बुद्धवाणी (पालि और हिंदी में)


" बुद्धवाणी " 🎡🎡🎡🎡🎡🎡🎡🎡🎡🎡🎡
≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈
≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈

फन्दनं चपलं चित्तं दुरक्खं दुन्निवारयं
उजुं करोति मेधावी उसुकारो व तेजनं  |1|

चित्त चंचल है, चपल है, दुर - रक्ष्य है दुर अनिवार्य है |मेधावी पुरुष इसे उसी प्रकार सीधा करता है, जैसे वाण बनाने वाला वाण को |  

न तं मातापिता कयिराअज्जेवापि च जातका
सम्मापणिहितं चित्तं सेय्यसो -न ततो कर |2|
 
न माता पिता, न दूसरे रिश्तेदार, आदमी की
उतनी भलाई करते हैं, जितनी भलाई सन्मार्ग की ओर गया हुआ चित्त करता है ।

न तं कम्मं कतं साधु यं कत्वा अनुतप्तति
यस्स अस्सुमुखे रोदं विपाकं पटिसेवति |3|

उस काम का करना अच्छा नहीं, जिसे करके
पीछे पछताना पड़े, और जिसके फल को रोते हुए भोगना पड़े |
      
तअंच कम्मं कतं साधु यं कत्वा नानुतप्पति  |
यस्स पतीतो सुमनो विपाकं पटिसेवति  | 4|

उस काम का करना अच्छा है,जिसे करके पीछे पछताना न पड़े,और जिसका फल प्रसन्नचित्त होकर भोगना मिले |

न भजे पापके मित्ते न भजे पुरिसाधमे 
भजेथ मित्ते कल्याणे भजेथ पुरसुत्तमे | 5|

न दुष्ट मित्रों की संगति करें, न अधम पुरुषों  की संगति करें | अच्छे मित्रों की संगति करें,उत्तम पुरुषों की संगति करें |

न हि वेरेन वेरानि सम्मनतीध कुदाचनं
अवेरेन च  सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो  |6|

वैर, वैर से कभी शांत नहीं होता, अवैर से ही वैर शांत  होता है... यही संसार का सनातन नियम है ।

दिसो दिसं यनतं कयिरा वेरी वा पन वेरिनं
मिच्छापणिहितं चित्तं पापियो '-नं ततो करे 

शत्रु ,शत्रु की या वैरी वैरी की जितनी हानि करता है,कुमार्ग की ओर गया हुआ चित्त मनुष्य की उससेकहीं अधिक हानि करता है ।

सेलो तथा एकघनो वातेनं न समीरति
एवं निन्दापसंसासु न समीज्जन्ति पंडिता |8

जिस प्रकार ठोस पहाड़ हवा से नहीं डोलता, उसी प्रकार पंडित (विद्वान )निन्दा और प्रशंशा से कम्पित नहीं होते.

यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने
एकं च जेय्यमत्तानं स वे संगामजुत्तमो  |9|

एक आदमी संग्राम में लाखों आदमियों को जीत ले,और एक दूसरा अपने आप को जीत ले |यह दूसरा आदमी ही (सच्चा)संग्राम विजयी है |

यो च वस्ससतं जीवे दुस्सीलो असमाहितो
एकाहं जीवितं सेय्यो सीलवंतस्स झाइनो 10

दुराचारी और चित्त की एकाग्रता से हीन व्यक्ति के सौ वर्ष के जीवन से सदाचारी और ध्यानी का एक दिन का जीवन श्रेष्ठ है |


पुप्फानि हेव पचिनन्तं व्यासत्तमनसं नरं
सुत्तं गामं महोघो 'व मच्चु आदाय गच्छति (11)

(राग आदि) पुष्पों के चुनने में आसक्त आदमी को मृत्यु वैसे ही बहा ले जाती है,जैसे सोये हुए गाँव को (नदी की)बड़ी बाढ़ 

न अंतलिक्खे न समुद्दमज्झे न पब्बतानं विवरं पविस्स |
न विज्जति सो जगतिप्पदेसो चत्थट्ठीतं न प्पसहेय्य मच्चू || {12}

न आकाश में, न समुद्र की तह मे, न पर्वतों के गहवर मे....संसार मे कहीं कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ रहने वाला मृत्यु से बच सके 

अप्पमादो अमत -पदं पमादो मच्चुनो पदं
अप्पमत्ता न मीयन्ती ये पमत्ता यथा मता [13]

अप्रमाद अमृत-पद है, प्रमाद मृत्यु का पद |
अप्रमादी मनुष्य मरते नहीं और प्रमादी मनुष्य  मृत के ही समान होते हैं |

यो च वस्ससतं जीवे अपस्सं धम्ममुत्तमं
एकाहं जीवितं सेय्यो पस्सतो धम्ममुत्तमं [14]

उत्तम धर्म की ओर ध्यान न देते हुए सौ वर्ष के जीने से उत्तम धर्म की ओर ध्यान देते हुए एक दिन जीना श्रेष्ठ  है |

न अंतलिक्खे न समुद्दमज्झे न पब्बतानं विवरं पविस्स |
न विज्जति सो जगतिप्पदेसो चत्थट्ठीतो मुंचेय्य पापकम्मा [ 15]

न आकाश में, न समुद्र की तह में,न पर्वतों के गहवर में... संसार में कहीं कोई ऐसी जगह नहीं है,जहाँ रह कर आदमी पाप-कर्म के फल से बच सके |

सहस्समपि  चे गाथा अनत्थपद संहिता
एकं गाथापदं सेय्यो यं सुत्वा उपसममति {16}

अनर्थकारी-पदों से युक्त सहस्त्रों गाथाओं से एक उपयोगी गाथा श्रेष्ठ है,जिसे सुनकर शान्ति प्राप्त हो

उट्ठानवतो सतिमतो सुचिकमम्स्स निसम्मकारिनो |सन्नतस्स च धम्म जीविनो अप्पमत्तस्स यसोभिवडढति  || {17}

उद्योगी जागरूक पवित्र कर्म करने वाले,
सोच- समझ कर काम करने वाले, संयमी, धर्मानुसार जीविका चलाने वाले अप्रमादी मनुष्य के यश की वृद्धि होती है |

सब्बे तसन्ति दंडस्ससब्बे भायंति मच्चुनो
अत्तानं  उपमं कत्वान हनेरूय न घातये {18}

सभी दंड से डरते हैं, सभी को मृत्यु से भय लगता है | इसलिए सभी को अपने जैसा समझ न किसी को मारे, न मरवाये |

मा वोच फरुसं कंचि वुत्तापटिवदेय्यु तं
दुक्खा हि सारम्भकथा पटिदंडा फुस्सेयु तं {19}

किसी से कठोर वचन मत बोलो, दूसरे तुमसे
कठोर वचन बोलेंगे | दुर्बचन  दुखदायी  होते हैं | बोलने से बदले में तुम दंड पाओगे |

अठठीनं नगरं कतं मंसलोहितलेपनं
यत्थजरा च मच्चू च मानो मक्खो च ओहितो {20}

हड्डियों का नगर बनाया गया है, मांस और रक्त से लेपा गया है, उसमें बुढ़ापा, मृत्यु अभिमान और डाह छिपे हैं |


मनोपुब्बंगमा धम्मा  मनोसेटठा मनोमया
मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति  वा
ततो  'नं दुक्खमन्वेति चक्कं - व वहतो पदं | {21}

सभी धर्म (चैत्सिक अवस्थाएं )पहले मन में उत्पन्न होते हैं | मन ही मुख्य है, वे मनोमय हैं |जब आदमी मलिन मन से बोलता व कार्य करता है,तब दुःख उसके पीछे वैसे ही हो लेता है,जैसे (गाड़ी)के पहिये बैल के पैरों के पीछे -पीछे |

मनोपुब्बंगमा धम्मा  मनोसेटठा मनोमया
मनसा चे पसंनेन भासति वा करोति वा
ततो 'नं सुखमनवेति छाया ' व अनपायिनी {22}

सभी धर्म ( चैत्सिक अवस्थाएं )पहले मन में उत्पन्न होते हैं, मन ही मुख्य है, वे मनोमय हैं |जब आदमी स्वच्छ मन से बोलता व कार्य करता है, तब सुख उसके पीछे पीछे वैसे ही हो लेता है, जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली छाया आदमी के पीछे पीछे l

न पुप्फगन्धो पटिवातमेति न चंदनं तगरमल्लिका वा
सतंचगन्धो पटिवातमेति सब्बादिसा सप्पुरिसोपवाति (23)

न तो पुष्पों की सुगन्ध,न चंदन की सुगन्ध न तगर व चमेली की सुगंध हवा के विरुद्ध जाती है, लेकिन सत्पुरुषों की सुगंध हवा के विरुद्ध भी जाती है |
सत्पुरुष सभी दिशाओं में (अपनी सुगंध) फैलाते हैं |

खंचे नाधिगच्छेय्य सेय्यं सदिस्मत्तनों
एकचरियं हल्हं कयिरा नत्थि बाले सहायता { 24}

यदि विचरण करते हुए, अपने से श्रेष्ठ व अपने जैसे साथी को न पाए, तो आदमी दृढ़तापूर्वक अकेला ही रहे | मूर्ख आदमी की संगति (अच्छी) नहीं |

यो बालो मंजति बाल्यं पण्डितो वापि तेन सो
बालो च पण्डितमानी, स वे बालो -तिवुच्चति |25|

यदि मूर्ख आदमी अपने को मूर्ख समझे, तो उतने अंश में तो वह बुद्धिमान है | असली मूर्ख तो वह है जो मूर्ख होते हुए अपने आप को बुद्धिमान समझता है |

अत्तानं एव पठमं पटिरूपे निसेवये |
अथंन्मनुसासेय्य न किलिस्सेय्य पण्डितो | {26}

जो उचित है, उसे यदि पहले अपने करके पीछे दूसरे को उपदेश दे,तो पण्डित (जन)को क्लेश न हो  |

अचरित्वा ब्रह्मचरियं अलद्धा योब्बणे धनं
सेन्ति चापातिखीणाव पुराणानि अनुत्थनं  | {27}

जिन्होंने ब्रह्मचर्य  का पालन नहीं किया, जिन्होंने जवानी में धन नहीं कमाया, वह टूटे धनुष की तरह पुरानी बातों पर पछताते हुए पड़े रहते हैं |

सन्तं अस्स मनं होति सनता वाचा च कम्म च |सम्मदंजाविमुत्तस्स उपसन्तस्स तादिनो  |  {28}

उपशांत, ज्ञान द्वारा पूरी तरह मुक्त हुए उस स्थिर चित्त पुरुष का मन शान्त होता है, वाणी शान्त होती है |

अभित्थरेथ  कल्याणे पापा चित्तं निवारये
दन्धं हि करोतो  पुण्यं पापस्मिँ रमते मनो { 29}

शुभ करम करने में जल्दी करे, पापों से मन को हटाए | शुभ कर्म करने में ढील करने पर मन पाप में रत होने लगता है |

न नग्गचरिया न जटा प पंका नानासका थण्डिलसायिका वा  |
रज्जो च जल्लं उकुट्टिकप्पधानं सोधेन्ति मच्चं अवितन्णकंगखं || { 30}

न नंगे रहने से, न जटा (धारण करने) से,
न कीचड़ (लपेटने) से, न उपवास करने से, न कठोर भूमि पर सोने से, न धूल लपेटने से, न उकड़ू बैठने से ही उस आदमी की शुद्धि होती है, जिसके संदेह बाकी हैं |


सब्बपापस्स  अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा  
सचित परियोदपनं, एतं  बुद्धान  सासनं     || { 31}

सब पापों का न करना, शुभ कर्मों का करना,
चित्त  को  परिशुद्ध रखना  यही  है.......
बुद्धों  की शिक्षा  |

यो च पुब्बे पमज्जित्वा  पच्छा  सो नप्पमज्जति
सो 'मं लोकं पभासेति  अब्भा मुत्तोव चन्दिमा {32}

जो पहले  भूल करके (भी ) फिर भूल नहीं करता वह मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भांति  इस लोक को प्रकाशित  करता है |

सुखो बुद्धानं उप्पादो  सुखा सद्धमदेसना
सुखा  संघस्स सामग्गी समग्गानं तपो सुखो | {33}

बुद्धों  का पैदा  सुखकर है , सद्धर्म का उपदेश सुखकर है, संघ में एकता का होना सुखकर है और सुखकर है मिल कर तप करना |

अत्ता हि अत्तनो  नाथो को हि नाथो  पयो सिया
अत्तनाव  सुदन्तेन  नाथं   लभति    दुल्लभं  | {34}

आदमी अपना स्वामी आप  हैं, दूसरा कौन स्वामी हो सकता है? अपने को दमन करने वाला दुर्लभ स्वामित्व को पाता है  |

आरोग्य परमा लाभा  संतुट्ठीपरमं  धनं |
विस्सासपरमा जाती निब्बाणं परमं सुखं | {35}

निरोग रहना परम लाभ है, संतुष्ट  रहना परम धन विश्वास सबसे बड़ा बंधु है, निर्वाण सबसे बड़ा सुख |

अक्कोधेन जिने कोधं  असाधुं  साधुना  जिने
जिने कदरियं दानेन सच्चेन अलिकवादिनं    {36}

क्रोध को अक्रोध से बुराई को भलाई  से, कंजूस पन  को दान से और झूठ को
सत्य से जीते |

कायप्पकोपं रक्खेय्य  कायेन संवुतो सिया
कायदुच्चरितं हित्वा  कायेन  सुचरितं चरे |   {37}

काय की चंचलता  से बचा रहे |काय का संयम रक्खे | शारीरिक दुश्चरित्र को छोड़ कर शरीर से सदाचरण  करे |

वचीपकोपं  रक्खेय्य वाचाय संवुतो  सिया
वचीदुच्चरितं हित्वा वाचाय  सुचरितं चरे  |  {38}

वाणी की चंचलता  से बचे  |वाणी का संयम रक्खे | वाणी का दुश्चरित्र छोड़ कर वाणी का सदाचरण  करे |

मनोपकोपं रक्खेय्य मनसा संवुतो सिया
मनोदुच्चरितं हित्वा मनसा सुचरितं चरे |  {39}

मन की चंचलता से बचे  मन का संयम रक्खे
मन का दुश्चरित्र छोड़ कर मानसिक सदाचरण करे

कायेन संवुता धीरा अथो वाचाय  संवुता
मनसा संवुता धीरा ते  वे  सुपरिसंवुता  |  {40}

जो काय से संयत  हैं , जो वाणी से संयत हैं,
जो मन से संयत हैं, वे ही अच्छी तरह से संयत कहे जा सकते हैं  |


नत्थि रागसमो  अग्गि नत्थि दोससमो  गहो |
नत्थि  मोहसमं जालं नत्थि  तन्हासमा नदी  {41}

राग के समान आग नहीं, द्वेष के समान ग्रह नहीं,मोह के समान जाल नहीं और तृष्णा के समान नदी नहीं |

अयसा 'व मलं समुट्ठीतं तदुटठाय तमेखदति
एवं अतिधोनचारिनं  सककम्मानि नयन्ति दुग्गतिं |{42}

लोहे से उत्पन्न मोर्चा लोहे से पैदा हो कर लोहे को खा डालता है, उसी प्रकार अति चंचल (मनुष्य)के अपने ही कर्म उसे दुर्गति को ले जाते हैं |

ततो मला मलतरं अविज्जा परमं मलं
एतं मलं  पहत्वान निम्मला होथ  भिक्खवो |  {43}

लेकिन इन सभी मलों से बढ़ कर मल है --अविद्या
भिक्षुओ! इस मल को छोड़ कर निर्मल बनो |

 अत्तदत्तथं  परत्थेन बहुनापि न हापये
अत्तदत्थमभिन्नाय  सदत्थपसुतोसिया  |{44}

परार्थ  के लिए आत्मार्थ  को बहुत ज़्यादह भी न छोडे | आत्मार्थ को जान कर सदर्थ में लगे |

अत्ताननचे  तथा कयिरा यथान्नमानुसामिति
सुदन्तो  वत दम्मेथअत्ताहि  किर दुद्दमो |  {45}

यदि पहले स्वयं वैसा करे, जैसा औरों को उपदेश देता है, तो अपने को दमन कर सकने वाला दूसरों का भी दमन कर सकता है | वस्तुतः अपने को दमन करना ही कठिन है |

सद्धो सीलेन संपन्नो  यसोभोग समप्पितो
यं यं पदेसं भजति  तत्थ  तत्थेव  पूजितो  | {46}

जो श्रद्धावान है, जो सदाचारी है,जो यशस्वी है, जो संपत्तिशाली है,वह जहाँ जहाँ  होता है वहीं वहीं सत्कार पाता है |

न तेन पण्डितो होति यावता बहु भासति
खेमी अवेरी अभयो पण्डितो 'ति पवुच्चति | {47}

बहुत बोलने से पण्डित नहीं होता |जो  क्षेमवान अवैरी और निर्भय  होता है, वही  पण्डित कहलाता है |

यम्हि सच्चन्च धम्मो  च  अहिंसा संजमो  दमो
स वे वंतमलो  धीरो  थेरो  ति पवच्चुति | {48}

जिसमें  सत्य  धर्म, अहिंसा, संयम और दम हैं, वही  विगतमल धीर स्थविर कहलाता है |

न वाक्कणमत्तेन वन्णापोक्खरताय वा
साधुरूपो नरो होति इस्सुकी मच्छरी सठो | {49}
              
यदि वह ईर्ष्यालु, मत्सरी और शठ हो, तो वक्ता होने से व सुंदर रूप होने से आदमी साधु-रूप  नहीं  होता | जिस आदमी के ये दोष जड़ -मूल से नष्ट हो गये हैं, जो दोषरहित है, जो मेधावी है, वही साधु-रूप कहलाता है |

उट्ठान कालाम्ही अनुट्ठहानो युवा बली आलसियं उपेतो |
संसन्नसंकप्पमनो कुसीतो पंजाय मग्गं अलसो न विदन्ति | {50}

जो उद्योग नहीं करता, युवा और बली होकर (भी) आलस्य से युक्त है, जिसका मन व्यर्थ के संकल्पों से भरा है, ऐसा आलसी आदमी प्रज्ञा के मार्ग को नहीं प्राप्त कर सकता |

वज्जंच  वज्जतो  अत्वा  अवज्जंच अवज्जतो |
सम्मादिटिठसमादाना  सत्ता गच्छंति सुग्गतिं | {51}

दोष को जो दोष करके जानते हैं, अदोष को
अदोष, ऐसे ठीक धारणा वाले प्राणी सुगति को प्राप्त होते हैं ।

सुदस्सं वज्जमंजेसं अत्तनो पन दृद्दसं |
परेसं  हि सो वज्जानि ओपुणाति यथा भुसं
अत्तनो पन छादेति कलिं ' व कितवा सठो | {52}

दूसरों के दोष देखना आसान है, अपने दोष देखना कठिन । (आदमी) दूसरे के दोषों को तो भूस की भांति  उड़ाता है, किन्तु अपने दोषों को ऐसे ढँकता है, जैसे बेईमान जुआरी पासे को ।

अनुपुब्बेन मेधावी थोक थोकं खणे खणे
कम्मारो  रजतस्सेव निद्धमे  मल मत्तनो  | {53}

जिस प्रकार सुनार चाँदी के मल को दूर करता है, उसी प्रकार मेधावी (पुरुष ) प्रति क्षण थोड़ा-थोड़ा करके अपने दोषों को दूर करें ।

योगा वे जायती भूरि आयोगा भूरिसंखयो |
एतं द्वेधापथं अत्त्वा भवाय विभवाय च  |
तथा  'त्तानं निवेसेय्य  यथा  भूरि पवडढति |{54}

योग अभ्यास से ज्ञान बढ़ता है, योग न करने से ज्ञान का क्षय होता है । उत्पत्ति और विनाश के इस दो प्रकार के मार्ग को जानकर अपने आपको वैसे रक्खें, जिससे ज्ञान की वृद्धि हो ।

दूरे संतो  पकासेन्ति हिमवन्तोव पब्बता
असन्तेत्थ न दिस्तन्ति रत्तिखित्ता यथा सरा | {55}

सत्पुरुष हिमालय पर्वत की तरह दूर से प्रकाशित होते हैं, असत्पुरुष रात में फेंके बाण की तरह दिखाई नहीं देते ।

यो  मुखसज्जतो भिकखु  मन्तभाणी  अनुद्धतो
अत्थं  धम्मंच दीपेति  मधुरं तस्स  भासितं  |{56}

जो वाणी का संयमी है, जो मनन करके बोलता है, जो उद्दत नहीं है, जो अर्थ और धर्म को प्रकट करता है, उसका भाषण  मधुर होता है ।

वरा अस्सतरा दन्ता आजानीया च  सिन्धवा |
कुंचरा च  महानागा अत्तदन्ता  ततो वरं {57}

खच्चर, आजानीय (अच्छे क्षेत्र के) सिंधी घोड़े और महानाग हाथी शिक्षित हों, तो श्रेष्ठ हैं । आदमी शिक्षित हो, तो इन सबसे श्रेष्ठ है ।

न हि पापं कतं  कम्मं सज्जु खीरंव मुच्चति
डहन्तं  बालमनवेति  भस्मच्छन्नोव  पावको | {58}

पाप कर्म ताजे दूध की भांति तुरंत विकार नहीं लाता । वह भस्म  से ढँकी आग की तरह जलाता हुआ मूर्ख आदमी का पीछा करता है ।

अथ पापानि कम्मानि करं बालो न  बुज्झति
सेहि  कम्मेहि  दुम्मेधो अग्गिदडढोव  तप्पति |{59}

पाप कर्म करता हुआ मूर्ख आदमी नहीं बूझता । पीछे  दुर्बुद्धि अपने उन्हीं कर्म के कारण आग से जलते हुए की तरह तपता है ।

न सन्ति पुत्ता ताणाय न पिता नापि बान्धवा
अंतकेनाधिपन्नस्स  नत्थि जातिसु ताणता  | {60}

न पुत्र रक्षा कर सकते हैं, न पिता, न रिश्तेदार । जब मृत्यु पकड़ती है, तो रिश्तेदार नहीं बचा सके ।


सब्बदानं धम्मदानं  जिनाति सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति |
सब्बं रतिं  धम्मरती  जिनाति तन्हक्खयो सब्वदुक्खं जितानि |{61}

धम्म का दान सब दानों से बढ़ कर है, धम्म-रस सब रसों से बढ़ कर है धम्म -रति सब रतियों से बढ़ कर है, तृष्णा का क्षय सब दुःख क्षयों  से बढ़ कर है |

गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सब्बधि
सब्बगन्धप्पहिणस्स परिलाहो न विज्जति | {62}

जिसका मार्ग समाप्त हो गया ,जो शोकरहित है जो सर्वथा  विमुक्त है, जिसकी सभी ग्रंथियाँ क्षीण हो गईं, उसके लिए परिताप नहीं |

सुकरानि असाधूनि अत्तनो अहितानि  च
यं  वे  हितंच  साधुजंच तं  वे परमदुक्करं  | {63}

बुरे और अपने लिए  अहितकर... कार्यों का करना आसान है लेकिन शुभ और हितकर कार्यों का करना बहुत कठिन  है |

न तेन अरियो होति येन पाणानि  हिंसति
अहिंसा सब्बपाणानं अरियो 'ति पवुच्चति | {64}

प्राणियों की हिंसा करने से कोई आदमी  आर्य नहीं होता, जो किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता, वही आर्य होता है ।

तिण दोसानि खेत्तानि दोसदोसा अयं पजा
तस्मा हि वीतदोसेसु दिन्नं होति महप्फलं  | {65}

खेतों का दोष है तृण , मनुष्यों का दोष है द्वेष 
इस लिए द्वेषरहित मनुष्यों को दिया गया दान महान फल होता है ।

≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈
संकलनकर्ता : डाॅ. राम मनोहर राव, अध्यक्ष GOAL
               🏡 4A, उदयन पार्ट-1, महानगर कॉलोनी,
                     बरेली- 243006 (उत्तर प्रदेश)
📧  : rammanoharrao26@gmail.com
📱  : 7060240326 
≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈≈

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने