होलिका और होली का यथार्थ

होली को हिंदुओं का पर्व कहा जाता है तथा होलिका को बौद्ध धम्म से जोड़ा जाता है । इस बात में कितनी सच्चाई है ? होलिका और होली का यथार्थ क्या है ? इस लेख में इन प्रश्नों का उत्तर विस्तारपूर्वक दिया गया है ।


न ही 'होली' हिंदुओं का पर्व है, न ही 'होलिका' से बौद्धों का कोई संबंध है । 'होली' और 'होलिका' दोनों शब्दों में मूल शब्द 'होला' (होरहा) है । चना, मटर आदि नकदी फसलों का भुना हुआ रूप 'होला' (होरहा) कहलाता है । वास्तव में, इस पर्व का संबंध कृषक-जीवन से है । यह किसानों का पर्व है । कृषक-वर्ग की क्रियाविधियों को किसी धर्म/संस्कृति से जोड़ना उचित नहीं है ।  - देवचंद्र भारती 'प्रखर'

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'मदनोत्सव' को ही होली कहा जाता है ।
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लोग जिसे होली के रूप में मनाने लगे हैं, राजा-महाराजाओं के युग में वह मदनोत्सव के रूप में आयोजित होने वाला भव्य-समारोह हुआ करता था । 'मदनोत्सव' कब होली बन गया, यह शोध (Research) का विषय है । उपलब्ध जानकारी के अनुसार, सातवीं सदी तक संपूर्ण प्राचीन भारत में 'होली' शब्द का नामोनिशान तक नहीं था । वस्तुतः जो भी था, वह 'वसंतोत्सव' या 'मदनोत्सव' ही था । मध्यकालीन युग के प्रारंभ होते ही संस्कृत भाषा अपना महत्व खोने लगी और भाषा के सरलीकरण के उन्हीं युगों में मदनोत्सव 'होली' बन गया । शिव द्वारा कामदेव-दहन के प्रकरण को होलिका-दहन में बदल दिया गया ।

'वाल्मीकि रामायण' में सर्वप्रथम कामदेव की स्तुति में 'मदनोत्सव' मनाये जाने का उल्लेख किया गया है, जिसे भारत के प्राचीनतम और गौरवमयी त्योहारों में से एक माना गया है । तब न होली थी और न होलिका, केवल यही वसंतोत्सव था । फाल्गुन की पूर्णिमा यानी मार्च-अप्रैल में यह पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता था । यह हर्षोल्लास के वसंत का अद्भुत समय होता है, जब शीतल मंद सुगंध पवन, हरियाली के भार से दबे वृक्ष, पीले सरसों से लहलहाते खेत, फूलों से लदे-फदे पौधे, सभी पशु-पक्षी, फूल-भँवरे, प्रकृति-ऋतु एक बारगी जवान हो उठते हैं । वातावरण में एक विचित्र मादकता छा जाती है । कालिदास ने अपने 'रघुवंश' में इसे 'ऋतु-उत्सव' कहा है । वसंत का आगमन ही एक नशा है, उन्माद है । सम्राट हर्षवर्धन ने अपने नाटक 'रत्नावली' में मदनोत्सव का बड़ा ही नयनाभिराम वर्णन किया है - " सातवीं सदी में धानेश्वर (हरियाणा) में यह मनाया जाता था । इसमें सभी नगरजन आयु, स्तर, वर्ण के भेदभाव भूलकर विशाल राजकीय उद्यान में एकत्र होते थे, जहाँ नृत्य, संगीत, वाद्य एक अवर्णनीय समां बाँध देते थे । सम्राट राजभवन में हाथी पर सवार होकर आते थे और उद्यान में अपनी पट्टमहिषी व अन्य रानियों के साथ प्रवेश करते थे । " सम्राट हर्षवर्धन ने अपने दूसरे नाटक 'नागानंद' में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है, जो रत्नावली के समान ही है । हर्ष के राजकवि बाणभट्ट ने 'हर्षचरित' में मदनोत्सव के समय विविध हास-परिहास का उल्लेख किया है । दंडी ने अपने नाटक 'दशकुमारचरित' में मदन की पूजा के विधान का विधिवत उल्लेख किया है । इसके लिए अशोक वृक्ष को भलीभाँति सजाया जाता है ।


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मदनोत्सव (होली) का हिंदू-धर्म से कोई संबंध नहीं है ।
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'हिंदू' शब्द 13वीं - 14वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया । 'हिंदू' शब्द के बारे में इतिहासकारों का मानना है कि यह शब्द हिंदी भाषा का शब्द नहीं है, बल्कि ईरानी भाषा का शब्द है । जब तुर्को और ईरानियों का भारत पर आक्रमण हुआ और वे लोग विजय प्राप्त करके भारत में रहने लगे, तो उन्होंने ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों को 'हिंदू' कहकर संबोधित किया । इस शब्द को यहाँ के ब्राह्मण-वर्ग ने सहर्ष अंगीकार कर लिया । इस प्रकार ब्राह्मणों को हिंदू और ब्राह्मण-धर्म को हिंदू-धर्म कहा जाने लगा । स्पष्ट है कि हिंदू-धर्म के अस्तित्व में आने से पहले ही मदनोत्सव (होली) मनाने की परंपरा भारतीय किसानों के बीच में प्रचलित थी ।


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होलिका से बौद्ध धम्म का कोई संबंध नहीं है ।
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बौद्ध लोग हिंदू धर्मग्रंथों को पूरी तरह से पौराणिक और काल्पनिक मानते हैं, लेकिन उन्हीं ग्रंथों में से एक ग्रंथ की एक काल्पनिक पात्र होलिका को वास्तविक मानकर अपने धर्म और परंपरा से जोड़ते हुए हिंदुओं के प्रति अपना विद्रोह-भाव प्रकट करते हैं । इस प्रकार बौद्ध-आंबेडकरवादी लोग अपने दोहरे चरित्र का परिचय देते हैं । जब विष्णु और प्रहलाद काल्पनिक हैं, तो फिर हिरण्यकश्यप और होलिका कैसे वास्तविक हैं ? हिंदू धर्मग्रंथों के आधार पर यदि विचार किया जाए, तो शिव ने जिस मदन (कामदेव) को जलाकर भस्म किया था, उसी को होलिका के रूप में जलाया जाता है । होलिका का बौद्ध संस्कृति से कोई संबंध नहीं है । इसलिए बौद्ध-आंबेडकरवादी लोग होलिका से संबंधित भावात्मक कहानियाँ गढ़कर लोगों को भ्रमित नहीं करें ।


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मदनोत्सव (होली) मनाने का वर्तमान तरीका बिल्कुल अनैतिक है ।
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मदनोत्सव (होली) के दिन होने वाले अनैतिक कार्य और व्यवहार को देखकर कवि देवचंद्र भारती 'प्रखर' ने अपनी एक कविता में लोगों की क्रियाविधि की कटु आलोचना की है । वह कविता द्रष्टव्य है : 

गूँज रही यह  बोली है
बुरा न मानो होली है ।
            
देखो रंग लगाने निकली
बदमाशों की टोली है ।

नारी की साड़ी है मैली
मैली हो गयी चोली है ।
                    
आज भाँग, गाँजा, दारू से
भरी पेट की झोली है ।

बात-बात पे बात बढ़े
सीने पर चलती गोली है ।
            
प्रेमी को अस्मत लुटाने
निकली घर की भोली है ।

अपने घर की भाभी पर
देवर की नीयत डोली है ।
          
जीजा ने अपनी साली के
लाज की डोरी खोली है ।

करते दुराचार, कहते हैं -
बुरा न मानो होली है ।

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यदि शील, सदाचार, प्रेम, सम्मान और भाईचारा का ध्यान रखते हुए मदनोत्सव (होली) मनाया जाए, तो इसमें कोई बुराई नहीं है । यह ऋतु-परिवर्तन के साथ होने वाले कामोत्तेजक अनुभव को हर्ष और उन्माद के साथ मनाने का पर्व है, लेकिन उत्तेजना और उन्माद को अश्लीलता और अभद्रता का रूप दिये बिना गायन, नृत्य, संगीत के माध्यम से अपनी भावना को प्रकट किया जा सकता है ।

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✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' 🌷
== कवि/लेखक/आलोचक ==
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका 
वाराणसी [उत्तर प्रदेश] 
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