नारीवाद की आलोचना - देवचंद्र भारती 'प्रखर'

तथाकथित दलित महिलाएँ सावित्रीबाई फुले को 'नारीवाद' की जननी मानती हैं, जबकि सावित्रीबाई फुले ने अपने संपूर्ण साहित्य में कहीं भी 'नारीवाद' शब्द का उल्लेख नहीं किया है । 

तथाकथित दलित महिलाएँ सावित्रीबाई फुले को 'नारीवाद' की जननी मानती हैं, जबकि सावित्रीबाई फुले ने अपने संपूर्ण साहित्य में कहीं भी 'नारीवाद' शब्द का उल्लेख नहीं किया है । नारीवादी महिलाएँ 'नारीवाद' की बातें करते हुए हमेशा पुरुषों को लक्ष्य (टारगेट) करती हैं । उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि सावित्रीबाई फुले के व्यक्तित्व-निर्माण में उनके पति (पुरुष) ज्योतिराव फुले की महत्वपूर्ण भूमिका थी । ज्योतिराव ने ही सावित्रीबाई फुले को "क ख ग घ" पढ़ना-लिखना सिखाया और साथ ही उन्हें अन्य महिलाओं को भी साक्षर बनाने के लिए प्रेरित किया । लेकिन ज्योतिराव फुले ने भी अपने संपूर्ण साहित्य में कहीं भी 'नारी विमर्श' अथवा 'नारीवाद' शब्द का प्रयोग नहीं किया है । ज्योतिराव फुले ने तो स्त्रियों की शिक्षा पर इसलिए बल दिया, क्योंकि उन्हें यह अनुभव हो चुका था कि सामाजिक क्रांति के लिए केवल पुरुषों का ही साक्षर/शिक्षित होना आवश्यक नहीं है, बल्कि महिलाओं का भी साक्षर/शिक्षित होना आवश्यक है । उन्होंने लिखा भी है -

विद्या बिना मति गयी, मति बिना गति गयी,
गति बिना नीति गयी, नीति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र चरमराये,
इतना सारा अनर्थ एक अविद्या से हुआ ।

(गुलामगिरी, ज्योतिराव फुले)

प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के द्वारा किये गये इस कार्य और उनके चिंतन को क्या नाम दिया जाए ? तथाकथित दलित महिलाओं और नारीभक्त पुरुषों को कोई और नाम नहीं मिला, तो उन्होंने फुले-दंपति के चिंतन को 'नारीवाद' अथवा 'नारी विमर्श' का नाम दे दिया । जबकि उन्हें यह नहीं पता कि हिंदी साहित्य में 'नारीवाद' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग करने वाली और नारीवाद की अवधारणा प्रस्तुत करने वाली महिलाओं में तथाकथित सवर्ण महिलाएँ शामिल हैं, जिनमें रमणिका गुप्ता और प्रभा खेतान का नाम सबसे ऊपर है । इन दोनों का नारीवादी चिंतन जिस रूप में है, क्या उस नारीवादी स्वरूप को तथाकथित दलित महिलाएँ स्वीकार करेंगी ? अर्थात् क्या वे प्रभा खेतान की तरह आजीवन बिना शादी किये रहेंगी और कई पुरुषों से यौन-संबंध बनाएँगी अथवा वे रमणिका गुप्ता की तरह दो दर्जन पुरुषों के साथ यौन-संबंध बनाकर वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देंगी ? यदि वे ऐसा करती हैं, तो क्या वे बौद्ध-आंबेडकरवादी कही जाएँगी ? क्योंकि बुद्ध ने 'शील' को सबसे अधिक महत्व दिया है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने भी ज्ञान से अधिक चरित्र को महत्व दिया है । बाबा साहेब के शब्दों में, " मेरी राय में केवल विद्या ही पवित्र नहीं हो सकती है । विद्या के साथ भगवान बुद्ध द्वारा बताई गई प्रज्ञा, परिपक्वता, चरित्र अर्थात् सदाचरण से संपन्न आचरण, करुणा अर्थात् सभी मानव जाति के बारे में प्रेम का भाव और मैत्री अर्थात् सभी प्राणि-मात्र के लिए आत्मीयता, ये चार पारमिताएँ भी होनी चाहिए । तभी विद्वत्ता का उपयोग है । "

(बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खण्ड - 40, पृष्ठ 399,400)

तथाकथित दलित नारीवादी महिलाएँ/लेखिकाएँ आंबेडकरवाद की शत्रु हैं । 

कुछ तथाकथित दलित महिला लेखिकाएँ, जिन्हें हिंदी साहित्य और नारीवाद का ठीक से इतिहास भी नहीं पता है तथा जिन्होंने बाबा साहेब के संपूर्ण साहित्य (40 खंड) का गंभीरता से सूक्ष्म अध्ययन नहीं किया है, उनका यह मानना है कि " जो व्यक्ति नारीवाद का विरोधी है, वह आंबेडकरवादी नहीं है ।" इस संदर्भ में मैं इस बात की चुनौती देता हूँ कि यदि कोई भी नारीवादी महिला अथवा पुरुष बाबा साहेब के संपूर्ण साहित्य में कहीं भी 'नारी-विमर्श' अथवा 'नारीवाद' शब्द के प्रयोग का उद्धरण दे देगी/दे देगा, तो मैं खुद को कभी आंबेडकरवादी नहीं कहूँगा और साहित्य-सृजन करना छोड़ दूँगा । (देवचंद्र भारती 'प्रखर')

बुद्ध, फुले-दंपति और डॉ० आंबेडकर का चिंतन समतावादी था/है ।

बुद्ध, फुले-दंपति और डॉ० आंबेडकर ने नारी-मुक्ति, नारी-जागृति और नारी-प्रगति को लेकर जितने भी कार्य किये, उसके आधार में उनका समतावादी चिंतन था । वे सामाजिक समता की स्थापना हेतु स्त्रियों की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उन्नति के लिए आंदोलन किये । संक्षेप में, फुले-दंपति और बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के चिंतन को नारीवादी-चिंतन नहीं कहा जा सकता है । उनके चिंतन को समतावादी चिंतन कहा जाता है और यही कहा जाना चाहिए ।

'नारीवाद' शब्द तथाकथित सवर्णों की देन है और उनका षड्यंत्र भी है ।

बुद्ध, फुले-दंपति और बाबा साहेब आदि सभी महापुरुष यही चाहते थे कि स्त्रियाँ, पुरुषों के साथ मिलकर सामाजिक क्रांति में सहयोग प्रदान करें । लेकिन अफसोस, तथाकथित दलित स्त्रियाँ, तथाकथित सवर्णों के नारीवादी आंदोलन के बहकावे में आकर समतावादी दृष्टि से विमुख हो गयी हैं और पुरुषों से अलग होकर महिलाओं के नाम पर अनेक अलग संगठन बनाकर गोलबंदी करने में लगी हुई हैं । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या पुरुषों के नाम पर कोई संगठन है ? यदि नहीं, तो फिर महिलाओं के नाम पर अलग संगठन बनाने का क्या औचित्य है ? वास्तव में, तथाकथित दलित महिलाएँ अपने पुत्र 'समतावाद' को छोड़कर तथाकथित सवर्णों के पुत्र 'नारीवाद' का पोषण करने में लगी हुई हैं और उनका खुद का पुत्र 'समतावाद' कुपोषित स्थिति में स्पष्ट दिखाई दे रहा है । 

यदि 'नारीवाद' शब्द ठीक है, तो फिर 'पुरुषवाद' शब्द कैसे गलत है ? यदि नारीवादी अवधारणा सही है, तो फिर पुरुषवादी अवधारणा कैसे गलत है ? जब दोनों शब्दों में समानता है, तो फिर दोनों का अर्थ अलग-अलग कैसे ?

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