प्रस्तुत लेख एक संपादकीय लेख है, जो 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के अंक-2 से साभार लिया गया है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका है, जो वाराणसी (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित होती है । इस पत्रिका का प्रकाशन सन् 2021 में आरंभ हुआ था । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के संपादक प्रसिद्ध साहित्यकार एवं समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' हैं ।
आंबेडकरवादी कहानी की सम्यक परंपरा
लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहिं चले कपूत ।
लीक छाँड़ि तीनों चलें, शायर सिंह सपूत ।।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का उक्त दोहा परंपरा का अंधानुकरण न करने की सीख देता है । ध्यातव्य है कि न तो हर पुरानी परंपरा गलत होती है और न ही हर नयी परंपरा सही होती है । क्योंकि नयी परंपरा ही पुरानी परंपरा का रूप धारण करती है । समय के साथ किसी भी परंपरा में दोष समाविष्ट हो सकते हैं । यह सांसारिक सत्य है । प्रबुद्ध जन पुरानी परंपरा में ही संशोधन करके नयी परंपरा को विकसित करते हैं । हिंदी के पथिकृत आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतीय रस-सिद्धांत के आधार पर ही 'रस मीमांसा' का सृजन किया था । उन्होंने केवल इतना ही नया किया था कि रस-सिद्धांत की पुरानी परंपरा को नये संदर्भ में आधुनिक मनोविज्ञान से जोड़कर प्रस्तुत किया था । भरत मुनि द्वारा प्रतिपादित 'रस-सिद्धांत' की भारतीय परंपरा को थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ डॉ० नगेंद्र, डाॅ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० रामविलास शर्मा और डॉ० नामवर सिंह आदि लगभग सभी मूर्धन्य आलोचकों ने स्वीकार किया है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' नाम भले ही आधुनिक युग की देन है, लेकिन इस साहित्य में निहित विचारधारा एक लंबी परंपरा का परिवर्तित रूप है । यह परंपरा श्रमण परंपरा से आरंभ होकर सिद्ध परंपरा, नाथ परंपरा, संत परंपरा आदि से होते हुए फुले-आंबेडकर तक चली आयी, जिसका अनुपालन डाॅ० आंबेडकर के अनुयायी भी करते आ रहे हैं ।
आंबेडकरवादी साहित्य की वैचारिकी का आधार बुद्ध और आंबेडकर के दर्शन पर अवलंबित है । अनीश्वरवाद और अनात्मवाद को ध्यान में रखकर ही 'आंबेडकरवादी साहित्य' का सृजन किया जाता है ।
'आंबेडकरवादी साहित्य' को नकारने वाले तथाकथित दलित साहित्यकार यह मानते हैं कि साहित्य का कोई दर्शन नहीं होता है । वास्तव में, उन्हें भली प्रकार 'साहित्य' का अर्थ ही नहीं ज्ञात है । अन्यथा वे इस प्रकार का प्रलाप नहीं करते । 'साहित्य' शब्द के मूल में 'सहित' (स+हित) शब्द है, जिसका अर्थ है - हित से संबंधित । दर्शन से विहीन 'साहित्य' साहित्य नहीं, बल्कि 'आहित्य' होता है, जिससे मनुष्य का हित संभव नहीं है । साहित्य के सिद्धांत किसी न किसी दर्शन पर ही आधारित होते हैं, जिनका आश्रय लेकर आलोचक किसी कृति की समीक्षा अथवा आलोचना करते हैं । दर्शन से विहीन होने के कारण ही वंचित वर्ग के अधिकांश कहानीकारों ने ऐसी कहानियाँ लिखी हैं, जिनमें उन्होंने जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए निम्न स्तर का जीवन जीने वाले लोगों द्वारा अपने लिए अथवा अपने परिवार के लिए किये जाने वाले संघर्ष का चित्रण किया है । इस प्रकार उन्होंने अपनी कहानियों का उद्देश्य व्यक्तिगत सुख तक सीमित कर दिया है, जबकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । जिस मनुष्य का समाज से कोई सरोकार नहीं, वह पशुतुल्य है । ऐसे पशुमानव को कहानी का नायक अथवा नायिका बनाने का कोई औचित्य नहीं है । आंबेडकरवादी कहानियों के नायक और नायिका व्यक्तिगत जीवन के लिए संघर्ष नहीं करते हैं, बल्कि उनका जीवन-संघर्ष सामाज से सरोकार रखता है । दूसरों से समता के व्यवहार की चाह रखने वालों के लिए दूसरों के प्रति समता का व्यवहार करना भी आवश्यक है । इसलिए आंबेडकरवादी कहानी का नायक अंतर्जातीय विवाह के अंतर्गत गैर-जाति की कन्या के साथ विवाह तो करता ही है, साथ ही गैर-जाति को स्वयं की बहन-बेटी भी समर्पित करता है । पूर्वी उत्तर प्रदेश के अधिकांश वंचित-निर्धन लोग अपनी कन्याओं का विवाह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाति-कुल जाने बिना ही कर देते हैं । ऐसी घटनाएँ केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि भारत के अन्य प्रांतों में भी घटित होती रहती हैं । ऐसी घटनाओं को भी आंबेडकरवादी कहानियों का विषय बनाया जाना चाहिए ।
आंबेडकरवादी कहानी का नायक वही मनुष्य होना चाहिए, जो समतावादी, संघर्षशील, अंधविश्वास का विरोधी, वैज्ञानिक चेतना का समर्थक और पंचशील का अनुपालक हो । जिसमें आंबेडकरवादी चेतना नहीं हो, वह आंबेडकरवादी कहानी का नायक नहीं, खलनायक ही हो सकता है । यदि नायक में कोई दोष हो, लेकिन वह उसका उन्मूलन करके गुणवान बन जाए, तो उसके उत्तरोत्तर विकास एवं विकास के कारणों को कहानी में अवश्य प्रकट किया जाना चाहिए ।
आंबेडकरवादी कहानी शुद्ध यथार्थ को आधार बनाकर नहीं लिखी जाती है । शुद्ध यथार्थ-चित्रण एक प्रकार का रिपोतार्ज होता है । रिपोतार्ज और कहानी में पर्याप्त अंतर है । अन्यथा घटनाएँ तो अखबारों में भी छापी जाती हैं, वह भी ज्यों की त्यों । लेकिन उसे कहानी नहीं कहा जाता है, बल्कि उसे 'खबर' का नाम दिया जाता है । संसार में अनेक प्रकार की घटनाएँ घटित होती हैं । हर घटना को कहानी का कथानक नहीं बनाया जा सकता है । कुछ गुप्त बातों का उल्लेख न करना ही बुद्धिमानी है । तात्पर्य यह है कि आंबेडकरवादी कहानी में निहित यथार्थ आदर्शोन्मुख होना चाहिए । आंबेडकरवादी कहानी के नायक और नायिका तभी आदर्श बन सकते हैं, जब वे डॉ० आंबेडकर द्वारा ली गयी बाईस प्रतिज्ञाओं के विरुद्ध आचरण न करें । आंबेडकरवादी कहानीकार को कहानी-लेखन करते समय इन बातों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका