'महाकवि रविदास और चमत्कारिक जनश्रुतियाँ' नामक अपनी पुस्तक में लेखक डॉ० विजय कुमार त्रिशरण ने जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह अग्रलिखित है ।
महाकवि रविदास और चमत्कारिक जनश्रुतियाँ
- डॉ० विजय कुमार त्रिशरण
गुरु रविदास ईश्वरवादी नहीं, मानववादी
जहाँ तक रविदास के ईश्वरवादी होने का सवाल है, तो इस पर मैं यह कहूंगा कि गुरुजी की समस्या भक्ति की नहीं, बल्कि क्रांति की थी । उन्होंने समाज व्यवस्था में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से ही गृह त्याग किया था । उनके पदों में प्रयुक्त निर्विकार और निरंजन शब्द विकार रहित निष्कलंक तथा निर्मल मन अर्थात ईर्ष्या लोभ और मोह रहित मन को इंगित करता है । जब कोई व्यक्ति इन त्रयी तापों से मुक्त हो जाता है तो अर्हत (मानसिक शत्रु बुराइयों का नाश करने वाला) बन जाता है, निर्वाण प्राप्त (जीवन के रहते दुख मुक्त) बन जाता है । बोधिसत्व रविदास ऐसे ही रहत पद प्राप्त मार्गदर्शक थे । उनके निर्गुण की अवधारणा बुद्ध के निर्वाण से अलग नहीं थी । जिसे कोई देखा नहीं, छुआ नहीं, सुना नहीं, महसूस नहीं किया, फिर भी वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ ब्रह्म कैसे हो सकता है ? ईश्वर का निर्गुण रूप कहने की बात तो सबसे बड़ा ब्राह्मणवादी धोखा है । ईश्वर का आकार भी है और नहीं भी है तथा दोनों में कुछ भेद भी नहीं है, (अगुनहि सगुनहि नहिं कछु भेदा । जानही ज्ञानी पंडित बुुुध बेदा ।। यही तो भ्रम है । जो दिखता नहीं उसे भी मान लेने की बात कहना तो दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सामंतवाद है । अतः गुरु रविदास का 'निर्गुण' निर्मल मन का द्योतक है । एक बौद्ध का निर्मल मन ही निर्वाण का पथ प्रशस्त करता है । निर्वाण का मतलब होता है - जीवन के रहते मानसिक बुराइयों, जैसे - ईर्ष्या, लोभ और मोह से मुक्त होकर दुख रहित जीवन जीना । ऐसा कोई भी व्यक्ति भगवान कहलाता है । पाली ग्रंथों में कहा गया है कि -
भग्ग रोगों भग दोसो भाग मोहन आशु भगत आपका धम्मा भगवा तीन उच्च टी
अर्थात् जिसने राग द्वेष मोह को भंग कर दिया है जिसने पाप कारी सभी कर्म को नष्ट कर दिया है उसे भगवान कहते हैं ।
गुरु रविदास की दृष्टि में भगवान का आशय यही है । वह किसी चमत्कारी अथवा और प्राकृतिक शक्ति में विश्वास नहीं करते हैं । उनके पदों में मंदिर, मस्जिद तथा मूर्ति पूजा का बार-बार खंडन हुआ है । हिंदू दर्शन के अनुसार मोक्ष जीवन के रहते संभव नहीं है, परंतु बौद्धों का बुद्धकालीन संघ अरहत भी भिक्खुओं - भिक्खुनियों से भरा पड़ा है ।
ईश-भजन गाना और भक्ति करना गुरु रविदास का मकसद नहीं था । उनका मकसद था भक्ति का आधार बनाकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ध्वस्त करना और बेगमपुर (दुःख विहीन) स्वाधीन शहर बसाना । यदि ऐसा नहीं होता, तो वे काशी के घाट पर पेटू और प्रमादी पंडों की तरह धार्मिक धंधेबाजी करते हुए संपूर्ण जीवन गुजार देते, पूरे देश में भ्रमण करके समता और सौहार्द का संदेश नहीं देते ।
तत्कालीन समाज व्यवस्था घोर अविद्या के अंधकारमय गर्त में गिरा हुआ था । इसे एकाएक किनारे कर क्रांति मशाल लेकर आगे बढ़ना रविदास के लिए संभव नहीं था, क्योंकि जनमानस में ईश्वर का भूत समाया हुआ था । यही कारण है कि गुरु जी ने सामाजिक परिवर्तन का आधार भक्ति और भजन को बनाया; जैसे सर्पदंश के इलाज के लिए सर्प विष का ही प्रयोग किया जाता है । दूसरी बात यह थी कि चतुर्वर्ण विधान के अनुसार रविदास को भक्ति करने का अधिकार नहीं था परंतु उन्होंने ऐसा करके ब्राह्मण वादियों को तगड़ी चुनौती दी तथा ब्राह्मण व्यवस्था को ललकारा । यह एक बहुत बड़ी क्रांति थी, गुरु जी की; अतः गुरु रविदास चमत्कारी नहीं, एक क्रांतिकारी थे । उनकी क्रांतिज्योति का लाभ लेकर बहुजनों को अपनी मुक्ति और उन्नति के पथ पर अनवरत अग्रसर होना चाहिए ।
शरीर के चमड़े के भीतर से स्वर्णजनेऊ दिखाना
इस चमत्कारिक जनश्रुति का जिक्र भी भक्तमाल की टीका में ही मिलता है । कथा है कि हिंदू वाणे सूरज राजा कुल की बहू झाली रानी जब अपनी काशी यात्रा में आई थी तभी गुरु रविदास के धर्मोंपदेशक और परम ज्ञानी संत महाकवि के रूप में ख्याति जानकर उनसे मुलाकात की । मुलाकात के बाद चित्तौड़ की रानी झाली इतनी प्रभावित हुई कि रविदास को अपना गुरु मानकर उसने गुरु दीक्षा ले ली । इस घटना से तत्कालीन पुरोहित वर्ग विशुद्ध होता और एक उच्च वर्ग की रानी द्वारा चर्मकार वर्ग के एक संतकवि द्वारा गुरु दीक्षा ले जाने की घटना का जोरदार विरोध किया । इसके पश्चात झाली रानी ने गुरु दास को चित्तौड़ आने का निमंत्रण दिया । गुरु रविदास संत कबीर से विमर्श कर चित्तौड़ पधारे जहां रानी ने संत का हार्दिक स्वागत किया था । गुरु रविदास की आगमन की खुशी और सम्मान में रानी ने अपने महल में प्रीतिभोज का आयोजन किया था । इसमें वहां के ब्राह्मणों को भी आमंत्रित किया गया था । ब्राह्मणों ने निमंत्रण तो स्वीकार किया कि परंतु रविदास के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने से साफ इंकार कर दिया । तत्पश्चात रानी के आग्रह पर ब्राह्मणों ने स्वयं भोजन बनाया । इसी बीच एक चमत्कार होता है कि प्रत्येक 2 ब्राह्मणों के बीच रविदास भी भोजन करते ब्राह्मणों को नजर आने लगे । इस आश्चर्यजनक घटना से चकित होने के बाद भी ब्राह्मण हार नहीं माने और रविदास को श्रेष्ठता साबित करने के लिए प्रमाण स्वरूप जनेऊ दिखाने को कहा । गुरु रविदास ने अपनी अलौकिक दिव्य शक्ति के बल पर शरीर के चमड़े को चीरकर दिखा दिया । जो एक सच्चा और सत्य निष्ठ ब्राह्मण होने का प्रमाण था । स्वर्ण जनेऊ की अलौकिक चमक से वहां उपस्थित सभी लोगों की आंखें बंद हो गई और गुरु रविदास अपना पद छोड़ कर अंतर्ध्यान हो गए । बाद में झाली रानी ने उनकी याद में स्मारक बनवाया जो रविदास की छतरी के नाम से जाना गया ।
विश्लेषण : (i) झाली द्वारा रविदास को गुरु स्वीकार करना तथा उन्हें राजमहल आमंत्रित करना निश्चय ही रविदास की उच्च विचारशैली और निष्काम संत होने की पुष्टि करता है, किंतु प्रत्येक 2 ब्राह्मणों के बीच रविदास का ही नजर आना कल्पनिक लगता है ।
संभव है कि रविदास की श्रेष्ठता से अभिभूत रानी द्वारा उनके सम्मान में आयोजित प्रीतिभोज में ब्राह्मणों और रविदास को एक पंक्ति में बैठाकर खिलाए जाने का प्रस्ताव है । ब्राह्मणों की जातियों पर वज्र प्रहार जैसा लगा हो और अलग बैठकर भोजन करने के दौरान भी उनके मन मस्तिष्क में इस प्रकार की पीड़ा के अप्रत्यक्ष भाव का प्राबल्य रहा हो । फलस्वरूप क्रोधित ब्राह्मणों का पूरे भोजन के दौरान रविदास की आभासी भौतिक उपस्थिति महसूस हुई हो । जब कोई किसी के प्रति मन में अगाध प्रेम अथवा अतिशय क्रोध का भाव रखता है, तो उसी की तस्वीर प्रभावित व्यक्ति के मन मस्तिष्क में झलकती रहती है; जो एक मनोवैज्ञानिक घटना है ।
(ii) रविदास द्वारा चमड़ा चीरकर स्वर्ण जनेऊ दिखाए जाने की बात क्रोधित एवं अपमानित ब्राह्मणों द्वारा यह कहते हुए कि ब्राह्मण श्रेष्ठता का प्रतीक तुम्हारा जनेऊ कहां है ? उनके शरीर को तलवार से चीरकर टुकड़े-टुकड़े करके हत्या कर देने की बात की ओर संकेत करता है । इस बात की पुष्टि डॉ० धर्मपाल मैनी ने भी अपनी पुस्तक 'रैदास' में किया है । उनके अनुसार, " चमड़ी चीरकर स्वर्ण जनेऊ दिखाने और तत्पश्चात सिर्फ पदचिन्ह छोड़कर गायब हो जाने की घटना वास्तव में विरोधियों द्वारा रविदास के शरीर को नष्ट कर दिए जाने की ओर संकेत देता है ।
मंतव्य : महाकवि रविदास द्वारा वर्णवाद और जातिवाद का निरंतर विरोध काशी-बनारस के जात्याभिमानी ब्राह्मणों के व्यवसाय और वर्चस्व के लिए चुनौती बन गया था । गुरुजी की प्रसिद्धि इतनी थी कि विरोधी सीधे उन्हें नुकसान नहीं पहुंचा सकते थे । अतः यह संभव है कि उनकी हत्या के लिए ब्राह्मणों ने रानी झाली को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया होगा । तत्कालीन परिवेश में रानी के लिए चमार जाति में जन्मे संत का गुरुत्व स्वीकार करना भी संदिग्ध है । यदि रानी भक्ति में अभिभूत भी होगी, तो उनके परिवार वाले गुरु रविदास को महल में लाने के लिए रानी को अनुमति नहीं देंगे । अतः रानी झारी द्वारा रविदास को महल में आमंत्रित करना ही उनकी हत्या के ब्राह्मणी षड्यंत्र का एक हिस्सा था और अंततः उनकी हत्या कर दी गयी ।
✍️ डॉ० विजय कुमार त्रिशरण
" महाकवि रविदास और चमत्कारिक जनश्रुतियाँ "
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