विषमता, प्रकृति का एक ऐसा गुण है, जो सार्वभौमिक है । विश्व के अन्य देशों की तरह भारतीय समाज में भी अनेक प्रकार की विषमताएँ व्याप्त हैं । विषमता ही विविधता का आधार है । विषमता किसी दोष का नाम नहीं है और न ही विषम होने में कोई दोष है । पशु, पक्षी, वनस्पति और मनुष्य आदि सभी में विषमता है । विषमता ही आकर्षण का कारण है । स्त्री-पुरुष में लैंगिक विषमता ही उनके बीच प्रेम उत्पन्न करती है । विषमता ही आनंद की अनुभूति कराती है । जब विषमता में इतनी सारी विशेषताएँ हैं, तो फिर विषमता का विरोध क्यों ? वास्तव में, दोष विषमता में नहीं है, बल्कि दोष विषमता के भाव में है । उस भाव में, जो मनुष्य के मन में छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, सुंदर-कुरूप का तुलनात्मक विचार उत्पन्न करता है । यह तुलनात्मक विचार ही मनुष्य के मन में गर्व और हीनता का संचार करता है । जब विषमता की भावना दुर्भावना का रूप ले लेती है, तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का अपमान करता है और उसकी भावना को चोट पहुँचाता है । किसी एक मनुष्य अथवा एक परिवार के साथ होने वाले अपमानजनक व्यवहार को भले ही अनदेखा कर दिया जाए, लेकिन बहुत से मनुष्यों अथवा एक मानव-समुदाय अथवा एक वर्ग-विशेष के साथ होने वाले अपमानजनक व्यवहार को कैसे अनदेखा किया जा सकता है ?
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भारत का इतिहास साक्षी कि भारतीय समाज में वर्णव्यवस्था का प्रचलन था, जिसके अंतर्गत चार वर्णों का उल्लेख किया जाता है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । ऐसा कहा जाता है कि प्रारंभ में केवल तीन ही वर्ण थे । तीनों वर्णों के लोग 'आर्य' की श्रेणी में रखे जाते थे । चौथे वर्ण में अनार्य लोगों को सम्मिलित किया गया, जिन्हें 'द्रविड़' के नाम से भी जाना जाता है । ध्यातव्य है कि वर्णव्यवस्था के अंतर्गत सभी वर्णों को समान अधिकार प्राप्त नहीं थे । शूद्र वर्ण न तो 'अछूत' था, न ही अन्य उच्च वर्णों के लोग इस वर्ण के लोगों से घृणा करते थे । यह बात अलग है कि वर्णव्यवस्था के सोपान में शूद्र वर्ण का स्थान सबसे नीचे था । कालांतर में 'अछूत-वर्ग' की उत्पत्ति हुई । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने अपनी पुस्तक 'अछूत कौन और कैसे ?' (संपूर्ण वांग्मय खंड - 14) में अनेक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि अछूत-वर्ग के लोग प्राचीनकाल में बौद्ध थे । उन्हें अपमानित करने के लिए ब्राह्मण धर्म के समर्थकों द्वारा उनके साथ विषमतापूर्ण व्यवहार किया गया । इस प्रकार का भेदभावपूर्ण बर्ताव अभी भी देखने को मिलता है । यही कारण है कि अनेक ऐतिहासिक, सामाजिक और भौगोलिक ग्रंथों का अध्ययन करके एवं अपने जीवन के समस्त अनुभवों का तुलनात्मक विश्लेषण करके बाबा साहेब ने अंत समय में बौद्ध धम्म को ग्रहण किया था तथा 'बुद्ध और उनका धम्म' नामक पुस्तक के माध्यम से अछूत-वर्ग के लोगों को बौद्ध धम्म ग्रहण करने की प्रेरणा दिया था । 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के साथ उनके लाखों अनुयायियों ने भी बौद्ध धम्म को ग्रहण किया था । वास्तव में, बाबा साहेब ने आधुनिक काल में पुनः 'धम्म चक्र प्रवर्तन' किया था ।
बाबा साहेब के जीवनकाल में उनके अनुयायी उनके निर्देशों के अनुसार कार्य करते रहे, किंतु उनके परिनिर्वाण के पश्चात उनके अनुयायी अनेक वर्गों में विभाजित हो गये । कुछ लोगों ने बाबा साहेब के जीवन का मिशन (लक्ष्य) सामाजिक सुधार समझा, तो कुछ ने राजनैतिक सत्ता प्राप्त करना ही उनके जीवन का मुख्य मिशन मान लिया और शासन-सत्ता प्राप्त करने के लिए हरसंभव प्रयास करने लगे । कुछ लोगों ने शिक्षा को बौद्धिक, सामाजिक और आर्थिक विकास का आधार मानकर शिक्षालय की स्थापना कर ली और पठन-पाठन तक ही अपने आपको सीमित कर लिया । उन्हें यह नहीं पता कि शिक्षित होने का मतलब डिग्रियाँ लेना नहीं होता है । बल्कि शिक्षित होने का मतलब बौद्धिक रूप से सशक्त होना होता है । अधिकांश लोगों की स्थिति यह रही कि उन्हें धर्म-परिवर्तन ही सामाजिक विषमता का समाधान समझ में आया और उन्होंने 'बौद्धमय भारत' बनाना ही बाबा साहेब का एकमात्र मिशन मान लिया । जबकि सच तो यह है कि बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के जीवन-मिशन में सामाजिक, शैक्षिक, राजनैतिक और धार्मिक सभी क्षेत्रों का समावेश है । बाबा साहेब ने मानव-जीवन को प्रभावित करने वाले सभी मुख्य क्षेत्रों में हस्तक्षेप किया था । जातिगत भेदभाव और छुआछूत जैसी कुरीतियों से प्रताड़ित होने वाले जन-समुदाय की समस्याओं का केवल एक ही कारण 'धर्म' न तो पहले था और न ही अब है । यदि ऐसा होता, तो वर्तमान में लाखों लोग बौद्ध धम्म के अनुयायी हैं, फिर भी सामाजिक विषमता ज्यों की त्यों विद्यमान है । यही नहीं, स्वयं को बौद्ध कहने वाले लोग भी पूरी तरह से समता के सिद्धांत का अनुपालन नहीं करते हैं । लोग बौद्ध तो बन गये हैं, लेकिन उनकी भावना और चेतना पर अभी भी ब्रह्मणवादी मानसिकता का प्रभाव । वे वैवाहिक रिश्ते अपनी उपजातियों में ही करते हैं । यही नहीं, उन्होंने महापुरुषों को भी जाति के खेमे में बाँट दिया है । वे केवल अपनी उपजाति के ही महापुरुष को प्रचारित-प्रसारित करने में तल्लीन हैं । कुछ तो ऐसे भी छद्म बौद्ध-आंबेडकरवादी लोग हैं, जो 'द ग्रेट चमार', 'द ग्रेट पासी', 'द ग्रेट धोबी', 'द ग्रेट बाल्मीकि' आदि का नारा लगाते हुए दिखाई देते हैं । इसलिए मात्र धर्म-परिवर्तन से सामाजिक विषमता का विनाश नहीं हो सकता है । इसके लिए विचार-परिवर्तन और व्यवहार-परिवर्तन परम आवश्यक है । इसी प्रकार राजनैतिक सत्ता को प्राप्त करने और न करने से भेदभाव और विषमता की स्थिति पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है । सत्ता को प्राप्त करके भले ही कोई नेकदिल इंसान बहुजन-हिताय की धारणा बनाकर कोई कानून पारित कर दे, लेकिन यदि जनता उसका अनुपालन न करें, तो उस उत्तम कानून का कोई औचित्य नहीं होता है । मनुष्य का सामाजिक जीवन उसकी धार्मिक चेतना से प्रभावित होता है । वह धार्मिक मान्यताओं से जुड़ी रीतियों और प्रथाओं का गंभीरता से पालन करता है । लेकिन यदि सत्तारूढ़ व्यक्ति द्वारा कठोरता से कोई नियम लागू किया जाता है, तो मनुष्य की धार्मिक चेतना भी निर्बल पड़ जाती है । फिर भी इसके लिए केवल सत्ता और कानून को ही महत्व नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि उसमें सामाजिक जागरूकता का बहुत बड़ा योगदान होता है । सामाजिक जागरूकता के लिए मनुष्य का शिक्षित अथवा बौद्धिक रूप से संपन्न होना आवश्यक होता है । इस बात के स्पष्टीकरण हेतु सती-प्रथा का उदाहरण लिया जा सकता है । सती-प्रथा का संबंध हिंदू धर्म से था । लेकिन सन् 1929 ई० में विलियम बैंटिक द्वारा सती-प्रथा के विरुद्ध कानून पारित करने के पश्चात इस प्रथा पर रोक लगा दी गयी । ध्यातव्य है कि यह कानून यूँ ही नहीं पारित किया गया था, इसके लिए राममोहन राय ने कठिन संघर्ष किया था । उन्होंने सन् 1828 ई० में ब्रह्मसमाज की स्थापना करके समाज को जागरूक किया था । वे जिस वर्ग से थे, वह वर्ग तो पहले से ही शिक्षित था । इसलिए सती-प्रथा को बंद करना बहुत आसान था । केवल आवश्यकता थी - एक इमानदार नायक की, जिसकी पूर्ति राममोहन राय ने किया था । स्पष्ट है कि एक समस्या का अंत करने के लिए अनेक क्षेत्रों से दबाव बनाने की आवश्यकता पड़ती है ।
बाबा साहेब ने जातिगत भेदभाव, छुआछूत, ऊँच-नीच और लैंगिक विभेद के विरुद्ध जो भी क्रांतिकारी कार्य किया, उसमें उन्होंने कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया । साहित्य को समाज का दर्पण यूँ ही नहीं कहा जाता है, साहित्य का समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध 'साहित्य की महत्ता' में लिखा है, " साहित्य मे वह शक्ति छिपी रहती है, जो तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पायी जाती । " इस संबंध में अकबर इलाहाबादी का एक चर्चित शेर है - " न खींचो कमानों को/न तलवार निकालो/जब तोप मुक़ाबिल हो/तो अखबार निकालो । '' तात्पर्य यह है कि साहित्य में समाज को बदलने की पूरी क्षमता होती है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने भी अपने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त जातिवाद, छुआछूत, लैंगिक भेद, अंधविश्वास और पाखंड के प्रति बहुसंख्यक लोगों को जागृत किया । यही नहीं, उन्होंने भारतीय संविधान की रचना करके भारत के हर नागरिक को समता, स्वतंत्रता, शिक्षा और धर्म का अधिकार प्रदान किया । बाबा साहेब के क्रांतिकारी साहित्य से प्रेरित होकर वंचित-वर्ग के अधिकांश लोग साहित्य-सृजन करने लगे । वंचित-वर्ग के साहित्यकारों ने अपने समुदाय के लोगों की पीड़ा को अपने साहित्य में अभिव्यक्त किया तथा उनकी सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया । साथ ही, उन्होंने वंचित-वर्ग के लोगों का शोषण करने वाले तथा उन्हें गुमराह करने वाले लोगों के प्रति अपना गंभीर आक्रोश प्रकट किया । वंचित-वर्ग के साहित्यकारों का आक्रोश और विद्रोह भाव कालांतर में इतना प्रबल हो गया कि वे 'बदलाव' की बजाय 'बदला' की भावना से पूरित हो गये । ऐसी स्थिति में, वंचित-वर्ग के साहित्यकारों ने अपने समुदाय की बड़ी-बड़ी कमियों को नजरअंदाज करके शोषक-वर्ग की छोटी-छोटी कमियों पर भी अपना ध्यान केंद्रित करना आरंभ कर दिया । परिणामस्वरूप उन साहित्यकारों ने बाबा साहेब के दर्शन और मिशन को संकुचित और वर्ग-विशेष तक सीमित कर दिया ।
वर्ष 2020 में, जब मैं राष्ट्रीय स्तर पर आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकारों से परिचित हुआ, तो मैंने अनुभव किया कि बहुत से साहित्यकार ऐसे हैं, जो केवल नाम के ही आंबेडकरवादी हैं । उनमें आंबेडकरवादी चेतना का पर्याप्त अभाव है । कम समय में मेरी राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्ध को देखकर कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों को मुझसे ईर्ष्या होने लगी । कुछ ने तो प्रत्यक्ष रूप से इस प्रकार व्यवहार किया, जिससे उनकी वर्चस्व-भावना का स्पष्ट संकेत मिला । महत्वाकांक्षी लोगों की भीड़ से भी मेरा सामना हुआ । यह भी देखने को मिला कि अधिकांश वरिष्ठ साहित्यकार अपनी चापलूसी और चमचागिरी करने वाले अयोग्य युवाओं को महत्व और प्रोत्साहन दे रहे थे, जबकि सच्चे, स्वाभिमानी और योग्य युवाओं को नजरअंदाज कर रहे थे । दूसरे प्रकार के युवाओं में मेरा भी नाम शामिल है । मुझे वरिष्ठ साहित्यकारों का इस प्रकार का व्यवहार सहन नहीं हुआ । जब एक वरिष्ठ साहित्यकार ने मेरी साहित्यिक प्रतिभा को चुनौती दी, तब मैंने 'आंबेडकरवादी चेतना के प्रतिमान' नामक आलोचना-ग्रंथ का लेखन मात्र एक महीने में पूर्ण करके प्रकाशित करा दिया । इस आलोचना-ग्रंथ के प्रकाशित होने के पश्चात मुझे अनेक साहित्यकारों का समर्थन मिला । आंबेडकरवादी साहित्य की स्थापना के लिए मैंने वर्ष 2021 में 'आंबेडकरवादी साहित्य' नाम से एक पत्रिका का संपादन/प्रकाशन आरंभ किया । वर्तमान में, सैकड़ों साहित्यकार मेरे समर्थन में खड़े हैं । यह देखकर बड़ी प्रसन्नता होती है । मेरे द्वारा गठित आंबेडकरवादी साहित्यकारों का वैश्विक संगठन (ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन आफ आंबेडकराइज्ड लिटरेटियर्स - GOAL) पूरी निष्ठा के साथ साहित्यिक क्रांति के लिए सक्रिय है ।
'विषमता के विरुद्ध' मेरा पाँचवाँ काव्य-संग्रह है । इसके पूर्व 'वेदना की शांति' (2019), 'परिणय' (2019), 'लज़्ज़त-ए-अलम' (2019) और 'दलित जागरण' (2020) आदि काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । मेरे पूर्व के काव्य-संग्रहों में लयबद्ध और छंदबद्ध काव्य रचनाएँ संग्रहीत हैं । इस पाँचवें काव्य-संग्रह की विशेषता यह है कि इसमें संग्रहीत अधिकांश कविताएँ गद्यात्मक हैं, जबकि कुछ ही कविताएँ लयबद्ध हैं । वास्तव में, इस संग्रह की कविताओं पर समकालीन काव्य-साहित्य के स्वरूप एवं प्रवृत्ति का प्रभाव है । समकालीन कविता की प्रमुख काव्यशैली 'मैं' शैली में मेरी अनेक कविताएँ हैं । किसी कविता में 'मैं' के रूप में स्वयं मैं हूँ, तो किसी कविता में 'मैं' के रूप में समाज का कोई अन्य व्यक्ति है । इसके अतिरिक्त किसी कविता में 'मैं' संपूर्ण समाज (एकवचन) के रूप में प्रयुक्त हुआ है । 'आलोचक' नामक कविता की रचनातिथि 22 मई 2019 है । 'प्रतिलिपि' पर प्रकाशित होने वाली रचनाओं की आलोचना करते हुए एक आलोचक के रूप में मैंने इस कविता का सृजन किया था । इस कविता को प्रतिलिपि के बहुत सारे रचनाकारों और पाठकों ने पसंद किया था । यही नहीं, जब मैंने इस कविता को फेसबुक पर पोस्ट किया था, तो भी सैकड़ों पाठकों ने इस कविता की खुलकर प्रशंसा की थी । इस कविता के माध्यम से बहुत से पाठकों और रचनाकारों ने मेरे आलोचक व्यक्तित्व को सम्यक रूप में समझा और मुझे एक ईमानदार आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित किया । मेरी यह कविता 'मैं' शैली में है तथा इस कविता में व्यक्त विचार मेरे अपने हैं । फिर भी यह कविता हर ईमानदार आलोचक के ऊपर लागू होती है । 'इक्कीसवीं सदी में छुआछूत' नामक कविता की रचनातिथि 23 दिसंबर 2019 है, लेकिन इस कविता में व्यक्त घटना वर्ष 2010 की है । इस कविता में मेरा भोगा हुआ यथार्थ अभिव्यक्त हुआ है । 1 जनवरी 2020 को नववर्ष के अवसर पर रचित कविता 'क्या नव वर्ष आ गया ?' का भावार्थ यही है कि हर वर्ष सामयिक परिवर्तन तो होता है, किंतु पारिस्थितिक परिवर्तन नहीं होता है । इस कविता में मैंने नये वर्ष के आने पर भी कोई नया अनुभव न होने का भाव व्यक्त किया है । 'कुत्ते भी भक्ति करते हैं' नामक कविता की रचनातिथि 14 जनवरी 2020 है । इस कविता में कुत्ते के माध्यम से भक्तों पर कटाक्ष किया गया है । इसमें उल्लिखित कुत्ता कोई काल्पनिक कुत्ता नहीं है, बल्कि वास्तविक है । मैंने बाल्यावस्था में एक कुत्ता पाला था, जो हफ्ते में एक दिन उपवास रहता था और वह माँस भी नहीं खाता था । 'दिमागी बीमारी' नामक कविता की रचनातिथि 20 जनवरी 2020 है । इस कविता में भी सच्ची घटना का उल्लेख है । 'जाति का किला', 'वे और तुम', 'दर्द पर परदा', 'कलम और पत्थर', 'अपमान का कूड़ा', 'अगर सफाईकर्मी न होते', 'अब मैं आजाद हूँ', 'छेड़खानी', 'कोरोना का कहर', 'विषमता के विरुद्ध', 'पत्थर की लकीर', 'मेरे अपने' और 'आँखों का तारा' आदि कविताओं का रचनाकाल वर्ष 2020 में फरवरी से मई तक के बीच है । ये रचनाएँ अनेक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं । इन रचनाओं में मैंने समकालीन सामाजिक यथार्थ को व्यक्त किया है, जिनमें माधुर्य भी है, कटुत्व भी है, व्यंग्य भी है और प्रत्यक्ष प्रहार भी है ।
'जीजा-साला' नामक कविता की रचनातिथि 19 मई 2020 है । इस कविता में जातिवादी लोगों के ऊपर प्रत्यक्ष शाब्दिक प्रहार किया गया है । इस कविता में सार्वभौमिक सत्य पर आधारित चेतावनी है । 'जैसे को तैसा नहीं मिलता' नामक कविता की रचनातिथि 21 जून 2020 है । यह कविता मेरे फौजी मित्र सूरज कुमार के साथ घटित एक कारुणिक घटना पर आधारित है । 'निजी विद्यालयों के अध्यापक' नामक कविता में कोरोना वायरस से प्रभावित आपदाकाल के दौरान निजी विद्यालयों में पढ़ाने वाले अध्यापकों की दयनीय दशा का वर्णन किया गया है । 'हाशिये की आवाज' पत्रिका के उपसंपादक की माँग पर 'शोषण नीति' नामक कविता की रचना तत्काल की गयी थी । इस कविता की रचनातिथि 23 अगस्त 2020 है । 'सबसे बुरी लड़की' नामक कविता की प्रतिक्रिया में मैंने 'सबसे अच्छा लड़का' नामक कविता का सृजन किया था । इस कविता की रचनातिथि 6 सितंबर 2020 है । 'मैं आंबेडकरवादी कवि हूँ' नामक कविता के पीछे एक छोटा-सा किस्सा है । प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ० दामोदर मोरे जी ने 10 सितंबर 2020 को रात में मुझे फोन किया और कहा कि " एक गोष्ठी में आंबेडकरवादी कविताओं पर चर्चा करनी है । आप भी 'आंबेडकरवादी कविता' पर कविता लिखकर भेजें । " उनके कहने का आशय था कि आंबेडकरवादी कविता कैसी होनी चाहिए ? उसके स्वरूप को कविता के माध्यम से स्पष्ट किया जाए । इसलिए अगली सुबह यानी 11 सितंबर 2020 को मैंने एक कविता लिखी, जो 'मैं' शैली में है । मैंने इस कविता के द्वारा स्पष्ट किया है कि आंबेडकरवादी कविता की वैचारिकता और शिल्प का स्वरूप क्या है ? यह कविता मेरे आलोचना-ग्रंथ 'आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान' में 'हम' शैली में परिवर्तित करके प्रस्तुत की गयी है । [आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान, पृष्ठ 112-113] 'आंबेडकरवाद' नामक कविता की रचनातिथि 16 मार्च 2021 है । इस कविता में छद्म आंबेडकरवादी लोगों को लक्ष्य किया गया है । यह कविता काव्यरूप में आंबेडकरवाद को भली प्रकार परिभाषित करती है । 'पेड़ों की पूजा' नामक कविता की रचनातिथि 5 जून 2021 है । यह कविता मेरे सामने घटित एक घटनाक्रम का आँखों देखा हाल बयान करती है । 'आईना झूठ बोलता है' नामक कविता की रचनातिथि 2 अक्टूबर 2021 है । इस कविता में मैंने समाज का आईना कहे जाने वाले शिक्षक और साहित्यकार दोनों के कर्तव्यच्युत व्यवहार को रेखांकित किया है । साथ ही, साहित्य का आईना कहे जाने वाले समालोचक की पथभ्रष्टता पर भी कटाक्ष किया है ।
'जोरू का गुलाम' नामक कविता की रचनातिथि 29 नवंबर 2021 है । इस कविता को पढ़कर अधिकांश पाठकों को यह भ्रम हो सकता है कि कवि को पत्नी की गुलामी करना स्वीकार है । जबकि इस कविता का भावार्थ ऐसा बिल्कुल भी नहीं है । मैं समतावादी हूँ । मुझे न तो पत्नी को अपना गुलाम बनाना पसंद है, न ही स्वयं पत्नी का गुलाम बनना पसंद है । ये दोनों स्थितियाँ समतावाद के विरुद्ध हैं । इस कविता में मैंने स्वच्छंद प्रवृत्ति की नारीवादी पत्नी को यह अनुभव कराने का प्रयास किया है कि परिवार के सभी सदस्यों को संगठित करके, सामाजिक मर्यादा का ख़याल रखते हुए परिवार चलाने वाले स्त्री-पुरुष कभी भी अपने जीवनसाथी के सामने वर्चस्व की भावना से प्रस्तुत नहीं होते हैं । वास्तव में, जोरु का गुलाम बनने की भावना में समर्पण-भाव है । इसे दासता का भाव नहीं समझना चाहिए । यह कविता 'मैं' शैली में है । किंतु इसमें केवल मेरा (कवि का) व्यक्तिगत विचार नहीं है । बल्कि समाज के अधिकांश स्वाभिमानी पुरुष ऐसा ही सोचते और कहते हैं । 'पर-पुरुष की बाहों में' नामक कविता की रचनातिथि 1 दिसंबर 2021 है । इस कविता को 'जोरू का गुलाम' कविता की अगली कड़ी अथवा दूसरा भाग समझना चाहिए । इसमें मैंने एक स्वाभिमानी पति की ओर से एक पत्नी को स्वतंत्रता की सीमा में रहने के लिए चेतावनी दी है । क्योंकि पति पत्नी का रिश्ता परस्पर प्रेम और विश्वास का रिश्ता होता है । इस रिश्ते में किसी तीसरे का हस्तक्षेप नहीं होता है और न ही होना चाहिए । यदि पति-पत्नी के बीच झगड़ा हो जाए, तो उसका निपटारा केवल वे ही कर सकते हैं । कहा भी जाता है कि पति-पत्नी के झगड़े का निपटारा तो सरकार भी नहीं कर सकती है । दांपत्य-संबंध में पारस्परिक सामंजस्य अत्यंत अनिवार्य होता है । सामंजस्य के अभाव में संबंध-विच्छेद होते देर नहीं लगती है । पति-पत्नी को एक-दूसरे की पसंद और नापसंद का भी ध्यान रखना होता है । इनमें से कोई एक उतना ही स्वतंत्र होता है, जिससे कि दूसरे की स्वतंत्रता बाधित न हो । मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपने प्रेम को सहर्ष बाँटने के लिए तैयार नहीं होता है - चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष । इसीलिए इस कविता के अंत में विश्वासघात का परिणाम घातक रूप में प्रकट किया गया है । इस कविता की अंतिम पंक्तियाँ नारीवादी स्त्री-पुरुषों को अनुचित प्रतीत हो सकती हैं, किंतु यह स्वाभाविक और सार्वभौमिक सत्य है ।
'लाज का घूँघट', 'नारीवाद की पों-पों', 'विमर्श और विचार', 'कटु यथार्थ', 'पशु-दर्शन' और 'मनुस्मृति दहन दिवस' आदि सभी छः कविताओं की रचनातिथि 25 दिसंबर 2021 है । मैंने अपनी कविता 'कटु यथार्थ' को जब फेसबुक पर पोस्ट किया था, तो नारीवादियों के सीने पर साँप लेटने लगा था । उन्हें यही नहीं पता है कि 'नारी-विरोधी' होना और 'नारीवाद का विरोधी' होना, ये दो अलग-अलग बातें हैं । मैं नारीवाद का विरोधी हूँ । मैं नारी-वर्चस्व और मातृ-सत्ता का सबसे बड़ा आलोचक हूँ । मैंने फेसबुक पर इस कविता की प्रतिक्रिया में मनमानी टिप्पणी करने के लिए नारीवाद के समर्थक आलोचकों का हार्दिक स्वागत किया था । आंबेडकरवादी साहित्य में एक और नवोदित समीक्षक/आलोचक सूरजपाल जी ने मेरी कविता 'कटु-यथार्थ' की बहुत ही सुंदर एवं सटीक समीक्षा की है । इस कविता के भावार्थ अर्थात् केंद्रीय भाव को समझने में बहुत से स्त्री-पुरुष पाठकों ने गलती कर दी थी । स्त्रियाँ तो केवल 'स्त्री' शब्द देखकर ही आवेश में हो गयीं । आवेश में व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है । बिना विवेक के किसी गंभीर कविता का भावार्थ समझना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है । मेरी यह कविता सभी स्त्रियों को संबोधित करके नहीं लिखी गयी है । यह कविता केवल उन्हीं स्त्रियों को संबोधित है, जो स्त्रियाँ नारीवादी आंदोलन को लेकर चल रही हैं और पुरुषों को सुधारने में लगी हुई हैं । 'तुम सब' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं सभी महिलाओं के लिए किया गया है । इस कविता में इसके दो जगह संकेत मिलते हैं । लेकिन अफसोस, नारीवाद के समर्थकों को मोतियाबिंद होने की वजह से उन्हें वे संकेत दिखाई नहीं दिये । पहला संकेत पहली ही पंक्ति में है - पुरुषों को सुधारने की बात कौन स्त्रियाँ करती हैं ? इसका सीधा उत्तर है - 'नारीवादी स्त्रियाँ' । दूसरा संकेत सबसे अंतिम पंक्ति में है - यथार्थवाद पर भाषण कौन देती हैं ? इसका भी सीधा उत्तर है - 'नारीवादी स्त्रियाँ' । नारीवाद के समर्थकों ने यह कैसे सोच लिया कि जो प्रखर आलोचक है और जो एक-एक शब्द पर ध्यान देता है, वह इतनी बड़ी गलती कर सकता है । खैर, जिसकी जितनी समझ होती है, वह उतना ही समझता है । कुछ नारीवादी महिलाएँ 'कुलटा' शब्द को देखकर भावुक हो गयीं । उन्हें यह नहीं पता कि 'कुलटा' का अर्थ केवल चरित्रहीन ही नहीं होता है । सामाजिक मान्यता के विरुद्ध काम करने वाली महिला को आमतौर पर 'कुलटा' कहकर ही संबोधित किया जाता है ।
तथाकथित दलित महिलाएँ सावित्रीबाई फुले को 'नारीवाद' की जननी मानती हैं, जबकि सावित्रीबाई फुले ने अपने संपूर्ण साहित्य में कहीं भी 'नारीवाद' शब्द का उल्लेख नहीं किया है । नारीवादी महिलाएँ 'नारीवाद' की बातें करते हुए हमेशा पुरुषों को लक्ष्य (टारगेट) करती हैं । उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि सावित्रीबाई फुले के व्यक्तित्व-निर्माण में उनके पति (पुरुष) ज्योतिराव फुले की महत्वपूर्ण भूमिका थी । ज्योतिराव ने ही सावित्रीबाई फुले को "क ख ग घ" पढ़ना-लिखना सिखाया और साथ ही उन्हें अन्य महिलाओं को भी साक्षर बनाने के लिए प्रेरित किया । लेकिन ज्योतिराव फुले ने भी अपने संपूर्ण साहित्य में कहीं भी 'नारी विमर्श' अथवा 'नारीवाद' शब्द का प्रयोग नहीं किया है । ज्योतिराव फुले ने तो स्त्रियों की शिक्षा पर इसलिए बल दिया, क्योंकि उन्हें यह अनुभव हो चुका था कि सामाजिक क्रांति के लिए केवल पुरुषों का ही साक्षर/शिक्षित होना आवश्यक नहीं है, बल्कि महिलाओं का भी साक्षर/शिक्षित होना आवश्यक है । उन्होंने लिखा भी है - " विद्या बिना मति गयी/मति बिना गति गयी/गति बिना नीति गयी/नीति बिना वित्त गया/वित्त बिना शूद्र चरमराये/इतना सारा अनर्थ एक अविद्या से हुआ । " (गुलामगिरी, ज्योतिराव फुले) प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के द्वारा किये गये इस कार्य और उनके चिंतन को क्या नाम दिया जाए ? तथाकथित दलित महिलाओं और नारीभक्त पुरुषों को कोई और नाम नहीं मिला, तो उन्होंने फुले-दंपति के चिंतन को 'नारीवाद' अथवा 'नारी विमर्श' का नाम दे दिया । जबकि उन्हें यह नहीं पता कि हिंदी साहित्य में 'नारीवाद' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग करने वाली और नारीवाद की अवधारणा प्रस्तुत करने वाली महिलाओं में तथाकथित सवर्ण महिलाएँ शामिल हैं, जिनमें रमणिका गुप्ता और प्रभा खेतान का नाम सबसे ऊपर है । इन दोनों का नारीवादी चिंतन जिस रूप में है, क्या उस नारीवादी स्वरूप को तथाकथित दलित महिलाएँ स्वीकार करेंगी ? अर्थात् क्या वे प्रभा खेतान की तरह आजीवन बिना शादी किये रहेंगी और कई पुरुषों से यौन-संबंध बनाएँगी अथवा वे रमणिका गुप्ता की तरह दो दर्जन पुरुषों के साथ यौन-संबंध बनाकर वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देंगी ? यदि वे ऐसा करती हैं, तो क्या वे बौद्ध-आंबेडकरवादी कही जाएँगी ? क्योंकि बुद्ध ने 'शील' को सबसे अधिक महत्व दिया है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने भी ज्ञान से अधिक चरित्र को महत्व दिया है । बाबा साहेब के शब्दों में, " मेरी राय में केवल विद्या ही पवित्र नहीं हो सकती है । विद्या के साथ भगवान बुद्ध द्वारा बताई गयी प्रज्ञा, परिपक्वता, चरित्र अर्थात् सदाचरण से संपन्न आचरण, करुणा अर्थात् सभी मानव जाति के बारे में प्रेम का भाव और मैत्री अर्थात् सभी प्राणि-मात्र के लिए आत्मीयता, ये चार पारमिताएँ भी होनी चाहिए । तभी विद्वत्ता का उपयोग है । " (बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खण्ड - 40, पृष्ठ 399,400) कुछ नारीवादी महिलाएँ, जिन्हें हिंदी साहित्य और नारीवाद का ठीक से इतिहास भी नहीं पता है तथा जिन्होंने बाबा साहेब के संपूर्ण साहित्य (40 खंड) का गंभीरता से सूक्ष्म अध्ययन नहीं किया है, उनका यह मानना है कि " जो व्यक्ति नारीवाद का विरोधी है, वह आंबेडकरवादी नहीं है ।" इस संदर्भ में मैंने फेसबुक पर इस बात की चुनौती दी थी कि " यदि कोई भी नारीवादी महिला अथवा पुरुष बाबा साहेब के संपूर्ण साहित्य में कहीं भी 'नारी-विमर्श' अथवा 'नारीवाद' शब्द के प्रयोग का उद्धरण दे देगी/दे देगा, तो मैं खुद को कभी आंबेडकरवादी नहीं कहूँगा और साहित्य-सृजन करना छोड़ दूँगा । " अफसोस, किसी ने भी मेरी चुनौती को स्वीकार नहीं किया, न ही बाबा साहेब के संपूर्ण-वांग्मय में इस शब्द को खोजकर उद्धरण प्रस्तुत किया । सीधे शब्दों में कहा जाए, तो सबने अपना हथियार डाल दिया । लेकिन फिर भी कुछ लोगों की शेखी कम नहीं हुई । वही कहावत है - रस्सी जल गयी, पर उसका बल (ऐंठन) नहीं गया ।
यह ऐतिहसिक सत्य है कि बुद्ध, फुले-दंपति और डॉ० आंबेडकर ने नारी-मुक्ति, नारी-जागृति और नारी-प्रगति को लेकर जितने भी कार्य किये, उसके आधार में उनका समतावादी चिंतन था । वे सामाजिक समता की स्थापना हेतु स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उन्नति के लिए आंदोलन किये । संक्षेप में, फुले-दंपति और बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के चिंतन को नारीवादी-चिंतन नहीं कहा जा सकता है । उनके चिंतन को समतावादी चिंतन कहा जाता है और यही कहा जाना चाहिए । तथागत बुद्ध, फुले-दंपति और बाबा साहेब आदि सभी महापुरुष यही चाहते थे कि स्त्रियाँ, पुरुषों के साथ मिलकर सामाजिक क्रांति में सहयोग प्रदान करें । लेकिन अफसोस, तथाकथित दलित स्त्रियाँ, तथाकथित सवर्णों के नारीवादी आंदोलन के बहकावे में आकर समतावादी दृष्टि से विमुख हो गयी हैं और पुरुषों से अलग होकर महिलाओं के नाम पर अनेक अलग संगठन बनाकर गोलबंदी करने में लगी हुई हैं । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या पुरुषों के नाम पर कोई संगठन है ? यदि नहीं, तो फिर महिलाओं के नाम पर अलग संगठन बनाने का क्या औचित्य है ? वास्तव में, तथाकथित दलित महिलाएँ अपने पुत्र 'समतावाद' को छोड़कर तथाकथित सवर्णों के पुत्र 'नारीवाद' का पोषण करने में लगी हुई हैं और उनका खुद का पुत्र 'समतावाद' कुपोषित स्थिति में स्पष्ट दिखाई दे रहा है । वास्तव में, 'नारीवाद' शब्द तथाकथित सवर्णों की देन है और उनका षड्यंत्र भी है । यदि 'नारीवाद' शब्द ठीक है, तो फिर 'पुरुषवाद' शब्द कैसे गलत है ? यदि नारीवादी अवधारणा सही है, तो फिर पुरुषवादी अवधारणा कैसे गलत है ? जब दोनों शब्दों में समानता है, तो फिर दोनों का अर्थ अलग-अलग कैसे ? जिन्हें शब्दों और शब्दों के भावार्थ की समझ नहीं, वे शब्दकार (रचनाकार) कहलाने के योग्य नहीं हैं ।
'गोल' नामक कविता की रचनातिथि 26 दिसंबर 2021 है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के परिनिर्वाण दिवस (6 दिसंबर) के अवसर पर 'ग्लोबल ऑर्गेनाइजेशन आफ आंबेडकराइज्ड लिटरेटियर्स'-GOAL (आंबेडकवादी साहित्यकारों का वैश्विक संगठन) की स्थापना मेरे द्वारा की गयी । 'गोल' संगठन के उद्देश्यों और पदाधिकारियों के कार्यकाल तथा कार्यों का विवरण इस कविता में व्यक्त किया गया है । 'मैं शोधार्थी बन गया' नामक कविता इस संग्रह की अंतिम कविता है । इस कविता की भी रचनातिथि 26 दिसंबर 2021 ही है । इस कविता में मैंने महामना ज्योतिबा फुले रुहेलखंड यूनिवर्सिटी, बरेली में 23 दिसंबर 2021 को पीएच०डी० में प्रवेश होने पर तथा शोधार्थी बनने पर अपनी अनुभवजन्य भावना को अभिव्यक्त किया है । इस कविता में मैंने बरेली के तीन विद्वान आंबेडकरवादी साहित्यकारों श्रद्धेय श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी', श्रद्धेय डॉ० राम मनोहर राव और श्रद्धेय डॉ० बी०आर० बुद्धप्रिय जी के स्नेह और सहयोग को रेखांकित किया है । ये दोनों कविताएँ लयबद्ध, सरस और सुग्राह्य हैं । इन कविताओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया गया है, ताकि सामान्य पाठक जी सरलता से कविताओं का भावार्थ समझ सकें । इस प्रकार की विशेषताएँ केवल इन्हीं कविताओं की नहीं हैं, बल्कि हर कविता में मेरा यही प्रयास रहता है कि मैं जो भी कुछ कहना चाहता हूँ, उसे हर वर्ग का पाठक समझ सके ।
इस कविता-संग्रह 'विषमता के विरुद्ध' के प्रकाशित होने से पूर्व ही इसमें संग्रहीत कविताओं को सोशल-मीडिया तथा पत्रिकाओं में पढ़कर जिन पाठकों और रचनाकारों ने प्रशंसा की तथा जिन समीक्षकों ने ईमानदारी से समीक्षा की, मैं उन सभी महानुभावों का आभार व्यक्त करता हूँ । 'कटु यथार्थ' और 'नारीवाद की पों-पों' आदि दोनों कविताओं की सारगर्भित, सुस्पष्ट और सम्यक समीक्षा करने हेतु युवा साहित्यकार और समीक्षक सूरजपाल जी को हृदय से धन्यवाद देता हूँ । साथ ही, 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के संरक्षक व संपादक-मंडल के विद्वान साहित्यकारों श्रद्धेय रघुवीर सिंह 'नाहर', श्रद्धेय भूपसिंह भारती, श्रद्धेय प्रो० मुकुंद रविदास, श्रद्धेय राधेश विकास और श्रद्धेय आनंद कुमार 'सुमन' जी तथा 'गोल' संगठन के सभी पदाधिकारियों एवं सदस्यों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ ।
28 फरवरी 2022
देवचंद्र भारती 'प्रखर'
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