बहुजन जागृति और डॉ. राम मनोहर राव की कविताएँ

डॉ. राम मनोहर राव जी एक सतर्क आंबेडकरवादी साहित्यकार हैं । उन्होंने अपनी प्रथम काव्यकृति 'तीसरी आजादी की जंग' के माध्यम से बहुजन को जागृति का संदेश दिया था । अपनी इस दूसरी काव्यकृति 'आखिर कब तक ?' में उन्होंने जागृति के साथ-साथ जागरूकता की भावना को भी शब्दांकित किया है । डाॅ. राव जी पुस्तक  'आखिर कब तक ?' की समीक्षात्मक भूमिका समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी ने लिखा है, जिसका मूल रूप 'बहुजन जागृति और डॉ. राम मनोहर राव की कविताएँ' शीर्षक से यहाँ प्रस्तुत है ।


बहुजन जागृति और डॉ. राम मनोहर राव की कविताएँ

'जागृति' और 'जागरण' दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, जिनका अर्थ है - 'पिछड़ेपन की स्थिति, दोषों या कमियों का होने वाला एहसास' । इनका दूसरा अर्थ है - 'अपने अवगुणों और कमजोरियों से मुक्त होने के लिए किया गया प्रयास' । जब मनुष्य को अपने पिछड़ेपन की स्थिति, दोषों या कमियों का एहसास हो जाता है, तो वह जागृत हो जाता है तथा अपने अवगुणों व कमजोरियों से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है । यदि किसी मनुष्य को अपने दोषों का एहसास हो और वह अपने दोषों से मुक्त होने के लिए प्रयास न करे, तो उसे जागृत मनुष्य नहीं कहा जा सकता है । 'जागृति' और 'जागरण' के समान ही एक और शब्द है - 'जागरूकता' । 
प्रायः लोग 'जागृति' और 'जागरूकता' को समान अर्थ में ही प्रयोग करते हैं, जबकि इन दोनों शब्दों में पर्याप्त अंतर है । 'जागरूकता' का अर्थ है - सतर्कता या सावधानी । मनुष्य के लिए जागृत होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि जागृत मनुष्य को निरंतर जागरूक रहना भी आवश्यक है । कोई मनुष्य जागृत एक बार होता है, किंतु जागरूक रहने की आवश्यकता उसे बार-बार पड़ती है । जागरूक रहना एक नियमित कर्म है ।
✍️  देवचंद्र भारती 'प्रखर', समालोचक 

डॉ. राम मनोहर राव जी एक सतर्क आंबेडकरवादी साहित्यकार हैं । उन्होंने अपनी प्रथम काव्यकृति 'तीसरी आजादी की जंग' के माध्यम से बहुजन को जागृति का संदेश दिया था । अपनी इस दूसरी काव्यकृति 'आखिर कब तक ?' में उन्होंने जागृति के साथ-साथ जागरूकता की भावना को भी शब्दांकित किया है । डाॅ. राव जी उन लोगों को जागृत होने के लिए प्रेरित करते हैं, जो अपने अधिकारों के प्रति निष्क्रिय पड़े हैं । वे उन्हें अपनी आवाज को बुलंद करने का संदेश देते हैं । डाॅ. राव जी की कविता 'हक की आवाज़' इस तथ्य की ओर इंगित करती है कि वर्तमान पीढ़ी ही भावी पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्त करती है । यथा :

यदि अब भी बने रहे गूँगे
आवाज नहीं की बुलंद 
तो फिर कहलाओगे मुर्दे
हक नहीं माँगते मुर्दे 
अगली पीढ़ियों को क्या सँवारेंगे 
जो स्वयं हो जाते दफन ।

एक कहावत है - 'कोऊ नृप होय हमें का हानि' । इस कहावत का पालन करने वाले लोग अपनी अकर्मण्यता का परिचय देते हैं । यह उनकी नादानी है कि उन्हें सत्तासीन मनुष्य की योग्यता और अयोग्यता से कोई फर्क नहीं पड़ता है । क्योंकि ऐसे लोग चापलूसी करके अपना काम निकाल लेते हैं । यही कारण होता है कि शासन कोई भी करे, उन्हें कोई हानि नहीं होती है ।
डाॅ. राव जी ने अपनी कविता 'नादानी' के द्वारा उक्त कहावत को आधार बनाकर स्वार्थी और चापलूस लोगों को सचेत किया है । उनकी यह काव्यमय चेतावनी विशेष रूप से उन लोगों के लिए है, जो वंचित-वर्ग के अंतर्गत आते हैं तथा जिनका सदियों से शोषण होता आ रहा है । अवलोकनार्थ :

कोऊ नृप होय हमें का हानि, 
पर कहना ऐसा, अब नादानी ।
विनयवत झुकाया सिर ज्यों,
निश्चित है गर्दन यह कट जानी ।

एक सजग साहित्यकार अपने आसपास होने वाली समसामयिक घटनाओं से अवश्य परिचित होता है । जो साहित्यकार समसामयिक घटनाओं से अनभिज्ञ रहकर काल्पनिक सृजन करता है, उसका सृजन समाज के लिए अनुपयोगी होता है । साहित्य की उपयोगिता सामाजिक यथार्थ के वर्णन और विवेचन में निहित है । मानव-समाज मानवीय राजनीति से भी प्रभावित होता है । अतः एक सजग साहित्यकार के लिए राजनैतिक उथल-पुथल का ज्ञान होना भी आवश्यक है । डॉ. राम मनोहर राव जी एक ऐसे सजग साहित्यकार हैं, जो केवल सामाजिक घटनाओं का ही नहीं, बल्कि राजनैतिक घटनाओं का भी भली-भाँति ज्ञान रखते हैं । वे वंचित-वर्ग के लोगों को राजनैतिक कुनीतियों से परिचित कराकर उन्हें सतर्क करते हैं । उन्होंने अपनी कविता 'तिजारत' में जीडीपी गिरने, गाय-गोबर-गंगा के नाम पर ढोंग करने और कोविड संबंधी पाखंड किये जाने पर कटाक्ष किया है । उदाहरणार्थ : 

जी.डी.पी. गिरी रसातल, आफत सचमुच की ।
गाय, गोबर, गंगा में कहाँ विकास की ताकत ?
बरसाये थे फूल जिन कोविड वाॅरियर पर ।
कितने शहीद, ज्ञात नहीं, यह कैसी शराफत ?

भारत में लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली है । किंतु सत्तासीन लोग बार-बार लोकतंत्र का अपमान करके राजतंत्र का निर्वहन करते हुए दिखाई देते हैं । ऐसे सत्ताधारी भारतीय संविधान की उपेक्षा करने के साथ-साथ सच्चे राष्ट्रवादी लोगों के साथ अन्याय भी करते हैं । वर्तमान स्थिति तो और भी भयानक है । डॉ. राम मनोहर राव जी ने अपनी कविता 'फिर वहीं के वहीं' में वर्तमान की इस भयावह स्थिति को रेखांकित किया है । आज सच्चे राष्ट्रवादी (आंबेडकरवादी) व्यक्ति को जातिवादी और आतंकवादी आदि नामों से दुष्प्रचारित किया जाता है । इस स्थिति से डॉ. राव जी अत्यंत चिंतित हैं । यथा :

हो चुका घायल लोकतंत्र 
और जो था सहारा एकमात्र 
वही संविधान हो रहा उपेक्षित 
दिये जा चुके हैं जबरन 
हम राष्ट्रवादियों को 
आपत्तिजनक नये-नये नाम 
किसी को जातिवादी 
किसी को आतंकवादी ।

हिंदू धर्म को मानने वाले लोग हर वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका-दहन करते हैं । होलिका कौन थी ? इसके बारे में पौराणिक कहानी को आधार बनाकर उसे खलनायिका सिद्ध करते हैं । वे पूर्णिमा की रात को होलिका-दहन करके दूसरे दिन चैत्र मास के प्रथम दिन को हर्षोल्लास के साथ होली का पर्व मनाते हैं । लेकिन यह कहानी अतार्किक और अवैज्ञानिक है, इसलिए बहुत से प्रश्न छोड़ जाती है । बौद्ध कहे जाने वाले लोग होलिका को अपने समाज की महिला मानकर उसके प्रति करुणा भाव प्रकट करते हैं । इस कारण से बौद्ध और हिंदू दोनों संप्रदायों में वैमनस्यता का भाव दिखाई देता है । होलिका की वास्तविकता इससे अलग है । होली और होलिका दोनों शब्दों में मूल शब्द 'होला' है । भारतीय समाज के कृषक-वर्ग के लोग आज भी चना-मटर आदि नकदी फसलों के पक जाने पर उन्हें 'होला' के रूप में भुनते हैं, खाते हैं और आनंद मनाते हैं । इस लोक-कर्म को हिंदू धर्म के पर्व के रूप में जोड़ लिया गया तथा तथा बौद्ध लोगों ने प्रतिक्रियास्वरूप होलिका को अपने वर्ग की महिला मान लिया । डॉ. राम मनोहर राव जी इस ऐतिहासिक सच्चाई को जानते हैं । इसलिए वे अपनी कविता 'वसंतोत्सव बनाम होली' में होली के नाम पर दुराचार करने वाले लोगों की मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं । साथ ही, उन्होंने 'वसंतोत्सव' को होली के रूप में प्रचारित किये जाने पर अपनी चिंता प्रकट करते हैं । यथा :

जिसकी जैसी फितरत, खेले वैसे ही खेल ।
होलिका की गढ़ी कहानी, कैसे होने दे मेल ।।
वसंतोत्सव से होली बनाने का चला ये खेल ।
भारतीय समाज को वे किधर यूँ रहे धकेल ?

भारतीय समाज में वंचित कहे जाने वाले लोग हमेशा से भीड़ का हिस्सा बने रहे हैं । वे आज भी बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के कारवाँ को सही दिशा में सही तरीके से ले जाने में असमर्थ हैं । इसके पीछे अनेक कारण हैं, जिसमें एक कारण उनकी स्वार्थपरता और महत्वाकांक्षा है । अन्य कारणों को डॉ. राम मनोहर राव जी अपनी कविता 'नेता हैं, नेतृत्व नहीं' में अभिव्यक्त करते हैं । उनका मानना है कि भले ही भारत में संविधान है, लेकिन भारतीय शासन संविधान के अनुरूप नहीं है । उनकी दृष्टि में इसका आधार शिक्षा, विश्वास, संघर्ष और नेतृत्व का अभाव है । डॉ. राव जी के शब्दों में :

भीड़ है, कारवाँ नहीं ।
संविधान है, शासन नहीं ।
क्योंकि ...
साक्षर हैं, शिक्षित नहीं ।
विचार है, विश्वास नहीं ।
संगठन हैं, संघर्ष नहीं ।
नेता हैं, नेतृत्व नहीं ।

स्पष्ट है कि डॉ. राम मनोहर जी की कविताएँ बहुजन (बहुसंख्यक जन) को जागृति का संदेश देते हुए उन्हें निरंतर जागरूक बने रहने के लिए प्रेरित करती हैं । जागरूकता के अभाव में जागृत व्यक्ति को भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ जाता है । इसलिए समसामयिक परिस्थितियों, घटनाओं और रिश्तों के बदलते स्वरूप को जानना नितांत आवश्यक है । सामान्य मनुष्य अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों से घिरे होने के कारण प्रायः समसामयिक घटनाओं की जानकारी से वंचित रह जाता है । ऐसी स्थिति में, एक सजग साहित्यकार का कर्तव्य होता है कि वह समाज के दर्पण के रूप में अपनी भूमिका का अनवरत निर्वहन करता रहे । डॉ. राम मनोहर राव जी इस संदर्भ में अपनी साहित्यिक भूमिका का सदैव निर्वाह करते हुए दिखाई देते हैं, जिसके साक्ष्य-रूप में उनकी कविताएँ उपस्थित हैं । 

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✍️  देवचंद्र भारती 'प्रखर'
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका 
संस्थापक एवं सचिव - 'GOAL' 🏠 वाराणसी 
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