आंबेडकरवादी साहित्य पत्रिका के संपादकीय लेख (भाग - 02)

इस पोस्ट में 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के केवल उन्हीं चारों अंकों के संपादकीय लेखों का संग्रह है, जो पत्रिका के दूसरे वर्ष में प्रकाशित हुये हैं ।
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📝 संपादकीय/अंक 1... जनवरी-मार्च 2022📇

📄 गुरु रविदास जी के जीवन-चरित्र से संबंधित भ्रांतियों का निवारण ।

ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिलै सबन को अन्न ।
छोट-बड़ौ सब सम बसैं, रविदास रहैं प्रसन्न ।।

उक्त दोहे (साखी) के माध्यम से एक आदर्श राज्य की कामना करने वाले, बेगमपुरा शहर की कल्पना करने वाले, समतावादी संत, क्रांतिकारी कवि और समाज-सुधारक सदगुरु रविदास जी के जीवन-चरित्र और उनकी वाणी से संबंधित अनेक भ्रांतियाँ भारतीय समाज में व्याप्त हैं । सत्यनिष्ठा से संपन्न, सम्यक शोध करने वाले कुछ विद्वानों के सत्प्रयास से गुरुजी के जीवन से जुड़ी किंवदंतियों का भ्रम-निवारण अवश्य हुआ है, किंतु प्रचार-प्रसार के अभाव में ऐसे शोध-ग्रंथों से सामान्य लोग परिचित नहीं हैं । आज भी आम जनता गुरु रविदास जी को उसी रूप में स्वीकार करती है, जिस रूप में ब्राह्मणवादी लेखकों ने उन्हें प्रदर्शित और प्रचारित किया है । ऐसी स्थिति में सदगुरु रविदास जी के सच्चे अनुयायियों की जिम्मेदारी और भी बढ़ गयी है । आम जनता को भ्रम से मुक्त करने के लिए सर्वप्रथम संत रविदास जी के अनुयायियों को सत्य से परिचित होने की आवश्यकता है । सदगुरु रविदास जी के जीवन-चरित्र से जुड़ी दस बातों पर मैं पाठकों का ध्यान केंद्रित करता हूँ । 

1. नाम :- पहला प्रश्न गुरुजी के नाम से संबंधित है । अधिकांश लोग पूछते हैं कि कौन सा नाम सही है - 'रविदास' या 'रैदास' ? वास्तव में, यह प्रश्न वही लोग पूछते हैं, जो भारतीय भूगोल और भाषा-विज्ञान से अपरिचित हैं । भारत एक ऐसा देश है, जिसमें स्थित भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं । भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में बाईस भाषाओं का उल्लेख है । एक प्रांत (प्रदेश) का भाषाभाषी दूसरे प्रांत की भाषा के शब्दों का उच्चारण अपनी भाषा के अनुसार ही करता है । चूँकि गुरु रविदास जी ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रांतों, यथा - पंजाब, राजस्थान और महाराष्ट्र आदि का भ्रमण किया था, इसलिए विभिन्न प्रांतों के लोगों द्वारा शब्दोच्चारण के आधार पर गुरुजी का नाम भिन्न-भिन्न रूप में प्रचलित है । आधुनिक-युग में हिंदीभाषी क्षेत्र के अंतर्गत उनके नाम के तत्सम रूप को स्वीकार करते हुए उन्हें 'रविदास' कहकर संबोधित करना समीचीन है ।

2. जन्मतिथि :- दूसरा प्रश्न गुरु रविदास जी की जन्मतिथि से संबंधित है । उनकी जन्मतिथि के संबंध में एक दोहा प्रचलित है - " चौदह सौ तैंतीस में/माघ सुदी पन्दरास/ दुखियों के कल्याण हित/प्रकटे श्री रविदास । " रविदासिया-धर्म के लोग इसी दोहे के आधार पर गुरु रविदास जी की जन्मतिथि को स्वीकार करते हैं । 'चौदह सौ तैंतीस' सन् है या संवत, इस बारे में भी बहुत से लोग भ्रमित है । यदि 1433 संवत माना जाए, तो इसमें से 57 वर्ष घटाने पर 1376 ईस्वी होता है । यदि इन दोनों तिथियों में से किसी भी तिथि को सही माना लिया जाए, एक बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो जाती है । वह समस्या है - संत कबीर और संत रविदास जी के समकालीन होने की समस्या । संत कबीर जी की जन्मतिथि 1398 ईस्वी सर्वमान्य है । यदि गुरु रविदास जी की जन्मतिथि 1376 ईस्वी मानी जाए, तो वे संत कबीर से 22 वर्ष बड़े हो जाएँगे । यदि उनकी जन्मतिथि 1433 ईस्वी मानी जाए, तो वे संत कबीर से 35 वर्ष छोटे हो जाएँगे । संत कबीर और संत रविदास जी की आयु में इतना अंतर स्वीकार करना मानसिक दिवालियापन है । अतः उक्त दोहे में उल्लिखित गुरु रविदास जी की जन्मतिथि को सही नहीं माना जा सकता है । महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी द्वारा संचालित बी०ए० प्रथम वर्ष (हिंदी) के पाठ्यक्रम में एक पुस्तक अनुमोदित है - 'मध्ययुगीन काव्य' । इस पुस्तक के संपादक डॉ० सत्यनारायण सिंह हैं । इस पुस्तक में गुरु रविदास जी की जन्मतिथि संत कबीर की जन्मतिथि के समान दी गयी है अर्थात् 1398 ईस्वी । यह पुस्तक 'महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ' से संबद्ध सभी महाविद्यालयों (वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही, गाजीपुर चंदौली) में वर्षों से पढ़ाई जा रही है । गुरु रविदास जी की जन्मतिथि 1398 ईस्वी मान लेने से संत कबीर से उनकी समकालीनता भी सिद्ध हो जाती है और दोनों संतों की आयु के अंतर की समस्या का भी समाधान हो जाता है । अतः गुरु रविदास जी की जन्मतिथि सन् 1398 ईस्वी ही उपयुक्त है ।

3. जन्मस्थान :- तीसरा प्रश्न गुरुजी के जन्मस्थान से संबंधित है । गुरु रविदास जी के जीवनचरित्र से संबंधित सभी पुस्तकों में उनका जन्मस्थान काशी (वाराणसी) में स्थित मंडूर ग्राम (मंडुआडीह) लिखा गया है तथा इसे अधिकांश विद्वानों और पाठकों द्वारा स्वीकृति प्राप्त है । किंतु रविदासिया-धर्म के लोगों ने वाराणसी में स्थित एक नवीन स्थान सीरगोवर्धनपुर (सीरकरहियाँ) को गुरु रविदास जी का जन्मस्थान घोषित कर दिया है । यदि ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए, तो मंडूर ग्राम ही गुरु रविदास जी का जन्मस्थान सिद्ध होता है । क्योंकि सीरगोवर्धनपुर के आसपास वर्तमान में जो आबादी है, वह कुछ दशकों से ही दिखाई देती है ।

4. परिवार :- चौथा प्रश्न गुरु जी के परिवार से संबंधित है । नाभादास ने अपने ग्रंथ 'भक्तमाल' में संत रविदास जी के पिता का नाम 'रघु' लिखा है, जबकि 'रविदास रामायण' में 'राहु' और 'भविष्य पुराण' में 'मानस दास' नाम का उल्लेख है । रविदासिया धर्म को मानने वाले लोग संत रविदास जी के पिताजी का नाम 'संतोष दास' मानते हैं । 'संतोष दास' पर सिख-संप्रदाय का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है तथा यह नाम बहुत अधिक प्रचलित भी नहीं है । 'राहु' नाम 'रघु' नाम का ही परिवर्तित रूप है । इसलिए डॉ० इंद्रराज सिंह ने अपनी पुस्तक 'संत रविदास' में गुरु रविदास जी के पिताजी का नाम 'रघु' ही स्वीकार किया है । इस नाम को अनेक विद्वानों ने समर्थन दिया है । इसलिए गुरु रविदास जी के पिताजी का नाम 'रघु' मानना ही सर्वथा उचित है । संत रविदास जी की माताजी के नाम के संबंध में भी विद्वानों के अनेक मत हैं । वियोगी हरि ने अपने ग्रंथ 'संत सुधा सार' में संत रविदास जी की माताजी का नाम 'घुरबनिया' बताया है । लेकिन इस नाम को डॉ० एस०के० पंजम सहित अनेक विद्वानों ने अस्वीकार कर दिया है । रविदासिया धर्म के लोग संत रविदास जी की माताजी का नाम 'कलसा देवी' मानते हैं । किंतु यह नाम प्रचलित नहीं है तथा इस नाम का उल्लेख रविदासिया धर्म की पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य किसी शोधपरक पुस्तक में नहीं है । अतः इस नाम को स्वीकार नहीं किया जा सकता है । संत रविदास जी की माताजी का प्रचलित नाम 'कर्मा देवी' है । यह नाम भाषा, क्षेत्र और समुदाय आदि हर दृष्टिकोण से स्वीकार करने योग्य है । गुरु रविदास जी की पत्नी के नाम के संबंध में सभी विद्वान एकमत हैं । उनकी पत्नी का नाम 'लोना' सर्वमान्य है । गुरु रविदास जी के पुत्र का नाम विजय दास बताया जाता है । यदि यह भी मान लिया जाए कि गुरु रविदास जी को कोई पुत्र नहीं था, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है । क्योंकि जिस भी पुस्तक में गुरु रविदास जी के पुत्र का नामोल्लेख है, उसमें केवल नाम (विजय दास) का ही उल्लेख है । उनके पुत्र के बारे में कुछ भी नहीं लिखा गया है । फिर भी यह मानना अधिक उचित है कि संत रविदास जी को एक पुत्र भी था । ऐसा मानने से गुरुजी के अनुयायियों को कम से कम इस बात का तो संतोष रहेगा कि वे निःसंतान नहीं थे । अन्यथा, निःसंतानता से संबंधित दुनिया भर के प्रश्न खड़े करने वाले कुतर्की मनुष्य इस धरती पर विराजमान हैं ।

5. गुरु :- पाँचवाँ प्रश्न गुरु रविदास जी के गुरु के नाम से संबंधित है । नाभादास ने अपने ग्रंथ 'भक्तमाल' में संत रविदास जी के गुरु का नाम 'रामानंद' लिखा है । बौद्ध-आंबेडकरवादी विद्वानों के अतिरिक्त अधिकांश विद्वानों ने 'रामानंद' को ही संत रविदास जी का गुरु माना है । क्या रामानंद सच में संत रविदास जी के गुरु थे ? इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों का विवेचन करना आवश्यक है । डॉ० बदरीनारायण श्रीवास्तव ने अपने शोधग्रंथ 'रामानंद-संप्रदाय तथा हिंदी साहित्य पर उसका प्रभाव' में व्यापक साहित्य-सर्वेक्षण और समालोचना के आधार पर रामानंद का जीवनकाल सन् 1299 ईस्वी से सन् 1410 ईस्वी तक माना है । इस आधार पर जब संत रविदास जी की आयु 12 वर्ष थी, उस समय रामानंद की मृत्यु हो चुकी थी । सामान्यतः चर्मकार-समुदाय का बारह वर्षीय बालक इतना जागरूक नहीं होता कि वह भक्ति और अध्यात्म में रूचि ले । यदि ऐसा हो भी सकता है, तो प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि रामानंद की मुलाकात बालक रविदास से कैसे हुई होगी ? क्या रामानंद चमारों की बस्ती में स्वयं गये होंगे ? यदि नहीं, तो फिर बारह वर्षीय बालक रविदास अपने गाँव से कई किलोमीटर दूर रामानंद के आश्रम पर कैसे गये होंगे ? वास्तव में, रामानंद को संत रविदास जी का गुरु मानना तर्कसंगत नहीं है । इस बात के पक्ष में दो ब्राह्मण लेखकों के कथन द्रष्टव्य हैं । आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है, " उन पाँच व्यक्तियों (सेन, कबीर, पीपा, रैदास, धना) में से कदाचित् किसी ने भी स्पष्ट शब्दों में रामानंद को अपना गुरु स्वीकार नहीं किया है और उनमें से सभी ने उनका नाम तक नहीं लिया है । " (उत्तरी भारत की संत परंपरा, पृष्ठ 229) इस उद्धरण पर अपना विचार व्यक्त करते हुए डॉ० बदरीनारायण श्रीवास्तव ने लिखा है, " जब तक उपर्युक्त संतों की वाणियों का प्रामाणिक संकलन उपलब्ध नहीं हो जाता अथवा उनके जीवन पर प्रकाश डालने वाली प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं हो जाती, तब तक इस संबंध में अंतिम निर्णय देना संभव नहीं होगा । " (रामानंद-संप्रदाय तथा हिंदी साहित्य पर उसका प्रभाव, पृष्ठ 89) अतः स्पष्ट है कि रामानंद को संत रविदास जी का गुरु मानना अनुचित है । इसी प्रकार बौद्ध-आंबेडकरवादी विद्वानों के कथनों का भी विश्लेषण करना आवश्यक है । बौद्ध विद्वान स्वरूप चंद्र बौद्ध ने अपनी पुस्तक 'बौद्ध विरासत के पुरोधा गुरु रविदास' में संत रविदास जी के गुरु का नाम 'रैवतप्रज्ञ' लिखा है । लेकिन उन्होंने रैवतप्रज्ञ के जीवनकाल (जन्म और मृत्यु) का कहीं उल्लेख नहीं किया है । इसी प्रकार डॉ० एस०के० पंजम ने अपनी पुस्तक 'संत रविदास - जन रविदास' में संत रविदास जी के गुरु का नाम 'शारदानंद' लिखा है । साथ ही, उनका यह भी मानना है कि शारदानंद का ही दूसरा नाम 'रैवतप्रज्ञ' है । किंतु डॉ० पंजम जी ने भी शारदानंद के जीवनकाल का कहीं उल्लेख नहीं किया है । उक्त दोनों बौद्ध-आंबेडकरवादी विद्वानों के मत को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए इस विषय में समुचित शोध करने की आवश्यकता है । फिलहाल तो, इन दोनों विद्वानों के कथन भी संदिग्ध हैं ।

6. व्यवसाय :- छठवाँ प्रश्न गुरु रविदास जी के व्यवसाय से संबंधित है । डॉ० इंद्रराज सिंह, डॉ० योगेंद्र सिंह तथा अन्य अनेक ब्राह्मणवादी लेखकों ने गुरु रविदास जी का व्यवसाय 'चमड़े का जूता बनाना' स्वीकार किया है । वंचित-वर्ग के अधिकांश लोग इसी बात को सही मानते हैं । वे प्रफुल्लित और गर्वित भाव से यह कहते हुए पाये जाते हैं कि " संत रविदास जी चमड़े का जूता बनाकर भी ईश्वर की भक्ति किये । वे चमत्कार दिखाकर ब्राह्मणों को झुका दिये । " वास्तव में, ऐसे लोग जनश्रुतियों का अंधानुकरण करते हैं । जबकि मध्यकालीन भारत का इतिहास लिखने वाले किसी भी इतिहासकार ने अपनी पुस्तक में इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि मध्यकाल में बनारस के आसपास चमड़े का जूता बनाने का व्यवसाय किया जाता था । भाषायी तौर पर 'चर्मकार' शब्द का अर्थ है - 'चमड़े का काम करने वाला' । लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि चमड़े का जूता बनाना भी चमारों का ही काम रहा है । यदि इस बात को सही मान लिया जाए, तो चमड़े का जूता/चप्पल बनाने वाली कंपनियों के सभी मालिकों टाटा और बाटा आदि तथा इनके थोक-विक्रेताओं को चर्मकार (चमार) कहना पड़ जाएगा ? सच तो यह है कि संत रविदास जी चमड़े से जूता बनाने का काम नहीं करते थे । वे ऐसे परिवार से थे, जिस परिवार में 'ढोर' (मरा हुआ जानवर) ढोने का काम किया जाता था । गुरु रविदास जी ने स्वयं कहा है - " जाके कुटुंब के ढेढ़ सब ढोर ढोवंत/फिरहि अजहु बनारसी आसपास । " यहाँ पर 'ढोर ढोवंत' का कुछ लोगों ने ढोरों (पशुओं) का व्यापार करने का अर्थ करते हुए संत रविदास जी के पिता को एक समृद्ध व्यापारी-वर्ग से संबंधित करने का प्रयास किया है । यदि इस दूसरे अर्थ को ही सही मान लिया जाए, तो भी यही सिद्ध होता है कि गुरु रविदास जी चमड़े का जूता नहीं बनाते थे । बौद्ध/आंबेडकरवादी विद्वान डॉ० सूरजमल सितम ने अपनी पुस्तक 'बोधिसत्व गुरु रविदास और उनके आंदोलन' में गुरु रविदास जी के द्वारा विभिन्न प्रांतों में स्थित चौबीस स्थानों का भ्रमण करने का उल्लेख किया है । यदि गुरु रविदास जी एक जगह बैठकर चमड़े का जूता बनाने का ही काम करते तो, वे भारत के विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण कैसे करते ? अतः स्पष्ट है कि गुरु रविदास जी न तो अपना पैतृक व्यवसाय किये, न ही चमड़े का जूता बनाने का व्यवसाय किये । चूँकि गुरु रविदास जी श्रमण परंपरा के संत थे, इसलिए वे आजीवन प्रवचन और उपदेश देकर लोगों को सुखी जीवन जीने के लिए प्रेरित करते रहे तथा लोगों द्वारा प्रदत भेंटस्वरूप धनराशि से अपना जीवन-निर्वाह करते रहे ।

7. साधना-मार्ग :- सातवाँ प्रश्न गुरु रविदास जी के साधना-मार्ग से संबंधित है । हिंदी साहित्य के इतिहास में पूर्व मध्यकाल अर्थात् भक्तिकाल के अंतर्गत गुरु रविदास जी को स्थान प्रदान किया गया है । साहित्य के इतिहासकारों ने भक्तिमार्ग को चार प्रकारों में विभाजित किया है - ज्ञानमार्गी निर्गुण, प्रेममार्गी निर्गुण, राममार्गी सगुण और कृष्णमार्गी सगुण । सामान्यतः ज्ञानमार्गी निर्गुण धारा के कवियों को 'संत' के नाम से संबोधित किया जाता है और प्रेममार्गी निर्गुण धारा के कवियों को 'सूफी' के नाम से संबोधित किया जाता है । इनके अतिरिक्त राममार्गी सगुण धारा और कृष्णमार्गी सगुण धारा के सभी कवियों को 'भक्त' के नाम संबोधित किया जाता है । गुरु रविदास जी सगुण भक्त नहीं थे, बल्कि निर्गुण संत थे । उनकी वाणियों में जो भक्ति और प्रेम के शब्द आये हैं, वह माधुर्य-भाव के प्रकृति-प्रेम का लक्षण है । साथ ही, यह भी संभव है कि उनकी वाणियों में ब्राह्मणवादी आचार्यों/लेखकों द्वारा जोड़-घटाव किया गया हो । इसलिए इस संदर्भ में अभी सम्यक शोध करने की आवश्यकता है ।

8. शक्ति-प्रदर्शन :- आठवाँ प्रश्न गुरु रविदास जी के शक्ति-प्रदर्शन से संबंधित है । भारत के अधिकांश निरक्षर, साक्षर और शिक्षित लोग यही मानते हैं कि संत रविदास जी शक्तिशाली व चमत्कारी थे । नाभादास ने अपने ग्रंथ 'भक्तमाल' में गुरु रविदास जी को चमत्कारी-भक्त रूप में वर्णित किया है । गुरु रविदास जी के जीवन-चरित्र का चमत्कारपूर्ण वर्णन लगभग सभी ब्राह्मणवादी लेखकों ने किया है । उनसे जो कुछ कमी रह गयी थी, उसे रविदासिया-धर्म के अनुयायियों ने पूरा कर दिया है । गुरु रविदास जी के जीवन-चरित्र से संबंधित चमत्कारपूर्ण प्रसंगो का आरंभ गंगा और ब्राह्मण के वृतांत से होता है । लोगों का मानना है कि गुरु रविदास जी ने कहा था, " मन चंगा, तो कठौती में गंगा । " जबकि गुरु रविदास जी की समस्त वाणियों में इस प्रकार का कथन कहीं नहीं मिलता है । वास्तव में, यह कथन गोरखनाथ का है । मूल गोरखवाणी इस प्रकार है - " अवधू मन चंगा तो कठौती में गंगा/बांध्या मेल्हा तो जगत्र चेला । " (हिंदी साहित्य का इतिहास - डॉ० नगेंद्र व डाॅ० हरदयाल, पृष्ठ 93) स्पष्ट है कि जब यह कथन गुरु रविदास जी का है ही नहीं, तो गंगा और ब्राह्मण का वृतांत भी मिथ्या है । वैसे भी, किसी भी मध्यकालीन संत ने देवी-देवताओं की आराधना नहीं की है । इसलिए संत रविदास जी के द्वारा गंगा की भक्ति करने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता है । वर्तमान में, स्वरूपचंद्र बौद्ध, भद्रशील रावत, श्याम सिंह, डॉ० सूरजमल सितम, डॉ० विजय कुमार त्रिशरण और सतनाम सिंह आदि बौद्ध/आंबेडकरवादी विद्वानों ने अनेक प्रामाणिक तर्कों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि गुरु रविदास जी चमत्कारी नहीं, बल्कि क्रांतिकारी थे ।

9. शिष्य-शिष्या :- नौवाँ प्रश्न गुरु रविदास जी के शिष्य/शिष्या से संबंधित है । अभी तक गुरु रविदास जी के जीवन-चरित्र के बारे में लिखी गयी पुस्तकों में उनकी केवल दो शिष्याओं झालीबाई (सास) और मीराबाई (बहू) का उल्लेख मिलता है । जबकि ऐसा कैसे हो सकता है कि सौ वर्षों से अधिक जीवनकाल में गुरु रविदास जी के केवल दो ही शिष्य बने होंगे और वे भी केवल महिलाएँ, जो एक ही परिवार से थीं । क्या गुरु रविदास जी पुरुषों के बीच में नहीं जाते थे, उन्हें प्रवचन नहीं देते थे, उनसे मेल नहीं रखते थे ? क्या पुरुषों को गुरु रविदास जी की वाणी प्रभावित नहीं करती थी ? आखिर क्या कारण है कि गुरु रविदास जी के शिष्यों में पुरुषों का उल्लेख नहीं मिलता है ? सच तो यह है कि गुरु रविदास जी के जीवन-चरित्र से संबंधित खोज अभी तक अधूरी है ।

10. परिनिर्वाण :- दसवाँ प्रश्न गुरु रविदास जी के परिनिर्वाण से संबंधित है । गुरु रविदास जी का परिनिर्वाण कब हुआ था ? इसके उत्तर में रविदासिया धर्म के लोग उनकी जन्मतिथि की तरह ही बेतुका उत्तर देते हैं । महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी द्वारा निर्धारित बी०ए० प्रथम वर्ष (हिंदी) की पाठ्यपुस्तक 'मध्ययुगीन काव्य' में गुरु रविदास जी की परिनिर्वाण-तिथि संत कबीर के समान ही लिखी गयी है । अर्थात् गुरु रविदास जी का परिनिर्वाण 120 वर्ष की आयु में सन् 1518 ई० में हुआ था । इस तिथि की प्रमाणिकता की जाँच करने के लिए गुरु रविदास जी की शिष्या मीराबाई की समकालीनता का विवेचन करना आवश्यक है । एनसीईआरटी द्वारा निर्धारित ग्यारहवीं कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक के अनुसार, मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई० में हुआ था । भोजराज के साथ उनका विवाह सन् 1516 ई० में हुआ था । विवाह के कुछ ही दिनों बाद उनके पति का देहांत हो गया था । पति के देहांत के बाद मीराबाई पूरी तरह से विरक्त हो गयी थीं । चूँकि यह सर्वमान्य और प्रसिद्ध है कि गुरु रविदास जी के जीवन के अंतिम समय में झालीबाई और मीराबाई से उनकी मुलाकात हुई थी, इसलिए गुरु रविदास जी की परिनिर्वाण तिथि 1518 ई० ही ठीक जान पड़ती है । जब तक कोई ठोस प्रमाण नहीं प्राप्त हो, तब तक इस तिथि को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।

गुरु रविदास जी के परिनिर्वाण से संबंधित प्रश्न में एक और प्रश्न जुड़ जाता है कि उनका देहांत प्राकृतिक रूप से हुआ था या फिर उनकी हत्या की गयी थी ? रविदासिया धर्म वाले तो गुरु रविदास जी की हत्या की बात को किसी भी स्थिति में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं । वे गुरु रविदास जी को शक्तिशाली और चमत्कारी ही नहीं, बल्कि परमात्मा (ईश्वर) भी मानते हैं । वे भगवान बुद्ध से तुलना करते हुए यह कहते हुए पाये जाते हैं कि अगर बुद्ध 'भगवान' हो सकते हैं, तो गुरु रविदास जी भी 'भगवान' हैं । उन अल्पज्ञानियों को यह नहीं पता है कि बुद्ध को 'भगवान' किस अर्थ में कहा जाता है ? बुद्ध ने आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को कभी स्वीकार नहीं किया । बौद्ध धम्म के अनुयायी भी आत्मा-परमात्मा में विश्वास नहीं रखते हैं । 'भगवान' का आशय है - जो अपनी समस्त मानसिक बुराइयों को भग्न (नष्ट) कर चुका है, वही भगवान है । यदि इस अर्थ को ग्रहण करते हुए रविदासिया-धर्म वाले गुरु रविदास जी को 'भगवान रविदास' कहकर संबोधित करें, तो स्वीकार करने योग्य है । लेकिन वे इस अर्थ को नहीं, बल्कि हिंदूवादियों के अर्थ को ग्रहण करते हुए गुरु रविदास जी को 'भगवान रविदास' कहते हैं, जो अवैज्ञानिक और अतार्किक है ।

सच तो यह है कि गुरु रविदास जी की हत्या हुई थी । लेखक सतनाम सिंह ने अपनी पुस्तक 'गुरु रविदास की हत्या के प्रामाणिक दस्तावेज' में उनकी हत्या के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किया है । कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि जब गुरु रविदास जी के शत्रुओं को उनकी हत्या ही करनी थी, तो वे वृद्धावस्था तक प्रतीक्षा क्यों किये ? उन्होंने गुरु रविदास जी की हत्या उनके युवाकाल में ही क्यों नहीं कर दी ? यह प्रश्न स्वयं मेरे मन में उत्पन्न हो चुका है । लेकिन मैं इस प्रश्न का उत्तर पा चुका हूँ और पूरी तरह से संतुष्ट हो चुका हूँ । इस प्रश्न का उत्तर मैंने स्वयं प्राप्त किया है । दरअसल, मेरे गाँव के पास ही एक सत्तर साल के बूढ़े व्यक्ति की हत्या कर दी गयी थी । लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि किसी ने उस वृद्ध व्यक्ति की हत्या की है । क्योंकि सबके मन में यही प्रश्न था कि भला एक वृद्ध व्यक्ति की हत्या कोई क्यों करेगा ? लेकिन कुछ ही दिनों बाद पुलिस की जाँच-पड़ताल से पता चल गया कि उस वृद्ध व्यक्ति के खानदान वालों ने ही संपत्ति के लालच में उसकी हत्या की थी । इसलिए गुरु रविदास जी की हत्या से संबंधित इस तरह के प्रश्न से भ्रमित नहीं होना चाहिए । शत्रु जब आवेश में होता है और जब अनुकूल अवसर मिलता है, तभी वह हत्या करता है । हत्या का उम्र से कोई संबंध नहीं है ।

✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'  [ 10/03/2022 ]


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📝 संपादकीय/अंक 2... अप्रैल-जून 2022 📇

📄 अस्पृश्यता, जातिगत भेदभाव, डॉ० आंबेडकर और बौद्ध धम्म

हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा ।

अल्लामा इक़बाल के इस शेर का वाच्यार्थ यह है कि अपनी सुंदरता से अनजान नरगिस (एक प्रकार का फूल) हजारों सालों तक अपनी बेनूरी (अंधेपन) पर रोती रहती है कि मुझमें कोई गुण, आकर्षण या सुन्दरता नहीं है । हजारों सालों बाद संसार (चमन) में कोई दीदावर (पारखी) पैदा होता है, जो नरगिस को उसकी सुंदरता का आभास कराता है और उसकी सुंदरता की सराहना करता है । इस शेर का लक्ष्यार्थ यह है कि जब संसार में अंधकार (बेनूरी) बढ़ जाता है, तब हजारों सालों में एक युगद्रष्टा जन्म लेता है, जो संसार को इसकी सुंदरता से परिचित कराता है । इस शेर का एक आशय यह भी है कि संसार को समझने के लिए हृदय में एक दृष्टि पैदा करनी चाहिए, अन्यथा आँख होते हुए भी बेनूरी (अंधापन) छायी रहेगी । भारत में अस्पृश्यों (अछूतों) की स्थिति भी नरगिस की तरह ही थी । हजारों सालों बाद उन्हें उनकी सुंदरता और गुण का आभास दिलाने के लिए दीदावर के रूप में बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म हुआ था । 

बाबा साहेब ने अपने ग्रंथ 'अछूत कौन थे और वे अछूत कैसे बने ?' में अस्पृश्यता के कारणों का ऐतिहासिक विवेचन किया है । बाबा साहेब ने छुआछूत की उत्पत्ति का कारण स्पष्ट करते हुए एक नये सिद्धांत को प्रस्तुत किया । छुआछूत की उत्पत्ति के नये सिद्धांत का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने अछूतों को मूलतः बौद्ध सिद्ध किया है । बौद्ध होने और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने के कारण ही छितरे हुए लोगों को अछूत घोषित किया गया था । बाबा साहेब के शब्दों में, " यदि हम स्वीकार कर लें कि ये छितरे व्यक्ति बौद्ध थे और ब्राह्मण धर्म के बौद्ध धम्म पर हावी हो  जाने पर दूसरों की तरह इन्होंने आसानी से बौद्ध धम्म छोड़कर ब्राह्मण धर्म ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया, तो हमें दोनों प्रश्नों का एक समाधान मिल जाता है । इससे यह बात साफ हो जाती है कि अछूत ब्राह्मणों को अशुभ क्यों मानते हैं, वे उन्हें पुरोहित क्यों नहीं बनाते और अपने मुहल्लों तक में क्यों नहीं आने देते ? इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये छितरे व्यक्ति क्यों अछूत समझे गये ? ये छितरे व्यक्ति ब्राह्मणों से घृणा करते थे, क्योंकि ब्राह्मण बौद्ध धम्म के शत्रु थे और ब्राह्मणों ने इन छितरे आदमियों को अछूत बनाया । क्योंकि ये बौद्ध धम्म को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे । इस तर्क से यह निष्कर्ष निकलता है कि अस्पृश्यता के मूल कारणों में से एक कारण घृणा भाव है, जो ब्राह्मणों ने बौद्धों के प्रति पैदा किया । " (बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खण्ड - 14, अछूत कौन थे और वे अछूत कैसे बने, पृष्ठ 86) तथाकथित सवर्ण स्पृश्य लोग भारत के बहिष्कृत लोगों के साथ छुआछूत का बर्ताव करते थे । लेकिन स्वयं स्पृश्यों के बीच में भी अस्पृश्यता की स्थिति पायी जाती है । इस संदर्भ में बाबा साहेब ने सन् 1928 में मुंबई में आयोजित एक जनसभा में भाषण देते हुए कहा था, " ब्राह्मणों के अलावा अन्य सभी जातियों को अस्पृश्यता का थोड़ा-बहुत संताप झेलना ही पड़ा है और वे झेल रहे हैं । ब्राह्मणों के बीच भी जातिविशिष्ट अस्पृश्यता और ऊँच-नीचता का भाव है । पूजा करते समय पलसीकर ब्राह्मणों के आने से और अपवित्रता छा जाती है, ऐसा चित्पावन ब्राह्मण मानते हैं । कायस्थ महिला के स्पर्श से अपने कपड़े अपवित्र न हो जाएँ, इसलिए ब्राह्मण महिला कुमकुम की डिब्बी जमीन पर रखती है और कायस्थ महिला जमीन पर रखी डिब्बी से उठाकर कुमकुम का तिलक लगा लेती है । इस तरह स्पृश्य जातियों में भी अस्पृश्यता फैली हुई है । " (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर, खंड 38, पृष्ठ 143)

अस्पृश्यता के अतिरिक्त जातिप्रथा भी हिंदू समाज का कोढ़ है । बाबा साहेब ने अपनी पुस्तक 'जातिप्रथा का विनाश' में जातिप्रथा की उत्पत्ति और उसके विनाश का तथ्यपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है । जातिप्रथा के कारण ही हिंदू समाज के लोगों में एकता का अभाव है । यही नहीं, स्वयं अस्पृश्य लोग भी आपस में एक नहीं हैं । सन् 1937 में पंढरपुर (सोलापुर) में आयोजित एक जनसभा में भाषण देते हुए बाबा साहेब ने कहा था, " अस्पृश्यों में शामिल महार, चमार, भंगी आदि जो जातियाँ हैं, उनमें एकता नहीं है । इस एकता न होने का कारण हिंदू समाज का जातिभेद ही है । " (बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 39, पृष्ठ 59) अस्पृश्यों के बीच व्याप्त जातिभेद को कैसे नष्ट किया जा सकता है ? इसके बारे में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने आलेख 'मुक्ति कौन पथे ?' में लिखा है, " क्या कभी आपने इस बात के बारे में सोचा है कि अस्पृश्यों के बीच व्याप्त जातिभेद को कैसे नष्ट किया जा सकता है ? सहभोजन करने से या कभी-कभार सहविवाह करने से जातिभेद नष्ट नहीं होता । जातिभेद एक मानसिक स्थिति है, एक मानसिक व्यथा है । इस मानसिक व्यथा का जन्म हिंदू धर्म की सीख के कारण होता है । हम जातिभेद का पालन इसलिए करते हैं, क्योंकि हम जिस धर्म में जी रहे हैं, जिस धर्म का पालन करते हैं, वह धर्म हमें ऐसा करने के लिए कहता है । अगर कोई चीज कड़वी हो, तो उसे मीठा बनाया जा सकता है । नमकीन, कसैली हो, तो उसका स्वाद बदला जा सकता है । लेकिन विष को अमृत नहीं बनाया जा सकता । 'हिंदू धर्म में रहते हुए जातिभेद को नष्ट करेंगे', कहना लगभग विष को अमृत बनाने की बात कहने जैसा ही है । अर्थात् जिस धर्म में इंसान को इंसान से घिन करने की सीख दी जाती है, उस धर्म में हम जब तक हैं, तब तक हमारे मन में व्याप्त जातिभेद की भावनाएँ कभी भी नष्ट नहीं होंगी । अस्पृश्यों में व्याप्त जातिभेद और अस्पृश्यता नष्ट करनी हो, तो उन्हें धर्म-परिवर्तन ही करना होगा । " ( बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ 491) 

वर्तमान में अधिकांश अस्पृश्य लोगों ने धर्म-परिवर्तन करके बौद्ध धम्म को अंगीकार कर लिया है । लेकिन दुःख की बात यह है कि लोगों ने केवल धर्म बदला है, उन्होंने अपनी धारणा अभी तक नहीं बदली है । वे जातिभेद की भावना से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सके हैं । वे अभी तक अपनी जातियों/उपजातियों में ही रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करते हैं । यही कारण है कि वे सही मायने में संगठित नहीं हो पा रहे हैं । बाबा साहेब इस बात को लेकर अत्यंत चिंतित थे । सन् 1939 में आयोजित एक जनसभा में बाबा साहेब ने कहा था, " मैं चाहता हूँ कि धर्मांतरण के बाद हमारे बीच का महार, भंगी, चमार आदि जातिभेद नष्ट हो । धर्म बदलेंगे, तो कम से कम महार, भंगी, चमार आदि नाम तो हमसे चिपकेंगे नहीं । हम सब एक होकर उन्नति की राह पर आगे चलेंगे । " (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 39, पृष्ठ 240) बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जैसे दीदावर को पाकर और उनका अनुसरण करके अधिकांश अस्पृश्यों ने आर्थिक रूप से उन्नति की है । उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से उन्नति करने की अति आवश्यकता है । इन दोनों क्षेत्रों में अस्पृश्य अभी बहुत ही पीछे हैं । अस्पृश्यों (वंचित वर्ग) को यदि अपना सामाजिक और सांस्कृतिक विकास करना है, तो उन्हें बौद्ध धम्म को हृदय से अंगीकार करके धम्मानुसार आचरण करना होगा ।

✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'  [ 12/06/2022 ]


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