बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ जलाकर असमानता का विरोध किया था । यही कारण है कि डॉ. आंबेडकर के अनुयायी इस दिन को हर वर्ष 'मनुस्मृति दहन दिवस' के रूप में मनाते हैं और मनुस्मृति की प्रतियाँ जलाते हैं । लेकिन प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि वर्तमान में मनुस्मृति-दहन की क्या प्रासंगिकता है ? साथ ही ये प्रश्न भी उत्पन्न होते हैं कि 'मनुस्मृति दहन दिवस' का आंबेडकरवाद से क्या संबंध है ? तथा हर वर्ष 'मनुस्मृति दहन दिवस' मनाने का क्या औचित्य है ? इन सारे प्रश्नों का उत्तर आप इस लेख में जानेंगे ।
'मनुस्मृति दहन दिवस' का आंबेडकरवाद से क्या संबंध है ?
'आंबेडकरवाद' का शाब्दिक अर्थ है - 'आंबेडकर का कथन' । ध्यातव्य है कि बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ जलायी थी । लेकिन उसके बाद उन्होंने हर वर्ष 'मनुस्मृति' को जलाने का कार्य नहीं किया था और न ही अपने अनुयायियों से हर वर्ष मनुस्मृति की प्रतियाँ जलाने को कहा था । इसलिए 'मनुस्मृति दहन दिवस' का आंबेडकरवाद से कोई संबंध नहीं है ।
'मनुस्मृति दहन दिवस' मनाने का क्या औचित्य है ?
भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को पूरे देश में लागू हुआ था । भारतीय संविधान लागू होने से पहले भले ही 'मनुस्मृति' का हिंदुओं के लिए महत्व था, लेकिन उसके बाद 'मनुस्मृति' का कोई महत्व नहीं रहा । क्योंकि भारतीय संविधान के द्वारा भारत के हर नागरिक को समता का अधिकार प्राप्त हो गया । कोई भी धार्मिक पुस्तक भारतीय संविधान से ऊपर नहीं है । इसलिए 'मनुस्मृति दहन दिवस' मनाने का कोई औचित्य नहीं है ?
क्या 'मनुस्मृति दहन दिवस' अभी भी प्रासंगिक है ?
'मनुस्मृति' नामक पुस्तक का संबंध केवल हिंदू धर्म से है, अन्य धर्मों से इसका कोई संबंध नहीं है । ध्यातव्य है कि बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को 'मनुस्मृति' का दहन किया था । उस समय तक वे हिंदू अछूतों को हिंदू धर्म में समान अधिकार दिलाने का प्रयास कर रहे थे ।
13 अक्टूबर 1935 में येवला (नासिक) में भाषण देते हुए बाबा साहेब ने कहा था, "मैं भी अस्पृश्य हिंदू का दाग लेकर ही पैदा हुआ । हालांकि यह बात मेरे वश में नहीं थी । लेकिन यह हीन दर्जा झटककर स्थिति को सुधारना मेरे वश में है और मैं वह करूँगा ही । इस बारे में किसी को किसी तरह की आशंका नहीं होनी चाहिए । आज साफ तौर पर मैं आपसे कह रहा हूँ कि मैं अपने आपको हिंदू कहलाते हुए नहीं मारूँगा ।" [ बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वांड़मय- खंड 38, पृष्ठ 416 ]
14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने हिंदू धर्म का त्याग करके बौद्ध धम्म को ग्रहण कर लिया । उसके बाद बाबा साहेब का हिंदू धर्म से कोई संबंध नहीं रहा । साथ ही हिंदू धर्म से संबंधित किसी भी ग्रंथ से उनका कोई संबंध नहीं रहा । बौद्ध धम्म को ग्रहण करते हुए उन्होंने सभी हिंदू अछूतों को बौद्ध धम्म ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया था । इसलिए जितने भी आंबेडकरवादी लोग हैं तथा जिन्होंने बौद्ध धम्म को ग्रहण कर लिया है, उनके लिए 'मनुस्मृति दहन दिवस' प्रासंगिक नहीं है ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
🏠 वाराणसी, उत्तर प्रदेश
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'
बहुत ही शानदार प्रस्तुति के साधुवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद महोदय!!
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