प्रस्तुत लेख एक संपादकीय लेख है, जो 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के अंक-6 से साभार लिया गया है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका है, जो वाराणसी (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित होती है । इस पत्रिका का प्रकाशन सन् 2021 में आरंभ हुआ था । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के संपादक प्रसिद्ध साहित्यकार एवं समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' हैं ।
अस्पृश्यता, जातिगत भेदभाव, डॉ० आंबेडकर और बौद्ध धम्म Asprishyata Jatigat Bhedbhav Dr. Ambedkar Aur Bauddha Dhamma
हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा ।
अल्लामा इक़बाल के इस शेर का वाच्यार्थ यह है कि अपनी सुंदरता से अनजान नरगिस (एक प्रकार का फूल) हजारों सालों तक अपनी बेनूरी (अंधेपन) पर रोती रहती है कि मुझमें कोई गुण, आकर्षण या सुन्दरता नहीं है । हजारों सालों बाद संसार (चमन) में कोई दीदावर (पारखी) पैदा होता है, जो नरगिस को उसकी सुंदरता का आभास कराता है और उसकी सुंदरता की सराहना करता है । इस शेर का लक्ष्यार्थ यह है कि जब संसार में अंधकार (बेनूरी) बढ़ जाता है, तब हजारों सालों में एक युगद्रष्टा जन्म लेता है, जो संसार को इसकी सुंदरता से परिचित कराता है । इस शेर का एक आशय यह भी है कि संसार को समझने के लिए हृदय में एक दृष्टि पैदा करनी चाहिए, अन्यथा आँख होते हुए भी बेनूरी (अंधापन) छायी रहेगी । भारत में अस्पृश्यों (अछूतों) की स्थिति भी नरगिस की तरह ही थी । हजारों सालों बाद उन्हें उनकी सुंदरता और गुण का आभास दिलाने के लिए दीदावर के रूप में बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म हुआ था ।
बाबा साहेब ने अपने ग्रंथ 'अछूत कौन थे और वे अछूत कैसे बने ?' में अस्पृश्यता के कारणों का ऐतिहासिक विवेचन किया है । बाबा साहेब ने छुआछूत की उत्पत्ति का कारण स्पष्ट करते हुए एक नये सिद्धांत को प्रस्तुत किया । छुआछूत की उत्पत्ति के नये सिद्धांत का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने अछूतों को मूलतः बौद्ध सिद्ध किया है । बौद्ध होने और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने के कारण ही छितरे हुए लोगों को अछूत घोषित किया गया था । बाबा साहेब के शब्दों में, " यदि हम स्वीकार कर लें कि ये छितरे व्यक्ति बौद्ध थे और ब्राह्मण धर्म के बौद्ध धम्म पर हावी हो जाने पर दूसरों की तरह इन्होंने आसानी से बौद्ध धम्म छोड़कर ब्राह्मण धर्म ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया, तो हमें दोनों प्रश्नों का एक समाधान मिल जाता है । इससे यह बात साफ हो जाती है कि अछूत ब्राह्मणों को अशुभ क्यों मानते हैं, वे उन्हें पुरोहित क्यों नहीं बनाते और अपने मुहल्लों तक में क्यों नहीं आने देते ? इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ये छितरे व्यक्ति क्यों अछूत समझे गये ? ये छितरे व्यक्ति ब्राह्मणों से घृणा करते थे, क्योंकि ब्राह्मण बौद्ध धम्म के शत्रु थे और ब्राह्मणों ने इन छितरे आदमियों को अछूत बनाया । क्योंकि ये बौद्ध धम्म को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे । इस तर्क से यह निष्कर्ष निकलता है कि अस्पृश्यता के मूल कारणों में से एक कारण घृणा भाव है, जो ब्राह्मणों ने बौद्धों के प्रति पैदा किया । " (बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खण्ड - 14, अछूत कौन थे और वे अछूत कैसे बने, पृष्ठ 86) तथाकथित सवर्ण स्पृश्य लोग भारत के बहिष्कृत लोगों के साथ छुआछूत का बर्ताव करते थे । लेकिन स्वयं स्पृश्यों के बीच में भी अस्पृश्यता की स्थिति पायी जाती है । इस संदर्भ में बाबा साहेब ने सन् 1928 में मुंबई में आयोजित एक जनसभा में भाषण देते हुए कहा था, " ब्राह्मणों के अलावा अन्य सभी जातियों को अस्पृश्यता का थोड़ा-बहुत संताप झेलना ही पड़ा है और वे झेल रहे हैं । ब्राह्मणों के बीच भी जातिविशिष्ट अस्पृश्यता और ऊँच-नीचता का भाव है । पूजा करते समय पलसीकर ब्राह्मणों के आने से और अपवित्रता छा जाती है, ऐसा चित्पावन ब्राह्मण मानते हैं । कायस्थ महिला के स्पर्श से अपने कपड़े अपवित्र न हो जाएँ, इसलिए ब्राह्मण महिला कुमकुम की डिब्बी जमीन पर रखती है और कायस्थ महिला जमीन पर रखी डिब्बी से उठाकर कुमकुम का तिलक लगा लेती है । इस तरह स्पृश्य जातियों में भी अस्पृश्यता फैली हुई है । " (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर, खंड 38, पृष्ठ 143)
अस्पृश्यता के अतिरिक्त जातिप्रथा भी हिंदू समाज का कोढ़ है । बाबा साहेब ने अपनी पुस्तक 'जातिप्रथा का विनाश' में जातिप्रथा की उत्पत्ति और उसके विनाश का तथ्यपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है । जातिप्रथा के कारण ही हिंदू समाज के लोगों में एकता का अभाव है । यही नहीं, स्वयं अस्पृश्य लोग भी आपस में एक नहीं हैं । सन् 1937 में पंढरपुर (सोलापुर) में आयोजित एक जनसभा में भाषण देते हुए बाबा साहेब ने कहा था, " अस्पृश्यों में शामिल महार, चमार, भंगी आदि जो जातियाँ हैं, उनमें एकता नहीं है । इस एकता न होने का कारण हिंदू समाज का जातिभेद ही है । " (बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 39, पृष्ठ 59) अस्पृश्यों के बीच व्याप्त जातिभेद को कैसे नष्ट किया जा सकता है ? इसके बारे में बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने आलेख 'मुक्ति कौन पथे ?' में लिखा है, " क्या कभी आपने इस बात के बारे में सोचा है कि अस्पृश्यों के बीच व्याप्त जातिभेद को कैसे नष्ट किया जा सकता है ? सहभोजन करने से या कभी-कभार सहविवाह करने से जातिभेद नष्ट नहीं होता । जातिभेद एक मानसिक स्थिति है, एक मानसिक व्यथा है । इस मानसिक व्यथा का जन्म हिंदू धर्म की सीख के कारण होता है । हम जातिभेद का पालन इसलिए करते हैं, क्योंकि हम जिस धर्म में जी रहे हैं, जिस धर्म का पालन करते हैं, वह धर्म हमें ऐसा करने के लिए कहता है । अगर कोई चीज कड़वी हो, तो उसे मीठा बनाया जा सकता है । नमकीन, कसैली हो, तो उसका स्वाद बदला जा सकता है । लेकिन विष को अमृत नहीं बनाया जा सकता । 'हिंदू धर्म में रहते हुए जातिभेद को नष्ट करेंगे', कहना लगभग विष को अमृत बनाने की बात कहने जैसा ही है । अर्थात् जिस धर्म में इंसान को इंसान से घिन करने की सीख दी जाती है, उस धर्म में हम जब तक हैं, तब तक हमारे मन में व्याप्त जातिभेद की भावनाएँ कभी भी नष्ट नहीं होंगी । अस्पृश्यों में व्याप्त जातिभेद और अस्पृश्यता नष्ट करनी हो, तो उन्हें धर्म-परिवर्तन ही करना होगा । " ( बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 38, पृष्ठ 491)
वर्तमान में अधिकांश अस्पृश्य लोगों ने धर्म-परिवर्तन करके बौद्ध धम्म को अंगीकार कर लिया है । लेकिन दुःख की बात यह है कि लोगों ने केवल धर्म बदला है, उन्होंने अपनी धारणा अभी तक नहीं बदली है । वे जातिभेद की भावना से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सके हैं । वे अभी तक अपनी जातियों/उपजातियों में ही रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करते हैं । यही कारण है कि वे सही मायने में संगठित नहीं हो पा रहे हैं । बाबा साहेब इस बात को लेकर अत्यंत चिंतित थे । सन् 1939 में आयोजित एक जनसभा में बाबा साहेब ने कहा था, " मैं चाहता हूँ कि धर्मांतरण के बाद हमारे बीच का महार, भंगी, चमार आदि जातिभेद नष्ट हो । धर्म बदलेंगे, तो कम से कम महार, भंगी, चमार आदि नाम तो हमसे चिपकेंगे नहीं । हम सब एक होकर उन्नति की राह पर आगे चलेंगे । " (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 39, पृष्ठ 240) बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जैसे दीदावर को पाकर और उनका अनुसरण करके अधिकांश अस्पृश्यों ने आर्थिक रूप से उन्नति की है । उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से उन्नति करने की अति आवश्यकता है । इन दोनों क्षेत्रों में अस्पृश्य अभी बहुत ही पीछे हैं । अस्पृश्यों (वंचित वर्ग) को यदि अपना सामाजिक और सांस्कृतिक विकास करना है, तो उन्हें बौद्ध धम्म को हृदय से अंगीकार करके धम्मानुसार आचरण करना होगा ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
🏠 वाराणसी, उत्तर प्रदेश
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'