय-परिवर्तन करने की क्षमता को सच्ची वीरता कहा है । उनकी दृष्टि में सच्चा वीर वही है, जो अपने शब्द-बाण से किसी के हृदय को भेदकर उसके चित्त में सद्भाव का संचार कर दे । इसी प्रकार सरदार पूर्णसिंह ने भी कहा है, " वीर पुरुष धीर, गंभीर और आजाद होते हैं । " अपने निबंध 'सच्ची वीरता' में सरदार पूर्णसिंह ने अपनी बात का स्पष्टीकरण करते हुए तथागत गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, हजरत मुहम्मद और गुरु नानक आदि महापुरुषों को सच्चा वीर कहा है । तात्पर्य यह है कि केवल रण-क्षेत्र में युद्ध करना ही वीर-कर्म नहीं है । वीर चार प्रकार के माने गये हैं - युद्धवीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर । वीर-रस का स्थायी भाव 'उत्साह' है । जिस भी काव्य-रचना को पढ़कर अथवा सुनकर पाठक अथवा श्रोता के हृदय में उत्साह का संचार हो, निसंदेह वह काव्य-रचना वीर-रस से युक्त होती है । 'नाहर' जी के अधिकांश दोहे क्रांतिकारी चेतना से परिपूर्ण हैं, जो मनुष्य को समस्यामूलक परिस्थितियों और आततायियों के जुल्म का सामना करने के लिए प्रेरित और उत्साहित करते हैं । उदाहरणार्थ इसी प्रकार का एक दोहा प्रस्तुत है :

पग-पग पर काँटे बिछे, करते जाओ पार।
करो सामना ज़ुल्म का, कभी न मानो हार।।

'नाहर' जी बुद्ध के धम्म को मनुष्यों के बीच परस्पर मेल का सम्यक मार्ग मानते हैं । उनका विश्वास है कि बौद्ध धम्म ही वास्तव में मानवता का रक्षक है । इसलिए वे संसार में व्याप्त आडंबर की ओर संकेत करते हुए मनुष्य को धम्म-मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं । धम्म के मार्ग पर चलना सबके वश की बात नहीं है । धम्म-मार्ग पर चलने में वही सक्षम होता है, जो मानसिक रूप से बलिष्ठ और साहसी होता है अर्थात् जो वीर होता है । 'नाहर' जी कहते हैं -

यह जग झूठा बावरा, नहीं रुकन की ठौर।
मानव से मानव मिले, चलो धम्म की ओर।।

'नाहर' जी के अनेक दोहों पर बुद्ध-दर्शन की छाप दिखाई पड़ती है । बुद्ध ने कहा था, " जैसा बोओगे - वैसा काटोगे । " 'नाहर' जी भी अपने शब्दों में बुद्ध के इसी कथन की पुनरावृत्ति करते हैं । वे भाग्यवाद को नकारते हैं और कर्मवाद का समर्थन करते हैं । इसीलिए वे हथेली की रेखाओं में अपना भविष्य ढूँढने वालों को कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं । दुर्बल हृदय का व्यक्ति विषम परिस्थितियों में अपना धैर्य खो देता है और भाग्य पर भरोसा करने लगता है । वास्तव में, यह कायरों की पहचान है । सच्चा वीर पुरुष 'अत्त दीपो भव' की भावना को हृदय में धारण करके हर समस्या से जूझने के लिए तत्पर रहता है, लेकिन कभी भी अपने सिद्धांत-पथ से विचलित नहीं होता है । इस संदर्भ में 'नाहर' जी का एक दोहा द्रष्टव्य है :

रेखाएँ कब बोलती, कर्म बोलता जाय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।।

संत-शिरोमणि गुरु रविदास जी मध्यकालीन संत-कवियों में सर्वाधिक आदरणीय थे । उन्होंने ब्राह्मणवाद, विषमतावाद, जातिवाद, मूर्तिपूजा और बाह्याडंबर का आजीवन विरोध किया था । संत रविदास जी सच्चे वीर पुरुष थे, क्योंकि उन्होंने कथित ब्राह्मणों के गढ़ (काशी) में रहकर उनके वैदिक ज्ञान को चेतावनी दी तथा उनके धर्म-दर्शन की कड़ी आलोचना की । कवि रघुवीर सिंह 'नाहर' जी संतकवि रविदास के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का स्मरण करके उनके जैसे व्यक्तित्व वाले संतो का इस धरती पर बार-बार जन्म होने की कामना करते हैं । 'नाहर' जी के शब्दों में :

कलम चली रविदास की, खूब किया था वार। 
ऐसे संत समाज में, आएँ बारम्बार।।

आधुनिक विद्वानों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और माननीय बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने बुद्ध के धम्म का नये रूप में पुनः प्रवर्तन किया । बाबा साहेब का जीवन-संघर्ष जगजाहिर है । 'अंग्रेज भगाओ अभियान' में शामिल नेताओं ने बाबा साहेब को 'अंग्रेजों का पिट्ठू' कहकर उन्हें अपमानित किया । जबकि सच्चाई यह है कि अंग्रेजों से नफरत करने वाले तथाकथित देशभक्त नेतागण और सेनानी अल्पसंख्यक वर्चस्ववादियों, सामंतवादियों एवं राजतंत्र के पक्षधर लोगों के हितार्थ प्रयासरत थे । लेकिन बाबा साहेब बहुसंख्यक समाज के मानवतावादी लोगों के हितार्थ संघर्षरत थे । सम्यक दृष्टि से देखा जाए, तो आधुनिक युग के तथाकथित राष्ट्रवादी नायकों में बाबा साहेब जैसा सच्चा वीर पुरुष और सच्चा राष्ट्रप्रेमी कोई दिखाई नहीं देता है । वे आधुनिक भारत के महानायक थे । वर्तमान में बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के कारवाँ को आगे बढ़ाते हुए उनके हजारों अनुयायी आंबेडकरवादी आंदोलन के नाम पर सक्रिय हैं । लेकिन विडंबना यह है कि अधिकांश लोग केवल बाबा साहेब का महिमा-गान करने और उनके कथनों का प्रचार-प्रसार करने तक ही सीमित हैं । वे लोग धरातलीय स्तर पर कार्य नहीं करते हैं । यही कारण है कि आंबेडकरवादी आंदोलन अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाया है । कवि 'नाहर' जी इस स्थिति को देखकर चिंतित हैं । इसलिए वे धरातल से जुड़कर आंदोलन करने के लिए भटके हुये आंबेडकरवादी मिशनरियों का आह्वान करते हैं । अवलोकनार्थ :

रोज-रोज गाते रहे, बाबा के हम गीत।
धरती पर उतरे नहीं, होगी कैसे जीत।।

कवि 'नाहर' जी का मानना है कि प्रकृति ज्ञान का भंडार है । वे ऐसा इसलिए मानते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि वैज्ञानिकों ने अधिकांश आविष्कार प्रकृति का ही आश्रय लेकर किया है । इसीलिए वे पत्थर की पूजा करना छोड़कर विज्ञान पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं । इससे 'नाहर' जी का प्रकृति-प्रेम, अंधविश्वास का विरोध और  विज्ञान पर पूर्ण विश्वास लक्षित होता है । अंधविश्वासों से मुक्त होना और अंधविश्वासियों के बीच रहते हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार जीवन जीना अत्यंत कठिन कार्य है, जिसके लिए बहुत अधिक बौद्धिक शक्ति की आवश्यकता होती है । जो व्यक्ति ऐसा करने में सफल होता है, निश्चित ही वह एक वीर पुरुष होता है । 'नाहर' जी कहते हैं :

कुदरत से कुछ सीख लो, भरा हुआ है ज्ञान।
पाहन पूजा छोड़कर, रोज पढ़ो विज्ञान।।

इस देश में ब्राह्मण कहे जाने वाले लोगों का मानना है कि युग चार हैं - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलियुग । उनके अनुसार, सतयुग में सत्यव्रत का पालन करने वाले सज्जनों की बहुलता थी । लेकिन कवि 'नाहर' जी इस बात को नकारते हैं । वे तो यहाँ तक कहते हैं कि सतयुग कभी था ही नहीं । इस कथन में 'नाहर' जी के वीर-भाव की अभिव्यक्ति हुई है । इतिहास का जानकार और वर्तमान के प्रति सजग विचारक भली प्रकार समझ सकता है कि 'नाहर' जी की बात में पूरी सच्चाई है । इस बात की सत्यता की परख करने के लिए पौराणिक कहानियों को भी पढ़ा जा सकता है, जिनके वृत्तांतो से ज्ञात होता है कि तथाकथित सतयुग में भी छलपूर्वक सज्जनों का विनाश किया जाता था । कवि 'नाहर' जी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं :

कभी न सतयुग था यहाँ, गयी न छल-बल चाल।
आज वही सब हो रहा, बुरा हो रहा हाल।।

भारत के मूलनिवासियों की दृष्टि में आधुनिक युग आंबेडकर-युग है । डॉ० आंबेडकर सच्चे अर्थों में इस देश के अनमोल रत्न हैं । उनका दर्शन और मिशन मानव-कल्याण हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण है । डॉ० आंबेडकर ने बुद्ध के वैज्ञानिक धम्म और मध्यम मार्ग को स्वीकार किया तथा समस्त मनुष्यों को बुद्ध के मार्ग पर चलने का संदेश दिया । दुःख तो इस बात का है कि भारत की सरकार ने डॉ० आंबेडकर और उनके सिद्धांतों की सदैव उपेक्षा की है । यदि सरकार चाहे तो बहुत ही सरलता से डॉ० आंबेडकर के मिशन का प्रचार-प्रसार करके समस्त भारतवासियों को लाभान्वित कर सकती है, लेकिन सरकार ऐसा नहीं की । परिणामस्वरूप इस देश में मानवतावाद की बजाय ब्राह्मणवाद और जातिवाद अपने पूर्ण प्रभाव में हैं । स्थिति यह है कि भारतीय समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और भेदभाव की भावना अभी तक भारतवासियों के हृदय में स्थान बनायी हुई  है । वर्तमान सरकार की क्रियाविधि तो और भी विडंबनापूर्ण है । कवि 'नाहर' जी आंबेडकर-मिशन की उपेक्षा करने वाली वर्तमान सरकार की राजनीति से अत्यंत दुखी हैं । उन्हें वर्तमान सरकार में सरकार जैसा कोई गुण नहीं दिखाई देता हैं । 'कवि 'नाहर' जी ने अपने दोहे में सरकार की आलोचना करके सत्साहस का परिचय दिया है । यथा :

आंबेडकर के मिशन का, किया नहीं विस्तार। 
ऊँच-नीच अन्तर बढ़ा, ये कैसी सरकार।।

रघुवीर सिंह 'नाहर' जी इस बात से अत्यधिक चिंतित हैं कि जिस भारत देश में हर राष्ट्रीय पर्व पर जोर-शोर से 'जय जवान - जय किसान' का नारा लगाया जाता है, उसी देश में किसानों की दुर्दशा है । प्रमाण के रूप में महीनों से चल रहा सिंधु बॉर्डर का किसान-आंदोलन और 3 अक्टूबर 2021 को घटित लखीमपुर-खीरी की घटना आदि उल्लेखनीय हैं । हानिकारक कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन करने के लिए किसान दूर-दूर से चलकर निश्चित स्थान पर एकत्रित होते हैं । किसानों के कठिन संघर्ष को देखकर 'नाहर' जी का कवि-हृदय करुणा से भर जाता है । ऐसी स्थिति में, उनकी दया-वीरता जागृत हो जाती है । वे सरकार की शासन-शक्ति से भयभीत नहीं होते हैं, बल्कि भारत की महानता पर व्यंग्य करते हैं । उदाहरणार्थ :

चलकर आये दूर से, कहते मुझे किसान।
खाने को दाना नहीं, मेरा देश महान।।

समय से वही जीतता है, जो उसको अपना साथी बना लेता है । समय के साथ-साथ चलने वाला उसके हर रंग-रूप से परिचित होता है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने साथी से आँखें मिलाकर बात करता है, उसी प्रकार समय से मित्रता करने के बाद मनुष्य उससे आँखें मिलाने में सक्षम होता है । जो मनुष्य समय से पीछे रह जाता है, उसका अच्छा समय निकल जाता है और उसे बुरे समय का सामना करना पड़ता है । कवि 'नाहर' जी मनुष्य को समय के साथ चलने का संदेश देते हैं । समय गँवाने पर परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली विपत्ति के प्रति वे सावधान करते हैं । वर्तमान समय आंबेडकरवादी आंदोलनकर्ताओं एवं सत्य-शोधकों के लिए कठिन समय है । ऐसे समय में, समय से आँखें मिलाकर बात करने का जिसमें साहस हो, उसकी आत्मशक्ति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । कवि 'नाहर' जी ऐसे ही शक्तिमान पुरुष हैं । वे सभी निर्बलों को शक्तिमान बनाना चाहते हैं । यह दोहा उनकी उदात्त भावना का परिचायक है :

समय निकलता जा रहा, करो समय से बात।
ये दिन फिर न आएँगे, काली होगी रात।।

स्पष्ट है कि रघुवीर सिंह 'नाहर' जी के दोहे लोक-कल्याण की भावना से परिपूर्ण, आंबेडकरवादी चेतना से संपन्न और साहित्यिक विशेषताओं से संवलित है । कवि 'नाहर' जी ने न केवल सत्पुरुषों के सच्चे वीर-कर्म का वर्णन किया है, बल्कि उन्होंने स्वयं की वीर-भावना को भी व्यक्त किया है । वे क्रांतिकारी विचारों से लैस और सामाजिक परिवर्तन हेतु पूर्णरूपेण आश्वस्त हैं । यही कारण है कि उनके दोहों में उत्साह-भाव अधिक मात्रा में उपस्थित है । उनकी सतसई में केवल वीर रस ही नहीं, बल्कि श्रृंगार रस, करुण रस, हास्य रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, रौद्र रस और शांत रस आदि की भी सृष्टि हुई है । कवि 'नाहर' जी ने अपने काव्य-विषय को केवल आंबेडकरवादी आंदोलन तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि उन्होंने पर्यावरण, शिक्षा, संगीत, विज्ञान, सत्य, अहिंसा, प्रेम, परिवार, सदाचार, आत्मनिर्भरता, शासन, प्रशासन, आदिवासी समाज आदि विषयों को भी अपने दोहों में समाविष्ट किया है । इससे उनकी व्यापक दृष्टि की पहचान होती है । जो लोग आंबेडकरवाद और आंबेडकरवादी चेतना को सीमित रूप में जानते और समझते हैं, उनका भ्रम दूर करने के लिए 'नाहर' जी का यह एक दोहा-संग्रह ही पर्याप्त है । आंबेडकरवादी साहित्य का विषय-क्षेत्र अत्यंत विस्तृत और आंबेडकरवादी चेतना जाति, धर्म, समुदाय आदि से ऊपर समस्त मानव-कल्याण की चेतना है, इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण है यह अनुपम कृति - 'नाहर-सतसई' ।
---------------------------------------------------------
          ✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' 
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं आलोचक 
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका
       🏠 चंदौली, उत्तर प्रदेश (भारत)
---------------------------------------------------------

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने