सोहन प्रसाद रोज सुबह जागने के बाद सबसे पहले अपनी माँ के पैर छूते थे । उसके बाद ही वे कोई दूसरा काम करते थे । उनकी आदत थी कि वे बिना स्नान किये भोजन तो दूर, नाश्ता भी नहीं करते थे । सोहन जी बुद्धपुर गाँव के निवासी थे, जो गाजीपुर और चंदौली की सीमा पर स्थित है । उनके गाँव के अंतिम छोर से सटी हुई गंगा नदी बहती है । वे रोज गंगा में स्नान करते थे । स्नान करने के बाद वे सूर्य को नमस्कार करते थे और घर चले आते थे । घर में कम से कम दस मिनट तक संत रविदास जी के छायाचित्र के सामने बैठकर ध्यान लगाते थे और उन्हें नमन करते थे । उनके इसी विशिष्ट कर्म के कारण गाँव के लोग उन्हें 'पुजारी' कहकर पुकारा करते थे । सोहन जी के तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं । कुल आठ सदस्यों का उनका परिवार था और कमाने वाले वे अकेले थे । ईंट भट्टे पर मजदूरी करके कोई भला कमा ही कितना सकता है ? रोज हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी हफ्ते में पंद्रह सौ रुपए कमाना मुश्किल था । इसलिए आर्थिक तंगी का सामना करना उनके लिए आम बात थी । फिर भी वे भक्तिभाव में इतने लीन रहते थे कि उन्हें आर्थिक अभाव का ध्यान ही नहीं रहता था । वे जितने सीधे, सरल और शांत प्रवृत्ति के थे, उनकी पत्नी उतनी ही टेढ़ी, कठिन और अशांत थीं । उनकी पत्नी के कारण उनके परिवार का माहौल कलहपूर्ण था । वे अपनी जिस माँ के रोज पैर छूते थे, उनकी सेवा करते थे, उन्हें पूजनीय समझते थे, उसी माँ से झगड़ा करना उनकी पत्नी की आदत बन गयी थी । सोहन जी इन परेशानियों को झेलते हुए अपने जीवन की गाड़ी को धीरे-धीरे धक्का देकर आगे बढ़ा रहे थे ।
गाँवों में, गर्मी के दिनों में लोग देर रात तक जागे रहते हैं । सोहन जी की बस्ती के कई लोग रात में सार्वजनिक कुएँ के फर्श पर बिस्तर बिछाकर सोते थे । सोहन जी हर साल जेठ के महीने में रात के समय कुएँ के फर्श पर बैठकर लोगों को सोरठी-बृजभार की कथा गाकर सुनाते थे । सोरठी-बृजभार की कथा कई दिनों में पूरी होती थी । कथा सुनने के इच्छुक गाँववासी रोज निश्चित समय पर कुएँ के फर्श पर इकट्ठे हो जाते थे । सोहन जी कथा की शुरुआत करते हुए गाते थे :
अरे रामे रामे रामे हो रामे, रामे जी के नईया,
अरे रामे जी के नईया हो ।
रामे नइया लइहैं बेड़ा पार नु ए जी ।।
सोहन जी की बस्ती में हर साल माघ-पूर्णिमा को संत रविदास जी का पूजा समारोह बड़े धूम-धाम से मनाया जाता था । वे भी 'संत रविदास पूजा समिति' के सदस्य थे । पूर्णिमा से एक दिन पहले समिति के लोग संत रविदास जी की मूर्ति लाते थे । साथ में गंगा और पंडित की भी मूर्तियाँ होती थीं । दोपहर के बाद तीनों मूर्तियाँ सगड़ी पर रखकर बैंड-बाजे के साथ नाचते-गाते हुए पूरे गाँव में घुमायी जाती थीं । पूरा गाँव घूमने में रात के नौ-दस बज जाते थे । मूर्तियाँ घुमाने के बाद बाँस और कपड़े से बने मंदिर में उन्हें स्थापित किया जाता था । अक्सर पहली रात को बिरहा का कार्यक्रम कराया जाता था और दूसरी रात को नाच होता था । तीसरे दिन यानी पूर्णिमा बीतने के बाद मूर्ति-विसर्जन किया जाता था । जितने दिन तक मूर्ति रहती, मूर्ति के सामने धूप-अगरबत्ती जलाने और प्रसाद वितरित करने का कार्य सोहन जी के जिम्में होता था । वे सुबह-शाम जयकारा भी लगाते थे । जैसे - 'संतशिरोमणि भक्त रविदास की जय', 'माता कर्मा की जय', 'पिता राहु की जय', 'जटाधारी की जय', 'कमंडलधारी की जय', 'जनेऊधारी की जय' आदि । मूर्ति-विसर्जन के दिन शाम के समय समिति के सभी लोग और गाँव के कुछ इच्छुक लोग ट्रैक्टर की ट्राली पर तीनों मूर्तियों को लादकर गाते-बजाते हुए बलुआ घाट ले जाते थे । ढोलक, झाँझ और करताल के साथ सुर का संगम अत्यंत कर्णप्रिय होता था । सोहन जी भी संत रविदास जी के व्यक्तित्व से संबंधित गीत गाते थे ।
भक्ति में शक्ति बा,
भगत भगवान भइलें ।
सोहन जी का सबसे बड़ा पुत्र कमल कुमार दसवीं पास करने के बाद घर की आर्थिक समस्याओं के कारण गाँव के अन्य लड़कों के साथ बंगलौर कमाने चला गया । दो साल के बाद वह घर लौटा, तो अपनी कमाई से बड़ी बहन का विवाह किया । कमल अपने पिता की तरह शांत और गंभीर था, लेकिन उनकी तरह वह भक्ति में रुचि नहीं रखता था । दरअसल, कमल का एक घनिष्ठ मित्र था, जिसका नाम प्रभात गौतम था । प्रभात कमल का पड़ोसी था । वह विज्ञान वर्ग से इंटरमीडिएट की पढ़ाई किया था और वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण आंबेडकरवादी था । प्रभात ने डॉ० भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित ग्रंथ 'बुद्ध और उनका धम्म' को पढ़ा था । वह आत्मा-परमात्मा में विश्वास नहीं रखता था । वह अंधविश्वास और पाखंड का कट्टर विरोधी था । उसकी संगति में रहकर कमल भी उसी के जैसा तार्किक बन गया था । कमल और प्रभात दोनों सुबह-शाम साथ में ही टहलने जाते थे । दोनों में लंबी-लंबी बातें होती थीं । कुछ बातों पर तार्किक बहस भी होती थी । प्रभात अक्सर बातों-बातों में सोहन जी के भक्तिपूर्ण व्यवहार की आलोचना कर देता था । वह कमल को प्रामाणिक और उदाहरण सहित तर्क देकर चुप करा देता था । कमल उसकी बातों और विचारों से सहमत होकर बुद्ध और आंबेडकर को मानने लगा था । प्रभात कहता था - " हमें भक्त नहीं, अनुयायी बनना है । भक्त का मतलब 'दास' होता है और दास का मतलब है 'गुलाम' । भक्त व्यक्ति मानसिक रूप से गुलाम होता है । "
प्रभात 'भारतीय बौद्ध महासभा' की वाराणसी शाखा के बौद्ध-आंबेडकरवादी बुद्धिजीवियों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में हमेशा शामिल होता था । वह कई बार सारनाथ के बुद्ध विहारों में भी गया था । वह स्नातक की पढ़ाई करते हुए कुछ समय निकालकर बुद्ध, कबीर, रविदास, ज्योतिबा फुले और डॉ० आंबेडकर आदि महापुरुषों को पढ़ता रहता था । उसने सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित संत रविदास जी के जीवन-चरित्र से संबंधित अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया था । डॉ० विजय कुमार त्रिशरण की पुस्तक 'महाकवि रविदास और चमत्कारिक जनश्रुतियाँ' को पढ़कर वह जान चुका था कि संत रविदास चमत्कारी नहीं, बल्कि क्रांतिकारी थे । स्वरूपचंद्र बौद्ध की पुस्तक 'बौद्ध विरासत के पुरोधा गुरु रविदास' को पढ़कर और उसमें वर्णित प्रामाणिक तथ्यों पर विचार करके वह मान चुका था कि संत रविदास जी बौद्ध परंपरा के श्रमण संत थे । प्रभात ने स्नातक प्रथम वर्ष में हिंदी विषय के पाठ्यक्रम में भी संत रविदास जी के बारे में यही पढ़ा था कि संत रविदास जी मूर्तिपूजा, यज्ञ और बाह्य-आडंबर के विरोधी थे । इसलिए वह संत रविदास जी के जीवन से जुड़ी किंवदंतियों को नहीं मानता था ।
प्रभात की सलाह मानकर कमल ने बंगलौर जाकर कमाने की बजाय रामनगर इंडस्ट्रियल एरिया में ही काम खोज लिया था । वह बोरा बनाने वाली एक कंपनी में सुपरवाइजर का काम करने लगा था । कमल को कंपनी में ही कमरा मिल गया था, इसलिए वह वहीं रहता था और हफ्ते में एक बार घर आता था । वह जब भी घर आता था, प्रभात से जरूर मिलता था । एक दिन दोनों मित्र मिलकर यह योजना बनाये कि सोहन जी से तार्किक प्रश्न करके संत रविदास जी से संबंधित उनके भ्रम का निवारण किया जाए । उसके बाद वे दोनों मौका मिलते ही सोहन जी से तर्क-वितर्क करने लगते थे ।
माघ का महीना था । सुबह की बेला थी । सोहन जी चारपाई पर बैठे चाय पी रहे थे । कमल और प्रभात उनके बगल में दूसरी चारपाई पर बैठे हुए थे । वे अपने हिस्से की चाय पी चुके थे और चूड़ा-मटर खा रहे थे । प्रभात ने सोहन जी को संबोधित करते हुए पूछा, " चाचा! क्या आप जानते हैं कि संत रविदास जी मूर्तिपूजा के विरोधी थे ? " सोहन जी ने कहा, " नहीं, मैं तो नहीं जानता हूँ । " प्रभात ने कहा, " इसीलिए तो आपकी समिति वाले संत रविदास जी की मूर्ति मँगाते हैं और उनकी पूजा करते हैं । जबकि संत रविदास जी की जयंती मनानी चाहिए । जयंती मनाने के लिए उनकी फोटो ही काफी है । "
सोहन जी को जयंती और फोटो की बात सुनकर बुरा लगा । वे समिति वालों के साथ तीस सालों से पूजा समारोह मनाते आये थे । उन्होंने हिंदुओं की पूजाविधि का हर तरह से पालन किया था । मालूम तो उन्हें भी था कि माघपूर्णिमा को संत रविदास जी की जयंती पड़ती है । लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि जिस तरह से डाॅ० आंबेडकर जी की जयंती मनायी जाती है, उसी तरह से संत रविदास जी की भी जयंती मनायी जा सकती है । उन्होंने प्रभात की बात को हल्के में लेते हुए कहा, " जब तक समिति में हमारी पीढ़ी के लोग हैं, तब तक तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो सकता है । " प्रभात नाराज मन से बोला, " तो फिर आपकी पीढ़ी के लोगों को चाहिए कि वे युवा पीढ़ी को रविदास जयंती मनाने की जिम्मेदारी सौंप दें । वैसे भी आप लोगों ने अभी तक हिंदूवाद को ही ढोया है । आप लोग संत रविदास जी के साथ गंगा और पंडित की भी मूर्ति लाते हैं और उन्हें भी पूजते हैं । "
सोहन जी ने तुरंत सवाल किया, " तो इसमें गलत क्या है ? गंगा और पंडित नहीं होते, तो संत रविदास जी भी मशहूर नहीं होते । "
प्रभात ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, " अच्छा ? गंगा और पंडित ने ऐसा क्या किया था ? "
सोहन जी ने चिढ़ते हुए कहा, " क्या किया था ? अगर संत रविदास जी ने पंडित जी के हाथों गंगा जी के लिए दान नहीं पठाया होता, तो गंगा जी ने सोने का कंगन नहीं दिया होता । अगर गंगा जी ने सोने का कंगन नहीं दिया होता, तो पंडित जी ने वह कंगन नहीं चुराया होता । अगर पंडित जी ने सोने का कंगन नहीं चुराया होता और राजा को नहीं दिया होता, तो संसार को कैसे मालूम होता कि संत रविदास जी की भक्ति में कितनी शक्ति थी ? "
सोहन जी की ये बातें सुनकर प्रभात हँसने लगा । अपनी हँसी रोकते हुए उसने कहा, " तो आप हिंदुओं की इस मनगढ़ंत कहानी पर विश्वास करते हैं ? सबसे पहली बात तो यह है कि गुरु रविदास जी एक संत थे, भक्त नहीं थे । संत और भक्त में अंतर होता है । हिंदी साहित्य में जितने भी संतकवि हुये, वे सभी निर्गुणवादी थे । जबकि सभी भक्तकवि सगुणवादी थे । हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले ब्राह्मणवादी लेखकों की यह चाल है कि उन्होंने संत रविदास जी को भक्त घोषित कर दिया है । दूसरी बात यह है कि संत रविदास जी चमत्कारी नहीं थे, बल्कि क्रांतिकारी थे । "
इतनी देर से चुप बैठा हुआ कमल भी प्रभात की बात को समर्थन देते हुए कहा, " हाँ पापा! प्रभात सच कह रहे हैं । आप पुरानी बातें भूल जाइए । संत रविदास जी के जीवन-चरित्र पर अनेक शोधग्रंथ लिखे जा चुके हैं । कहिए, तो डॉ० एस० के० पंजम जी की किताब 'संत रविदास - जन रविदास' खरीद कर ला दूँ । उसे पढ़िए । "
सोहन जी ने प्रभात का पक्ष भारी देखकर अपना हथियार डाल दिया । उन्होंने कमल से केवल इतना ही कहा, " ठीक है । खरीद लाना । जरूर पढूँगा । "
सोहन जी अपने जमाने में पाँचवी तक पढ़ाई किये थे । वे भले ही साक्षर थे, लेकिन आज के शिक्षित लोगों से कम समझदार नहीं थे । उन्हें अच्छी तरह पता था कि किस समय कठोर होना चाहिए और किस समय विनम्र । उनकी एक विशेषता यह भी थी कि वे अपनी गलती को स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे । अगर कोई लड़का भी सही बात बोलता था, तो वे उसके आगे झुकने में लज्जा का अनुभव बिल्कुल भी नहीं करते थे । वास्तव में, वे सही अर्थों में बुद्धिजीवी थे । दो दिन बाद ही कमल संत रविदास जी के जीवन और उनके साहित्य से संबंधित दर्जनभर किताबें लाकर रख दिया । सोहन जी रोज थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर वे किताबें पढ़ने लगे ।
उस साल रविदास जयंती मनाने के लिए जो बैनर छपवाया गया, उस पर लिखा था - 'संत रविदास जयंती समारोह' । रसीद और हैण्डविल पर भी ऐसा ही लिखा था । जयंती मनाने के लिए जो समिति बनी थी, उसमें सभी सदस्य युवा थे । समिति का अध्यक्ष प्रभात गौतम को और कमल कुमार को कोषाध्यक्ष बनाया गया था । जयंती मनाने के लिए पंद्रह दिन पहले से ही बैठक होनी शुरू हो गयी थी । हर बैठक में प्रभात और कमल युवा साथियों को वैचारिक परिवर्तन के लिए प्रेरित करते थे । परिणाम स्वरूप रविदास जयंती केवल एक दिन मनाने का निर्णय लिया गया था । प्रभात ने संत रविदास जी का चीवरधारी छायाचित्र सुंदर फ्रेम में मढ़वाया था । जयंती के दिन दोपहर में समिति के सभी सदस्य एकत्रित हुये । एक सगड़ी पर तथागत बुद्ध, संत रविदास और बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के छायाचित्र को स्थापित किया गया । समिति के सदस्य और गाँववासी बैंड-बाजे के साथ झूमते-नाचते हुए जयकारा लगा रहे थे । प्रभात जयकारा बोल रहा था - 'संतशिरोमणि गुरु रविदास की जय', 'माता कर्मा की जय, 'पिता रघु की जय', 'चीवरधारी की जय' । ये सब सुनकर और देखकर कुछ बुजुर्ग लोग नाक-भौं सिकोड़ रहे थे । लेकिन कुछ बुजुर्ग ऐसे भी थे, जो युवाओं के परिवर्तनकारी रूप को देखकर उनकी सराहना कर रहे थे । सराहना करने वालों में सोहन प्रसाद जी भी थे । वे गदगद थे ।
रात को आठ बजे ग्राम-भ्रमण का कार्यक्रम समाप्त करके छायाचित्रों को टेंट हाउस में स्थापित किया गया । जहाँ पर तीनों महापुरुषों के छायाचित्र लगे थे, वहाँ झालरबत्ती और फूलों की सुंदर सजावट थी । प्रभात ने पाँच मोमबत्तियों को जलाकर प्रकाशित किया । उसके बाद उसने समिति के सभी सदस्यों और वहाँ उपस्थित गाँववासियों को तथागत बुद्ध, संत रविदास और डॉ० आंबेडकर के छायाचित्रों की ओर मुख करके हाथ जोड़कर खड़ा होने के लिए कहा । जब सभी लोग नंगे पाँव होकर उक्त मुद्रा में खड़े हो गये, तो प्रभात भी उसी मुद्रा में होकर बुद्ध वंदना, त्रिशरण और पंचशील का पाठ कराना आरंभ किया । लोग प्रभात का अनुकरण करते हुए बुद्ध-वंदना का वाचन कर रहे थे -
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा सम्बुद्धस्स ।
बुद्ध-वंदना का तीन बार वाचन करने के बाद प्रभात ने त्रिशरण का वाचन करना आरंभ किया -
बुद्धं शरणं गच्छामि।
धम्मं शरणं गच्छामि।
संघं शरणं गच्छामि।
लोग प्रभात का अनुकरण करते हुए त्रिशरण का पुनर्वाचन कर रहे थे । त्रिशरण का भी तीन बार वाचन करने के बाद प्रभात ने पंचशील का वाचन किया -
पाणातिपाता वेरमणि सिक्खापदं समादियामि।
अदिन्नदाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि।
मुसावादा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि।
कामेसुमिच्छाचारा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि।
सुरामेरयमज्ज पमादट्ठाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि।
लोगों ने प्रभात का अनुकरण करते हुए एक-एक पंक्ति का बारी-बारी से पुनर्वाचन किया । बुद्ध-वंदना, त्रिशरण और पंचशील का वाचन कराने के बाद प्रभात ने उनका हिंदी अर्थ भी बताया । रात के दस बजे से बिरहा का कार्यक्रम आरंभ हुआ । बिरहा गाने वाले गायकों में नंदलाल रवि और विजयलाल यादव आमंत्रित थे । नंदलाल रवि ने संत रविदास जी के जीवनवृतांत से संबंधित बिरहा गाया । उन्होंने ब्राह्मणवादी षड्यंत्रों का जमकर खंडन किया । बिरहाप्रेमियों ने रातभर बिरहा का आनंद लिया । दूसरे दिन न तो बलुआ घाट जाने की जरूरत पड़ी और न ही मूर्ति-विसर्जन हुआ । क्योंकि संत रविदास जी की मूर्ति मँगायी ही नहीं गयी थी । प्रभात सभी महापुरुषों के छायाचित्रों को एक बेडशीट में लपेटकर घर ले गया और बारामदे की दीवार पर टाँग दिया ।
शाम को जब सोहन प्रसाद जी से प्रभात की मुलाकात हुई, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, " प्रभात! मैं तुम्हारे काम से बहुत खुश हूँ । मैं तुम्हारी प्रतिभा और ज्ञान को नमन करता हूँ । " उनकी यह बात सुनकर प्रभात कृतज्ञतापूर्वक विनम्र भाव से बोला, " आप यह क्या कह रहे हैं चाचा ? अगर मैं इस तरह का परिवर्तन कराने में सफल हो पाया हूँ, तो इसमें आपकी अहम भूमिका है । अगर आप अपनी पीढ़ी के लोगों को समझाये नहीं होते और वे लोग आपकी बात माने नहीं होते, तो ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता । मैं खुद आपको हृदय से नमन करता हूँ । " उसने शीश झुकाकर हाथ जोड़ लिया था । सोहन जी ने अपने आसपास देखा । कई स्त्री-पुरुष उन दोनों की ओर प्रसन्न भाव से देख रहे थे । सोहन जी का मन इतना खुश था कि वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे । उनकी आँखें उनके मन के भावों को उजागर कर रही थीं । उनकी आँखों में पानी भर आया था ।
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✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
🏠 वाराणसी, उत्तर प्रदेश
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कहानी