स्वाधीनता आंदोलन और खड़ी बोली हिंदी का साहित्य

महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली से संबद्ध महाविद्यालय बरेली कॉलेज बरेली (हिंदी विभाग) में अध्ययनरत शोध-छात्र देवचंद्र भारती 'प्रखर' द्वारा लिखित एक शोध-पत्र यहाँ प्रस्तुत है ।


शोध-पत्र का शीर्षक - स्वाधीनता आंदोलन और खड़ी बोली हिंदी का साहित्य

लेखक 
देवचंद्र भारती
शोधार्थी, हिंदी विभाग, के.जी.के. (पी.जी.) कॉलेज, मुरादाबाद 
संबंद्ध - महात्मा ज्योतिबा फुले रोहिलखंड विश्वविद्यालय, बरेली

शोध सारांश 

पराधीन भारत में ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के लिए भारतीय साहित्यकारों ने स्वाधीनता आंदोलन में अपना साहित्यिक योगदान दिया । साहित्यकारों ने खड़ी बोली हिंदी में साहित्य-सृजन करके भारतीय जनता में जागृति और स्वदेश प्रेम का भाव उत्पन्न किया । कविता, कहानी, नाटक तथा उपन्यास आदि विधाओं के माध्यम से हिंदी साहित्यकारों ने स्वाधीनता आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । अनेक साहित्यकारों ने साहित्य सृजन के अतिरिक्त स्वयं स्वाधीनता आंदोलन में प्रतिभाग भी किया तथा वे अंग्रेजी प्रशासन द्वारा बंदी भी बनाये गये, किंतु उन्होंने अपनी क्रांति की राह नहीं छोड़ी । हिंदी साहित्यकारों द्वारा निरंतर साहित्यिक प्रयास के कारण भारत के जवानों ने अंग्रेजी शासन का कड़ा विरोध किया तथा अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया । 

बीज शब्द 

स्वाधीनता, खड़ी बोली, हिंदी साहित्य, राष्ट्रीय चेतना, स्वतंत्रता संघर्ष, सांस्कृतिक जागरण, अंग्रेजी शासन, देशप्रेम ।

मूल आलेख 

स्वाधीनता, आधुनिक काल का एक प्रमुख राजनैतिक दर्शन है । स्वाधीनता, वह स्थिति है, जिसमें किसी राष्ट्र, देश या राज्य द्वारा अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने पर किसी दूसरे राष्ट्र, देश या राज्य का किसी भी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं होता । अर्थात् स्वाधीन राष्ट्र अथवा देश के नागरिक स्वशासन से शासित होते हैं । स्वाधीनता ही आत्मनिर्भरता को जन्म देती है । तथागत गौतम बुद्ध की वाणी 'अत्त दीपो भव' मनुष्य स्वाधीनता का बोध कराती है । स्वाधीनता का विलोम शब्द 'पराधीनता' है । पराधीनता के बारे में महान संतकवि रविदास ने कहा है - 'पराधीनता पाप है/जान लेहु रे मीत/रविदास दास पराधीन सो/कौन करे है प्रीत ।' इसी प्रकार भक्तकवि तुलसीदास ने 'पराधीन सपनेहु सुख नाहीं' कहकर पराधीनता में मिलने वाले दुखों का संकेत किया है । आधुनिक भारत के महान विचारक डाॅ. भीमराव आंबेडकर के शब्दों में, " स्वाधीनता पर आपत्ति करने का अर्थ है, दासता को शाश्वत बनाना, क्योंकि दासता का अर्थ केवल कानूनी अधीनीकरण या परतंत्रता नहीं है । इसका अर्थ है, समाज में व्याप्त वह स्थिति, जिसमें कुछ लोगों को विवश होकर अन्य लोगों से उन प्रयोजनों को भी स्वीकार करना होता है, जिनके अनुसार उन्हें आचरण करना है । यह स्थिति तब भी रह सकती है, जब कानूनी अर्थ में दासता का अस्तित्व न हो । " [1] पराधीनता ही मनुष्य को दासता के बंधन में बनने के लिए विवश करती है ।

भारतवर्ष की पराधीनता का इतिहास प्राचीन काल से आरंभ होकर आधुनिक काल तक समाप्त होता है । प्राचीन काल में, थोड़े समय के लिए ही सही, किंतु सिकंदर ने अपने आक्रमण के द्वारा भारतवासियों को पराधीनता का अनुभव करा दिया था । मध्यकाल में, मुसलमान शासकों ने कई सौ वर्षों तक भारत पर शासन किया और भारतवासियों को पराधीन बनाये रखा । सन् 1757 ई. से लेकर सन् 1758 ई. तक भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन रहा । सन् 1857 ई. की क्रांति के बाद सन् 1858 ई. से भारत में ब्रिटिश शासन लागू हो गया । ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के अनेक साहित्यकार, समाजसेवी और राजनेता जागरूक होकर अपनी स्वाधीनता के लिए आंदोलन शुरू किये । भारत के स्वाधीनता आंदोलन में राजनेताओं, देशभक्तों, समाजसेवियों आदि के अतिरिक्त साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही । विशेष रूप से, हिंदी भाषा के साहित्यकारों ने अपने प्रेरक साहित्य के माध्यम से भारत के युवाओं में देशभक्ति की भावना का संचार किया ।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850 - 6 जनवरी 1885) ने अपनी कविताओं, नाटकों एवं निबन्धों के द्वारा अंग्रेजी शासन के कारण होने वाली भारत की दुर्दशा का यथार्थ चित्रण  किया तथा भारतवासियों  को अपनी भाषा  की उन्नति और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने की शिक्षा दी  । अपने नाटक 'अंधेर नगरी' में उन्होंने 'अंधेर नगरी चौपट राजा' का संवाद प्रस्तुत करके तत्कालीन अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया । इसी प्रकार भारतेंदु जी ने अपने निबंध 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?' में भारतवर्ष की उन्नति के लिए अनेक उपाय सुझाये, जो तार्किक और वैज्ञानिक हैं । भारत की दुर्दशा भारतेंदु हरिश्चंद्र से देखी नहीं जाती थी । उन्होंने अपने नाटक 'भारत-दुर्दशा' में लिखा है -

रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई!
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। [2]

द्विवेदीयुगीन कवि नाथूराम शर्मा 'शंकर' (1859-1932) का नाम राष्ट्रीय चेतना के कवियों में अग्रगण्य है । उनके विपुल रचनासंसार में पराधीन राष्ट्र की वेदना, समाज में व्याप्त पाखंड, अंधविश्वास, कदाचार और विधवाओं की दीन-हीन दशा आदि की उपस्थिति मार्मिक चित्रण है । 'शंकर' जी की कविताओं में तत्कालीन ब्रिटिश शासन से छुटकारा पाने की टीस, उपदेश तथा संदेश सभी पाये जाते हैं । साथ ही, वे बच्चों, बड़ों, बूढ़ों और महिलाओं को प्रेरणा देते हुये भी दिखाई देते हैं । उनकी कविताओं में वह विविधता, लालित्य, छन्द, अंलकार और बिम्बों का अनुपम प्रयोग मिलता है, जिसे पढ़कर पाठक उसी में खो जाता है । स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने की प्रेरणा देते हुए नाथूराम शर्मा 'शंकर' ने लिखा है -

देशभक्त वीरों! मरने से नेक नहीं डरना होगा ।
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना होगा ।। [3]

स्वामी अछूतानन्द 'हरिहर'(6 मई 1879 - 20 जुलाई 1933) क्रांतिकारी चेतना का प्रसार करने वाले साहित्यकार तथा समाज सुधारक थे । उनकी रचनाओं में वंचित-वर्ग की पीड़ा राष्ट्रीयता की भावना को समेटे हुए दिखाई देती है । यदि 'वंचित' शब्द का व्यापक अर्थ ग्रहण किया जाए, तो अंग्रेजी शासन में सभी भारतवासी 'वंचित' थे । अंग्रेजों द्वारा उन्हें स्वाधीनता से वंचित रखा गया था, समानता से वंचित रखा गया था, न्याय से वंचित रखा गया था । भारतवासियों को गुलामी की जंजीरे तोड़ने के लिए आह्वान करते हुए स्वामी अछूतानंद 'हरिहर' ने लिखा है -

अब तो नहीं है वह जमाना, जुल्म ‘हरिहर’ मत सहो ।
अब तो तोड़ दो जंजीर, जकड़े क्यों गुलामी में रहो ।। [4]

द्विवेदी युगीन साहित्यकार गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'  (21 अगस्त 1883 - 20 मई 1972) ने 'सनेही' उपनाम से कोमल भावनाओं की कविताएँ, 'त्रिशूल' उपनाम से राष्ट्रीय कविताएँ तथा 'तरंगी' एवं 'अलमस्त' उपनाम से हास्य-व्यंग्य की कविताएँ लिखीं । राष्ट्रीय अस्मिता के प्रखर समर्थक 'सनेही' जी की सुदीर्घ और एकनिष्ठ काव्य-साधना राष्ट्र को समर्पित रही है । उनकी छन्द-बन्ध से युक्त कविता 'स्वदेश' जन-जन की जिह्वा पर आद्यन्त विराजमान रही है ।

जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं ।
वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।। [5]

मैथिलीशरण गुप्त (3 अगस्त 1886 - 12 दिसंबर 1964) द्विवेदी युग के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि हैं  । उन्हें 'राष्ट्रकवि' कहा जाता है । गुप्त जी राष्ट्रकवि केवल इसलिए नहीं हैं कि देश की स्वाधीनता के पहले राष्ट्रीयता की भावना से लिखते रहे । बल्कि वे राष्ट्रकवि इसलिए हैं, क्योंकि वे भारतवासियों की चेतना, उनकी बातचीत, उनके आंदोलनों की भाषा बन गये । व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण उन्हें सन् 1941 ई. में जेल जाना पड़ा, तब तक वे हिंदी के सबसे प्रतिष्ठित कवि बन चुके थे । गुप्त जी ने अपनी काव्य-पुस्तक 'भारत भारती' में भारत के युवाओं को देशहित हेतु प्रेरित करते हुए लिखा है -

हे नवयुवाओं! देश भर की दृष्टि तुम पर है लगी,
है मनुज जीवन की तुम्हीं में ज्योति सबसे जगमगी ।
दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में ?
देखो कहाँ क्या हो रहा है आजकल संसार में ।।[6]

छायावाद के स्तंभ कवि जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 - 15 नवंबर 1937) उस अर्थ में राष्ट्रीय चेतना के कवि नहीं हैं, जिस अर्थ में ‘माखनलाल चतुर्वेदी’, ‘बालकृष्ण शर्मा नवीन’ और ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ हैं । छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण ‘सांस्कृतिक जागरण’ के रूप में दिखाई देता है । इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति 'प्रसाद' जी की ‘अब जागो जीवन के प्रभात’, ‘बीती विभावरी जाग री’आदि कविताओं में है । जयशंकर प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना अधिक स्पष्ट रूप में उनके नाटकों में व्यक्त हुई है । जब-जब विदेशी शक्ति का आक्रमण हुआ, तब-तब कवि 'प्रसाद' जी की लेखनी दृढ़ होकर लोगों को संग्राम में रणवीर बनकर शामिल होने के लिए पुकारती रही । ऐसी ही पुकार उनके नाटक 'चंद्रगुप्त' में सिकंदर के आक्रमण के उपरांत प्रणय-गीत में देखने को मिलती है । यथा -

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती ।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती ।।[7]

छायावादी कवि रामनरेश त्रिपाठी (4 मार्च 1889 - 16 जनवरी 1962) राष्ट्रीय काव्यधारा के मुख्य कवि हैं । बहुमुखी प्रतिभा के धनी त्रिपाठी जी गांधीवादी दर्शन के अग्रदूत तथा भारतीय परम्पराओं के पोषक कवि हैं । त्रिपाठी जी ने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया तथा दो वर्ष तक जेल में रहे, किन्तु देशप्रेम का भाव नही छोड़ा । बल्कि अंग्रेजो के इस कृत्य के बाद उनमें राष्ट्रीय चेतना का और अधिक संचार हुआ । उनकी प्रमुख काव्य-रचनाओं में ‘पथिक’ श्रेष्ठ रचना है । पथिक के सामने उत्पन्न होने वाली समस्याएँ उनकी स्वयं की है । उन्होनें पथिक के माध्यम से स्वयं की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है । पथिक सभी से सहयोग प्राप्त कर अपना मार्ग प्रशस्त करता है । वह गरीबों, मजदूरों, किसानों, क्रान्तिकारियों और देशभक्तों का मित्र है । पथिक के रूप में रामनरेश त्रिपाठी ने दूसरे के अधीन होने को  पराधीनता स्वीकार किया है तथा पराधीनता को मनुष्य के लिए असह्य कहा है । उन्होंने लिखा है -

पराधीन रहकर अपना सुख शोक न कह सकता है ।
यह अपमान जगत में केवल पशु ही सह सकता है ।।[8]

माखनलाल चतुर्वेदी (4 अप्रैल 1889-30 जनवरी 1968) कवि, लेखक और पत्रकार थे । उनकी भाषा सरल और ओजपूर्ण है । 'प्रभा' और 'कर्मवीर' पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रबल प्रचार किया । चतुर्वेदी जी की कविताओं में देशप्रेम के साथ-साथ प्रकृति और प्रेम का भी चित्रण हुआ है । सन् 1921-22 ई. के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए वे जेल भी गये । छत्तीसगढ़ में बिलासपुर की केंद्रीय जेल के बैरक नंबर नौ में रहकर स्वाधीनता के प्रेमियों में जोश भरने के लिए राष्ट्रकवि माखन लाल चतुर्वेदी ने 5 जुलाई सन् 1921 ई. 'को पुष्प की अभिलाषा' कविता लिखी थी ।

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने, जिस पथ पर जावें वीर अनेक! [9]

श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' (9 सितम्बर 1896 - 10 अगस्त 1977) स्वतन्त्रता संघर्ष में सक्रिय होने के साथ ही काव्य-रचना का कार्य भी करते रहे । वे एक दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे । सन् 1921 ई. में उन्होंने 'स्वराज्य प्राप्ति तक नंगे पाँव रहने का' व्रत लिया और उसे निभाया । गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा से 'पार्षद' जी ने 3-4 मार्च सन् 1924 ई. को भारत प्रसिद्ध ‘झण्डा गीत’ की रचना की । पण्डित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में 13 अप्रैल सन् 1924 ई. को ’जालियाँवाला बाग दिवस’ पर फूलबाग, कानपुर में सार्वजनिक रूप से झण्डागीत का सर्वप्रथम सामूहिक गान हुआ । 'पार्षद' जी के बारे में अपने उद्‌गार व्यक्त करते हुये नेहरू जी ने कहा था, "भले ही लोग पार्षद जी को नहीं जानते होंगे, परन्तु समूचा देश राष्ट्रीय ध्वज पर लिखे उनके गीत से परिचित है ।" श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' जी के द्वारा रचित 'झंडागीत' की कुछ पंक्तियाँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं -

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसाने वाला, प्रेम सुधा बरसाने वाला,
वीरों को हरषाने वाला, मातृभूमि का तन-मन सारा।। झंडा...।[10]

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' (8 दिसंबर 1897 - 29 अप्रैल 1960) कवि, गद्यकार और अद्वितीय वक्ता थे । उन्हें राष्ट्रीय जागरण व प्रेम-विरह का कवि माना जाता है । हिंदी साहित्य में उनका आगमन उस समय हुआ, जब भारत में अंग्रेजी राज के कारण स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था । उस तत्कालीन स्थिति का उन पर व्यापक प्रभाव पड़ा । उनकी मूल चेतना और व्यक्तित्व छायावादी आत्मनिष्ठता के अनुकूल नहीं था । इसलिए उनकी वाणी में राष्ट्रप्रेम का स्वर मुखरित हुआ, जो कि मैथिलीशरण गुप्त,  माखनलाल चतुर्वेदी आदि की परम्परा में प्रकट होता है । 'नवीन' जी सहज रूप से राष्ट्रीय जागरण के प्रति प्रवृत्त हुए थे तथा स्वाधीनता आंदोलन को उन्होंने अभिप्रेरक स्वर दिया था । उन्होंने 'विप्लव गान' शीर्षक कविता में लिखा है -

कवि! कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए। 
एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए, 
प्राणों के लाले पड़ जाएँ, त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाए; 
नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाए,
बरसे आग, जलद जल जाएँ, भस्मसात् भूधर हो जाएँ; 
पाप पुण्य सदसद् भावों की धूल उड़ उठे दाएँ-बाएँ, 
नभ का वक्षस्थल फट जाए, तारे टूक-टूक हो जाएँ; 
कवि! कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।[11]

सुभद्रा कुमारी चौहान (16 अगस्त 1904 - 15 फ़रवरी 1948) राष्ट्रीय चेतना की एकमात्र कवयित्री थीं, जिन्होंने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में वैचारिक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । उनकी ‘झाँसी की रानी’ कविता ने अंग्रेजों की चूलें हिला कर रख दी । वीर सैनिकों में देशप्रेम का अगाध संचार करके जोश भरने वाली यह अनूठी कृति आज भी प्रासंगिक है । ‘झाँसी की रानी’ कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकृटी तानी थी,
बूढे़ भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की, कीमत सबने पहिचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। [12]

सोहन लाल द्विवेदी (22 फरवरी 1906 - 1 मार्च 1988)  स्वाधीनता आंदोलन युग के एक ऐसे कवि थे, जिन्होंने भारतीय जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृति करने, उनमें देश-भक्ति की भावना भरने और युवकों को देश के लिए बड़े से बड़े बलिदान के लिए प्रेरित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी । वे पूर्णत: राष्ट्र को समर्पित कवि थे । द्विवेदी जी ने अपनी कविता 'हमको ऐसे युवक चाहिए' में स्वाधीनता की चाह रखने वाले युवकों की आवश्यकता प्रकट की है । यथा -

जिन्हें देश के बंधन लखकर 
कुछ न सुहाता हो सुख साधन, 
स्वतंत्रता की रटन अधर में 
आजादी जिनका आराधन ।
सिर को सुमन समझकर जो 
अर्पित कर सकते हो माँ पर,
हमको ऐसे युवक चाहिए 
सकें देश का जो संकट हर ।[13]

श्याम नारायण पाण्डेय (1907 - 1991) ने बहुत सी उत्कृष्ट काव्य-रचनाएँ की हैं, जिनमें 'हल्दीघाटी', 'जौहर', 'तुमुल', 'रूपान्तर', 'जय पराजय', 'गोरा-वध' इत्यादि प्रमुख हैं । उनकी रचना 'हल्दीघाटी' सर्वाधिक लोकप्रिय हुई । राजस्थान की ऐतिहासिक रणभूमि 'हल्दीघाटी', जो अकबर और महाराणा के युद्ध की साक्षी थी, उसी को आधार बनाकर लिखा गया था 'हल्दीघाटी' महाकाव्य । महाराणा प्रताप के ऐतिहासिक त्याग, आत्म बलिदान, शौर्य, स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता एवं जातीय गौरव के उद्बोधन 'हल्दीघाटी' में उस समय के स्वाधीनता प्रेमी युवाओं के बीच विशेष लोकप्रियता अर्जित की । 'जौहर' में चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का मनोहारी आख्यान है । रानी पद्मिनी जो न केवल राजपूती स्वाभिमान का, अपितु भारतीय नारी के उस गौरव का प्रतीक है, जो अपने सतीत्व और सम्मान की रक्षा हेतु हँसते-हँसते जौहर की ज्वाला में कूदकर प्राणों की बलि देती है । स्वाधीनता के उस युग में यह रचना स्वतंत्रता की अभिलाषा लिये तरुण देशप्रेमियों को हर प्रकार का बलिदान करने के लिए प्रेरित की थी । 'जौहर' में 'थाल सजाकर किसे पूजने/चले प्रात ही मतवाले ?' के प्रत्युत्तर में श्याम नारायण पाण्डेय ने लिखा है -

सुंदरियों ने जहाँ देशहित 
जौहर-व्रत करना सीखा,
स्वतंत्रता के लिए जहाँ 
बच्चों ने भी मरना सीखा,
वहीं जा रहा पूजा करने, 
लेने सतियों की पद-धूल ।
वहीं हमारा दीप जलेगा, 
वहीं चढ़ेगा माला-फूल ।।[14]

रामधारी सिंह 'दिनकर' (23 सितम्‍बर 1908 - 24 अप्रैल 1974) की कविताओं में प्रारंभ से ही अपने देश के स्वर्णिम अतीत के प्रति लगाव तथा ब्रिटिश कालीन भारत की दुर्दशा के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति हुई है । उनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना चरम पर है । 'दिनकर' जी का हृदय स्वभाव से ही राष्ट्रीय था । देश की स्वाधीनता के लिए जिन वीरों ने बलि दी, उनकी जय-जयकार करते हुए उन्होंने लिखा है -

कलम, आज उनकी जय बोल ।
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलकर बुझ गये किसी दिन,
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल,
कलम, आज उनकी जय बोल । [15] 


निष्कर्ष 

निष्कर्ष रूप में स्पष्ट है कि स्वाधीनता आंदोलन में खड़ी बोली हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । हिंदी साहित्यकारों ने न केवल राष्ट्रीय चेतना का साहित्य लिखा है, बल्कि उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय रूप से भागीदारी भी ली है । रामनरेश त्रिपाठी, माखनलाल चतुर्वेदी आदि साहित्यकार तो स्वाधीनता आंदोलन के लिए जेल भी गये थे । स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय साहित्यकारों ने व्यक्तिगत रूप से जो अनुभव किया, उसे उन्होंने अपने साहित्य में भी अभिव्यक्ति दी । खड़ी बोली हिंदी के साहित्यकारों ने अंग्रेजी शासन में भारत की दुर्दशा, भारतवासियों की पीड़ा, अंग्रेजों की निर्दयता, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय और राजनैतिक जागरूकता आदि को अपने साहित्य का विषय बनाया है । केवल कविताओं में ही नहीं, बल्कि कहानी, निबंध, नाटक और उपन्यास आदि सभी विधाओं में हिंदी साहित्यकारों ने स्वाधीनता आंदोलन हेतु प्रेरक साहित्य का सृजन किया है । हिंदी निबंधकारों में बालकृष्ण भट्ट, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, सरदार पूर्ण सिंह आदि ने अपने राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण निबंधों द्वारा स्वाधीनता आंदोलन में वैचारिक योगदान दिया । नाटककारों में भारतेंदु और प्रसाद के अतिरिक्त हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र, डॉ. रामकुमार वर्मा और सेठ गोविंद दास आदि ने अपने नाटकों से स्वाधीनता आंदोलन को बल प्रदान किया । हिंदी कहानीकारों में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मोहन राकेश, अमरकांत आदि तथा उपन्यासकारों में प्रेमचंद के अतिरिक्त यशपाल, धर्मवीर भारती आदि के साहित्य में राष्ट्रीय चेतना सन्निहित है । खड़ी बोली हिंदी साहित्य के श्रवण और पाठन से पराधीन भारत की जनता स्वाधीनता के प्रति जागरूक हुई, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को सफलता मिली ।


संदर्भ

[1] बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खंड 1, भारत में जातिप्रथा एवं जातिप्रथा उन्मूलन, पृष्ठ 67, डॉ. आंबेडकर प्रतिष्ठान नई दिल्ली, बारहवाँ संस्करण 2019
[2] भारत दुर्दशा - भारतेंदु हरिश्चंद्र,  संपादक - लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पृष्ठ 22, विश्वविद्यालय प्रकाशन गोरखपुर, प्रथम संस्करण 1953
[3] हिंदी साहित्य का नवीन इतिहास : डॉ. लाल साहब सिंह, पृष्ठ 127, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पंचम संस्करण 2011
[4] सिद्धार्थ रामू का लेख, वेबपेज-hindi.theprint.in, 6 मई 2019 
[5] गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' - नरेश चंद्र चतुर्वेदी, पृष्ठ 44, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 1990
[6] भारत भारती - मैथिलीशरण गुप्त, पृष्ठ 172, साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी, दसवाँ संस्करण 1984
[7] चंद्रगुप्त : जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ 152, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2017
[8] एनसीईआरटी, ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तक, तेरहवाँ अध्याय, पृष्ठ 140
[9] वेबपेज, कविता कोश, पुष्प की अभिलाषा, 20 मई 2020
[10] स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास - मदनलाल वर्मा क्रान्त, पृ॰ 175, प्रवीण प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2006
[11] स्वतंत्रता पुकारती, संपादक : नंद किशोर नवल रचनाकार, पृष्ठ 180, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली,  संस्करण 2006
[12] मुकुल - सुभद्रा कुमारी चौहान, पृष्ठ 47, ओझाबंधु आश्रम इलाहाबाद, संस्करण 1930
[13] युगाधार - सोहनलाल द्विवेदी, पृष्ठ 45, साहित्य भवन इलाहाबाद, संस्करण 1946
[14] जौहर : श्याम नारायण पांडेय, पृष्ठ 4-5, सरस्वती मंदिर वाराणसी, संस्करण 1944
[15] यू.पी. बोर्ड, सातवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक, ग्यारहवाँ अध्याय

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