साहित्यकार एवं समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी की स्त्री-विमर्श विषयक दो कविताओं 'कटु यथार्थ' और 'नारीवाद की पों-पों' तथा उनके स्त्री विषयक दृष्टिकोण के संदर्भ में समालोचनात्मक लेख/टिप्पणी ।
'प्रखर' जी की स्त्री-विमर्श विषयक कविताएँ / राधेश विकास
जब कोई आलोचक किसी विषयवस्तु के संदर्भ में कोई दृश्टिकोण प्रस्तुत करता है तो निश्चित रूप से वह निरपेक्ष, निष्पक्ष, ऐतिहासिक व समकालीन संदर्भ का गहन अध्ययन के साथ प्रस्तुत करता है। मैं नारीवाद को द्वितीयक स्थिति में रखने का पक्षधर नहीं हूँ, लेकिन वास्तविकताओं से परे किसी विषयवस्तु के प्रति स्वतंत्र अवधारणा बना लेना तर्कसंगत व समीचीन नहीं लगता।
आदरणीय प्रखर जी की नारीवाद के संदर्भ में दो रचनाएँ हमनें पढ़ी, अनेक विद्वानो की प्रतिक्रिया को भी पढ़ा । लोगों ने अनेक तथ्य भी प्रस्तुत किये । पर एक बात समझ में नहीं आयी, सामाजिक संदर्भ में नारी सदैव संघर्ष करती आयी हैं, अपनी स्वतंत्रता व अस्मिता के लिए जो सम्यक अवधारणा विकसित होनी चाहिए, उसका आज भी नितांत आभाव है । नारीवाद की पैरवी करने वालों को भी इस बात को स्वीकारना होगा । 'प्रखर' जी का दृष्टिकोण नितांत यथार्थवादी है और ये कड़वा सच भी । वे निर्मम प्रहार करते दिखते हैं । उनके प्रहार से एक नया रास्ता भी खुलता है । किसी की स्वतंत्रता तभी तक सुरक्षित है, जब तक वो दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करता है । ये एक संवेदनशील मुद्दा है, जिसकी प्रतिक्रिया में स्वछंदता के लिए कोई जगह नहीं है । हम सबको समझना होगा. जब एक ही सिक्के के दोनों पहलू अपने वर्चस्व के लिए उलझते हैं तो सिक्का खतरे में पड़ जाता है । सिक्के की गति अवरोधित होती है ।
पुरुष जिस बात में उलझकर भी तालमेल का विकल्प खुला रखता है, उसी बात पर नारी का जिद्दी स्वभाव अड़चनें पैदा करता है । इतिहास, साहित्य, सामाजिक संदर्भ में अनेक लोगों ने इस पर अनेक प्रमाण, रचना व विचार प्रस्तुत किये हैं । समकालीन संदर्भ में अवलोकन की आवश्यकता है । आंबेडकर-दर्शन मानवीय व सम्यक अवधारणा पर आधारित है । पुरुष व नारी दोनों को इस बात को समझना होगा । 'प्रखर' जी ने इसी को अपनी आलोचना में उजागर करने की सफल कोशिश ही नहीं की है, अपितु व्यापक पृष्ठभूमि भी तैयार कर दिया है । वे नारीवाद के वास्तविक मूल्यांकन की दिशा में यथार्थ दृष्टि से आगे बढ़ते दिख रहे हैं । नारीवाद के पक्षधरों को भी सम्यक अवधारणा के साथ आगे आने की जरूरत है । ये केवल एक आईना भर है, जिसमें खुद को पहचानने की जरूरत है । उम्मीद करता हूँ, इस विषय पर 'प्रखर' जी आने वाले समय में समस्त प्रतिक्रियायों पर अपना सम्यक दृष्टिकोण जरूर प्रस्तुत करेंगे ।
(एक निजी विचार, सहमत या असहमत होना आपका स्वतंत्र अधिकार है )
✍️ राधेश विकास
आंबेडकरवादी साहित्य में नारीवाद अथवा स्त्री-विमर्श / एस.एन. प्रसाद
कुछ दशकों से गैर-दलित साहित्यकारों में वर्चस्व को लेकर घमासान चल रहा है । सवर्ण समाज की स्त्रियाँ अपने को उपेक्षित मानते हुए अपने समाज के पुरुष साहित्यकारों के प्रति हमलावर हैं । कुछ सजातीय पुरुष भी इनके मुहिम में शामिल हैं। इनके समाज में विषमता कोई नई बात नहीं है । अपनी स्त्रियों को सदियों तक पर्दे में रखने वाले पुरुष निश्चित रूप से उन्हें स्वतंत्र नहीं करेंगे । इन सबके बावजूद भी स्त्रियाँ उन तमाम आडम्बरों तथा रीति-रिवाजों को मानती आ रही हैं, जो असमानता पर आधारित हैं । सच तो यह है कि अपनी दुर्दशा के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं । वही स्त्रियाँ अपनी स्वतन्त्रा के लिए अब प्रलाप कर रही हैं । दिशा और दृष्टि न होने के कारण वे कुंठित हैं और इसके बरक्स साहित्य में नग्नता को प्रश्रय देने के कारण अपने ही समाज में प्रभावशून्य हैं ।
दूसरी तरफ दलित समाज में प्राचीन काल से ही स्त्री-पुरुष में समानता रही है । लोग एक-दूसरे का बराबर ध्यान देते रहें हैं । सुख-दुख में सहभागी रहे हैं । अपने-अपने दायित्वों का ईमानदारी से पालन भी करते थे । उनके अंदर परस्पर वर्चस्व की भावना नहीं थी । अर्थात पुरुष और स्त्री में समानता थी, प्रेम और विश्वास था ।
महामना फुले ने अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को साक्षर और शिक्षित किया, ताकि शुद्र समाज की लड़कियों को शिक्षा सुलभ हो और वे शिक्षित होकर अपने परिवार तथा समाज को सही दिशा दे सकें । फुले-दम्पति ने एक-दूसरे के सहयोग से दलित समाज को नया जीवन दिया ।
बाबा साहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का पूरा जीवन शोषित, पीड़ित, महिलाओं तथा दलितों के उत्थान एवं बहुमुखी विकास के लिए समर्पित रहा । उनकी पत्नी रमाबाई का बाबा साहब के साथ सहयोग तथा समर्पण भाव को कौन नही जानता ?
हमारे महापुरुषों ने स्त्री-पुरुष में कोई भेद नही किया ।फलस्वरूप नारीवाद/पुरुषवाद अथवा तत्सम्बन्धी किसी विमर्श की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी । वर्तमान में भी दलित/आम्बेडकरवादी समाज तथा साहित्य में इसकी आवश्यकता नहीं है ।
हाँ, यह बताना उचित होगा कि सवर्ण समाज की स्त्रियों की नकल करके खेमेबाजी करने वाले तथाकथित आम्बेडकरवादी साहित्यकारों (स्त्री/पुरुष) को कोई लाभ नही होगा, उल्टे उन्हें भी कुंठा का शिकार होना पड़ेगा ।
नारीवाद को लेकर आदरणीय देवचन्द्र भारती 'प्रखर' जी का आलेख अपने आप में पूर्ण तथा अकाट्य है । उसे पूरी तरह पढ़ने और मनन करने की जरूत है। उन्होने आंबेडकरवादी साहित्य में अनावश्यक नारीवाद की वकालत करने वाले कतिपय महिला/पुरुष साहित्यकारों को तथ्यों के आधार पर निरुत्तर कर यह सिद्ध कर दिया कि वे निर्विवाद रूप से आंबेडकरवादी कवि, चिंतक तथा प्रखर आलोचक हैं । भवतु सब्ब मंगलम्।🌷
✍️ एस.एन. प्रसाद