छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कविता 'अरी वरुणा की शांत कछार !' तथागत गौतम बुद्ध को समर्पित है । वह कविता अवलोकन हेतु प्रस्तुत है ।
अरी, वरुणा की शांत कछार ! (बुद्ध को समर्पित कविता)
Aree, Varuna Ki Shant Kachhar / Jayshankar Prasad
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के विराग की प्यार !
सतत व्याकुलता के विश्राम,
अरे ऋषियों के कानन-कुंज !
जगत नश्वरता से लघु प्राण,
लता, पादप, सुमनों के पुंज !
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप,
चल रहा था उज्जवल व्यापार ।
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि,
गूंजता था जिससे संसार ।
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के विराग की प्यार !
तुम्हारे कुंजों में तल्लीन,
दर्शनों के होते थे वाद ।
देवताओं के प्रादुर्भाव,
स्वर्ग के सपनों के संवाद ।
स्निग्ध तरु की छाया में बैठ,
परिषदें करती थीं सुविचार ।
भाग कितना लेगा मस्तिष्क,
हृदय का कितना है अधिकार ?
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के विराग की प्यार !
छोड़कर पार्थिव भोग विभूति,
प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार ।
पिता का वचन भरा वात्सल्य,
पुत्र का शैशव सुलभ दुलार ।
दुख का करके सत्य निदान,
प्राणियों का करने उद्धार ।
सुनाने आरण्यक संवाद,
तथागत आया तेरे द्वार ।
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के विराग की प्यार !
मुक्ति जल कि वह शीतल बाढ़,
जगत की ज्वाला करती शांत ।
तिमिर का हरने को दुःख भार,
तेज अमिताभ अलौकिक कांत ।
देव-कर से पीड़ित विश्रुब्ध,
प्राणियों से कह उठा पुकार-
तोड़ सकते हो तुम भव-बंध,
तुम्हें है यह पूरा अधिकार ।
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के विराग की प्यार !
छोड़कर जीवन के अतिवाद,
मध्यपथ से लो सुगति सुधार ।
दुःख का समुदय उसका नाश,
तुम्हारे कर्मों का व्यापार ।
विश्व मानवता का जयघोष,
यहीं पर हुआ जलद स्वर - मंद्र ।
मिला था वह पावन आदेश,
आज भी साक्षी हैं रवि - चंद्र ।
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के विराग की प्यार !
तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य,
और उस यश का विमल प्रचार ।
सकल वसुधा को दे संदेश,
धन्य होता है बारंबार ।
आज कितनी शताब्दियों बाद,
उठी ध्वंसों में वह झंकार ।
प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगंत,
विश्व वाणी का बने विहार ।
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के विराग की प्यार !
.........................................✍️ जयशंकर प्रसाद
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