दीपावली और दीपदानोत्सव (आलोचना)

दीपावली और दीपदानोत्सव दोनों में क्या अंतर है ? क्या 'दीपावली' और 'दीपदानोत्सव' दोनों एक ही हैं ? दीपावली' और 'दीपदानोत्सव' का हिंदू धर्म अथवा बौद्ध धम्म से क्या संबंध है ? इन सारे प्रश्नों के तार्किक और प्रामाणिक उत्तर इस एक लेख में विद्यमान हैं ।

'दीपावली' और 'दीपदानोत्सव' के बारे में विवेचन करने से पहले इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि इन दोनों शब्दों के अर्थ में क्या अंतर है ? 'दीपावली' का अर्थ है - दीपों की पंक्ति (दीप+अवलि) । 'दीपदानोत्सव' में दो शब्द हैं - 'दीपदान' और 'उत्सव' । 'दीपदान' का अर्थ है - दीपों का दान (दीप+दान) । जब दीपों को जलाकर एक पंक्ति में सजाया जाता है, तो उसे दीपावली कहा जाता है । इसी प्रकार जब दीपों को जलाकर उन्हें किसी इष्टदेव अथवा इष्टदेवी को दान किया जाता है, तो उसे दीपदान कहा जाता है ।


दीपावली और दीपदानोत्सव का हिन्दू धर्म (ब्राह्मण धर्म) से क्या संबंध है ? 

हिन्दू धर्म के अनुयायियों द्वारा दीपावली और दीपदानोत्सव के बारे में जो ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं, वे निम्नलिखित हैं :

🔹दीपक जलाने का सबसे पुराना उल्लेख उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसा पूर्व) में मिलता है। शरदकाल (वर्तमान में दिवाली का समय) में दीपक को किसी ऊँचे बाँस पर टाँग दिया जाता था। शास्त्रों में यह विधान बहुत पुराना है। इसके अनुसार श्राद्ध पक्ष के बाद जब पूर्वज अपने लोकों की ओर लौटते हैं, तो उन्हें मार्ग दिखाने के लिए दीपकों को बहुत ऊँचाई पर टाँगा जाता था । उन्हें 'आकाशदीप' कहा जाता था । 

🔹चाणक्य और चंद्रगुप्त के समय (400 से 200 ईसा पूर्व) पाटलिपुत्र में कौमुदी महोत्सव मनाया जाता था । यह उत्सव शरद पूर्णिमा को मनाया जाता था, जो कार्तिक अमावस्या (दीपावली) से 15 दिन पहले होती है । इस महोत्सव में जलाशयों पर और नावों में दीपक जलाये जाते थे । 

🔹50 से 400 ईस्वी के बीच कार्तिक अमावस्या को यक्षरात्रि के नाम से एक सामाजिक उत्सव मनाने की परंपरा थी । इसका उल्लेख सबसे पहले वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में मिलता है । इस उत्सव में नाच-गाने के साथ-साथ कुछ सामाजिक गतिविधियाँ होती थीं । इसमें सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ लोग जुआ भी खेलते थे । 

🔹606 से 648 ईस्वी के बीच लिखे गये नागानंद नाटक में दीप प्रतिपदोत्सव का उल्लेख है । इस उत्सव में नवविवाहितों को उनकी पहली दीवाली पर कपड़े भेंट करने की परंपरा का जिक्र है । यह नाटक कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने लिखा था ।

🔹500 से 800 ईसवी के बीच लिखे गये नीलमत पुराण में यक्षरात्रि की ही तरह सुखसुप्तिका का उल्लेख है । इस दिन हर जगह दीपों के जरिए उजाला करने, परिवार और रिश्तेदारों के साथ भोजन करने, नाचने, गाने और जुआ खेलने, नये कपड़े और गहने पहनने, दोस्तों, रिश्तेदारों को नये कपड़े भेंट करने की परंपरा थी । इसी दौर में लिखे गये आदित्य पुराण में भी सुखसुप्तिका का उल्लेख है ।
959 ईस्वी के आसपास मालखेड़ के राष्ट्रकूट राजा कृष्ण-तृतीय के समय सोमदेवसूरि द्वारा लिखे गये ‘यशस्तिलक चंपू’ में दीपोत्सव से पहले घरों की लिपाई-पुताई और सजावट करने का उल्लेख है । घरों की सबसे ऊँचाई वाले स्थानों पर उजाला करने के साथ-साथ इस दिन नाच-गाने और जुआ खेलने का वर्णन है । इस दिन शादियाँ होने का भी उल्लेख है ।

🔹1030 ई. में अलबरूनी ने ‘तहकीक-अल-हिंद’ में दीवाली शब्द का जिक्र करते हुए लिखा है, '' इस दिन भारत में लोग नये कपड़े पहनते हैं, पान के पत्ते और सुपारी के साथ उपहार देते हैं, मंदिरों के दर्शन करते हैं, गरीबों को दान देते हैं और घर के हर कोने में रोशनी करते हैं। " अलबरूनी ने इस दिन को वासुदेव की पत्नी लक्ष्मी और बलि की मुक्ति का दिन भी बताया है । उन्होंने इस दिन शादियों का भी जिक्र किया है।

🔹1100-1200 ईसवी में मुल्तान के अब्दुल रहमान ने ‘संदेश रासक’ में महिलाओं द्वारा घरों में दीपक जलाने और इनसे निकले काजल को आँखों में लगाने का जिक्र किया है ।

🔹1100 ईस्वी में ही आचार्य हेमचंद्र ने अपनी किताब ‘देशी नाममाला’ में प्राचीन भारत में मनाये जाने वाले जक्खरत्ती पर्व का उल्लेख किया है, जो यक्षरात्रि की तरह ही प्रतीत होता है ।

🔹1220 ईस्वी में महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर ने अपनी तीन अलग-अलग रचनाओं में दीपावली का उल्लेख किया है । उन्होंने इस दिन दीपकों के जरिए हुये उजाले की तुलना आत्मीय ज्ञान से की है ।

🔹1250 ईस्वी में महानुभाव पंत की मराठी रचना ‘लीलाचरित्र’ में गणेश जी को आराध्य देव मानने वाले गोसावी समुदाय के लोगों के स्नान का जिक्र है । इसके लिए बड़ी मात्रा में पानी इकट्ठा किया जाता था । नहाने से पहले तेल मालिश की जाती थी । किताब में कार्तिक अमावस्या के दो दिन बाद यम द्वितीया (भाई दूज) का भी जिक्र है । इसमें लिखा गया है कि यम द्वितीया के दिन खाने के लिए मिठाइयाँ और लड्डू की व्यवस्था की जाती थी । बहनें अपने भाई की आरती उतारकर उन्हें मिठाइयाँ खिलाती थीं ।

🔹1260 ईस्वी में प्रशासक और कवि रहे हिमाद्री पंत ने अपने व्रतखण्ड ‘चतुर्वर्ग चिन्तामणि’ में यम और उनकी बहन यमुना के एक किस्से का उल्लेख किया है । ‘भविष्योत्तर पुराण’ से लिए कुछ पंक्तियों के जरिए उन्होंने बताया कि यमद्वितीया के दिन यम ने यमुना के घर भोजन किया था । हो सकता है, तभी से यह दिन भाई-बहन के त्यौहार भाईदूज के रूप में मनाया जाने लगा हो ।

🔹विजयनगर साम्राज्य (दक्षिण भारत) के सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सिद्धांतों को बताते ग्रंथ ‘आकाशभैरवकल्प’ में एक राजा द्वारा नरकचतुर्दशी और कार्तिकशुक्ल प्रतिपदा को दिवाली कैसे मनानी चाहिए, वह लिखा है। इसके अनुसार, " यह त्यौहार राजा को खुशियाँ, विजय और संतान देने वाला होता है । इस दिन सुबह जल्दी उठकर नहाना, ब्राह्मणों की पूजा करना चाहिए । राजा की पत्नियों को तेल मालिश के बाद गर्म पानी से स्नान करना चाहिए । राजा को तीन दीपक जलाकर अपने आराध्य देव की पूजा करना चाहिए । इसके बाद अपने राज सिंहासन पर बैठकर अपने दरबार में उपस्थित कवि, ब्राह्मण, कलाकारों और ज्योतिष वैज्ञानिकों को कपड़ों के रूप में तोहफे भेंट करने चाहिए । राजा को इसके बाद अपनी पत्नियों और बच्चों के साथ भोजन करना चाहिए । नाटकों के मंचन के बाद बाणविद्या (आतिशबाजी) देखना चाहिए । "

🔹1500 ईसवी के बाद दीवाली को आज के स्वरूप की तरह ही मनाया जाने लगा था । मुगल शासक अकबर के समय इसे 'जश्न-ए-चिरागा' के नाम से मनाया जाता था । मुगल काल की कई पेंटिग्स में दीपावली का जश्न दर्शाया गया है । 15वीं सदी के बाद के सभी धर्म ग्रंथों में दीवाली का वर्णन ठीक उसी प्रकार का मिलता है, जैसे आज मनाया जाता है । यानी दीपोत्सव, लक्ष्मी पूजा, लिपाई-पुताई सभी का विधान मिलता है।

🔹प्राचीन पुराणों में अमावस्या को लक्ष्मी पूजा निषेध थी । प्राचीन पुराणों में लक्ष्मीपूजन के व्रत पौष, चैत्र और भाद्रपद में बताए गये हैं । स्कंद पुराण में लिखा है कि लक्ष्मी का पूजन पूर्णिमा को करना चाहिए । कृष्ण पक्ष और रात्रि में पूजा की मनाही थी । यानी पहले लक्ष्मी की पूजा अमावस्या को नहीं की जाती थी । लेकिन बाद के पुराणों (500 ईस्वी के बाद लिखे गये नीलमत पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण आदि) में कार्तिक की अमावस्या को लक्ष्मीपूजन का विधान कर दिया गया था । भविष्य पुराण में यह उत्सव व्यापारियों के उत्सव के रूप में बताया गया है और बाजारों में रोशनी करने, शाम को लक्ष्मीपूजा करने और खुशियाँ मनाने का विधान किया गया है । भविष्य पुराण में तीन प्रकार की स्वच्छता पर जोर दिया गया है । नरक चतुर्दशी के दिन स्नान का विधान है । घरों, सार्वजनिक स्थानों और देवालयों की सफाई और लिपाई-पुताई का विधान है । इन जगहों पर और खासकर वाणिज्यिक केन्द्रों पर दीपकों के माध्यम से उजाला करने को एक धार्मिक कर्तव्य बताया गया है ।


क्या दीपदानोत्सव का बौद्ध धम्म से संबंध है ?

भारत में दीपावली या दीपदानोत्सव हिंदू पर्व के रूप में प्रसिद्ध है । लेकिन इधर कुछ वर्षों से कुछ बौद्ध धम्म के प्रचारक, बौद्ध भिक्खु और बौद्धाचार्य कहे जाने वाले लोग 'दीपदानोत्सव' को बौद्ध-पर्व के रूप में प्रमाणित करने का प्रयास कर रहे हैं । ऐसे लोगों में एक नाम सम्यक प्रकाशन (नई दिल्ली) के प्रकाशक बौद्धाचार्य शांतिस्वरूप बौद्ध का भी है । उन्होंने 'सम्यक इंडिया टीवी' नामक यूट्यूब चैनल पर इस संदर्भ में विस्तृत व्याख्यान दिया है । उनके अनुसार, " कार्तिक अमावस्या का दिन हमारे लिए काला दिन (मातम का दिन) है, क्योंकि तथागत बुद्ध के धम्म सेनानी मौद्गल्यायन की धम्मद्वेषियों ने हत्या कर दी थी । लेकिन सम्राट अशोक ने संकल्प लिया कि इस मातम के दिन को मैं अपनी उपलब्धि के दिन के रूप में बदलूँगा । उन्होंने चौरासी लाख धम्म-स्कंधों का निर्माण कराना आरंभ किया । तीन वर्षों में जब निर्माण कार्य पूरा हो गया, तो सम्राट अशोक ने कार्तिक अमावस्या को सभी निर्मित धम्म-स्कंधों का उद्घाटनोत्सव मनाने की घोषणा की । " प्रमाण के रूप में बौद्धाचार्य शांतिस्वरूप बौद्ध ने 'दीपवंश' नामक ग्रंथ का एक उद्धरण प्रस्तुत किया है, " बाद में तीन वर्ष में यह निर्माण कार्य पूर्णतः संपन्न कराकर विहारों के निर्मित हो जाने के बाद उनके सम्मान में कार्तिक अमावस्या से 'पूजा सप्ताह' मनाया जाएगा । " [दीपवंश, 133-34] सम्राट अशोक के आदेश का पालन किया गया । शांतिस्वरूप बौद्ध इस वर्णन का स्पष्टीकरण करते हुए 'पूजा सप्ताह' का तात्पर्य यह बताये हैं कि " जगह-जगह पुष्प की मलाएँ सजायी गयीं, सारे देश में दीपों की माला बनाकर सजायी गयीं और उसका नाम 'दीपदानोत्सव' रखा गया । " 

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शांतिस्वरूप बौद्ध जी का पूरा व्याख्यान यूट्यूब पर सुनें :- 👉 CLICK HERE
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यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि सम्राट अशोक के मन में मातम के दिन को उत्सव के रूप में मनाने की इच्छा क्यों उत्पन्न हुई ? क्या उन्होंने अपनी इस इच्छा का किसी शिलालेख में उल्लेख किया है ? यदि उन्होंने अपने किसी शिलालेख में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं किया है, तो फिर स्पष्ट है कि शांतिस्वरूप बौद्ध जी की यह कल्पना है । मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि सामान्यतः किसी बुद्धिजीवी मनुष्य के मन में यह इच्छा नहीं होती कि वह शोक-दिवस को उल्लास-दिवस के रूप में परिवर्तित करे । इस तरह की इच्छा कोई पागल अथवा मूर्ख मनुष्य ही कर सकता है । सम्राट अशोक न तो पागल थे, न ही मूर्ख थे । दूसरी बात यह है कि शांतिस्वरूप बौद्ध ने 'उद्घाटनोत्सव' और 'पूजा सप्ताह' को एक-दूसरे का पर्याय मान लिया है । क्या उद्घाटनोत्सव की विधि पूजा-विधि के समान होती है ? पूजा-सप्ताह का जो तात्पर्य शांति स्वरूप बौद्ध ने बताया है, वह तार्किक नहीं है । क्योंकि प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि दीपों की माला बनाकर सजाने को 'दीपदान उत्सव' क्यों कहा गया ? जबकि 'दीपदान' का अर्थ होता है - दीप का दान करना । इस संदर्भ में शांतिस्वरूप बौद्ध जी का कथन है कि " आम जनता के बीच यह परंपरा रही है कि लोग कार्तिक अमावस्या के दिन दीप जलाकर पड़ोसी के घर रख आते हैं । " सच तो यह है कि कोई व्यक्ति दीप जलाकर पड़ोसी के घर नहीं रखता है, बल्कि अपने घर के आस-पास ही दीप जलाकर रखा जाता है । यदि पड़ोसी के घर भी दीप जलाकर रखा जाए, तो भी वह 'दीपदान' नहीं कहा जा सकता है । इसी के साथ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि 'उत्सव' और 'पर्व' में पर्याप्त अंतर है । कोई उत्सव एक वर्ष अथवा अनेक वर्ष मनाया जा सकता है, लेकिन 'उत्सव' को 'पर्व' का रूप धारण करने के लिए यह आवश्यक है कि उत्सव को हर वर्ष निरंतर मनाया जाए । साथ ही, वह संस्कृति का हिस्सा भी हो । बौद्ध ग्रंथों में 'दीपदानोत्सव' नाम से कई वर्षों तक कोई उत्सव मनाये जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है । अतः सम्राट अशोक द्वारा चौरासी लाख धम्म-स्कंध बनाकर उसका उद्घाटनोत्सव मनाने को 'दीपदानोत्सव' नाम देना उचित नहीं है । वैसे भी, चौरासी लाख धम्म-स्कंध वर्तमान में उपस्थित नहीं हैं । इसलिए  चौरासी लाख धम्म-स्कंधों की बात भी संदेहास्पद है ।

बौद्धाचार्य शांतिस्वरूप बौद्ध जी ने दीपदानोत्सव के संदर्भ में दूसरे प्रमाण के रूप में 'अलबरूनी का भारत' नामक ग्रंथ का एक उद्धरण प्रस्तुत किया है, " कार्तिक की एकली (अमावस्या) के दिन जब सूर्य छिप जाता है, तो दिवाली मनायी जाती है । तब लोग स्नान करते, आमोद करते, नये वस्त्र पहनते, एक-दूसरे को पान और सुपारी उपहार देते । वे सवार होकर दान देने के लिए मंदिरों में जाते और दोपहर तक एक-दूसरे के साथ हर्ष के साथ खेलते । रात को वे प्रत्येक स्थान में बहुत बड़ी संख्या में दीपक जलाते, जिससे वायु पूर्ण रूप से निर्मल हो जाती । इस पर्व का कारण यह है कि वासुदेव की स्त्री लक्ष्मी विरोचन के पुत्र बलि को, जो सातवें पाताल में बंदी है, वर्ष में एक बार बंधन मुक्त करती है और संसार में जाने की आज्ञा देती है । इसलिए यह त्यौहार बलि-राज्य है अर्थात् बलि का आधिपत्य कहलाता है । हिंदू कहते हैं कि कृतयुग में यह समय सौभाग्य का समय था और वे प्रसन्न होते हैं, क्योंकि प्रस्तुत उत्सव का दिन कृतयुग ( सतयुग) के सदृश है । " [ अलबरूनी का भारत - संतराम बी.ए., पृष्ठ 530 ] इस उद्धरण का आश्रय लेकर शांतिस्वरूप बौद्ध जी ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि अलबरूनी के भारत आने के समय तक दीपावली मनाने के कारण के रूप में राम के अयोध्या वापस आने की कथा नहीं जुड़ी हुई थी । लेकिन इस उद्धरण से यह सिद्ध नहीं होता है कि भारत में 'दीपदान उत्सव' मनाने की परंपरा प्रचलित थी । इस उद्धरण से केवल यही सिद्ध होता है कि उस समय तक हिंदू लोग दीपावली का पर्व मनाकर कृतयुग (सतयुग) के समान आजादी के (बलि-राज्य के समान) सौभाग्य का अनुभव करते थे । यह अलग बात है कि हिंदुओं द्वारा लक्ष्मी की कथा काल्पनिक है । 

दीपावली और दीपदानोत्सव के संदर्भ में आंबेडकरवादी मिशननियों के कथन 

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने तर्कसंगत, बुद्धिसंगत और बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को ही बौद्ध धम्म-दर्शन का मूल सिद्धांत बताया है । भगवान बुद्ध ने भी यही देशना दी है, जिसे थेरवाद या हीनयान बताया जाता है। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने हीनयान और महायान में से बुद्ध वचन को लेकर बुद्धयान अर्थात् बुद्धि विवेकपूर्ण बौद्ध धम्म-दर्शन देकर परम्परावादी चिन्तन रहित बौद्ध भिक्षुओं और उपासकों को सम्यक विद्वतापूर्ण सार्थक सारगर्भित संदेश दिया है । वर्तमान युग में मृतप्राय बौद्ध धम्म-दर्शन का पुनरुद्धार किया है। भगवान बुद्ध के ढाई हजार वर्ष बाद सम्यक मूल बुद्धवाणी का धम्म-चक्र-प्रवर्तन किया है । बौद्धौं को, विशेषकर आंबेडकरवादी बौद्धों को किसी भी अन्य धर्म, मजहब द्वारा मनाये जाने वाले तीज-त्यौहारों को नहीं मनाना चाहिए । क्योंकि फिर आंबेडकर-मिशन मजाक बनकर रह जाएगा । भले वर्तमान में प्रचलित त्यौहार बौद्ध मनाते रहे हों । - महाकवि एल.एन. सुधाकर, वरिष्ठ आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं चिंतक

दीवाली का त्यौहार अज्ञानी और भ्रमित लोगों द्वारा दीपदान के नाम पर ज्ञान बाँटने का भी त्यौहार बन गया है । - भिक्खु करुणाशील राहुल

जब नाम परिवर्तित कर के दीवाली ही मनानी है, तो बौद्ध बनने का ढोंग क्यों ? सीधे-सीधे दीवाली मनाइए । - डाॅ. वीरेंद्र वर्मा, मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

दीवाली के पर्याय में लोगों ने यह दीपदान उत्सव शुरू किया । - मार्शल विवेक कांबले, महाराष्ट्र 

दीपदान उत्सव एक भ्रम है । - इंजीनियर सुधाकर राव फुलमाली

कुछ तथाकथित बौद्ध-आंबेडकरवादी लोग हिंदू धर्म के लगभग सारे पर्वों को अपना पर्व बनाने का प्रयास निरंतर कर रहे हैं । यही स्थिति रही, तो एक दिन वे 'होली' को भी 'रंगोली' के रूप में मनाने लगेंगे । वे सारे हिंदू पर्वों को अपना पर्व बनाकर मनाने की इच्छा रखते हैं । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि उनकी दृष्टि में सारे हिंदू-पर्व बौद्ध-पर्व हैं, तो उन्हें हिंदू पर्वों से आपत्ति क्यों है ? अधिकांश हिंदू मानसिकता के लोग यह प्रश्न करते हैं कि 'होली-दीपावली में बुराई ही क्या है ?', तो इस दृष्टि से निश्चित रूप से उनका प्रश्न अनुचित नहीं है । यदि प्रकाश की उपस्थिति में उल्लास और प्रसन्नता से परिपूर्ण कार्यक्रम करना हो, तो हिंदुओं की दीपावली के दिन ही क्यों किया जाए ? ऐसा करने से, तो वह प्रकाशोत्सव दीपावली में ही शामिल हो जाएगा । अलग दिखने के लिए अलग तिथि का निश्चय करना अनिवार्य है । साथ ही, 'दीपदानोत्सव' नाम की बजाय 'दीपोत्सव' नाम रखना अत्यधिक उपयुक्त प्रतीत होता है ।


दीपावली और दीपदानोत्सव धार्मिक-पर्व नहीं, बल्कि लोक-पर्व हैं । 

ध्यातव्य है कि भारतवर्ष एक कृषि-प्रधान देश है । भारतीय संस्कृति मूलतः कृषक-संस्कृति है । दीपावली मनाने का वैज्ञानिक कारण यह बताया जाता है कि प्राचीन समय में वर्षा ऋतु के बीत जाने पर लोग घर की साफ-सफाई करके उसकी रंगाई-पुताई करते थे, ताकि घर में प्रविष्ट बरसाती कीड़े-मकोड़ों और दुर्गंध से निजात पा सकें । कार्तिक अमावस्या के दिन वे घी के दीप (दीये) जलाकर वातावरण को शुद्ध करते थे और उस शुद्ध वातावरण में हर्षोल्लास के साथ क्रीड़ा करते थे । इस हर्षोल्लास के दिन को किसी पर्व का नाम न भी दिया जाए, तो कोई फर्क नहीं पड़ता है । लेकिन यदि नाम दिया जाए, तो नाम सार्थक होना चाहिए । 'दीपावली' नाम की सार्थकता तो स्पष्ट है, किंतु 'दीपदानोत्सव' नाम की सार्थकता में पर्याप्त संदेह है ।

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✍️  देवचंद्र भारती 'प्रखर'
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका 
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL' 🏠 वाराणसी 
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